—अरुण माहेश्वरी
सुप्रीम कोर्ट ने कल (23 अक्तूबर को) एक और महत्वपूर्ण निर्णय लिया । मुख्य न्यायाधीश की दो जजों की बेंच ने चुनाव आयोग के सदस्यों का चयन अकेले सरकार के द्वारा किये जाने के बजाय उसे पांच प्रतिष्ठित जनों के एक कॉलेजियम के जरिये करने की व्यवस्था की मांग करने वाली याचिका पर सुनवाई के लिये उसे संविधान पीठ को सौंपने का फैसला किया है । जाहिर है कि इससे चुनाव आयोग में अपने कठपुतले बैठाने की केंद्र सरकार की अब तक की तमाम कोशिशों पर अंकुश लगेगा ।
सरकार की ओर से इस याचिका का विरोध करते हुए कहा गया कि भारत का चुनाव आयोग पारदर्शी रहा है, इसके चयन की प्रक्रिया में छेड़-छाड़ की जरूरत नहीं है । लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने सरकार की दलील को स्वीकारने के बजाय इस विषय को विचार के लिये पांच सदस्यों की संविधान पीठ को सौंपना ही सही समझा । सरकारी दलीलें आज के राजनीतिक प्रत्यक्ष को झुठलाने के धोखे से ज्यादा कुछ नहीं थी । आगामी 29 अक्तूबर से इस याचिका पर बाकायदा सुनवाई शुरू होगी ।
भारत में संवैधानिक संस्थाओं के सदस्यों के चयन में कॉलेजियम प्रणाली के प्रयोग की सफलताओं को सभी जानते हैं । इसी के चलते सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्टों में जजों की नियुक्ति के मामले में सरकार की दखल रुक गई है और फलत: न्यायपालिका की स्वायत्तता बनी हुई है । न्यायपालिका में कॉलेजियम को नष्ट करने के लिये मोदी सरकार ने एड़ी-चोटी का पसीना एक कर दिया था ।
यहां तक कि सीबीआई के निदेशक की नियुक्ति में भी प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के कॉलेजियम की भूमिका होने के कारण ही सीबीआई के निदेशक पद पर अभी के निदेशक आलोक वर्मा की नियुक्ति मुमकिन हुई है। अन्यथा मोदी ने तो आर के अस्थाना जैसे घूसखोर और मोदी के इशारे पर नाचने वाले अधिकारी को उस पद पर बैठा देने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी । उसे अतिरिक्त निदेशक के रूप में वहां ला कर उन्होंने आलोक वर्मा को पूरी तरह से निरस्त कर देने की योजना बनाई थी । आज जब सीबीआई में एक नंबर और दो नंबर के बीच खुला जंग चल रहा है और अस्थाना घूस लेता हुआ प्रकृत अर्थ में रंगे हाथों पकड़ा गया है, तब मोदी-शाह जोड़ी ही उसे बचाने की हरचंद कोशिश कर रही है । उल्टे आलोक वर्मा के खिलाफ मामला बनाने के जी जान से कोशिश की जा रही है ।
अस्थाना पर एफआईआर दर्ज कर दी गई है । दिल्ली हाईकोर्ट ने इस घूसखोर अधिकारी की उस याचिका को ठुकरा दिया है जिसमें उसने अपने खिलाफ दायर की गई एफआईआर को खारिज करने की मांग की थी । अस्थाना के लैप टाप और मोबाइल जब्त कर लिये गये हैं । सीबीआई के निदेशक आलोक वर्मा ने उसके पास से सारे मामलों को अपने हाथ में ले कर उसे अधिकारहीन बना दिया है और उसके मातहत डीएसपी देवेन्द्र वर्मा को गिरफ्तार करके अपनी हिरासत में ले लिया है । उसीके जरिये अस्थाना आलोक वर्मा को फंसाने की साजिशें कर रहा था । हाईकोर्ट ने आगामी 29 अक्तूबर को इस मामले की तारीख तय की है, तब तक के लिये अस्थाना को गिरफ्तार न करने का भी आदेश दिया है । लेकिन यह साफ है कि अब अस्थाना की हर गतिविधि पर सीबीआई की कड़ी नजर रहेगी ।
अब एक हफ्ते का समय भी नहीं रहा है । 29 अक्तूबर के पहले फ्रांस से रफाल लड़ाकू विमानों के सौदे में खरीद की प्रक्रिया के बारे में मोदी सरकार को सारे तथ्य सुप्रीम कोर्ट को सौंपने हैं । 31 अक्तूबर से सुप्रीम कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश की बेंच इस मामले की सुनवाई करेगी । इस बीच रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण पेरिस जा कर सारे कागजातों को ठीक-ठाक कर आई है । आने के बाद उन्होंने कोई बयान नहीं दिया है कि वे पेरिस क्यों गई और वहां क्या कर आई है । इस जग-जाहिर सौदे की 'गोपनीयता' की तरह उनका यह आना-जाना भी शायद एक 'गोपनीय' काम ही था ।
इसके अलावा, 29 अक्तूबर से ही सुप्रीम कोर्ट अयोध्या में बाबरी मस्जिद-राम मंदिर विवाद में उस जमीन के मालिकाना हक के बारे में सुनवाई शुरू करेगा । इस मामले के अंजाम के अंदेशे के कारण ही भाजपा-संघ वालों ने अदालत के बजाय कानून बना कर राम मंदिर बनाने की शेखचिल्लियों वाली बात कहनी शुरू कर दी है ।
धर्म के व्यापार के जरिये अपनी राजनीति को चमकाने की मोदी की एक और कोशिश, उनके चार-धाम प्रकल्प को भी सुप्रीम कोर्ट ने रोक दिया है । सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस फैसले से न सिर्फ पर्यावरण बल्कि हिंदू धर्म में तीर्थों से जुड़ी धार्मिक भावना की रक्षा का काम भी किया है ।
हिंदुओं के लिये तीर्थ मौज-मस्ती और सैर-सपाटे के लिये नहीं होते हैं । लगभग एक सदी पहले तक बैल गाड़ी तक से तीर्थ यात्रा को पाप माना जाता था । तीर्थ यात्रा के विधान में सिर्फ पैदल चलने का प्राविधान था । काषाय वेष में तीर्थ पर निकलने के पहले आदमी अपने घर से विदा मांग कर निकलता था । पर्यावरण को इतना भारी नुकसान पहुंचा कर तीर्थ स्थलों तक सुगमता से पहुंचने की व्यवस्था करना कोई धार्मिक काम नहीं, धर्म के जरिये सस्ती राजनीति का नग्न उदाहरण है । यह धर्म के धंधे को फलने-फूलने का अवसर प्रदान करना है । अन्यथा धर्म के नजरिये से देखे तो यह पूरा प्रकल्प तीर्थों के साथ जुड़ी काल का अतिक्रमण करने की मूल सनातनी धार्मिक भावना का खुला अपमान है । इसी प्रकल्प ने प्रोफेसर जी डी अग्रवाल उर्फ स्वामी सानंद के प्राण लिये है, इसे भी कभी भूला नहीं जा सकता है ।
ऊपर से नवंबर महीने से ही शुरू होने वाले पांच राज्यों के आगामी चुनावों की तलवार तो मोदी सरकार पर लटकी हुई है ही । अब तक के सारे संकेत यही बताते है कि इन चुनावों से मोदी कंपनी को बड़ा झटका लगने वाला है ।
कुल मिला कर वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों का सच यही है कि जैसे 1975 का इंदिरा गांधी का आंतरिक आपातकाल भारतीय जनतंत्र के लिये एक बड़ी अग्नि परीक्षा साबित हुआ था जिससे गुजर कर उसे नई शक्ति और ऊर्जा मिली थी, उसी प्रकार मोदी के शासन के ये पांच साल भी कम बड़ी अग्नि परीक्षा साबित नहीं होंगे । हमारा मानना है कि इससे गुजर कर भारतीय जनतंत्र को अपने अंदर से पैदा होने वाले तुगलकों के शासन से निपटने का नया विवेक और नई शक्ति मिलेगी । यहीं से भारत में संघी मूर्खताओं पर टिकी राजनीति के अंत का भी प्रारंभ होगा । मोहन भागवत की विक्षिप्तावस्था इसका सबसे बड़ा प्रमाण है । 'राजनीति नहीं करते', 'राजनीति नहीं करते' रटते-रटते अब वे सारे आवरणों को उतार कर अपने शुद्ध राजनीतिक स्वरूप को सरे बाजार खोल दे रहे हैं ।
जाहिर है कि दो साल पहले नोटबंदी के समय से मोदी जी ने भारत की जनता की दीवाली पर जिस मायूसी की काली छाया को थोपा था, अब इस साल से वही मायूसी उलट कर मोदी जी पर छाने वाली है । 2019 पांच साल की इस लंबी काली रात के अवसान का साल होगा । आगामी 29 अक्तूबर से सुप्रीम कोर्ट में खुल रहे झरोखे में भविष्य की इस सूरत को बाकायदा देखा जा सकता है ।
सुप्रीम कोर्ट ने कल (23 अक्तूबर को) एक और महत्वपूर्ण निर्णय लिया । मुख्य न्यायाधीश की दो जजों की बेंच ने चुनाव आयोग के सदस्यों का चयन अकेले सरकार के द्वारा किये जाने के बजाय उसे पांच प्रतिष्ठित जनों के एक कॉलेजियम के जरिये करने की व्यवस्था की मांग करने वाली याचिका पर सुनवाई के लिये उसे संविधान पीठ को सौंपने का फैसला किया है । जाहिर है कि इससे चुनाव आयोग में अपने कठपुतले बैठाने की केंद्र सरकार की अब तक की तमाम कोशिशों पर अंकुश लगेगा ।
सरकार की ओर से इस याचिका का विरोध करते हुए कहा गया कि भारत का चुनाव आयोग पारदर्शी रहा है, इसके चयन की प्रक्रिया में छेड़-छाड़ की जरूरत नहीं है । लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने सरकार की दलील को स्वीकारने के बजाय इस विषय को विचार के लिये पांच सदस्यों की संविधान पीठ को सौंपना ही सही समझा । सरकारी दलीलें आज के राजनीतिक प्रत्यक्ष को झुठलाने के धोखे से ज्यादा कुछ नहीं थी । आगामी 29 अक्तूबर से इस याचिका पर बाकायदा सुनवाई शुरू होगी ।
भारत में संवैधानिक संस्थाओं के सदस्यों के चयन में कॉलेजियम प्रणाली के प्रयोग की सफलताओं को सभी जानते हैं । इसी के चलते सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्टों में जजों की नियुक्ति के मामले में सरकार की दखल रुक गई है और फलत: न्यायपालिका की स्वायत्तता बनी हुई है । न्यायपालिका में कॉलेजियम को नष्ट करने के लिये मोदी सरकार ने एड़ी-चोटी का पसीना एक कर दिया था ।
यहां तक कि सीबीआई के निदेशक की नियुक्ति में भी प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के कॉलेजियम की भूमिका होने के कारण ही सीबीआई के निदेशक पद पर अभी के निदेशक आलोक वर्मा की नियुक्ति मुमकिन हुई है। अन्यथा मोदी ने तो आर के अस्थाना जैसे घूसखोर और मोदी के इशारे पर नाचने वाले अधिकारी को उस पद पर बैठा देने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी । उसे अतिरिक्त निदेशक के रूप में वहां ला कर उन्होंने आलोक वर्मा को पूरी तरह से निरस्त कर देने की योजना बनाई थी । आज जब सीबीआई में एक नंबर और दो नंबर के बीच खुला जंग चल रहा है और अस्थाना घूस लेता हुआ प्रकृत अर्थ में रंगे हाथों पकड़ा गया है, तब मोदी-शाह जोड़ी ही उसे बचाने की हरचंद कोशिश कर रही है । उल्टे आलोक वर्मा के खिलाफ मामला बनाने के जी जान से कोशिश की जा रही है ।
अस्थाना पर एफआईआर दर्ज कर दी गई है । दिल्ली हाईकोर्ट ने इस घूसखोर अधिकारी की उस याचिका को ठुकरा दिया है जिसमें उसने अपने खिलाफ दायर की गई एफआईआर को खारिज करने की मांग की थी । अस्थाना के लैप टाप और मोबाइल जब्त कर लिये गये हैं । सीबीआई के निदेशक आलोक वर्मा ने उसके पास से सारे मामलों को अपने हाथ में ले कर उसे अधिकारहीन बना दिया है और उसके मातहत डीएसपी देवेन्द्र वर्मा को गिरफ्तार करके अपनी हिरासत में ले लिया है । उसीके जरिये अस्थाना आलोक वर्मा को फंसाने की साजिशें कर रहा था । हाईकोर्ट ने आगामी 29 अक्तूबर को इस मामले की तारीख तय की है, तब तक के लिये अस्थाना को गिरफ्तार न करने का भी आदेश दिया है । लेकिन यह साफ है कि अब अस्थाना की हर गतिविधि पर सीबीआई की कड़ी नजर रहेगी ।
अब एक हफ्ते का समय भी नहीं रहा है । 29 अक्तूबर के पहले फ्रांस से रफाल लड़ाकू विमानों के सौदे में खरीद की प्रक्रिया के बारे में मोदी सरकार को सारे तथ्य सुप्रीम कोर्ट को सौंपने हैं । 31 अक्तूबर से सुप्रीम कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश की बेंच इस मामले की सुनवाई करेगी । इस बीच रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण पेरिस जा कर सारे कागजातों को ठीक-ठाक कर आई है । आने के बाद उन्होंने कोई बयान नहीं दिया है कि वे पेरिस क्यों गई और वहां क्या कर आई है । इस जग-जाहिर सौदे की 'गोपनीयता' की तरह उनका यह आना-जाना भी शायद एक 'गोपनीय' काम ही था ।
इसके अलावा, 29 अक्तूबर से ही सुप्रीम कोर्ट अयोध्या में बाबरी मस्जिद-राम मंदिर विवाद में उस जमीन के मालिकाना हक के बारे में सुनवाई शुरू करेगा । इस मामले के अंजाम के अंदेशे के कारण ही भाजपा-संघ वालों ने अदालत के बजाय कानून बना कर राम मंदिर बनाने की शेखचिल्लियों वाली बात कहनी शुरू कर दी है ।
धर्म के व्यापार के जरिये अपनी राजनीति को चमकाने की मोदी की एक और कोशिश, उनके चार-धाम प्रकल्प को भी सुप्रीम कोर्ट ने रोक दिया है । सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस फैसले से न सिर्फ पर्यावरण बल्कि हिंदू धर्म में तीर्थों से जुड़ी धार्मिक भावना की रक्षा का काम भी किया है ।
हिंदुओं के लिये तीर्थ मौज-मस्ती और सैर-सपाटे के लिये नहीं होते हैं । लगभग एक सदी पहले तक बैल गाड़ी तक से तीर्थ यात्रा को पाप माना जाता था । तीर्थ यात्रा के विधान में सिर्फ पैदल चलने का प्राविधान था । काषाय वेष में तीर्थ पर निकलने के पहले आदमी अपने घर से विदा मांग कर निकलता था । पर्यावरण को इतना भारी नुकसान पहुंचा कर तीर्थ स्थलों तक सुगमता से पहुंचने की व्यवस्था करना कोई धार्मिक काम नहीं, धर्म के जरिये सस्ती राजनीति का नग्न उदाहरण है । यह धर्म के धंधे को फलने-फूलने का अवसर प्रदान करना है । अन्यथा धर्म के नजरिये से देखे तो यह पूरा प्रकल्प तीर्थों के साथ जुड़ी काल का अतिक्रमण करने की मूल सनातनी धार्मिक भावना का खुला अपमान है । इसी प्रकल्प ने प्रोफेसर जी डी अग्रवाल उर्फ स्वामी सानंद के प्राण लिये है, इसे भी कभी भूला नहीं जा सकता है ।
ऊपर से नवंबर महीने से ही शुरू होने वाले पांच राज्यों के आगामी चुनावों की तलवार तो मोदी सरकार पर लटकी हुई है ही । अब तक के सारे संकेत यही बताते है कि इन चुनावों से मोदी कंपनी को बड़ा झटका लगने वाला है ।
कुल मिला कर वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों का सच यही है कि जैसे 1975 का इंदिरा गांधी का आंतरिक आपातकाल भारतीय जनतंत्र के लिये एक बड़ी अग्नि परीक्षा साबित हुआ था जिससे गुजर कर उसे नई शक्ति और ऊर्जा मिली थी, उसी प्रकार मोदी के शासन के ये पांच साल भी कम बड़ी अग्नि परीक्षा साबित नहीं होंगे । हमारा मानना है कि इससे गुजर कर भारतीय जनतंत्र को अपने अंदर से पैदा होने वाले तुगलकों के शासन से निपटने का नया विवेक और नई शक्ति मिलेगी । यहीं से भारत में संघी मूर्खताओं पर टिकी राजनीति के अंत का भी प्रारंभ होगा । मोहन भागवत की विक्षिप्तावस्था इसका सबसे बड़ा प्रमाण है । 'राजनीति नहीं करते', 'राजनीति नहीं करते' रटते-रटते अब वे सारे आवरणों को उतार कर अपने शुद्ध राजनीतिक स्वरूप को सरे बाजार खोल दे रहे हैं ।
जाहिर है कि दो साल पहले नोटबंदी के समय से मोदी जी ने भारत की जनता की दीवाली पर जिस मायूसी की काली छाया को थोपा था, अब इस साल से वही मायूसी उलट कर मोदी जी पर छाने वाली है । 2019 पांच साल की इस लंबी काली रात के अवसान का साल होगा । आगामी 29 अक्तूबर से सुप्रीम कोर्ट में खुल रहे झरोखे में भविष्य की इस सूरत को बाकायदा देखा जा सकता है ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें