शनिवार, 23 नवंबर 2019

महाराष्ट्र के वर्तमान घटना-क्रम के खास सबक


—अरुण माहेश्वरी


फासीवाद जनतंत्र के काल में महलों के षड़यंत्रों वाली दमनकारी राजशाही है, महाराष्ट्र में यह सत्य फिर एक बार नग्न रूप में सामने आया है । ऐसा साफ लगता है कि भ्रष्टाचार के आरोपों में फंसा कर रखे गये शरद पवार के भतीजे अजित पवार को रातों-रात, मानो बंदूक़ की नोक पर राज्यपाल के सामने लाकर तानाशाह की इच्छा पूरी की गई है । एक दिन शाम को शरद पवार ने शिव सेना, कांग्रेस और एनसीपी की लंबी बैठक के बाद यह घोषणा करते हैं कि तीनों दलों में यह पूर्ण सहमति बन गई है कि शिव सेना के उद्धव ठाकरे तीनों दलों की सरकार के मुख्यमंत्री होंगे और कल ही राज्यपाल के सामने सरकार बनाने के प्रस्ताव को रख दिया जायेगा । उसी दिन आधी रात के अंधेरे में, जब सारे लोग नींद में सोये हुए थे, महाराष्ट्र के राज्यपाल ने देवेन्द्र फडनवीस और एनसीपी के अजय पवार को बुला कर उन्हें मुख्यमंत्री और उप-मुख्यमंत्री के पद की शपथ दिला दी और दिल्ली से प्रधानमंत्री मोदी ने भी बधाई संदेश दे दिया । महाराष्ट्र के राज्यपाल को अब एनसीपी के विधायकों के हस्ताक्षरों की ज़रूरत नहीं रही, अजित पवार का होना ही काफ़ी था !

यह बात क्रमशः साफ होती जा रही है कि आज केंद्र सरकार के पास विध्वंस के अलावा रचनात्मक कोई राजनीतिक एजेंडा नहीं बचा है । अर्थनीति तो पटरी से पूरी तरह गिर चुकी है । अब उससे दुर्घटना के बाद सुनाई देने वाली सिर्फ़ मौत और चीख-पुकार का हाहाकार सुनाई देगा । इसी प्रकार की सार्विक आर्थिक तबाही को फासीवाद के जन्म सी सबसे मुफीद जमीन माना जाता है । केंद्र सरकार पूरी तत्परता से उसी जमीन को तैयार करने में लग गई है ।इसी सार्विक तबाही पर पनपता है । देश के कोने-कोने में अराजकता फैला कर सीधे सेना के बल पर शासन की भी तैयारियां की जा रही है । अमित शाह जिस प्रकार से संसद के मंच तक से पूरे देश में असम की तरह के एनआरसी के विफल और अराजक प्रकल्प को लागू करने की बातें कह रहे हैं, यह भी केंद्र की इसी विध्वंसक नीति का सबूत है । कश्मीर को उसी अराजकता की मूल भूमि के रूप में तैयार करके रख दिया गया है ।

आरएसएस के राम माधव ने पिछले दिनों सारी दुनिया में दक्षिणपंथी तानाशाहों के उदय से उत्साहित हो कर कहा था कि अब भारत में भी  मोदी को सत्ता पर रहने के लिये चुनावों की ज़रूरत नहीं बची है । जनता की राय के विपरीत मोदी सत्ता पर बने रहेंगे । महाराष्ट्र में इसे ही कर के दिखाया जा रहा है । चुनाव की पूरी मशीनरी, मसलन् चुनाव आयोग और अदालतों के दुरुपयोग और ईवीएम में कारस्तानियों के बावजूद अब मोदी चुनावों में हर जगह और बुरी तरह से हारेंगे और हर बार वे महाराष्ट्र की तरह ही जनता को हरायेंगे । यह अंतत: चुनावों के ही अंत की दिशा में बढ़ने का सूचक है ।

अभी चैनलों पर भाजपा के भोपूं पूरी बेशर्मी से राजनीति में राजसत्ता और पैसों के दुरुपयोग और तानाशाही का गुणगान करते हुए पाए जायेंगे । फासिस्टों के ये भोंपू राजनीतिक वार्ताओं के लंबे सिलसिलों को ही राजनीति-विरोधी बतायेंगे और सत्ता पर जबरन क़ब्ज़े की साज़िशों को राजनीति का श्रेष्ठ रूप । इनके झांसे में कुछ विवेकवान लोग भी यह कहते हुए पाए जायेंगे कि कांग्रेस दल ने राजनीति में तत्काल निर्णय लेने के महत्व को नहीं समझा, इसी का उसे खामियाजा चुकाना पड़ रहा है । ये लोग मानो राजनीतिक दलों की आपसी नीतिगत वार्ताओं को राजनीति के बाहर की चीज समझते हैं ।

यह सच है कि राजनीति की गुगली के महाउस्ताद माने जाने वाले शरद पवार क्या खुद अपने ही लोगों की गुगली से मात हो गए !  जो राजनीति को फासिस्ट चालों से बाहर नहीं देख पाते हैं, वे शरद पवार के साथ हुए इस धोखे में भी एक चाल देख सकते हैं । इनमें खास मोदी भक्त भी शामिल है जो अक्सर निरपेक्षता के मुखौटे में अनैतिकताओं के पक्ष में खड़ें पाए जाते हैं ।

कुछ महाराष्ट्र के पूरे राजनीतिक घटनाक्रम को गड्ड-मड्ड करते हुए आज भी भाजपा-शिव सेना के चुनाव-पूर्व समझौते की बात को दोहराते पाये जाते हैं । महाराष्ट्र में बीजेपी को बहुमत नहीं मिला था इसे जानते हुए भी वे कहते हैं कि वहां जनता ने बीजेपी को हराया नहीं था । उन्हें शिव-सेना-भाजपा का चुनाव-पूर्व समझौता याद है लेकिन वे इस समझौते की शर्तों को कोई महत्व नहीं देना चाहते जिसमें सत्ता की बराबरी की भागीदारी एक प्रमुख शर्त भी जिसे भाजपा ने अस्वीकार कर दिया और एक प्रकार से खुद ही शिव सेना-भाजपा के गठजोड़ को तोड़ दिया था । और यही वजह थी कि शिव सेना के साथ कांग्रेस और एनसीपी के समझौते में इतना लंबा वक्त लगा था । जिन्होंने साथ चुनाव नहीं लड़ा, उन पर जब साथ मिल कर सरकार चलाने की जिम्मेदारी आती है तो आपसी समझ कायम करने और जनता के प्रति जवाबदेही का सम्मान करने के लिये ही ये वार्ताएं जरूरी हो जाती है । अब अगर कोई कहे कि भाजपा ने शिव सेना के बिना चुनाव लड़ा होता तो उसे अकेले बहुमत मिल जाता, तो इस प्रकार के कोरे कयास पर क्या कहा जा सकता है । शिव सेना को तो 2014 के चुनाव में भाजपा को छोड़ कर अकेले चुनाव लड़ के अभी से काफी ज्यादा सीटें मिली थी ।

दरअसल, सच्चाई यही है फासीवाद के बारे में जनतांत्रिक नैतिकताओं के दायरे में रह कर कभी भी कोई सटीक विश्लेषण नहीं कर पायेगा । आज तो स्थिति यह कि भारत के समूचे विपक्ष को कश्मीर के राजनीतिज्ञों की तरह अपने बारे में जघन्यतम कुत्सा प्रचार, व्यापक पैमाने पर दमन, गिरफ्तारियों और यहां तक की अपहरण और हत्याओं की हद तक जा कर सोचने के लिये तैयार रहना चाहिए । अन्यथा वह अपनी हर रणनीति में ऐसे ही धोखों का सामना करते रहने के लिये अभिशप्त होगा । सभी चुनावी संघर्षों को आगे फासीवाद-विरोधी जन संघर्षों का रूप देना होगा । व्यापकतम जन-कार्रवाई ही फासीवाद के प्रतिरोध का एक मात्र तरीक़ा है ।

(23.11.2019, 13.55)

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