शनिवार, 9 नवंबर 2019

आधुनिक समाज के कानूनी विवेक को नहीं, कब्जे की वास्तविकता को सुप्रीम कोर्ट ने तरजीह दी है

—अरुण माहेश्वरी 


न्याय, सद्भाव, मानवीय मर्यादा और सभी धार्मिक विश्वासों के प्रति समानता के नाम पर सुनाये गये अयोध्या के फैसले में कहा गया है कि

1. बाबरी मस्जिद का निर्माण किसी मंदिर को गिरा कर नहीं किया गया है । उसके नीचे मिलने वाले ढांचे 12वीं सदी के हैं जबकि मस्जिद का निर्माण 15वीं सदी में किया गया था ।

2. 1949 में बाबरी मस्जिद के अंदर राम लला की मूर्ति को बैठाना गैर-कानूनी काम था ।

3. 6 दिसंबर 1992 के दिन बाबरी मस्जिद को ढहाया जाना कानून के शासन के उल्लंघन का एक सबसे जघन्य कदम था ।

4. बाबरी मस्जिद पर शिया वक्फ बोर्ड के दावे को खारिज कर दिया गया ।

5. निर्मोही अखाड़े के दावे को भी खारिज कर दिया गया है ।

6. विवादित जमीन पर सिर्फ दो पक्ष, सुन्नी वक्फ बोर्ड और राम लला विराजमान के दावों को विचार का विषय माना गया ।

7. चूंकि विवादित स्थल पर 1857 से लगातार राम लला की पूजा चल रही है और उस जमीन पर हिंदुओं का कब्जा बना हुआ है, इसीलिये विवादित 2.77 एकड़ जमीन को रामलला विराजमान के नाम करके उसे केंद्र सरकार को सौंप दिया गया जिस पर मंदिर बनाने के लिये केंद्र सरकार एक ट्रस्ट का गठन करेगी । केंद्र सरकार तीन महीने के अंदर ट्रस्ट का गठन करके उस ट्रस्ट के जरिये मंदिर के निर्माण की दिशा में आगे बढ़े । उस ट्रस्ट में निर्मोही अखाड़ा का एक प्रतिनिधि रखा जाए ।

8. चूंकि 1992 में मस्जिद को ढहा कर मुसलमानों को उनकी जगह से वंचित किया गया, और चूंकि मुसलमानों ने उस मस्जिद को त्याग नहीं दिया था बल्कि 1949 तक वहां नमाज पढ़ी जाती थी, इसीलिये सुन्नी वक्फ बोर्ड को केंद्र सरकार अथवा उत्तर प्रदेश सरकार अयोध्या में ही एक प्रमुख और उपयुक्त स्थान पर 5 एकड़ जमीन मस्जिद के निर्माण के लिये देगी, ताकि मुसलमानों के साथ हुए अन्याय का निवारण हो सके ।

इस प्रकार इस फैसले में मूलत: कानून की भावना को नहीं, ‘कब्जे की वास्तविकता’ को तरजीह दी गई है । यद्यपि इस फैसले में ‘ न्याय, सद्भाव, मानवीय मर्यादा और सभी धार्मिक विश्वासों के प्रति समानता’ की दुहाई दी गई है, लेकिन इस प्रकार की किसी विवेकशील प्रक्रिया पर पूरा जोर देने के बजाय कानून को घट चुकी घटनाओं को मान कर चलने का एक माध्यम बना दिया गया है । यह एक प्रकार से राजनीति के सामने कानून का आत्म-समर्पण कहलायेगा । यद्यपि सुप्रीम कोर्ट ने इस अभियोग से बचने के लिये ही धारा 142 का इस्तेमाल करते हुए मुसलमानों को पहुंचाए गये नुकसान की भरपाई की बात कही है । 

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