चुनावी मोड में मोदी (2)
-अरुण माहेश्वरी
आईटी सेल के ट्रौल्स जगत को समर्पित मोदी - अर्थात चुनावी मोड में मोदी । इन ट्रौल्स की गतिविधियों पर नज़र रखिये,आने वाले दिनों में मोदी के क्रमिक रुझानों की नब्ज़ आपके हाथ में होगी । और उसे जोड़ना होगा आरएसएस की मूलभूत तात्विकता से । तभी नीतिगत मामलों में मोदी की सारी पैंतरेबाज़ी वाली घोषणाओं का रहस्य खुलने में समय नहीं लगेगा । 2019 के चुनावों में असल में क्या होने वाला है, इसे समझना ज्यादा आसान और सटीक भी होगा ।
मसलन, एक छोटे से उदाहरण को ही लिया जाए - मोदी और आरएसएस का एनडीए के अपने सहयोगियों के साथ संबंध के उदाहरण को ।
हम यह कभी नहीं भूल सकते कि आरएसएस और मोदी एकचालिकानुवर्त्तित्व के फासीवादी विचारों की उपज है । इसकी हर संभव कोशिश अन्य सबों के समूल नाश और अकेले आरएसएस और मोदी की तरह के उसके हिटलर-सम राजा के अबाध नियंत्रण को लागू करने की होगी । उदार जनतंत्र की विफलताओं से इस प्रकार की फ़ासिस्ट तानाशाही के लिये पहले से सारी सामाजिक संभावनाएं मौजूद रहती है ।
2019 का चुनाव 2014 का चुनाव नहीं है । 2014 और उसके बाद अब तक तमाम राज्यों में अपने पैर पसारने के क्रम में मोदी ने दूसरे तमाम दलों के लोगों को चुनाव में उनके जीतने की संभावना अथवा जीत के आधार पर अपनी पार्टी और एनडीए में शामिल किया था । लेकिन इन चार सालों में ही बार-बार यह सच सामने आया है कि मोदी-आरएसएस ने इन तमाम नये ‘अन्य’ तत्वों पर अपनी निर्भरशीलता को कम करने की कोशिश भी लगातार जारी रखी है । इसका सबसे बड़ा प्रमाण आज एनडीए के अन्य दलों में बीजेपी से बढ़ती हुई दूरी से भी मिलता है ।
और कहना न होगा, हर हाल में मोदी 2019 के चुनाव में अपनी खुद की ताकत को अपने शुद्ध कठपुतला-तत्वों के आधार पर स्थापित करने की कोशिश करेंगे । ऐसे में ज़ाहिर है कि चुनावी मोड में मोदी की ट्रौल्स सेना बीजेपी के अंदर और बाहर के ऐसे किसी व्यक्ति को नहीं बख्शेगी जिनमें मोदी पर सवाल उठाये जाने की न्यूनतम संभावनाएँ भी होगी । जैसा हाल में उन्होंने सुषमा स्वराज के साथ किया । समग्र रूप से राजनीतिक वातावरण के समय-समय पर आकलनों के आधार पर मोद-शाह नाना प्रकार के हाव-भाव दिखायेंगे, भ्रम भी पैदा करेंगे । लेकिन वे खुद अपनी श्रेष्ठता और भारत पर अपने एकछत्र राज के नैसर्गिक अधिकार के बारे में जिस सबसे बड़े भ्रम के शिकार है, जैसा कि हिटलर आर्यों और जर्मन राष्ट्र की श्रेष्ठता और उनकी विश्व विजय के बारे में था, उनका वही भ्रम 2019 की उनकी पूरी रणनीति में निर्णायक साबित होने वाला है ।
इस चुनावी मोड में मोदी सत्ता के नंगे प्रयोग से जुटा कर लाई गई भीड़ की मोदी-मोदी की चीख़ों के बीच जितना विचरण करेंगे, उनका अपनी अपराजेयता और ईश्वरीय श्रेष्ठता का भ्रम उतना ही मज़बूत होता जायेगा । और सच यह है कि मोदी-शाह देश के राजनीतिक यथार्थ से उतना ही दूर होते चले जायेंगे । इससे न सिर्फ मोदी की अन्य सारी राजनीतिक चालों का अंत होगा, बल्कि छुट्टा और उन्मत्त साँड़ की तरह 2019 में विरोध के जनमत की सख़्त दीवार से टकरा कर वे चारों खाने चित्त दिखाई देंगे। जनतंत्र से मोदी का निबाह संभव नहीं है, 2019 में यह साफ हो जायेगा ।
मोदी का इस रास्ते पर बढ़ना उनके डीएनए में लिखा हुआ है । इसे टीडीपी, शिव सेना, एआईएडीएमके, केआरएस आदि समझ रहे हैं । लेकिन नीतीश-त्यागी की तरह के अल्पबुद्धि राजनीतिज्ञ समझने में असमर्थ है और इसीलिये वे उस समय तक अपनी मोदीन्मुखता से मुक्त नहीं हो सकते हैं, जब तक किसी बंद गली के अंतिम छोर तक जा कर आगे एक क़दम भी बढ़ने लायक नहीं रह जायेंगे और अपना सब कुछ लुटा कर भगवान मोदी के सेवादारों में खड़े उनकी आरती उतारते दिखाई नहीं देने लगेंगे । कहना न होगा, 2019 के बाद, मोदी-शाह के साथ ये सभी इतिहास के कूड़े के ढेर पर पड़े मिलेंगे ।
ऐसे समय में कांग्रेस दल को तथा अन्य जनतांत्रिक धर्म-निरपेक्ष दलों को ख़ास भूमिका अदा करनी है । कांग्रेस को मोदी-संघ की तरह कभी भी खुद को एक नेता के किसी सर्वग्रास, केंद्रीभूत दल के रूप में साधने की कोशिश नहीं करनी चाहिए । स्वतंत्रता आंदोलन के समय से ही कांग्रेस ने हमेशा भारत के वैविध्य के मंच के रूप में ही भारत का प्रतिनिधित्व किया है । यदा-क़द इस रास्ते से भटकने की उसे राजनीतिक क़ीमत भी अदा करनी पड़ी है । संकीर्ण दृष्टि रखने वाले राजनीतिक विश्लेषक कांग्रेस दल में कितनी ही नीतिगत असंगतियाँ और बिखराव क्यों न देखें, कांग्रेस दल और अन्य मूलत: धर्म-निरपेक्ष जनतांत्रिक दलों के संगतिपूर्ण स्वरूप को थोड़ी दूर से, एक विहंगम दृष्टि से ही देखा और परखा जा सकता है । वे ही असली भारत हैं । इसके विपरीत, भारत की सत्ता पर मोदी-आरएसएस की तरह के एकाधिकारवादियों का उत्थान निश्चित तौर पर विपक्ष पर भी बदलाव का दबाव डालेगा । कांग्रेस के अंदर की असली लड़ाई इसी सवाल पर निर्भर है कि वह किसी भी दबाव या लोभ वश भटकने के बजाय अपने सर्व- समावेशी मूल चरित्र को किस हद तक सामने ला पाती है ।
पिछले दिनों, बिहार, उत्तर प्रदेश, गुजरात और चुनावोत्तर कर्नाटक में भी कांग्रेस ने अपने स्वभावगत लचीलेपन का परिचय दिया है और हाल में मध्य प्रदेश में भी उनका बीएसपी से समझौता इसी दूरदर्शिता का परिचायक है । मोदी को पराजित करके भारत को उसकी पटरी पर लाने के अलावा 2019 में दूसरा कोई लक्ष्य नहीं हो सकता है । और इसमें मोदी-आरएसएस को हराने में जो सक्षम है, कांग्रेस और विपक्ष को मिल कर उसे समर्थन देना होगा ।
यद्यपि मोदी-शाह भी आख़िरी समय तक अपने उम्मीदवारों के चयन में जीतने की उनकी क्षमता की बात करेंगे । लेकिन मोदी-शाह-आरएसएस की मूल प्रकृति ही उन्हें इस रास्ते पर ईमानदारी से बढ़ने नहीं देगी । इधर उन्होंने, अपने वर्तमान सांसदों में से पचास प्रतिशत से ज्यादा को हटाने की बात प्रचारित की है । उनके ढिंढोरा आगे इसका खूब ढोल पीटेंगे । कहा जायेगा कि इससे वे अपने उम्मीदवारों को मतदाताओं के व्यवस्था-विरोधी रोष से बचा पायेंगे । लेकिन हम दावे के साथ कह सकते है कि सत्ता के नशे में चूर मोदी-शाह की ऐसी किसी भी कसरत के पीछे गिरिराज सिंह की तरह के अपने मूर्ख और लंठ लठैतों को आगे लाने के लक्ष्य के अलावा और कुछ नहीं होगा । ऐसे में, एनडीए के अन्य सहयोगियों के साथ क्या सलूक होनेवाला है, इसे समझने के लिये ज्यादा दिमाग लगाने की ज़रूरत नहीं है ।
चुनावी मोड में मोदी और उसके ट्रौल्स की सारी धमा-चौकड़ी इसी प्रकार भारतीय राजनीति में इनकी भूमिका के अंत का अध्याय लिखेगी, इसमें कोई शक नहीं है ।
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