—अरुण माहेश्वरी
मोहन भागवत की राजनीतिक सरगर्मियां अचानक काफी बढ़ गई हैं, इसे कोई भी देख सकता है । ज्यों-ज्यों 2019 नजदीक आ रहा है, वे यह जताने की भरसक कोशिश कर रहे हैं कि संसदीय चुनावी राजनीति से दूर रहने के बावजूद इसे लेकर वे किसी भी दूसरे व्यक्ति या संगठन से कम चिंतित नहीं है और न ही कम सक्रिय है ।
वैसे तो आरएसएस ने औपचारिक तौर पर राजनीति के पटल पर काम करने की पूरी जिम्मेदारी भाजपा, अर्थात आज के समय में मोदी-शाह जुगल-जोड़ी को सौंप रखी है । खुद मोहन भागवत के ही शब्दों में उनके संघ परिवार की यह 'बड़ी विशेषता' है कि उसके समान विचार के लोग जीवन के अलग-अलग क्षेत्रों को अपने काम के क्षेत्र के रूप में चुन कर उस क्षेत्र में 'पूरी स्वतंत्रता और स्वायत्तता से काम किया करते हैं' । उनके कामों में किसी भी जगह से कोई हस्तक्षेप नहीं करता है । इस बात को अपनी हाल की तीन दिवसीय राजनीतिक वक्तृता-श्रृंखला में भी उन्होंने खास जोर दे कर कहा था । इसे राजनीतिक टैक्टिस के रूप में यह भी समझा गया था कि वे इस प्रकार आदतन एक नया विभ्रम तैयार करना चाहते हैं ताकि विचारधारा के स्तर पर वे भारत की विविधता का सम्मान करने का दिखावा भी कर सके और व्यवहारिक राजनीति में मोदी-शाह के जरिये उसके खिलाफ खुले रूप में काम करने का लाइसेंस भी हासिल कर सके !
बहरहाल, भागवत कुछ भी कहे और मोदी-शाह कुछ भी क्यों न करें, हमारे सामने यह एक सीधा सवाल है कि मोहन भागवत आखिर किस वजह से आज ऐसा दिखावा कर रहे हैं, जिससे लोगों को यह लगे कि राजनीतिक तौर पर वे किसी से कम सक्रिय नहीं है ?
अभी पांच राज्यों में विधान सभा के चुनाव होने वाले हैं । मोदी-परस्त गोदी मीडिया ने ही इन सभी राज्यों में भाजपा की खस्ता स्थिति की भविष्यवाणियां कर दी है । उस पर, इसी बीच मीडिया में अक्सर आरएसएस के जमीनी सर्वेक्षण की खबरें भी आती रहती है । मसलन्, मध्यप्रदेश के बारे में उनके एक सर्वेक्षण में कहा गया बताते हैं कि भाजपा के बहुत सारे विधायकों के प्रति आम लोगों में भारी असंतोष है, इसीलिये आरएसएस चाहता है कि पहले के विधायकों में से कइयों को इस बार टिकट नहीं दिया जाना चाहिए । इसके अलावा, मीडिया में मोदी के विकल्प के तौर पर बीच-बीच में नितिन गडकरी की चर्चा भी कराई जाती है और इशारों में बताया जाता है कि मोदी की गिरती हुई साख को लेकर आरएसएस किसी से कम चिंतित नहीं है । उसने उनका एक विकल्प भी तैयार करना शुरू कर दिया है । अर्थात्, एनडीए की जीत की स्थिति में अगला प्रधानमंत्री कौन होगा, इसे तय करने में अब भी निर्णायक भूमिका आरएसएस की ही होगी !
जिस संगठन ने अपने को घोषित तौर पर राजनीति से दूर कर रखा है, और मोहन भागवत ने तो मोदी-शाह की योग्यता को इस हद तक प्रमाणपत्र दिया है कि 'भाजपा में जो लोग काम कर रहे हैं वे आरएसएस के नेतृत्व के लोगों से कहीं ज्यादा अनुभवी हैं', तब फिर भागवत अभी किस गरज से अपनी राजनीतिक चिंताओं और सक्रियताओं को इस प्रकार बढ़ा-चढ़ा कर पेश करने का दिखावा कर रहे हैं ?
जब हम इस सवाल के साथ राजनीति के बरक्श आरएसएस की वर्तमान दशा पर सोचते हैं तो हमें इसमें किसी भी जुनूनी व्यक्ति की विडंबनाओं की तरह ही एक जुनूनी सांस्कृतिक (राजनीतिक) संगठन की अपनी खास विडंबनाओं की तस्वीर नजर आने लगती है । यह वास्तव में एक तरफ उसकी प्रच्छन्न आंतरिक कामनाएं और दूसरी तरफ उसकी जद से पूरी तरह बाहर जा चुके यथार्थ से उत्पन्न उसकी विक्षिप्तता और पुंसत्वहीनता की विडंबनाओं की तस्वीर है ।
हर जुनूनी व्यक्ति, जब उसके वश में कुछ नहीं रह जाता है, हमेशा इस सवाल के द्वंद्व में फंसा होता है कि वह अभी जिंदा है या मर चुका है ? वह सारी जिंदगी बिना कुछ किये ही अपने समय की प्रतीक्षा में बिता देता है । बदल चुके समय से उत्पन्न समस्या के सम्मुख वह खुद कभी वास्तव में मैदान में नहीं उतरता है, किसी कोने में शुतुरमुर्ग की तरह सिर गड़ा कर बैठ जाता है । असली काम के समय वह हमेशा दूसरों से उसका काम कर देने की उम्मीद करता रहता है । जैसे, मोहन भागवत राजनीति की कितनी भी लंबी-चौड़ी क्यों न हांक ले, उनका सच यही है कि वे खुद कुछ करने लायक नहीं है, जो कुछ करना है मोदी-शाह को ही करना है ! कहा जा सकता है कि राजनीतिक तौर पर वे अपने से बाहर, मोदी-शाह कंपनी में जी रहे है और संघ परिवार के सब जानते हैं कि इसीलिये वे खुद राजनीतिक तौर पर एक जिंदा लाश की हैसियत ही रखते हैं । भारी महत्वाकांक्षाएं और उसी अनुपात में मैदान से अनुपस्थिति रहने की आंतरिक मजबूरी — इसी से जुनूनी लोगों में जो एक प्रकार की अजीब सी विक्षिप्तता पैदा होती है, आज का आरएसएस बिल्कुल उसी विक्षिप्तता का परिचय देता दिखाई दे रहा है ।
तीव्र राजनीतिक कामनाओं के बावजूद अपनी एक खास प्रकार की जीवन शैली के कर्मकांडों की कैद में जीना और कामना की पूर्ति के लिये वस्तुत: निश्चेष्ट बने रहना, या निष्प्रभावी होना, किसी अन्य से अपनी कामनाओं की पूर्ति की उम्मीदें बांधना जुनूनी आदमी में मृत व्यक्ति की तरह की जड़ता पैदा कर देती है । तब अंत में उसे सिर्फ वास्तविक मौत का भय सताने लगता है । वह उस सैनिक की तरह युद्ध भूमि में मृत पड़े होने का स्वांग करने लगता है जो सोचता है कि शत्रु उसे मृतक जान कर जिंदगी बख्श देगा, उसे वास्तविक मृत्यु का सामना नहीं करना पड़ेगा । मृत्यु से इस प्रकार बचने की आदमी की कोशिश जिंदा रहते हुए उसके मर जाने की तरह होती है । मनोविश्लेषकों ने ऐसे विक्षिप्त व्यक्ति में अपनी प्रेमिका को अपने किसी प्रिय दोस्त को सौंप कर निश्चिंत हो जाने की हद तक की नपुंसकता को लक्षित किया है ।
'राजनीति नहीं करते, राजनीति नहीं करते' के मंत्र का जाप करते हुए आज वे ऐसी दशा में पहुंच गये है कि सचमुच राजनीति की डोर उनकी हाथ से छूट कर पहले वाजपेयी-आडवाणी के हाथ में चली गई थी और अभी मोदी-शाह के हाथ में आ गई है । ऐसे में आरएसएस की कथित 'राजनीतिक सरगर्मियां', नये नये राजनीतिक विचारधारात्मक सूत्रीकरण एक जुनूनी संगठन की विक्षिप्तता के अलावा और कुछ भी जाहिर नहीं करते हैं । मोदी-शाह इस बात को जानते हैं और इसीलिये भागवत नयी-पुरानी कुछ भी बात क्यों न कहे, उनके लिये उसका शायद ही कोई मूल्य होता होगा । गडकरी या राजनाथ का भूत मोदी-शाह के लिये बच्चों को डराने की बातों से ज्यादा हैसियत नहीं रखता है । सच यह है कि ये अपने इस संघी पिता को मन में मृत मान चुके हैं ।
लेकिन हमारी नजर में, मोदी-शाह किसी से कम जुनूनी नहीं है । वे अपने पिता की असली संतानें हैं । इसीलिये, वे आज सत्ताधारी बन कर अपने पिता की मौत को मान लेने या उसकी प्रतीक्षा करने की मनोदशा मात्र में नहीं है, बल्कि वास्तव में मर चुके अपने इस मालिक को छाती से चिपकाये हुए भी है । जुनून में जड़ता किसी एक की खास दशा नहीं होती है, यह एक आम रोग होता है । हर जुनूनी इसका में इसके लक्षण मिलेंगे ही । ये सब अभी लगभग लाश की तरह पड़े हुए अपने खास सांप्रदायिक नफरत से भरे विचारों और जड़ता में आत्म-तुष्ट है । हमारा दुर्भाग्य है कि इस चक्कर में सरकार ही पूरी तरह से पंगु हो गई है । ये न्यूनतम सरकारी दायित्वों के निर्वाह में अयोग्य साबित हो रहे हैं ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें