शनिवार, 9 जून 2018

‘हिन्दी, हिंदू, हिंदुस्तान’

(आज के ‘राष्ट्रीय सहारा’ में प्रकाशित लेख)
—अरुण माहेश्वरी

'हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान' की पूरी परिकल्पना एक काल्पनिक और वैचारिक निर्मिति है । इसके मूल में है हिंदू फासीवाद की विचारधारा । इसका वस्तुनिष्ठ आधार सिर्फ इतना सा है कि भारत में हिंदू धर्म के मानने वालों का बहुमत है । अन्यथा आज के भारत की एक ठोस भौगोलिकता के बावजूद यहां के तमाम हिंदुओं की न आज और न कभी अतीत में एक भाषा, हिंदी रही है । इसके अलावा भारत के प्रत्येक प्रदेश के लोगों की अपनी एक खास सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक संरचना है, जिसमें समानता के तत्वों की मौजूदगी के बावजूद अगर कोई उसे हिंदी भाषी क्षेत्र के लोगों से पूरी तरह समान कहे तो वह सरासर गलत होगा । बल्कि ज्यादा सही यह होगा कि हर राज्य अपनी भिन्नता के कारण ही विशिष्ट है। इसी आधार पर संविधान में भारत को अनेक राष्ट्रीयताओं के एक संघ के रूप में ही वास्तव में परिकल्पित किया गया था।

महज विचार के लिये हम सिर्फ इतना कह सकते हैं कि 'हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान' की इस वैचारिक निर्मिति में कई ऐसे संघटक तत्व है जो भारत की एक व्यापक अस्मिता के संघटक तत्वों में से लिये गये हैं । चूंकि भारत में हिंदुओं का वास है और हिंदी भाषी लोगों में भी अन्य प्रदेशों की तरह ही बहुसंख्या हिंदू धर्मानुयायियों की हैं, इसीलिये कोई सिर्फ इन तत्वों को लेकर एक अलग प्रकार के ‘हिंदुस्थान’ की कल्पना कर सकता है । जैसे भारत में मुसलमानों की भी काफी बड़ी संख्या थी और आज भी है और इनमें से काफी लोग उर्दू बोलते-समझते रहे हैं — इसी के आधार पर अंग्रेजों की मदद से मुस्लिम लीग ने भारत का बंटवारा करा दिया और पाकिस्तान बन गया । 1947 में जो पाकिस्तान बना उसकी राष्ट्रीय भाषा उर्दू होने पर भी उसके किसी भी सूबे की भाषा उर्दू नहीं थी । पाकिस्तान की वह निर्मिति कितनी कृत्रिम और काल्पनिक थी इसे सामने आते देर नहीं लगी । इसके गठन के बाद की चौथाई सदी के अंदर ही बांग्ला भाषी पूर्व पाकिस्तान टूट कर अलग हो गया । इसके अलावा, पश्चिमी पाकिस्तान में भी आज तक कोई ऐसी वास्तविक सांस्कृतिक संहति कायम नहीं हो पाई है, जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि पाकिस्तान 'हिंदू, हिंदू, हिंदुस्थान' की तर्ज पर 'उर्दू, मुसलमान, पाकिस्तान' की किसी परिकल्पना को साकार या प्रमाणित कर रहा है। आज के पाकिस्तान में उर्दू महज एक प्रशासनिक भाषा की तरह काम कर रही है । इस तरह यह कुछ-कुछ भारत में अंग्रेजी की हैसियत को प्रतिबिंबित करती सी दिखाई देती है । पाकिस्तान के बड़े-बड़े उर्दू के शायरों ने कई बार अपने लेखन की आत्मा में भारत के वास की चर्चा की है ।

आज के भारत में हिंदी को भी पाकिस्तान में उर्दू की तरह की राष्ट्रीय एकता की संपर्क भाषा की तरह देखने की एक प्रवृत्ति के कारण उसे अन्य सभी गैर-हिंदीभाषी समाजों को शेष भारत से जोड़ने वाली एक बाहरी सार्वलौकिक सत्ता के रूप में देखा जाता रहा है । इसी के चलते भारत के संविधान में भी इसे राष्ट्रभाषा के रूप में विकसित करने का संकल्प शामिल है ।

लेकिन वास्तविकता यह है कि भारत में हिंदी को राष्ट्रीय भाषा बनाने का यह संकल्प आज तक पूरा नहीं हो पाया है, और इसकी सबसे बुनियादी वजह यही है कि भारत पाकिस्तान नहीं है । भारत में दूसरी सभी जातीय भाषाओं को हिंदी के समान ही राष्ट्रीय भाषाओं का दर्जा दिये जाने की वजह से पिछले सत्तर सालों में राष्ट्रीय एकता के दूसरे सबसे प्रमुख सूत्र, साझा आर्थिक हित के सूत्र को अपनी भूमिका निभाने का अवसर मिला और जीवन के ठोस धरातल पर, जिसे आप धर्म-निरपेक्ष धरातल भी कह सकते हैं, भारत की एकता और अखंडता बलवती होती चली गई । पिछली सदी में सत्तर के दशक तक अमेरिका सहित दुनिया के अनेक देश यूरोप की तर्ज पर भारत के बल्कनाइजेशन की योजनाओं पर काम कर रहे थे । उस जमाने में असम से उठे 'धरती पुत्रों' के नारे के साथ जुड़े हुए सीआईए के 'आपरेशन ब्रह्मपुत्र' को भूला नहीं जा सकता है जो भारत को अनेक टुकड़ों में बांट देने की अमेरिकी रणनीति के अलावा और कुछ नहीं था । लेकिन जब से 1977 में सत्ता को केंद्रीभूत करने की कोशिश बुरी तरह से परास्त हुई, क्रमशः भारत की सब प्रादेशिक शक्तियों की राष्ट्रीय राजनीति और राष्ट्रीय निर्माण की नीतियों के निर्धारण में ज्यादा से ज्यादा हिस्सेदारी देखी जाने लगी । प्रादेशिक शक्तियों की राष्ट्रीय भूमिका से भारत का संघीय ढांचा चरितार्थ हुआ है जिसने इस देश की एकता को आंतरिक तौर पर मजबूत किया है ।

किसी भी राष्ट्रीय राज्य की क्लासिकल परिभाषा में एक भाषा को उसका प्रमुख संघटक तत्व माने जाने के बावजूद, आज सबसे अधिक समझने की बात यह है कि दुनिया राष्ट्रीय राज्यों के निर्माण के स्तर पर नहीं रही है, वह उस समय को पार कर चुकी है । आज के विश्व में क्लासिकल अर्थ में राष्ट्रीय राज्य की परिकल्पना ही एक अवास्तविक परिकल्पना है । इस विश्व की विश्वात्मकता के तार सीधे तौर पर 'वसुधैव कुटुंबकम' के प्राचीन भारतीय उद्घोष से जुड़े हुए हैं जिसके विश्वभावैकभावात्म-स्वरूप में मानव स्वातंत्र्य का सूत्र ही मनुष्यता को जोड़ता है । द्वितीय विश्वयुद्ध के विश्व विजय के हिटलरी अभियान की परम विफलता के बाद अब किसी भी प्रकार के उत्पीड़नकारी दबाव से किसी राष्ट्र की एकता का कोई सूत्र हासिल नहीं किया जा सकता है ।

आजादी के बाद जब हमारे देश में भाषाई राज्यों का गठन किया गया था उसमें भारतीय राष्ट्र के निर्माण के एक मूल तत्व के रूप में स्वातंत्र्य के भाव को अपनाया गया था और इसीलिये जनतांत्रिक व्यवस्था की संगति में ही भारत की संघीय राज्य के रूप में परिकल्पना की गई थी । इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि भारतीय राज्य की अपनी विश्वात्मकता के मूलभूत संघटक तत्व है इसकी उप-राष्ट्रीयताएं जो इसमें प्रादेशिक अस्मिताओं के जरिये व्यक्त होती है । एक स्वतंत्र राष्ट्र में किसी भी उत्पीड़क या उत्पीड़ित राष्ट्रीयता के लिये कोई जगह नहीं हो सकती है । सब राष्ट्रीयताओं की समानता भारतीय राष्ट्र को परिभाषित करने वाला मूल तत्व है । इसमें न धर्म की स्थिति प्रमुख है, न जाति की और न ही किसी एक भाषा विशेष की । इन सबकी भूमिका बहुत सीमित, प्रांतीय उप-राष्ट्रीयताओं की भूमिका से आगे नहीं है । कहा जा सकता है कि भारत का शिव हमेशा की तरह ही स्वात्म को स्वातंत्र्य के रूप में ही प्रकाशित करता है । यही शिव तत्व अप्रमेय है, अन्य सभी संघटक तत्वों से ऊपर और सबमें व्याप्त है । इसके अंतराल के सभी उपराष्ट्रीय भुवनों का यह स्वातंत्र्य भाव ही अधिपति है ।

जब भी कोई भारतीय राष्ट्र के स्वतंत्र स्वरूप को विकृत करके उसे किसी एक धर्म या भाषा या क्षेत्र की अधीनता में परिकल्पित करता है, वह भारतीय राष्ट्र के विखंडनकारी की भूमिका अदा करता है । हिटलर के आदर्शों के, या राष्ट्रीय राज्य के दिनों के औपनिवेशिक विस्तारवाद से जुड़े राष्ट्रवाद के आदर्शों के पूजक ही 'हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान' का नारा दे सकते है ।

अंत में हम फिर दोहरायेंगे, यह पूरी परिकल्पना ही एक फासिस्ट और नाजी परिकल्पना है जिसने मनुष्यता को सिवाय तबाही और बर्बादी के कुछ नहीं दिया है ।

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