संदर्भ सीपीआई(एम) की बाईसवीं कांग्रेस :
—अरुण माहेश्वरी
भारत में वामपंथ के बारे में राजनीतिक चर्चा का पिछले कुछ सालों से हमारा एक अजीब सा अनुभव है। वामपंथ न सिर्फ मुख्यधारा के मीडिया से ही अदृश्य है, बल्कि सोशल मीडिया पर भी उसके बारे में कहीं कोई ज्यादा चर्चा करता दिखाई नहीं देता है । हम खुद लंबे काल से सोशल मीडिया के अलावा अखबारों में भी नियमित लिखते रहे हैं । भारत में वामपंथ हमारी चिंता का हमेशा से एक प्रमुख विषय रहा है, सिर्फ अकादमिक प्रकार की चिंताओं की वजह से नहीं, अपने जीवन और संस्कारों की वजह से भी । इसकी झलक हमारे साहित्यिक, राजनीतिक और सभी सामाजिक विषयों पर लेखन में मिल सकती है । अपनी पुस्तक 'सिरहाने ग्राम्शी' में वामपंथी राजनीति के प्रति एक चरम निराशा के क्षण में भी हमें गालिब साहब याद आये थे — 'फिर उसी बेवफा पे मरते हैं, फिर वही जिंदगी हमारी है ।'
लेकिन जो हमारी आत्मिक मजबूरी है, वह अन्यों की भी हो, जरूरी नहीं होता । राजनीति के किसी रूप के प्रति लोगों में कितनी दिलचस्पी है, और कितनी उदासीनता है, यह उस राजनीति के सामाजिक प्रभाव का एक मानदंड है । जो लोग भी राजनीति के विषयों में दिलचस्पी रखते हैं, और मीडिया के विभिन्न मंचों पर उन पर चर्चा करते हैं, उनका सिर्फ पंद्रह साल पहले भारत की केंद्रीय सरकार के संचालन में शामिल यूपीए के एक प्रमुख घटक के प्रति कोई आग्रह ही न रहे, तो यह उस राजनीति की दिशा और दशा के बारे में गंभीरता से सोचने की बात जरूर है । अखबारों में लेखन का हमारा अनुभव है कि वहां बैठे हमारे मित्र साफ शब्दों में कहते हैं कि देखिये, वामपंथ को लेकर पाठकों में कोई रुचि नहीं बची है । इसीलिये आप राजनीति के अन्य विषयों पर लिखें तो वह हमारे लिये ज्यादा उपयोगी होगा !
बहरहाल, अपने ढंग से हम सीपीएम की राजनीतिक परिदृश्य से बढ़ती हुई अदृश्यता पर भी एक अर्से से लिखते रहे हैं । 1996 से शुरू करके आज तक, हम इसे एक पूरी परिघटना में देख कर और भी ज्यादा चिंतित होते रहे हैं । इसी 20 फरवरी को हमने अपने ब्लाग 'चतुर्दिक' में एक टिप्पणी लिखी थी — 'यहां गुलाब यहीं नाचो' । कार्ल मार्क्स की ऐतिहासिक कृति 'लुई बोनापार्ट की अठारहवीं ब्रुमेर' के संदर्भ को उठाते हुए । उसमें फ्रांस की 1848-1852 के समय की परिस्थिति के विश्लेषण में मार्क्स फ्रांस के दूसरे राजनीतिक दलों के साथ ही 'सर्वहारा क्रांतिकारियों' की स्थिति का विश्लेषण करते हुए लिखते हैं —
“दूसरी ओर, उन्नीसवीं शताब्दी की क्रांतियों जैसी सर्वहारा क्रांतियां निरंतर अपनी आलोचना करती हैं, आगे बढ़ते-बढ़ते स्वयं ही बार-बार रुक जाती हैं, अब तक तै किये हुए रास्ते से फिर वापस लौट आती है ताकि अपनी यात्रा दोबारा शुरू करे, अपने प्रथम प्रयासों की अपर्याप्तताओं, कमजोरियों और तुच्छताओं की निर्मम अद्यत भर्त्सना करती हैं, शत्रु को मानो इस लिए पटकती हैं कि वह धरती से नवीन बल प्राप्त कर और अधिक विराट हो कर फिर उनके सामने आये ; स्वयं अपने लक्ष्यों के अस्पष्ट से विराट आकार से बारंबार झिझककर पीछे हट जाती हैं — तब तक, जब तक कि ऐसी परिस्थिति तैयार नहीं हो जाती जिसमें पीछे हटना बिल्कुल असंभव होता है और अवस्थाएं स्वयं पुकार कर कहती है :
Hic Rhodus, hic salta !
यहां गुलाब, नाचो यहां !”
इस संदर्भ में ही अंत में हमने भारत के वामपंथ के लिये लिखा था — “भारतीय वामपंथ को जो भी वास्तविक स्थिति उपलब्ध है, जो भी राजनीतिक परिदृश्य है, उससे अपने को किसी भी बहाने अलग हटाने के बजाय उसमें अपनी भूमिका और उपस्थिति को बनाये रखना चाहिए । उसे अपने कथित लक्ष्यों के 'अस्पष्ट और विराट आकार' से बारंबार झिझक कर पीछे हटने की दशा से निकलना चाहिए !” (देखे : https://chaturdik.blogspot.in/2018/02/blog-post_20.html)
जर्मन दर्शनशास्त्री मार्टिन हाइडेगर की सबसे प्रमुख किताब है — Being and time (प्राणीसत्ता और काल) । किसी भी प्राणी को, जीवित सत्ता को समय के संदर्भ के साथ देखने के तमाम ज्ञानमीमांसक और तत्वमीमांसक पक्षों पर विचार की हेगेल के बाद की यह एक सर्वकालिक महत्वपूर्ण दार्शनिक कृति है । इसकी विवेचना में एक सबसे प्रमुख पद आता है Dasein (प्राणी सत्ता का प्रत्यक्ष, being there) । हाइडेगर लिखते हैं कि “यदि हमें प्राणी-सत्ता के अर्थ की व्याख्या करना है, तो Dasein न सिर्फ वह प्राथमिक चीज है जिसकी जांच करनी होगी ; यह वह चीज भी है जो पहले से ही उसकी प्राणीसत्ता में, जिसके बारे में सवाल करते वक्त हम जानना चाहते हैं, समाहित है । लेकिन तब प्राणीसत्ता का सवाल प्राणीसत्ता की एक तात्विक प्रवृत्ति के उग्र रूप को सामने लाने के अलावा कुछ नहीं होता है जो उसके प्रत्यक्ष में ही निहित है — यह प्राणी सत्ता की पूर्व-तत्वमीमांसक समझ है।”
(If to Interpret the meaning of Being becomes our task, Dasein is not only the primary entity to be interrogated ; it is also that entity which already comports itself, in its Being, towards what we are asking about when we ask this question. But in that case the question of Being is nothing other than the radicalization of an essential tendency-of-Being which belongs to Dasein itsel — the pre-ontological understanding of Being. — Martin Heidegger, Being and Time, Harperperennial, Paperback, page – 35)
अर्थात, हमारे विवेचन का विषय जो दिखाई देता है, वही होता है, और उसमें भी एक हद तक विषय की कोई तात्विक प्रवृत्ति निहित होती है ।
हाइडेगर ने इस पुस्तक में यथार्थ क्या होता है और वह किसी भी प्राणी सत्ता के लिये उसके 'बाहर की दुनिया' (External world) के तौर पर कैसे एक समस्या है, की तरह के सवालों पर विचार करते हुए लिखते हैं कि यथार्थ का अस्तित्व जितना प्राणी की सत्ता से स्वतंत्र, स्वमेव है, वह उतना ही एक लोकोत्तर, विचार रूप में भी उसकी प्राणी सत्ता से जुड़ा हुआ है । हर प्राणी सत्ता का जो रूप लोकोत्तर, अर्थात अन्य के लिये विचार का विषय बन पाता है, उसी हद तक कोई उसे ग्रहण कर सकता है, समझ सकता है और उसके यथार्थ का हिस्सा बन सकता है । और, इसमें भी वही सूत्र लागू होता है — Dasein का, प्रत्यक्षता अर्थात दृश्य में मौजूदगी का । जो दृश्य में ही नहीं होगा, वह विचार के विषय में भी नहीं आ पायेगा । किसी भी चीज के बारे में सिर्फ ज्ञान तो उसे जानने की एक आधारशिला है, वह हमारे यथार्थ का हिस्सा बने इसके लिये जरूरी है कि वह इस दुनिया के दायरे में मौजूद चीजों में शामिल हो । (देखे, हाइडेगर, पूर्वोक्त, पृष्ठ – 246)
इसीलिये मार्क्स फ्रांस की सर्वहारा क्रांति के बारे में 'नाचो यही, यही गुलाब' की बात कहते हैं । किसी भी कारण से, अपने लक्ष्यों के 'अस्पष्ट और विराट आकार' से दुविधा में फंस कर अलग रहने का कोई तुक नहीं है !
दो दिन पहले (16 अप्रैल 2018) हमने फेसबुक पर एक पोस्ट लगाई थी —
“सीपीआई(एम) की कार्यनीतिक लाइन मूर्खतापूर्ण (absurd) है । - प्रो. इरफान हबीब
“इरफान साहब की इस बात से हम सौ फीसदी सहमत है ।”
सीपीआई(एम) के मसलों पर लोगों में जितनी दिलचस्पी या उत्साह बचे हुए हैं, उसी अनुपात में इसपर ज्यादा नहीं, थोड़ी सी, प्रतिक्रियाएं आई जिनमें वे लोग भी शामिल थे जो हर क्षण अपनी निष्ठा का परिचय देने के लिये ज्यादा आतुर रहते हैं । लेकिन, उनके लिये नहीं, अपनी समझ को ही निरूपित करने के उद्देश्य से हमने उनकी कुछ निर्रथक सी बातों का भी जवाब दिया । हमारा इशारा सिर्फ राजनीति के जगत से वामपंथ की बढ़ती हुई अदृश्यता की ओर था । हमने एक साधारण सा सवाल किया कि “आज की इतनी तेज़ी से बदलती परिस्थिति में वह (सीपीएम) बढ़ नहीं, अदृश्य हो रही है । क्या कार्यनीतिक लाईन की यही सफलता है ?”
हमारा कहना था कि आज की समग्र राजनीतिक परिस्थिति के भी “मूल में वामपंथ की विफलता है और इस विफलता के मूल में सीपीएम के बहुमतवादियों की कूढ़मगजी है, जिन्होंने वामपंथ को विकल्प के रास्ते के रूप में उभरने ही नहीं दिया और वे आज भी सांप्रदायिक फासीवाद से लड़ाई से उसे विरत रख रहे हैं ।”
इसी सिलसिले में एक जगह हमने विषय को और साफ करते हुए लिखा कि “वामपंथ की कई धाराएं हैं, सीपीएम, सीपीआई के अलावा भी । लेकिन हम जैसों की यह निजी सीमा भी हो सकती है और हमारे समय के समग्र राजनीतिक परिदृश्य का सच भी कि हम माओवादी, नक्सलवादी और यहां तक कि सीपीआई(एम-एल) के बारे में भी विचार नहीं कर पाते हैं । और इसीलिये वे हमारे लिये राजनीतिक यथार्थ का विषय नहीं बन पाते हैं ।
“आज के सीपीएम के नेतृत्व को लेकर हमारी यही चिंता है कि वे भी सीपीएम की तरह की एक महत्वपूर्ण वामपंथी पार्टी को बदलते हुए राजनीतिक परिदृश्य से पूरी तरह बाहर करके उसे आम लोगों के राजनीतिक सोच से बाहर कर दे रहे हैं । इस प्रकार पार्टी को जनता के यथार्थ-बोध से अलग कर दिया जा रहा है । बीच-बीच में एकाध प्रदर्शन, जुलूस और आंदोलन से वह कौतुक का विषय तो बन जाती है, लेकिन जनता के समग्र राजनीतिक यथार्थ-बोध में शामिल नहीं हो पाती है । इसे ही हम पार्टी को अदृश्य कर देने का दोष कहते हैं । लेकिन सीपीएम के बहुमतवादी इसे अपनी 'क्रांतिकारी विशिष्टता' मान कर क्रमश: एक प्रकार के आत्म-निर्वासन में जा रहे हैं । यह आत्मलीनता की प्रवृत्ति 1996 से ही, ज्योति बसु प्रकरण के बाद से ही, बार-बार प्रकाश करात कंपनी जाहिर करती रही है और क्रांतिकारिता की एक अजीब सी आत्म-मुग्धता में पार्टी को डुबो रहे हैं ।”
आज की स्थिति यह है कि सीपीएम की अभी चल रही बाईसवीं कांग्रेस में प्रकाश करात ने बहुमतवादियों का अपना आधिकारिक दस्तावेज पेश किया है और सीताराम येचुरी ने अल्पमतवादियों का । और एक लंबे काल से, जब से सीताराम येचुरी पार्टी के महासचिव बने हैं, प्रकाश करात कंपनी ने अपने बहुमत के प्रयोग से उन्हें पंगु बना रखा है और पार्टी में विचार-विनिमय की जगह अपने पुराने आजमाए हुए मतदान के जरिये निर्णय कराने की एक लंबी परिपाटी डाल दी है । साफ है कि पार्टी की इस कांग्रेस में भी यही होने जा रहा है ।”
इसीपर, हमने फेसबुक पर बहस के नाम पर कुछ खास प्रकार के आपत्तिजनक विशेषणों से हमें नवाज रहे मित्र को लिखा — “सोचिये आप । एक पार्टी जो राजनीतिक तौर पर लगातार अवनति की ओर है और उसमें नेतृत्व का शीर्ष ऐसा तैयार हो गया है जिसने हर छोटे-बड़े मसले पर मतदान के जरिये निर्णय लेने की एक लंबी परिपाटी डाल दी है ! पार्टी के जीवन के सबसे अहम सवालों पर मतदान के जरिये अन्य मत वाले को बार-बार पटखनी देने की परिपाटी । यह सिद्धांतों की लड़ाई है या पार्टी में बहुमत-अल्प-संख्यक का खेल ! इसीका दूसरा नाम होता है गुटबाजी ।
“इस बार भी यही होने की ज्यादा आशंका है ! सारी सैद्धांतिक लड़ाई धरी रह जायेगी और प्रतिनिधियों के संख्या-तत्व का सच आखिरी बात बोलेगा । हिसाब-किताब बैठा कर तैयार किया गया संख्या-तत्व !”
उन्होंने इसे पार्टी के अंदर का वंदनीय 'जनवाद' बताने की कोशिश की तो हमने लिखा कि “हम आपकी तरह इस छोटे से तंत्र के गुलाम नहीं है और उसे परम पवित्र नहीं मानते हैं । अगर वह सब इतना ही पवित्र और अनुलंघनीय होता तो दुनिया में कम्युनिस्ट पार्टियों का आज की तरह का हाल नहीं होता । किसी भी तंत्र की सचाई उसकी राजनीति से प्रमाणित होती है । इसीलिये मतदान का होना न होना कुछ भी प्रमाणित नहीं करता । सीपीएम का वर्तमान बहुमतवादी गुट इसकी अवनति के हर मोड़ पर नेतृत्वकारी रहा है । इसलिये पार्टी में जनतंत्र के नाम पर गुटबाज़ी का झंडा मत लहराइये ।”
अब देखना यह है कि आज मोदी के फासीवाद के खिलाफ उभर रहे देशव्यापी व्यापक संघर्ष में मौजूद रह कर सीपीआई(एम) इस राजनीतिक जगत में अपनी उपस्थिति को बनाते हुए आगे के विकास का रास्ता चुनती है या फिर 'अपनी ढपली अपना राग' की क्रांतिकारी आत्मलीनता में फंस कर जनता के यथार्थ बोध से पूरी तरह से विस्मृत हो जाने के सामूहिक आत्म-हनन का ।
—अरुण माहेश्वरी
भारत में वामपंथ के बारे में राजनीतिक चर्चा का पिछले कुछ सालों से हमारा एक अजीब सा अनुभव है। वामपंथ न सिर्फ मुख्यधारा के मीडिया से ही अदृश्य है, बल्कि सोशल मीडिया पर भी उसके बारे में कहीं कोई ज्यादा चर्चा करता दिखाई नहीं देता है । हम खुद लंबे काल से सोशल मीडिया के अलावा अखबारों में भी नियमित लिखते रहे हैं । भारत में वामपंथ हमारी चिंता का हमेशा से एक प्रमुख विषय रहा है, सिर्फ अकादमिक प्रकार की चिंताओं की वजह से नहीं, अपने जीवन और संस्कारों की वजह से भी । इसकी झलक हमारे साहित्यिक, राजनीतिक और सभी सामाजिक विषयों पर लेखन में मिल सकती है । अपनी पुस्तक 'सिरहाने ग्राम्शी' में वामपंथी राजनीति के प्रति एक चरम निराशा के क्षण में भी हमें गालिब साहब याद आये थे — 'फिर उसी बेवफा पे मरते हैं, फिर वही जिंदगी हमारी है ।'
लेकिन जो हमारी आत्मिक मजबूरी है, वह अन्यों की भी हो, जरूरी नहीं होता । राजनीति के किसी रूप के प्रति लोगों में कितनी दिलचस्पी है, और कितनी उदासीनता है, यह उस राजनीति के सामाजिक प्रभाव का एक मानदंड है । जो लोग भी राजनीति के विषयों में दिलचस्पी रखते हैं, और मीडिया के विभिन्न मंचों पर उन पर चर्चा करते हैं, उनका सिर्फ पंद्रह साल पहले भारत की केंद्रीय सरकार के संचालन में शामिल यूपीए के एक प्रमुख घटक के प्रति कोई आग्रह ही न रहे, तो यह उस राजनीति की दिशा और दशा के बारे में गंभीरता से सोचने की बात जरूर है । अखबारों में लेखन का हमारा अनुभव है कि वहां बैठे हमारे मित्र साफ शब्दों में कहते हैं कि देखिये, वामपंथ को लेकर पाठकों में कोई रुचि नहीं बची है । इसीलिये आप राजनीति के अन्य विषयों पर लिखें तो वह हमारे लिये ज्यादा उपयोगी होगा !
बहरहाल, अपने ढंग से हम सीपीएम की राजनीतिक परिदृश्य से बढ़ती हुई अदृश्यता पर भी एक अर्से से लिखते रहे हैं । 1996 से शुरू करके आज तक, हम इसे एक पूरी परिघटना में देख कर और भी ज्यादा चिंतित होते रहे हैं । इसी 20 फरवरी को हमने अपने ब्लाग 'चतुर्दिक' में एक टिप्पणी लिखी थी — 'यहां गुलाब यहीं नाचो' । कार्ल मार्क्स की ऐतिहासिक कृति 'लुई बोनापार्ट की अठारहवीं ब्रुमेर' के संदर्भ को उठाते हुए । उसमें फ्रांस की 1848-1852 के समय की परिस्थिति के विश्लेषण में मार्क्स फ्रांस के दूसरे राजनीतिक दलों के साथ ही 'सर्वहारा क्रांतिकारियों' की स्थिति का विश्लेषण करते हुए लिखते हैं —
“दूसरी ओर, उन्नीसवीं शताब्दी की क्रांतियों जैसी सर्वहारा क्रांतियां निरंतर अपनी आलोचना करती हैं, आगे बढ़ते-बढ़ते स्वयं ही बार-बार रुक जाती हैं, अब तक तै किये हुए रास्ते से फिर वापस लौट आती है ताकि अपनी यात्रा दोबारा शुरू करे, अपने प्रथम प्रयासों की अपर्याप्तताओं, कमजोरियों और तुच्छताओं की निर्मम अद्यत भर्त्सना करती हैं, शत्रु को मानो इस लिए पटकती हैं कि वह धरती से नवीन बल प्राप्त कर और अधिक विराट हो कर फिर उनके सामने आये ; स्वयं अपने लक्ष्यों के अस्पष्ट से विराट आकार से बारंबार झिझककर पीछे हट जाती हैं — तब तक, जब तक कि ऐसी परिस्थिति तैयार नहीं हो जाती जिसमें पीछे हटना बिल्कुल असंभव होता है और अवस्थाएं स्वयं पुकार कर कहती है :
Hic Rhodus, hic salta !
यहां गुलाब, नाचो यहां !”
इस संदर्भ में ही अंत में हमने भारत के वामपंथ के लिये लिखा था — “भारतीय वामपंथ को जो भी वास्तविक स्थिति उपलब्ध है, जो भी राजनीतिक परिदृश्य है, उससे अपने को किसी भी बहाने अलग हटाने के बजाय उसमें अपनी भूमिका और उपस्थिति को बनाये रखना चाहिए । उसे अपने कथित लक्ष्यों के 'अस्पष्ट और विराट आकार' से बारंबार झिझक कर पीछे हटने की दशा से निकलना चाहिए !” (देखे : https://chaturdik.blogspot.in/2018/02/blog-post_20.html)
जर्मन दर्शनशास्त्री मार्टिन हाइडेगर की सबसे प्रमुख किताब है — Being and time (प्राणीसत्ता और काल) । किसी भी प्राणी को, जीवित सत्ता को समय के संदर्भ के साथ देखने के तमाम ज्ञानमीमांसक और तत्वमीमांसक पक्षों पर विचार की हेगेल के बाद की यह एक सर्वकालिक महत्वपूर्ण दार्शनिक कृति है । इसकी विवेचना में एक सबसे प्रमुख पद आता है Dasein (प्राणी सत्ता का प्रत्यक्ष, being there) । हाइडेगर लिखते हैं कि “यदि हमें प्राणी-सत्ता के अर्थ की व्याख्या करना है, तो Dasein न सिर्फ वह प्राथमिक चीज है जिसकी जांच करनी होगी ; यह वह चीज भी है जो पहले से ही उसकी प्राणीसत्ता में, जिसके बारे में सवाल करते वक्त हम जानना चाहते हैं, समाहित है । लेकिन तब प्राणीसत्ता का सवाल प्राणीसत्ता की एक तात्विक प्रवृत्ति के उग्र रूप को सामने लाने के अलावा कुछ नहीं होता है जो उसके प्रत्यक्ष में ही निहित है — यह प्राणी सत्ता की पूर्व-तत्वमीमांसक समझ है।”
(If to Interpret the meaning of Being becomes our task, Dasein is not only the primary entity to be interrogated ; it is also that entity which already comports itself, in its Being, towards what we are asking about when we ask this question. But in that case the question of Being is nothing other than the radicalization of an essential tendency-of-Being which belongs to Dasein itsel — the pre-ontological understanding of Being. — Martin Heidegger, Being and Time, Harperperennial, Paperback, page – 35)
अर्थात, हमारे विवेचन का विषय जो दिखाई देता है, वही होता है, और उसमें भी एक हद तक विषय की कोई तात्विक प्रवृत्ति निहित होती है ।
हाइडेगर ने इस पुस्तक में यथार्थ क्या होता है और वह किसी भी प्राणी सत्ता के लिये उसके 'बाहर की दुनिया' (External world) के तौर पर कैसे एक समस्या है, की तरह के सवालों पर विचार करते हुए लिखते हैं कि यथार्थ का अस्तित्व जितना प्राणी की सत्ता से स्वतंत्र, स्वमेव है, वह उतना ही एक लोकोत्तर, विचार रूप में भी उसकी प्राणी सत्ता से जुड़ा हुआ है । हर प्राणी सत्ता का जो रूप लोकोत्तर, अर्थात अन्य के लिये विचार का विषय बन पाता है, उसी हद तक कोई उसे ग्रहण कर सकता है, समझ सकता है और उसके यथार्थ का हिस्सा बन सकता है । और, इसमें भी वही सूत्र लागू होता है — Dasein का, प्रत्यक्षता अर्थात दृश्य में मौजूदगी का । जो दृश्य में ही नहीं होगा, वह विचार के विषय में भी नहीं आ पायेगा । किसी भी चीज के बारे में सिर्फ ज्ञान तो उसे जानने की एक आधारशिला है, वह हमारे यथार्थ का हिस्सा बने इसके लिये जरूरी है कि वह इस दुनिया के दायरे में मौजूद चीजों में शामिल हो । (देखे, हाइडेगर, पूर्वोक्त, पृष्ठ – 246)
इसीलिये मार्क्स फ्रांस की सर्वहारा क्रांति के बारे में 'नाचो यही, यही गुलाब' की बात कहते हैं । किसी भी कारण से, अपने लक्ष्यों के 'अस्पष्ट और विराट आकार' से दुविधा में फंस कर अलग रहने का कोई तुक नहीं है !
दो दिन पहले (16 अप्रैल 2018) हमने फेसबुक पर एक पोस्ट लगाई थी —
“सीपीआई(एम) की कार्यनीतिक लाइन मूर्खतापूर्ण (absurd) है । - प्रो. इरफान हबीब
“इरफान साहब की इस बात से हम सौ फीसदी सहमत है ।”
सीपीआई(एम) के मसलों पर लोगों में जितनी दिलचस्पी या उत्साह बचे हुए हैं, उसी अनुपात में इसपर ज्यादा नहीं, थोड़ी सी, प्रतिक्रियाएं आई जिनमें वे लोग भी शामिल थे जो हर क्षण अपनी निष्ठा का परिचय देने के लिये ज्यादा आतुर रहते हैं । लेकिन, उनके लिये नहीं, अपनी समझ को ही निरूपित करने के उद्देश्य से हमने उनकी कुछ निर्रथक सी बातों का भी जवाब दिया । हमारा इशारा सिर्फ राजनीति के जगत से वामपंथ की बढ़ती हुई अदृश्यता की ओर था । हमने एक साधारण सा सवाल किया कि “आज की इतनी तेज़ी से बदलती परिस्थिति में वह (सीपीएम) बढ़ नहीं, अदृश्य हो रही है । क्या कार्यनीतिक लाईन की यही सफलता है ?”
हमारा कहना था कि आज की समग्र राजनीतिक परिस्थिति के भी “मूल में वामपंथ की विफलता है और इस विफलता के मूल में सीपीएम के बहुमतवादियों की कूढ़मगजी है, जिन्होंने वामपंथ को विकल्प के रास्ते के रूप में उभरने ही नहीं दिया और वे आज भी सांप्रदायिक फासीवाद से लड़ाई से उसे विरत रख रहे हैं ।”
इसी सिलसिले में एक जगह हमने विषय को और साफ करते हुए लिखा कि “वामपंथ की कई धाराएं हैं, सीपीएम, सीपीआई के अलावा भी । लेकिन हम जैसों की यह निजी सीमा भी हो सकती है और हमारे समय के समग्र राजनीतिक परिदृश्य का सच भी कि हम माओवादी, नक्सलवादी और यहां तक कि सीपीआई(एम-एल) के बारे में भी विचार नहीं कर पाते हैं । और इसीलिये वे हमारे लिये राजनीतिक यथार्थ का विषय नहीं बन पाते हैं ।
“आज के सीपीएम के नेतृत्व को लेकर हमारी यही चिंता है कि वे भी सीपीएम की तरह की एक महत्वपूर्ण वामपंथी पार्टी को बदलते हुए राजनीतिक परिदृश्य से पूरी तरह बाहर करके उसे आम लोगों के राजनीतिक सोच से बाहर कर दे रहे हैं । इस प्रकार पार्टी को जनता के यथार्थ-बोध से अलग कर दिया जा रहा है । बीच-बीच में एकाध प्रदर्शन, जुलूस और आंदोलन से वह कौतुक का विषय तो बन जाती है, लेकिन जनता के समग्र राजनीतिक यथार्थ-बोध में शामिल नहीं हो पाती है । इसे ही हम पार्टी को अदृश्य कर देने का दोष कहते हैं । लेकिन सीपीएम के बहुमतवादी इसे अपनी 'क्रांतिकारी विशिष्टता' मान कर क्रमश: एक प्रकार के आत्म-निर्वासन में जा रहे हैं । यह आत्मलीनता की प्रवृत्ति 1996 से ही, ज्योति बसु प्रकरण के बाद से ही, बार-बार प्रकाश करात कंपनी जाहिर करती रही है और क्रांतिकारिता की एक अजीब सी आत्म-मुग्धता में पार्टी को डुबो रहे हैं ।”
आज की स्थिति यह है कि सीपीएम की अभी चल रही बाईसवीं कांग्रेस में प्रकाश करात ने बहुमतवादियों का अपना आधिकारिक दस्तावेज पेश किया है और सीताराम येचुरी ने अल्पमतवादियों का । और एक लंबे काल से, जब से सीताराम येचुरी पार्टी के महासचिव बने हैं, प्रकाश करात कंपनी ने अपने बहुमत के प्रयोग से उन्हें पंगु बना रखा है और पार्टी में विचार-विनिमय की जगह अपने पुराने आजमाए हुए मतदान के जरिये निर्णय कराने की एक लंबी परिपाटी डाल दी है । साफ है कि पार्टी की इस कांग्रेस में भी यही होने जा रहा है ।”
इसीपर, हमने फेसबुक पर बहस के नाम पर कुछ खास प्रकार के आपत्तिजनक विशेषणों से हमें नवाज रहे मित्र को लिखा — “सोचिये आप । एक पार्टी जो राजनीतिक तौर पर लगातार अवनति की ओर है और उसमें नेतृत्व का शीर्ष ऐसा तैयार हो गया है जिसने हर छोटे-बड़े मसले पर मतदान के जरिये निर्णय लेने की एक लंबी परिपाटी डाल दी है ! पार्टी के जीवन के सबसे अहम सवालों पर मतदान के जरिये अन्य मत वाले को बार-बार पटखनी देने की परिपाटी । यह सिद्धांतों की लड़ाई है या पार्टी में बहुमत-अल्प-संख्यक का खेल ! इसीका दूसरा नाम होता है गुटबाजी ।
“इस बार भी यही होने की ज्यादा आशंका है ! सारी सैद्धांतिक लड़ाई धरी रह जायेगी और प्रतिनिधियों के संख्या-तत्व का सच आखिरी बात बोलेगा । हिसाब-किताब बैठा कर तैयार किया गया संख्या-तत्व !”
उन्होंने इसे पार्टी के अंदर का वंदनीय 'जनवाद' बताने की कोशिश की तो हमने लिखा कि “हम आपकी तरह इस छोटे से तंत्र के गुलाम नहीं है और उसे परम पवित्र नहीं मानते हैं । अगर वह सब इतना ही पवित्र और अनुलंघनीय होता तो दुनिया में कम्युनिस्ट पार्टियों का आज की तरह का हाल नहीं होता । किसी भी तंत्र की सचाई उसकी राजनीति से प्रमाणित होती है । इसीलिये मतदान का होना न होना कुछ भी प्रमाणित नहीं करता । सीपीएम का वर्तमान बहुमतवादी गुट इसकी अवनति के हर मोड़ पर नेतृत्वकारी रहा है । इसलिये पार्टी में जनतंत्र के नाम पर गुटबाज़ी का झंडा मत लहराइये ।”
अब देखना यह है कि आज मोदी के फासीवाद के खिलाफ उभर रहे देशव्यापी व्यापक संघर्ष में मौजूद रह कर सीपीआई(एम) इस राजनीतिक जगत में अपनी उपस्थिति को बनाते हुए आगे के विकास का रास्ता चुनती है या फिर 'अपनी ढपली अपना राग' की क्रांतिकारी आत्मलीनता में फंस कर जनता के यथार्थ बोध से पूरी तरह से विस्मृत हो जाने के सामूहिक आत्म-हनन का ।
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