मंगलवार, 9 अक्तूबर 2018

'पटाखा' फिल्म पर एक राजनीतिक चर्चा

—अरुण माहेश्वरी


इसे संयोग नहीं तो क्या कहेंगे !

दो दिन पहले ही सीपीआई(एम) की केंद्रीय कमेटी की बैठक के संदर्भ में अपनी एक टिप्पणी में हमने उसके बहुमतवादी नेताओँ के मनोविश्लेषण की बात कही थी और इस बात पर बल दिया था कि संभवतः उनके अंदर लंबे काल से पल रहे अंध कांग्रेस-विरोध की एक फांस अभी भी अटकी हुई है । इसे अगर न निकाला गया तो उन्हें अपना आगे का रास्ता कभी नहीं सूझेगा । और इसे निकालने के उपाय के तौर पर हमने प्रसिद्ध मनोविश्लेषक जॉक लकान के सुझाये रास्ते का उल्लेख किया था जो उन्होंने ऐसे मनोरोगियों के बारे में सुझाया था जिन्हें बिना किसी वास्तविक शारीरिक कारण के ही शरीर के किसी एक अंग में भीषण दर्द होने लगता है । लकान ने कहा था कि इसके निदान का उपाय यही है कि किसी प्रकार उनकी उस अंग से जुड़ी फांस को निकाल कर उन्हें शरीर की बाकी पूरी सामान्य संरचना के विचार की श्रृंखला से जोड़ देना होगा । इससे रोगी अपने अंगों के बारे में चीजों को नए रूप में पढ़ पायेगा और एक खास जगह पर दर्द के अकारण अहसास से मुक्त हो जायेगा । इसी तर्क पर हमने सीपीएम के कांग्रेस-विरोधी फांस में फंसे हुए बहुमतवादी सिद्धांतकारों को “संसदीय जनतंत्र की परिस्थितियों के पूरे सत्य से जैविक रूप में जोड़ने” की बात कही थी ।

इस विषय में अपनी बात को और भी साफ करने के लिये यहां हम खास तौर पर सीपीआई(एम) के ही इतिहास के ज्योति बसु, ईएमएस, बीटीआर आदि की तरह के अन्य सभी द्क्काक नेताओं का उल्लेख करना चाहेंगे, जिन्होंने आजादी की लड़ाई के काल में राजसत्ता के जितने जुल्म सहे, उनसे कहीं अधिक दमन का सामना कांग्रेस के शासन के दिनों में किया था । इन सबको कांग्रेस के शासन-काल में सालों जेल में गुजारने पड़े थे । लेकिन इतिहास गवाह है कि इनमें से एक ने भी कभी उस प्रकार के अंध कांग्रेस-विरोध के मनोभाव की ग्रंथी नहीं पाली  जैसी सोशलिस्ट पार्टी के राम मनोहर लोहिया और दूसरे सोशलिस्टों में पाई जाती है और जिसके चक्कर में वे सीधे आरएसएस की गोद तक में बैठते रहे हैं । सीपीएम के ये सभी बड़े नेता भारत में संसदीय जनतंत्र के राजनीतिक सत्य को समझते थे और इस पटल पर काम करते हुए कैसे आम जनता के हितों को आगे बढ़ाया जाए, इसके लिये प्रयत्नरत थे । और तो और, उन्होंने सलकिया प्लेनम में क्रांतिकारी पार्टी के बजाय जन-क्रांतिकारी पार्टी बनाने का संकल्प किया । वे अपने इन प्रयत्नों में कितने सफल और कितने विफल हुए, और क्यों हुए, यह विचार का एक अलग विषय है । उसमें 'सोवियत समाजवाद' और बोल्शेविक पार्टी के ढांचे की कथित क्रांतिकारिता की एक और फांस की भी हमेशा एक भूमिका रही है जिससे दुनिया के किसी भी देश का कम्युनिस्ट आंदोलन आज तक मुक्त नहीं हो पाया है । लेकिन उनके मन में लोहिया आदि की तरह के नेताओं की तरह किसी प्रकार की अंध कांग्रेस-विरोध वाली कुंठा की फांस कभी नहीं पनपी । और, न ही वे कभी 'संसदवाद' की तरह के आधारहीन अभियोगों से आतंकित हुए ।

बहरहाल, हमने इस टिप्पणी की शुरूआत एक कटे हुए, 'संयोग' की चर्चा करने वाले वाक्य से की है । लगता है वह बात तो कहीं पीछे ही रह गई है और हम अपने पुराने विषय की गलियों में भटकते जा रहे हैं ! इसे यहीं रोक कर हम पहले अपने असली विषय पर आते है । आज हमारे लिये जो संयोग या अचरज की बात रही, वह थी विशाल भारद्वाज की फिल्म — 'पटाखा' ।

यह फिल्म दो ऐसी मनोरोगी सगी बहनों के मनोविश्लेषण पर बनाई गई फिल्म है जिनमें बिना किसी शारीरिक कारण के ही एक में अंधता और दूसरे में गूंगेपन के लक्षण पैदा हो गये हैं । डाक्टर जांच करके उनमें सब कुछ सही पाते हैं । वे जान जाते हैं कि अंधी बहन देख सकती है और गूंगी बहन बोल सकती है, फिर भी एक देख नहीं रही है, दूसरी बोल नहीं रही है । यह पूरी तरह से मनोरोग की दशा है । मगर मनोविश्लेषण के सामने सवाल यह आया कि आखिर उनके जीवन में वह कौन सी फांस है जिनके कारण उनके साथ ऐसा हुआ है ?

इस फिल्म में बापू, छुटकी और बड़की के तीन सदस्यों के परिवार में ही बीच-बीच में एक बाहर व्यक्ति दखल देता है — डिप्पर । डिप्पर वास्तव में इस पूरे मामले का मनोविश्लेषक है जो दोनों मनोरोगी बेटियों के रोग को उसकी जड़ में जाकर खोलने और उसका निदान करने की भूमिका अदा करता है । वह पाता है कि ये ऐसी दोनों बहनें हैं जो बचपन से ही आपस में बुरी तरह से लड़ते झगड़ते, एक दूसरे से तीव्र ईर्ष्या करती हुई बड़ी हुई है । जैसे एक दूसरे के खून की प्यासी हो, ऐसा था उनका आपसी व्यवहार । फिल्म में कई जगहों पर उनके संदर्भ में भारत-पाकिस्तान का उल्लेख आता है जिनके लड़ते-झगड़ते रहने पर भी साथ रहने की मजबूरी के संदर्भ में अटल बिहारी वाजपेयी का यह कथन भी आता है कि हम पड़ौसी से लड़ जरूर सकते हैं, लेकिन उन्हें चुन नहीं सकते ।

बहरहाल, डिप्पर उनकी गुत्थी को खोलने के सिलसिले में ही दोनों के बीच के बुनियादी फर्क को उनके अंतर की दमित कामनाओं से जोड़ता  है । छुटकी स्कूल टीचर बनना चाहती है और बड़की अपनी डेयरी खोलना चाहती है । आपस में भारी नफरत की वजह से ही दोनों एक दूसरे की इन अलग-अलग कामनाओं को प्रतिबिंबित करने वाली हर चीज से भी समान रूप से नफरत करने लगती है । बड़की को पढ़ाई से नफरत होती है तो छुटकी को दूध मात्र से । लड़कियों के जीवन में परिवर्तन का एक बड़ा मोड़ तब आता है जब उनकी शादी होती है, वे अपने मायके से अलग अपने-अपने ससुराल के नये परिवेश में बस जाती है । लेकिन इस कहानी में दोनों की शादियां भी संयोगवश एक ही घर में रहने वाले दो सगे भाइयों से हो जाती है । इसीलिये शादी भी उन्हें परस्पर से अलग नहीं करती ।

डिप्पर दोनों को अपनी-अपनी कामनाओं की पूर्ति की दिशा में ध्यान लगाने की सलाह देता है और इसी कारण उनके परिवार का बंटवारा भी हो जाता है । दोनों एक दूसरे से स्वतंत्र हो कर अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति में जी जान से लग जाती हैं । छुटकी शहर में जा कर राष्ट्रीय पुरस्कार पाने वाली शिक्षिका बन जाती है और बड़की गांव में ही राष्ट्रीय पुरस्कार पाने वाली डेयरी की मालकिन । इस प्रकार दोनों अपने-अपने जीवन में बेहद खुश रहती है । लेकिन उनके जीवन की अपनी उपलब्धियां उन दोनों बहनों के परस्पर संबंधों को सामान्य नहीं कर पाती हैं, कहीं न कहीं बहुत गहरे तक उसकी एक फांस रह ही जाती है । इसी वजह से दोनों के जीवन की इन बड़ी उपलब्धियों की सूचना उन दोनों के तीव्र ईर्ष्यालु मन के लिये खुशी के बजाय परस्पर उतना ही बड़ा सदमा भी साबित होती हैं । टेलिविजन पर पुरस्कार लेती छुटकी की तस्वीर देख कर बड़की पूरी गूंगी हो जाती है और बड़की की तस्वीर देख कर छुटकी अंधी ।

कहना न होगा, कहानी का यही वह कठिन मुकाम है जहां से वास्तव में इस कहानी का मनोविश्लेषणात्मक आख्यान शुरू होता है । रोग के दीर्घ विश्लेषण के इसी बिंदु पर डिप्पर उसके निदान के अंतिम चरण की ओर बढ़ता है । उसकी सलाह पर दोनों बेटियों का बापू मरने का एक नाटक करता है । बड़की के आंगन में पड़ी पिता की लाश पर एक लंबे अंतराल के बाद दोनों, अंधी और गूंगी बनी हुई  बहनें मिलती है । उनके संग के बीच इस दौरान जो लंबा व्यवधान पड़ा और उसमें उनके जीवन की जो उपलब्धियां हुई, इन सबने मिल कर बापू की लाश पर दोनों के मिलन के वक्त उन्हें एक ऐसे भावावेग के भंवर में डाल दिया जिसके तल में जाते-जाते उनके अंदर का दबा हुआ गुबार एक धमाके के साथ फूट कर क्रमश: मन को हमेशा के लिये शांत हो जाने की अवस्था में ले आता है । एक दूसरे को देख कर अचानक गूंगी की जुबान खुल जाती है, अंधी देखने लगती है । शुरू में तो दोनों एक दूसरे पर बुरी तरह से गालियां देती हुई ऐसे टूट पड़ती है मानो एक दूसरे को खा जायेंगी, लेकिन धीरे-धीरे वह विस्फोटक तूफान थमने लगता है । उसी समय मरा हुआ बापू उठ कर दोनों के बीच आ जाता है, जो दोनों के लिये गहरे सुकून का कारण बनता है । जीवन में पहली बार ये दोनों बहनें आपस में गले मिल कर फूट-फूट कर रोने लगती है । यह वह क्षण था जब उनके अंदर एक दूसरे के लिये नफरत पैदा करने वाली फांस एक झटके से निकल जाती है । वे दुनिया के सहज जीवन की धारा में वापस लौट आती हैं । डिप्पर और बापू उनको एक सहज और प्रेम भरे जीवन की उनसे छूट चुकी पूरी श्रृंखला से जोड़ने का काम करते हैं । उन्हें समग्र जीवन का अर्थ समझने और अपनाने की एक नई शक्ति मिलती है ।

इस प्रकार एक सामान्य ग्रामीण परिवेश में रची गई मनोविश्लेषणात्मक सत्रों के बीच से निकल कर आने वाले जीवन की कहानी का यह एक अपने प्रकार का फिल्मांकन है, जिस पर निश्चित रूप से विशाल भारद्वाज के फिल्म-निर्माण की अपनी लोकप्रिय शैली का साफ असर है । हमें निजी तौर पर इससे विशेष आनंद इसी बात पर आया कि दो दिन पहले हम राजनीतिक संदर्भ में पार्टियों/लोगों के बीच फंसी हुई पुरानी फांसों को निकालने और लंबे अर्से से वामपंथ की पटरी से उतरी हुई राजनीतिक लाइन को पटरी पर लाने के लिये उसे जिस प्रकार संसदीय जनतंत्र के यथार्थ की कड़ियों की पूरी श्रृंखला से जोड़ कर राजनीति की एक नई जनतांत्रिक भाषा को आत्मसात करने की बात कर रहे थे, वही बात इस कहानी में दो बहनों के बीच लंबे काल से बिगड़े हुए संबंधों से पैदा हुए मनोरोग के निदान की कथा में भी कही गई है । जब आपको एक खास राजनीतिक ढांचे में ही काम करना है तो उस ढांचे के कायदे कानूनों, शीलाचरणों से आपको जुड़ना ही होगा । तभी सीपीएम के इन नेताओं को ज्योति बसु होने, प्रधानमंत्री बनने का मतलब समझ में आने लगेगा, सोमनाथ चटर्जी भी समझ में आने लगेंगे और एक गठबंधन की सरकार में काम करने का धर्म भी । नाहक 'संसदवादी भटकाव' के काल्पनिक भूत से लड़ने की सनक से मुक्ति मिलेगी और इनका जीवन अपेक्षाकृत सहज होगा, उसमें किसी प्रकार की अंधता या गूंग कभी नहीं व्यापेगी, जैसी आज वामपंथी आंदोलन में व्यापी हुई है । हाइडेगर का यह कथन बहुत याद आता है कि जो उपस्थित है, जिसे वे dasein कहते हैं, उससे पूरी तरह इंकार करके किसी सत्य की प्राप्ति संभव नहीं है ।

हो सकता है, दो बिल्कुल अलग क्षेत्रों को साथ में रख कर उनमें इस प्रकार की समानताओं को देखने में वस्तुनिष्ठता कम और हमारा आत्मगत मामला ज्यादा काम कर रहा हो । लेकिन हमें निजी तौर पर यह फिल्म इसीलिये काफी दिलचस्प लगी । विशाल भारद्वाज ने भी इसमें भारत-पाकिस्तान का बार-बार उल्लेख करके इसे वृहत्तर राजनीतिक आयामों से दूर नहीं रखा है ।

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