सोमवार, 8 अक्तूबर 2018

‘...अंजामे गुलिश्ता क्या होगा !’

(भारत में भी ‘मी टू’ आंदोलन की जोरदार थपेड़ें )
—अरुण माहेश्वरी


‘मी टू' अभियान ने क्रमश: भारत में अपने विस्तार के संकेत देने शुरू कर दिये है । आज के ‘टेलिग्राफ’ में एक पत्रकार प्रिया रमानी के ट्वीट को अखबार की प्रमुख सुर्खी में स्थान दिया है जिसमें उन्होंने वर्तमान केंद्रीय विदेश राज्यमंत्री एम जे अकबर पर सीधा आरोप लगाया है कि किस प्रकार 1994 में  जब अकबर ‘टेलिग्राफ’ पत्रिका के संपादक थे, मुंबई में एक होटल के कमरे में नौकरी के लिये साक्षात्कार लेते वक्त उन पर टूट पड़े थे । अंग्रेजी की लोकप्रिय ‘वोग’ पत्रिका में उन्होंने अपने इस पूरे अनुभव का बयान अकबर को प्रथम पुरुष ‘डीयर बॉस’ से संबोधित करते हुए किया है जिसमें वे लिखती है कि “उस रात तो मैं बच गई । आपने मुझे काम पर लगाया, कई महीनों तक मैंने आपके यहां काम किया लेकिन तभी अपने मन में मैंने यह शपथ ले ली थी कि आपके साथ कभी कमरे में मैं अकेले नहीं रहूंगी ।”

कल (8 अक्तूबर) को ही प्रसिद्ध पत्रकार स्वाति चतुर्वेदी ने भी एक ट्वीट करके काफी विस्तार के साथ ‘फर्स्ट पोस्ट’ में प्रकाशित इसी कहानी का बयान किया है जिसमें एक ख्यात अखबार के ‘संस्थापक संपादक’ और मुंबई के होटल के कमरे का ही जिक्र है । उस संपादक का बिना नाम दिये इतना जरूर कहा गया है कि वह अभी सरकार में एक ऊंचे पद पर है । स्वाति ने भी यही बताया है कि जब पत्रकारिता के क्षेत्र में कोई व्यक्ति कदम रखता है, और किसी अखबार की ख्याति अगर शिखर पर हो तो उसमें काम का मौका पाना किसी भी नौजवान पत्रकार के लिये एक मूल्यवान अवसर होता है। उस समय इन संपादक महोदय ने मौके का लाभ उठा कर इस नौजवान पत्रकार के शरीर पर टूट पड़ने की कोशिश की । स्वाति ने अपनी कहानी में पत्रकार का नाम भी नहीं बताया है, लेकिन आज के टेलिग्राफ में वह नाम खुल कर सामने आ गया है ।
(आज के टेलिग्राफ की खबर और स्वाति चतुर्वेदी के ट्वीट का लिंक, दोनों हम यहां दे रहे हैं ।)
https://www.firstpost.com/india/my-metoo-moment-founding-editor-of-national-newspaper-forced-himself-on-me-planted-shame-fear-almost-broke-me-5337121.html
https://www.telegraphindia.com/india/metoo-finger-at-union-minister/cid/1671370


जाहिर है कि बॉलीवुड में तनुश्री दत्ता ने नाना पाटेकर के संदर्भ अपने अनुभव का जिक्र करके भारत में इस जिस नये 'मी टू' अभियान की शिखा जलाई है, उसकी रोशनी अब क्रमश: हमारे समाज के दूसरे अंधेरे कोनों को भी प्रकाश में लाने लगी है ।

‘इकोनोमिस्ट’ पत्रिका ने अपने इधर के नये अंक (29 सितंबर-5 अक्तूबर 2018) में ‘मी टू’ को अपनी कवर स्टोरी बनाया है और इससे समाज के कथित संभ्रांतों और ताकतवरों के द्वारा अपने पद और अधिकारों का प्रयोग करके औरतों का शोषण करने के निकृष्ट आचारणों के उद्घाटनों की गहनता और व्यापकता को देखते हुए यहां तक लिखा है कि “यह एक ऐसा आंदोलन है जिसका प्रारंभ एक कथित बलात्कारी से हुआ है, लेकिन यह औरतों की समानता के लिये उन्हें मतदान के अधिकार के बाद एक सबसे शक्तिशाली बल साबित हो सकता है ।”
(A movement sparked by an alleged rapist could be the most powerful force for equality since women’s suffrage)

यह आंदोलन साल भर पहले हालीवुड के एक बड़े फिल्म निर्माता हार्वे वींस्टीन की कहानी से शुरू हुआ था जब एक के बाद एक अभिनेत्रियों ने उसकी फिल्म में काम पाने के लिये उसे अपने शरीर को सौंपने के दर्दनाक अनुभवों का बयान करना शुरू किया। वींस्टन एक आदतन बलात्कारी है, इसे कई सालों से हालीवुड के लोग जानते थे, लेकिन वह इतना ताकतवर था कि कोई बोलने का साहस नहीं कर पा रहा था । मान कर चला जा रहा था कि ताकतवर पुरुष अपनी मर्जी का मालिक होता है, वह कुछ भी कर सकता है । लेकिन इस एक साल में ही अब अमेरिका में इस बद्धमूल मान्यता को करारी चोटें लग रही हैं । अब वहां जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में ऐसे निरंकुश ताकतवरों की पशुता के किस्से सामने आने लगे हैं । बल्कि, सिर्फ अमेरिका में ही नहीं, सारी दुनिया में इसका सिलसिला चल पड़ा है।

अभी अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट में ट्रंप ने एक जज की नियुक्ति की - ब्रेट कावनॉ की । उस पर भी यह अभियोग लगा कि कई दशक पहले जब वह छात्र था, उसने एक लड़की पर कामुक हमला किया था । यह अभियोग क्रिस्टीन ब्लासे फोर्ड नामकी महिला ने लगाया । इस उद्घाटन के बाद सारे अमेरिका में एक तहलका मच गया । अमेरिका की सर्वोच्च न्यायपीठ पर एक ऐसे कामुक और हमलावर व्यक्ति की स्थायी नियुक्ति के भविष्य में कितने दुष्परिणाम हो सकते हैं, इसके कयास पर तमाम स्तरों पर पुरजोर चर्चा शुरू हो गई । अमेरिकी सिनेट की न्याय कमेटी के सदस्यों ने कावनॉ से सीधे पूछ-ताछ की और उसकी नियुक्ति पर आशंका के बादल मंडराने लगे थे । अभी दो दिन पहले जब उसकी नियुक्ति पर अंतिम मोहर लगी तो अनेक हलकों से उसे अमेरिका के इतिहास का एक काला दिन बताया गया है ।

यह पूरा घटनाक्रम ‘मी टू’ आंदोलन के तेजी से विस्तार के संकेत दे रहा है । इसका अंतिम हश्र क्या होगा, कोई नहीं कह सकता । लेकिन अमेरिकी समाज के लिये इसे इसलिये एक सबसे बड़ी बात माना जा रहा कै क्योंकि यह दर्शाता है कि उस समाज में सकारात्मक और प्रगतिशील परिवर्तन की भूख आज भी बाकायदा बची हुई है । ‘इकोनोमिस्ट’ ने इसका बुरा पक्ष यह भी बताया है कि कहीं यह ‘मी टू’ आंदोलन भी औरतों के शरीर से जुड़ी कहानियों पर चटखारे लेने वाली उपभोक्तावादी संस्कृति की खुराक न बन जाए !

लेकिन अमेरिका के विभिन्न स्तरों पर इस बारे में औरतों की अपनी गवाहियों को जितनी गंभीरता से लिया जा रहा है, वह इस आंदोलन का सबसे अधिक महत्वपूर्ण आयाम है । अन्यथा अब तक तो इस प्रकार के अभियोग लगाने वाली औरतों को ही समाज में बदचलन घोषित करके दुष्चरित्र पुरुषों के पापों को ढंकने की परिपाटी चलती आ रही है । अदालतों के कठघरों में औरतों को जलील करना वकीलों के लिये एक आम बात रही है । आज अमेरिका में ऐसी गवाहियां देने वाली औरतों को कोई संदेह के दायरे में नहीं ला रहा है । पुरुषों के ऐसे कुकर्मों को पूरी गंभीरता से लिया जा रहा है । यही इस पूरे आंदोलन की सबसे उल्लेखनीय लाक्षणिक विशेषता है, जो इसके बहुत ही दूरगामी सकारात्मक परिणामों के प्रति आश्वस्त करती है ।

वींस्टन ने ऐसे दर्जनों अपराध किये थे जिनमें सीधा बलात्कार तक शामिल था, वहां के फिल्म उद्योग के लोग उसके इस जघन्य चरित्र से पूरी तरह वाकिफ थे, लेकिन फिर भी किसी ने उस शक्तिशाली निर्माता के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत नहीं की । आज जब एक के बाद एक महिलाओं के साक्ष्य से उस कामुक दानव का पूरा स्वरूप सामने आया है, अमेरिका के लोगों का जमीर अंदर से हिल गया है । और, यही वजह है कि इस ‘मी टू’ आंदोलन ने एक बिल्कुल भिन्न और नया आयाम ग्रहण कर लिया है । अब अभियोग लगाने वाली औरत के चरित्र पर सवाल उठाना ही वहां नैतिक अपराध माना जा रहा है । कावनॉ के मामले में भी बात उस व्यक्ति की निजी प्रतिष्ठा की नहीं रह गई ; सुप्रीम कोर्ट में यदि ऐसा व्यक्ति चला गया तो कोर्ट का भविष्य क्या होगा, यह चिंता का प्रमुख विषय बन गया !

बहरहाल, पूरे अमेरिका और पश्चिमी समाज में इस विषय पर जो भारी उत्तेजना पैदा हो गई है, उसके केंद्र में एक ही सवाल है कि शक्तिशाली पुरुष अपने पद और शक्ति के प्रयोग से औरत के साथ कुछ भी कर के गुजर जाएगा और उसे कभी कोई सवाल भी नहीं करेगा, यह कब तक चलेगा ?  ईश्वर की अदालत में नहीं, इसी समाज की अदालत में, इसी जगत में क्यों नहीं उसे कभी न कभी न्याय का सामना करना ही पड़ेगा ?

भारत में भी तनुश्री दत्ता ने अनायास ही सभ्यता विमर्श से जुड़े इस महत्वपूर्ण आंदोलन की एक लौ जला दी है । इसीलिये हमने कल अपनी एक पोस्ट में लिखा था कि हमारे सामाजिक इतिहास में उन्हें इसके लिये हमेशा याद रखा जायेगा ।

अब क्रमश:, इससे हमारे समाज में आगे और कैसा और कितना आलोड़न पैदा होगा, यह तो भविष्य ही बतायेगा । लेकिन आज ‘टेलिग्राफ’ पत्रिका के संस्थापक संपादक और वर्तमान केंद्रीय मंत्री का इस सिलसिले में जिस प्रकार नाम सामने आया है, उससे निश्चित तौर पर इस आंदोलन की गर्मी के बढ़ने के संकेत मिलते हैं । जैसा कि स्वाति चतुर्वेदी की रिपोर्ट में ही बताया गया है कि पत्रकार प्रिया रमानी के पिता ने उन्हें पहले ही उस संपादक के चरित्र के बारे में सावधान कर दिया था, उसी प्रकार, इस क्षेत्र के अन्य लोग भी इस संपादक के चरित्र से अच्छी तरह वाकिफ होंगे। आगे उनके और भी किस्से आ सकते हैं । और राजनीति की दुनिया में उनकी सफलता भी इस रोग की व्यापकता के कुछ संकेत देती है । एम जे अकबर के इस्तीफे की मांग भी तूल पकड़ेगी ।

इसीलिये, यदि हमारे समाज में जनतांत्रिक चेतना और स्त्री-पुरुष समानता के विचारों ने कुछ भी जड़ें पकड़ी हैं तो हमारा मानना है कि यह प्रारंभ पूरी तरह से निष्फल साबित नहीं होगा । यह राजनीति, पत्रकारिता, मीडिया, अध्यापन, न्यायपालिका और अन्य सभी बड़े-बड़े संस्थानों में स्त्रियों के साथ बदसलूकी के सवालों को सामने लाने का एक बड़ा सबब बनेगा ; आगे इसके संदर्भ में कानूनी प्राविधानों के परिणाम भी निकलेंगे । और, इससे पैदा होने वाला आलोड़न समग्र रूप से अंतत: हमारे समाज को अंदर से सबल और स्वस्थ बनायेगा ।

देखियें — “हर शाख पे उल्लू बैठा है, अंजामे गुलिश्ता क्या होगा !”

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