गुरुवार, 5 जुलाई 2018

बर्लिन यात्रा की डायरी के कुछ पन्नें

-अरुण माहेश्वरी

कल (22जून 2018) बर्लिन में उतर कर ही शहर की यात्रा शुरू की थी बर्लिन के जन्म से जुड़े प्रसिद्ध ब्रुंडेनबर्ग गेट से । चार सौ साल पहले परकोटे के शहर का यह विशालकाय मुख्य दरवाजा सम्राट की ताकत का और शहर की शांति और सुरक्षा का प्रतीक था । फिर इसी दरवाजे से नेपोलियन जर्मनी में घुस कर उस पर विजय प्राप्त करता है और यह दरवाजा विजय दरवाजा कहलाने लगा । नेपोलियन अपने रूस अभियान में पराजित हुआ और इसके साल भर बाद ही जर्मनी भी उसके हाथ से चला गया । 1813 में जर्मन साम्राज्य की स्थापना हुई । ब्रुंडेनबर्ग गेट जहां था, वहीं रह गया, लेकिन अब मुक्ति का दरवाजा कहलाने लगा । उसके सामने के विशाल चौक को एक नया नाम मिला - पैरिस स्क्वायर । कहते है, इस प्रकार जर्मनों ने बर्लिन में अपना एक पैरिस बना कर नेपोलियन और फ्रांसीसियों को चिढ़ाया था । जर्मनी की जनता ने राजशाही को खत्म किया, वाइमर रिपब्लिक की स्थापना की और जर्मनी की शानदार संसद बनी ब्रुंडेनबर्ग गेट के ठीक पीछे । राइखस्टाग (आज के शासन की पीठ) । इसी गणतंत्र के अंदर से 1933 में हैवान हिटलर के एक नये साम्राज्य का उदय हुआ जिसे उसने तीसरे साम्राज्य, ‘थर्ड राइख’ का नाम दिया ।  प्राचीन पवित्र रोमन साम्राज्य, नेपोलियन को परास्त करके बने जर्मन साम्राज्य के बाद यह तीसरा साम्राज्य - हिटलर का शैतानी साम्राज्य । हिटलर ने इसी ब्रुंडेनबर्ग गेट के पीछे वाइमर रिपब्लिक के वक्त की संसद में 1933 में साजिशाना ढंग से आग लगवा कर उसी के बहाने जर्मनी के अपने विरोधियों का कत्ले-आम किया था । इस प्रकार यह गेट फिर एक बार एक शैतानी शक्ति के हाथों जर्मनी की जनता की गुलामी का साक्षी बना । इसके बाद, इसी दरवाजे से 1945 में विजयी लाल सेना ने बर्लिन में प्रवेश किया । सर्वोपरि, 1989 में सोवियत संघ के राष्ट्रपति गोर्बाचेव और अमेरिकी राष्ट्रपति के बीच विश्वयुद्ध के बाद के सबसे बदनुमा दाग, बर्लिन की दीवार को खत्म करने और जर्मनी के एकीकरण के समझौते पर इसी गेट की पृष्ठभूमि में हस्ताक्षर का कार्यक्रम भी सम्पन्न हुआ था ।




युद्ध की कला, जिसे मैकियावेली ने अपनी कृति 'द प्रिंस' में राजनीति की प्रमुख चालिका शक्ति कहा था, उसी में उन्होंने लिखा था कि जब एक ही परिदृश्य को आप समतल से देखते हैं तो वह एक प्रकार का दिखाई देता है और जब उसे पहाड़ की ऊंचाई से देखा जाता है तो वह बिल्कुल भिन्न नजर आने लगता है । ब्रुंडेनबर्ग गेट वहीं खड़ा रहा, लेकिन उसे देखने का स्थान बदलता गया तो उसका अर्थ भी बदलता गया ।

इसीलिये  स्वाभाविक था कि खास तौर पर बर्लिन के इतिहास के आधुनिक काल के इतने सारे महा-परिवर्तनकारी अध्यायों के साक्षी बने ब्रुंडेनबर्ग गेट से ही हम बर्लिन में उतर कर शहर की खाक छाननी शुरू करते। 'खाक छानने' का मुहावरा इस शहर की साफ और चमकदार सड़कों को देख कर जरा अनुचित लगता है । लेकिन बेमतलब की टहलकदमी का कारण धूल में से भी कुछ खास टटोल लेना ही होता है । और हमने टटोल लिया 27 नोबेल पुरस्कार-प्राप्त विभूतियों के जन्म-स्थान और कार्ल मार्क्स, एंगेल्स के भी विश्वविद्यालय हम्बोल्ट विश्वविद्यालय को । आज भी इस विश्वविद्यालय में लगभग मुफ्त में शिक्षा दी जाती है । इसके बगल में ही था प्रोटेस्टेंट मार्टिन लूथर की कर्मभूमि पर बर्लिन का विशाल प्रसिद्ध कैथेड्रल ।







 
अभी हमने कैथेड्रल को पार ही किया था कि सामने भीड़ का रेला सड़क पार करते दिखाई दिया । हम उसमें घुस गये गये और अपने को कार्ल मार्क्स तथा इनके मित्र एंगेल्स की विशालकाय कांस्य प्रतिमाओं के सामने पाया । काफी देर तक हमने कुर्सी पर बैठे मार्क्स की गुरुगंभीर मुद्रा को निहारा और बगल में खड़े उनके अभिन्न मित्र के आश्वस्तकारी भावों को । क्या जीवंतता थी उन मूर्तियों में । आने-जाने वाले सब उनके साथ अपनी तस्वीरें खींच रहे थे और हम भी शायद अपने मूर्तिपूजक संस्कारों के साथ उनके ऐसे सान्निध्य से आप्लूत, फोटों खींचते रहे । 



इसी दिन सरला ने दो कविताएँ लिखी :

(1)

कुछ ऐसा लगा !

आज
जब बर्लिन के केंद्र में
जर्मनी की दो श्रेष्ठतम संतानों 
मित्रता की मिसाल 
मार्क्स और एंगेल्स की
विशालकाय मूर्ति के 
पद तले 
लगातार आते लोगों के
रेलों के बीच 
जब हम खड़े थे 
श्रद्धावनत
ऑंखें
कुछ ऐसे झुक गई 
सर इस प्रकार नीचे हो गया 
कि दूसरे ही क्षण लगा
जैसे
मैं नास्तिक नहीं हूँ 
और मार्क्स 
नश्वर नहीं है ।

सामने ही था उनका
बर्लिन का हम्बोल्ट विश्वविद्यालय 
न जाने और कितने 
महापंडितों के 
कर्त्तृत्व की भूमि 
जिसके गुरुओं को 
सिर नवाँ 
मार्क्स अपने मित्र के साथ 
सड़क पर उतर 
पूरे लोक में खड़े हैं 
एक प्रकाश पुंज 
वे लोकोत्तर हैं 
इतिहास के सर्वशक्तिमान
परिवर्तन के सत्य से 
स्फूरित हैं 
ज़िंदा आदमी की
हर धड़कन में ।

आज उनकी मूर्ति के 
पद तले 
नमन करते 
ऐसा ही लगा ।


और फिर मार्क्स-एंगेल्स फ़ोरम के बग़ल में ही एक रेस्त्रां में जब काफी पी रहे थे, उसी समय सरला के पास फुदक कर आ बैठी चिड़िया से अपने संपर्क के तारों को जोड़ते हुए दूसरी कविता लिखी :

मोरक्को की चिड़िया बर्लिन में !

सरला माहेश्वरी

अजीब ये संयोग था 
आज ही फेसबुक पर 
जमाउल फ़ना आया
आया उसकी धुनों 
और धुएँ का जादू 

मतलब मोरक्को आया 

और इधर 
बर्लिन के रेस्त्रॉं में 
मेरे हाथ से 
खाने 
मोरक्को की 
चिड़िया उतर आई ।

मोरक्को की चिड़िया !
जिसने परदेश में मुझे
सिखाया था घूमने का हुनर 
दिया था 
भाषा की बाधाओं को तोड़
फुदक कर 
किसी भी अनजान से 
दोस्ती करने का जिगर 
आज उड़कर 
देखो यहाँ
मिलने आ गई बर्लिन में  !

कैसे कहूँ कि यह
महज़ इत्तफ़ाक़ था !
वहां 
और भी लोग थे !
बच्चे भी 
पास में खा रहे थे !
लेकिन वो अकेली !
उसी तरह 
मेरी टेबिल पर आ गयी !
बिना डरे 
मेरी प्लेट के पास बैठ गयी 
जैसे कह रही हो...
तुमने पुकारा और हम चले आए !

मेरी हथेली ने उसके लिये 
खाने की प्लेट सजाई
बड़े मान से उसने चोंच भरी
उड़ गयी, फिर आई
फिर से चोंच भरी, फिर उड़ गयी
मैं देखती रही ! 

ओ मेरी मोरक्को की चिड़िया !
तुम बर्लिन में मिलने आगई !
पता नहीं 
कितने समंदर पार से !
मुझ सैलानी की 
अगवानी में !
तुम्हारे साथ
दावत कर 
आज सचमुच 
धन्य हूँ ।
बहुत शुक्रिया ! 
शुक्रिया दोस्त !
तुम्हारी लंबी उम्र की 
ख़ैर मनाती हूँ !
चिड़ियाओं को बख़्शो 
इसके लिये 
आदमी के पैर पड़ती हूँ ।
ओ ! 
मोरक्को से बर्लिन आई 
मेरी हमसफ़र 
चिड़िया !


इस प्रकार, शहर की हमारी यात्रा का पहला दिन, संग्रहालयों से भरे उस क्षेत्र के एक से एक अपूर्व संग्रहालय में ताकते-झांकते बीत गया और हल्की फुहार से ठंडे मौसम के लुत्फ़ में कैसे बीता, पता हीनहीं चला । जर्मनी के इतिहास का संग्रहालय देखा जिसमें मुक्ति की उड़ान की मूर्ति के अलावा बिस्मार्क और लेनिन की विशाल मूर्तियां भी देखी । वही क्षेत्र नाटकों और संगीत के संस्थानों का क्षेत्र भी था । बर्लिन का ऐतिहासिक पौट्सडैम प्लाज भी ज्यादा दूर नहीं था । जब तक पैर पूरी तरह जवाब न दें, भटकते रहे । एयर पोर्ट से होटल में जाते वक्त ही ड्राइवर ने कहा था कि इस शहर का मौसम कुछ इतना खुशगवार  है कि जितनी मर्जी पैदल चलिये, थकान महसूस नहीं होगी । 



बहरहराल, दूसरे दिन (23 जून को) हम बर्लिन की दिवार के अवशेषों के स्मारक के लिये रवाना हुए । पहले दिन जब हम बर्लिन के इतिहास के सुनहरे पृष्ठों को पढ़ रहे थे, तब भी मुख्य सड़क के बीच से जगह-जगह दो ईंटों की लकीर खिंची हुई दिखाई देती थी । इस दीवार ने बर्लिन शहर की 55 सड़कों को दो भागों में बांट दिया था । ब्रुंडेनबर्ग गेट के सामने की सड़क के ठीक बीच से यह दीवार निकली थी, जिसकी जमीन पर पड़ी हुई ईंटों के एक ओर पूर्व जर्मनी था और दूसरी ओर पश्चिम जर्मनी । वे बताती थी कि पूरा शहर विश्व युद्ध के अंत के पंद्रह साल बाद 1961 में बनी इस दीवार की दहकती सलाखों से दाग दिया गया था । लेकिन बर्लिन की दीवार में 1989 के बाद दीवार के नाम पर अब जो बचा हुआ है, वह बंटवारे की नहीं, आतंक और गुलामी का प्रतीक नहीं है । बर्लिन शहर में दो स्थानों पर इसे प्रदर्शनी के रूप में सुरक्षित रखा गया है । इसमें एक जगह, लगभग 1400 मीटर लंबी इस दीवार पर जर्मनी के बड़े-बड़े कलाकारों नें अपनी कलाकृतियां आंक रखी है और दूसरे, बमुश्किल तीस मीटर के एक अंश के सामने शैतान हिटलर की करतूतों की चित्र प्रदर्शनी है । इस प्रकार, बर्लिन की दीवार के अभी के संरक्षित अंश मुक्ति, आजादी, एकीकरण और भाईचारे के प्रतीक है । एक जगह इसे इतिहास की एक बड़ी चेतावनी के रूप में रखा गया है कि कैसे तानाशाहियां जनतांत्रिक रास्ते से आकर ही जनता के जीवन पर कहर बरपा किया करती है । 

बर्लिन  दीवार के सामने की चित्र प्रदर्शनी से फे बुक पर एक पोस्ट लगाई :



हिटलर के लोग घर-घर जाकर हिटलर की आत्म-कथा और जर्मन नस्ल की श्रेष्ठता का झूठा बखान करने वाले नाजी साहित्य को बांटा करते थे । हूबहू उसी की नकल करते हुए अमित शाह ने लोगों के घरों में जाकर संघ के झूठ पर टिके हिंदुत्व की श्रेष्ठता के साहित्य के वितरण का अभियान शुरू कराया है । कहना न होगा, मोदी-शाह का हर कदम हिटलर और नाजियों की कार्यनीति की नकल के सिवाय और कुछ नहीं होता है । यह तस्वीर बर्लिन वाल के सामने लगी हिटलर के आतंक की चित्र प्रदर्शनी से ली गई है ।

और लिखा :

घर-घर-घर घूम कर नाजी प्रचार की किताबें बंटवाने वाले हिटलर और गोयेबल्स ने जर्मनी के वास्तविक महान साहित्य की किताबों की सरे- बाजार होली जलाई थी । उन्होंने नाजी प्रचार के अलावा बाकी सारी किताबों को गैर-जर्मन गंदा साहित्य कहा था जैसे आरएसएस के लोग अपने अलावा बाकी हर आदमी को हिंदू-विरोधी और जघन्य बताते हैं ।




एक और पोस्टलगाई :

बर्लिन की दीवार के सामने शैतान हिटलर के आतंक राज की कहानी की चित्र प्रदर्शनी में एक चित्र यह भी था । तत्कालीन राष्ट्रपति हिंडनबर्ग से मुलाकात के वक्त विनम्रता की भावमूर्ति दिखाई देते हिटलर का चित्र। हिंडनबर्ग को धोखा दे कर हिटलर ने जब जर्मनी पर अपना एकक्षत्र राज कायम किया, उसके बाद हिंडनबर्ग को विदा करते समय का यह चित्र । इसे देख हमारे दिमाग में प्रणब मुखर्जी के स्वागत में पलक पावड़े बिछाये हुए आरएसएस के नेताओं की विनम्रता के मिथ्याचार का चित्र कौंध गया ।



ध्यान रहे कि आज के जर्मनी में हिटलर की किसी भी रूप में प्रशंसा करना कानूनी तौर पर प्रतिबंधित है । समुदायों के बीच नफरत की बातें कानूनन अपराध है, जिसे हमारे सभ्य समाज के भी बहुत सारे लोग नहीं जानते । हिटलर के नाम पर काम करने वाले यहां के नव-फासीवादी समूह आतंकवादी माने जाते हैं, उनके सारे संगठन और उनकी गतिविधियां द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से ही गैर-कानूनी हैं । 

लगभग 155 किलोमीटर लंबी एक मजबूत दीवार को बर्लिन के लाखों लोगों ने बिना सरकारी मदद के हथौड़ों और फावड़ों से गिरा दिया था । एक जगह इसके मामूली अंश को चेतावनी के स्मारक के रूप में सुरक्षित रखने के लिये उसे अलग से फेंसिंग के जरिये घेर दिया गया है । 
बर्लिन की दीवार के इतिहास पर हम बाद में अलग से लिखेंगे । लेकिन इतिहास का सबसे बड़ा तथ्य यह है कि जर्मनी के भविष्य के बारे में जब युद्ध के अंत के बाद पौट्सडैम में सोवियत संघ, ब्रिटेन और फ्रांस की बैठक हुई थी जिसमें खुद स्तालिन मौजूद थे, जो बर्लिन पर मित्र शक्तियों की जीत के असली दावेदार थे, उन्होंने ही पूर्वी जर्मनी के मध्य में पश्चिम जर्मनी के अस्तित्व को स्वीकारा था । लेकिन बाद में अमेरिका और ब्रिटेन ने इसी जगह का इस्तेमाल अपनी सैनिक सरगर्मियों और सोवियत संघ के सहयोगी पूर्वी जर्मनी के खिलाफ करना शुरू कर दिया । और परिणाम हुआ 1961 में बनी यह बर्लिन की अस्वाभाविक दीवार । स्वतंत्रता-कामी मनुष्य के इतिहास की मांग थी कि इस दीवार को नहीं रहना चाहिए और परिवर्तन के एक खास क्षण में साधारण लोगों ने ही इस दीवार को ढहा दिया । यह मानव सभ्यता के इतिहास की जीत थी । 


बहरहाल, बर्लिन की दीवार की ईंट, चूना, सुर्खी आज इस स्मारक-प्रेमी शहर की बेशकीमती विरासत का रूप ले चुकी है । लोगों ने तो इसके टुकड़ों को अपने घरों में सजाया ही हैं, शहर की दुकानों पर इन्हें विभिन्न आकार के स्मारकों के रूप में व्यापार की चीज बना कर बेचा जा रहा है । जाहिर है, आदमी की ऐसी लालच से भरी नजरें जिस चीज पर पड़ जाए, उसे सार्वजनिक जीवन में बचाना कितना मुश्किल हो जाता है । बर्लिन की दीवार के इस अंश को भी फेंसिंग से उसी प्रकार आदमी की जद से बाहर कर दिया गया है, जैसे कभी शत्रुओं को शहर में घुसने से रोकने के लिये शहर के चारों ओर दीवारें बनाई जाती थी और मित्रों के आने के लिये ब्रुंडेनबर्ग गेट बनते थे । 

दोनों बर्लिन की सीमा पर चौकसी के लिये सैकड़ों चेकपोस्ट थे जिन पर मित्र शक्तियों की संयुक्त निगरानी रहती थी । इनमें से ही एक चेकपोस्ट था चार्ली चेकपोस्ट, जिसकी स्मृतियों को आज भी सहेज कर रखा गया है । इस चेकपोस्ट पर अभी भी सोवियत संघ, अमेरिका, ग्रेट ब्रिटेन और कुछ मित्र शक्तियों के झंडें साथ-साथ फहरा रहे हैं । लेकिन अब यह चेक पोस्ट बर्लिन की सीमाओं पर निगरानी के किसी प्रहसन का रूप लिये हुए हैं, जहां और सब है, लेकिन जर्मनी के बंटवारे का दर्द पूरी तरह से गायब है । भारत में तो हमने बाघा बार्डर के चेकपोस्ट से भारत और पाकिस्तान, दोनों को जैसे किसी सनातन युद्ध के खांचे में जकड़ दिया हैं, वहीं जर्मनी ने अपने को उस पीड़ादायी अतीत से पूरी तरह आजाद कर लिया है । चार्ली चेकपोस्ट पर हमें कुछ ऐसा ही महसूस हुआ । 

यद्यपि हमने यह देखा कि टूर गाइड तथा और भी लोग, पश्चिम जर्मनी और पूर्व जर्मनी के बीच आर्थिक असमानताओं की कहानी को काफी बढ़ा-चढ़ा कर बताते हैं । उनके जेहन में यह नहीं आता कि मनुष्यता का भविष्य बंटवारे में नहीं है । जर्मनी का एकीकरण तभी संभव हुआ, जब सोवियत संघ के समाजवाद ने शीतयुद्ध को पूरी तरह से अनावश्यक मान लिया । आज यहां जो लोग पूर्वी जर्मनी के पुनर्निर्माण के नाम पर सरकार के द्वारा लिये जाने वाले करों पर शिकायत करते हैं, वे यह सोच पाने में असमर्थ हैं कि इस प्रकार के सहयोग से वे अपना और अपनी संततियों का हित ही साध रहे हैं, किसी पर कोई अहसान नहीं कर रहे । जर्मनी को एक समृद्ध और शांति के देश के रूप में तैयार कर रहे हैं । और यही, स्वतंत्रकामी मनुष्य के विकास की एकमात्र सही दिशा भी है । 

अभी तक हमने बर्लिन को जितना देखा, पूरब और पश्चिम का कोई भेद दिखाई नहीं दिया । हां, गाइड की तरह के लोगों की जुबान में जरूर यह विभेद किसी न किसी रूप में व्यक्त हो रहा था । लेकिन एक बात सब मान रहे थे कि जिस प्रकार वे हिटलर की स्मृतियों से अपने को पूरी तरह मुक्त कर लेना चाहते हैं, उसी प्रकार पूर्वी जर्मनी (जीडीआर) की स्मृतियों से मुक्ति नहीं चाहते, उन्हें अपने इतिहास का अभिन्न अंग मानते हैं । और सचमुच, मन की गहराइयों में वे जानते हैं कि अगर पूर्वी जर्मनी नहीं होता तो मानवाधिकारों, सामाजिक सुरक्षाओं और न्यूनतम आर्थिक विषमताओं का उनका आज का प्यारा देश भी नहीं होता । समाजवाद ने ही उन्हें सामाजिक समानता का पाठ पढ़ाया था । 

जो भी हो, हमने दो दिन में आजाद पंछी की तरह बर्लिन शहर के कोने-कोने को देखने की कोशिश की, एबे नदी पर जहाज के जरिये भी शहर को देखा, खोजते-खोजते बर्लिन के श्रेष्ठतम कलाकारों और वास्तुकारों के वाइमर रिपब्लिक के काल के संगठन उस बाउ हाउस के संग्रहालय तक भी पहुंच गये जहां से उठी अभिव्यंजनावाद आदि से जुड़ी बहसों ने एक समय सारी दुनिया के कला जगत को अपने में बांध लिया था । हिटलर ने कलाकारों के इस कुलीन संगठन के सदस्यों को अपमानित कर देश से भाग जाने के लिये मजबूर करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी । कुछ तो चले भी गये और कुछ हिटलर से उम्मीद की आस में वहीं किसी कोने में दुबके रहे । आज उस संगठन का एक अनमोल संग्रहालय बचा हुआ है । लेकिन हमारा दुर्भाग्य कि वहां पहुंच कर पता चली कि अभी संग्रहालय बंद है ।अगले साल इसके सौ साल पूरे होंगे । उसे मनाने के लिये इसे नये रूप में सजाया जा रहा है । 
इतनी जगहों पर जाकर भी हम बहुत बहुत सारी जगहों तक नहीं पहुंच सके । उनमें बर्लिन विश्वविद्यालय का वह अंश भी था जहां हेगेल दर्शनशास्त्र के विषय पर विचार रखा करते थे । हम इसके बाद भी बर्लिन में और दो दिनों तक रुके, लेकिन शुरू के दो दिनों के बाद ही हम आजाद नहीं रहे, टूर कंपनी के आदेशों पर हिलने-डुलने वाले पुतले बन गये । जाहिर है कि फिर कहां हेगेल, मार्क्स, एंगेल्स या कोई अन्य । फिर तो हमारे लिये राजा रानी के किस्से, उनके महलों की रौनक की कहानियां रह गई थी । आम जीवन छूट जाना था, अतीत के थोथे किस्सों में खो जाना था । किसी टूर कंपनी के प्रायोजित कार्यक्रम 
में यह हमारी पहली यात्रा थी । आगे हमें सिर्फ थकना था और टूर गाइड के भाषणों को सुनते हुए श्रुति परंपरा के अनुयायियों की तरह चलना था । 
बहरहाल, बर्लिन में हमारी गाइड ताल इतिहास की एक गंभीर विद्यार्थी थी । उसने कैरियर शुरू किया था वित्तीय प्रबंधन से, लेकिन अंत में उसकी रुचि का विषय मिला इतिहास । चूंकि वह सिर्फ भोंपू नहीं थी, इसीलिये कुछ सोचने समझने वाली थी । यहूदी थी, माता-पिता इसराइल जाने पर मजबूर हुए थे कुछ इसलिये भी, और कुछ एक नागरिक की स्वतंत्र चेतना की हिमायती होने के नाते न सिर्फ हिटलर के जुल्मों की गहराइयों को समझ रही थी, बल्कि नागरिक के स्वतंत्रता के अधिकारों की अहमियत को जानती थी । इसीलिये बर्लिन में उसने उन स्मारकों से  भी अच्छी तरह से परिचित कराया जो हिटलर के शिकार बने गैर-यहूदी थे । ताल ने याद दिलाने पर जर्मन बुद्धिजीवी मार्तिन निमोलर के कथन की इन काव्यात्मक पंक्तियों को भी दोहराया जहां उन्होंने कहा था - 

“First they came for the Socialists, and I did not speak out—
Because I was not a Socialist.
Then they came for the Trade Unionists, and I did not speak out—
Because I was not a Trade Unionist.
Then they came for the Jews, and I did not speak out—
Because I was not a Jew.
Then they came for me—and there was no one left to speak for me.”


हालांकि ताल ने भी इन पंक्तियों को दोहराते वक्त वही भूल की जो आम तौर पर हमारे यहां भी लोग करते हैं । मार्तिन नीमोलर के कथन के बजाय उसने इन्हें बर्तोल्त ब्रेख्त की कविता कहा । मार्तिन निमोलर का जिक्र आया तो इनके बारे में कुछ अलग से चर्चा करना लाजिमी होगा । जर्मनी के प्रोटेस्टेंट चर्च के वे एक ऐसे धर्म गुरु थे हस्ती जिन्होंने वाइमर गणतंत्र के काल में हिटलर के उदय का समर्थन किया था । इनके अंदर भी यहूदी-विरोधी भावना भरी हुई थी । लेकिन हिटलर के सत्ता पर आने के बाद जब उसने प्रोटेस्टेंट चर्चों के नाजीकरण का अभियान शुरू किया, निमोलर की आंखें खुलने लगी । उन्होंने इसका कड़ा विरोध किया और इसी अपराध में नीमोलर को लगभग आठ साल तक, 1937-1945 तक जेल में बिना अपराध के ही रख दिया गया । उस समय जर्मनी छोड़ कर अमेरिका चले गये थामस मान ने नीमोलर के बारे में लिखा था । कैद में उनके एक साथी लिओ स्टीन ने अमेरिका से उनसे यह सवाल किया था कि आखिर उन्होंने हिटलर का समर्थन क्यों किया ? इस सवाल के जवाब में नीमेलर ने लिखा : 

“मुझे खुद इस पर अचरज होता है । मैं इस पर जितना अचरज करता हूं, उतना ही दुखी भी हूँ । फिर भी सच यह है कि हिटलर ने मेरे साथ धोखा किया ।हिटलर के चांसलर बनने के पहले 1932 में प्रोटेस्टेंट चर्च के एक प्रतिनिधि के रूप में मेरी उससे एक बार बात हुई थी । हिटलर ने मुझसे चर्च को सुरक्षा देने का वादा किया था और कहा था कि वह कोई चर्च-विरोधी कानून नहीं बनायेगा । उसने यह कहा था कि “यहूदियों के खिलाफ पाबंदियां लगेगी, लेकिन जर्मनी में उन्हें कुछ बस्तियों में बंदी बना कर नहीं रखा जायेगा और न ही उनका जन-संहार होगा ।” इस प्रकार मुझे आश्वस्त किया था कि उनका जन-संहार नहीं होगा । 

उस समय जर्मनी के यहूदी-विरोधी माहौल में मैं सचमुच यह मानता था कि यहूदियों को किसी बड़े पद पर या पार्लियामेंट में जाने के बारे में नहीं सोचना चाहिए । खास तौर पर जियोनपंथियों में भी बहुत से यहूदी भी यही सोचते थे । उस समय हिटलर के वादे ने मुझे संतुष्ट किया था । दूसरी ओर मैं सोशल डैमोक्रैट और कम्युनिस्ट नास्तिकता को बढ़ावा दे रहे थे, जिससे मुझे नफरत थी । चर्च के प्रति उनके शत्रुता के भाव के कारण एक समय के लिये मैंने हिटलर से उम्मीद बांध ली थी । अब मैं अपनी उसी भूल की कीमत चुका रहा हूं ; सिर्फ मां नहीं, मेरे जैसे हजारों और लोग इसी प्रकार की भूल की कीमत अदा कर रहे हैं । “

कहना न होगा, नीमोलर की उपरोक्त काव्यात्मक पंक्तियां उनकी इसी भावना की अभिव्यक्ति है । 
बर्लिन में हमारी गाइड ताल ने राइखस्टाग के अहाते में बनाये गये एक अनोखे स्मारक में इन पंक्तियों का जिक्र किया था जहां पानी के एक वृत्त के बीचो-बीच त्रिभुज आकार का एक सपाट पत्थर रखा हुआ था और चारों ओर की झाड़ियों के घेरे के अंदर से गहरी उदासी के भाव से भरी वायलिन की बहुत ही हल्की सी धुन सुनाई दे रही थी जिसे सुनने के लिये एकदम नि:शब्दता जरूरी थी । पानी में रखा गया त्रिभुज उस चिन्ह का प्रतीक था जिसे गैर-यहूदी कैदियों को यातना शिविरों पर भेजने के पहले उनके शरीर पर दाग दिया जाता था । 

26 जून को हम ‘थॉमस कुक’ के टूर मैनेजर रवीन्द्र के नेतृत्व बर्लिन से ड्रेसडेन के लिये रवाना हुए, वहाँ के जर्मन साम्राज्य के काल के राजमहल की भव्यता को देखने । बीकानेर के राजवंश ने लगातार साढ़े पाँच सौ साल शासन किया जिसके इतिहास का अब हमारे लियेकोई मोल नहीं रह गया है तो जर्मन साम्राज्य या पवित्र रोमन साम्राज्यों के काल का भी इतिहास में कोई मूल्य नहीं है । सम्राटों ने आज के इतिहास में तभी कोई स्थान पाया है जब उन्होंने अपने अधिकारों और शानों-शौकत को छोड़ कर जनता को बल पहुँचा है । इंग्लैंड में तेरहवीं सदी के मैग्ना कार्टा लिबरेटम (1215) को फ्रांसीसी सम्राट नेपोलियन बोनापार्ट ने राजसत्ता का मर्म स्थापित करके राजशाही में जनतंत्र के दूत की भूमिका अदा की, अन्यथा बाइजैंटाइन, ओटोमन, पवित्र रोमन साम्राज्यों के अलावा जर्मन साम्राज्य और न जाने कितने छोटे-मोटे, भारत की तरह के राजाओं-सम्राटों के इतिहास के स्मारकों में इसके अलावा जानने को कुछ नहीं है कि राजशाही एक ख़ास प्रकार की शासन प्रणाली थी जिसमें राजा के की सनक ही सर्वोपरि थी, बाकी सब गौण था । इसी प्रकार धार्मिक मंदिर, मस्जिद, गिरजाघरों में कर्मकांड ही प्रमुख होते हैं । सुक्ष्म ज्ञान- चर्चाओं का, कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट के बीच की बहसों का गिरजाघरों की भव्यताओं से कोई संबंध नहीं है । इसीलिये ड्रेसडेन हो या चेकोस्लोवाकिया में प्राहा, यहाँ के राजमहलों की इमारतों को विस्तारित लेकिन संज्ञा-शून्य नज़रों से हमने सिर्फ देखा, जाना कुछ नहीं । हाँ, प्राहा में टूर गाइड की बातों सें एक ईसाई शुद्धता वाली यूरोपीय ‘भक्त’ का दर्शन जरूर हुआ । सरला ने उसी दिन उत्तेजना में उस पर एक कविता लिखी : 

यह कैसा गाइड मिला !

प्राहा
प्रखर और 
आत्म-स्वतंत्र 
मिलान कुंदेरा का शहर 
जहां की साफ 
चमकती
गुनगुनी धूप 
और दूब से भरे 
अहातों में कभी हमारे 
निर्मल वर्मा ने 
अपनी जवानी के दिनों की
आजादी को सेक
अपनी लेखनी के 
रहस्य को बुना था 
वहीं आज हमें 
एक गाइड मिली । 
टूर गाइड ।
कंपनी का झंडा उठाए
अपने पीछे 
सैलानियों को टेरने वाली
लीडर लाइक 
टूर गाइड ! 

गोरी, लंबी
काया से सुंदर
पर
जैसे ही उसने कमान संभाली 
और सैलानी भेड़ों को 
भाषण पिलाना शुरू किया 
उसकी आत्मा ने 
सैलानियों को छोड़
भुजाएं फड़काते 
राजनीतिक नेताओं की 
काया में प्रवेश कर लिया ।
तब वह आदमी नहीं रही
स्वात्म-स्वतंत्र आदमी,
बल्कि 
जहर से बुझी
एक नस्ली सिपाही 
बन गई । 
धर्म-ध्वजधारी !
‘अन्यों’ के प्रति 
घृणा की 
उग्र प्रचारक
और कुंदेरा के देश को
बीयर पीते 
हल्के फुल्के आदमी को 
कुंदेरा के 
लाइटनेस आफ बींग को
उसने सिर्फ एक 
सबसे शुद्ध 
और पवित्र 
नफरत से भारी
ईसाइयों का देश बना डाला ।
यहां की सफेद धूप की चमक को 
बारूद की गंध से
मैला कर डाला ।
चेक वासियों के 
उद्यम को 
शैतान हिटलर के हथियारों का 
उत्पादक बना डाला ।
और हमें भी 
अपनी विविधता की
सुंदरता से 
घृणा करने का 
चेकोस्लोवाकिया की तरह
अपनी पहचान को बांट
विकृति का 
पाठ पढ़ाया
हाथ
में झंडा उठाए
आज के 
‘नेता’ का 
असहनीय रूप दिखाया । 

सचमुच 
यह हमें 
कैसा गाइड मिला ! 

(27.06.2018)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें