(मोदी-शाह-संघ तिकड़ी के वर्तमान पर एक मनोविश्लेषणमूलक दृष्टिपात)
—अरुण माहेश्वरी
मोदी जी ने फिर एक बार कहना शुरू किया है — ‘मुझ पर यकीन करो’ । नोटबंदी के बाद गोवा में उनका रोना शायद ही कोई भूला होगा । यही रट थी — मुझ पर यकीन करो । पचास दिन की मोहलत दो, अगर मैं इसके सुफल नहीं बता सका तो आप है और यह चौराहा है, मेरा फैसला कर दीजिएगा । फिर जीएसटी के लिये तो इन्होंने आधी रात में यह कहते हुए जश्न मनाया था कि उन्होंने आजादी की नई लड़ाई जीत ली है ।
इसी प्रकार न जाने वे कितनी बातों का यकीन दिलाते रहे हैं । भारत को स्वच्छ बना देंगे, भ्रष्टाचार दूर करेंगे, बलात्कार खत्म कर देंगे, अर्थ-व्यवस्था को दुनिया में सबसे तेज गति से बढ़ने वाली अर्थ-व्यवस्था बना देंगे, किसानों को लागत से डेढ़ गुना एमएसपी, फाइव ट्रिलियन इकोनोमी और न जाने क्या-क्या ! लेकिन हर मामलें में वे यकीन के लायक साबित नहीं हुए । घुमा-फिरा कर हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण और पाकिस्तान-विरोधी थोथी बातें करके ये राष्ट्रवाद का भूत की शरण में जाकर किसी प्रकार अपनी रक्षा करते हैं !
बहरहाल, लोग इन सब बातों को अब अच्छी तरह से जान रहे हैं । फिर भी, मजे की बात यह है कि 2019 के चुनाव में मोदी अच्छी तरह से विजयी हुए । इस जीत के बाद से तो मोदी ने जैसे मान लिया कि लोग उनकी झूठ और विफलताओं को ही प्यार करते हैं ! लोकसभा चुनाव के बाद से ये अपने विश्वासघात की राजनीति की दिशा में और भी अधिक निर्द्वंद्व भाव से बढने लगे हैं । कश्मीर के बारे में उनकी कार्रवाई और अब नागरिकता कानून को लेकर किया जा रहा मजाक उनके इस मनमौजीपन के सबसे बड़े उदाहरण हैं ।
आइये ! आज हम मोदी के झूठ और उसके प्रति ‘जनता के यकीन’ के विषय पर थोड़ी भिन्न दृष्टि से रोशनी डालते हैं । दुनिया के सबसे प्रमुख मनोचिकित्सक सिगमंड फ्रायड की मनोविश्लेषकों को, जिन्होंने मनोरोगी का इलाज करने का जिम्मा लिया है, सबसे पहली हिदायत यह दी थी कि कभी भी रोगी की खुद के बारे में कही गई बात पर विश्वास मत करो । वे बातें सिर्फ रोगी के अहम् की तुष्टि के लिये होती है । तभी से फ्रायड की इस बात को मनोविश्लेषकों की दुनिया का एक मूलभूत सिद्धांत माना जाता है ।
फ्रायड के कामों को मनोविश्लेषण में आगे एक बिल्कुल नई, दर्शनशास्त्रीय ऊंचाई तक ले जाने वाले फ्रांसीसी मनोविश्लेषक जाक लकॉन ने इसी विषय पर एक पूरा नया विमर्श तैयार किया था — ‘मनोविश्लेषण में बातों और भाषा की भूमिका और इनका क्षेत्र’ । इसमें वे फ्रायड की बात को बुनियादी तौर पर मानते हुए भी कहते हैं कि रोगी की बातें ही मनोविश्लेषण का प्रमुख औजार होती है, बातें कितनी भी खोखली क्यों न हो, मूल चीज यह है कि वे जैसी दिखती है, उन्हें बिल्कुल वैसी ही नहीं समझना चाहिए ।... भले वे कुछ न कहती हो, लेकिन बातचीत संवाद के अस्तित्व को बताती है ; भले जो साफ दिखता है उनमें उससे इंकार किया गया हो, लेकिन यही इस बात की भी पुष्टि है बात में सत्य होता है; भले उनका मकसद छल करना हो, लेकिन वे अन्य की गवाही में विश्वास पर निर्भरशील होती है । मूल बात यह है कि विश्लेषक को इस बात की समझ होनी चाहिए कि बातें किस प्रकार काम किया करती है । बातों के महत्व को मान कर रोगी की हर थोथी बात के पीछे भागने से विश्लेषक को हासिल कुछ नहीं होगा, बल्कि वह खुद रोगी के संदर्भ में अपने अंतर में खोखला होता चला जायेगा क्योंकि मनोविश्लेषण रोगी के साथ विश्लेषक का एक परस्पर द्वंद्वात्मक संबंध भी कायम करता है ।
इसी सिलसिले में लकॉन विश्लेषकों के लिये एक बहुत ही महत्वपूर्ण और पते की बात कहते हैं । वे कहते हैं कि आदमी को उसकी नितांत निजी बातों में देखने अथवा जड़ समझने, इन दोनों के ही खतरे हैं । इन खतरों से तभी बचा जा सकता है जब आदमी की आत्म-मुग्ध बातों से इन दोनों चीजों, उसकी निजता और उसकी जड़ता, दोनों को ही किन्हीं खामोश पक्षों के रूप में फिर से जोड़ा जा सके । इसका एक ही डर है कि आदमी अपने बारे में एक पत्थर की मूर्ति की तरह की कल्पना करके उसमें फंस सकता है ; अर्थात् उसका अलगाव और मजबूत हो जाता है ।
लकॉन कहते हैं कि “विश्लेषक की कला इस बात में है कि वह आदमी की खुद के बारे में निश्चित धारणाओं पर अपनी अंतिम राय को तब तक लटकाए रखे, जब तक उसकी अंतिम अभिलाषाएं (मरीचिकाएँ) खुल कर सामने नहीं आ जाती । आदमी की इन बातों से ही उसके अपने अंत को पढ़ा जाना संभव हो सकता है ।”
अब देखिये, हमारे यहां एक ओर मोदी-शाह-आरएसएस है और दूसरी ओर है भारत की जनता, इनका विश्लेषण करके उन पर राय देने वाला विश्लेषक । हमारे देश के लोगों ने अब तक मोदी की सारी छल-कपट की बातों को देखा है, और आज भी देख रही है । लेकिन वह मोदी के बारे में अपनी अंतिम राय को आज तक लटकाए हुए हैं । पिछले छः सालों से ही मोदी के झूठ और छल के खिलाफ कई रूप में असंतोष जाहिर करने पर भी अब तक उसने उन पर अपनी अंतिम राय को स्थगित रख छोड़ा है । ऐसा लगता है जैसे लोग किसी सधे हुए कुशल मनोविश्लेषक की तरह यह सब देखते हुए भी मोदी-शाह-आरएसएस तिकड़ी की महत्वकांक्षाओं को, उनके अंदर की मरीचिकाओं को पूरी तरह से सामने आने देने का मौका दे रही है । अब वे क्रमशः और भी तेजी से अपने मूल रोग को व्यक्त करने लगे हैं जो उन्हें आरएसएस की पाठशाला से लगे हुए हैं ।
पहले पांच साल तक तो वे उन पर पर्दा डाले रहते थे । यहां तक कि कश्मीर में महबूबा मुफ्ती के साथ मिल कर सरकार बनाई । शुरू में तो पाकिस्तान सहित सभी पड़ौसी देशों से अच्छे संबंधों की बाते की । गोगुंडों की गतिविधियों पर मोदी ने कड़े शब्दों का प्रयोग किया । लेकिन जैसे-जैसे नोटबंदी, जीएसटी की तरह के मूर्खतापूर्ण कदमों से इनके अंदर का खोखलापन सामने आने लगा, इन्होंने परपीड़क राष्ट्रवादी उत्तेजना की आड़ तैयार करने के लिये पाकिस्तान, नेपाल आदि से संबंध बिगाड़ लिये । कुल मिला कर उनकी विक्षिप्तता का पूरा सच सामने नहीं आया था । और यही वजह रही कि जनता की भी इनके बारे में अंतिम राय स्थगित रह गई ।
कहना न होगा, आदमी की अपनी बातों और उसकी आंतरिक जड़ताओं के बीच से उसके सच को सामने लाने में भ्रम और स्थगित अंतिम राय के बीच की खाई अब मोदी-शाह-संघ के चरित्र को खोलने में अपनी भूमिका अदा करने लगी है ।
अब नागरिकता संशोधन कानून और नागरिकता रजिस्टर के बारे में मोदी-शाह जिस प्रकार की दलीलों से लोगों को आश्वस्त करना चाहते हैं, वे काम नहीं कर सकती है । कश्मीर, असम के लोगों और उत्तर-पूर्व के लोगों के साथ किये गये विश्वासघात से आरएसएस की वह संविधान-विरोधी एकात्म सत्ता की फासिस्ट विचारधारा पूरी तरह से सामने आ रही है, जो मोदी सरकार की हर क्षेत्र में पंगुता और विफलता के मूल में है ।
अब कोई भी दुष्यंत कुमार के शब्दों में यह पूरे निश्चय से कह सकता है कि “उनकी अपील है कि उन्हें हम यकीं (मदद) करें, चाकू की पसलियों से गुज़ारिश तो देखिये।” मोदी-शाह-संघ की तिकड़ी पर जनता की अंतिम राय सुनाने की घड़ी अब शायद नजदीक आ रही है ।
—अरुण माहेश्वरी
मोदी जी ने फिर एक बार कहना शुरू किया है — ‘मुझ पर यकीन करो’ । नोटबंदी के बाद गोवा में उनका रोना शायद ही कोई भूला होगा । यही रट थी — मुझ पर यकीन करो । पचास दिन की मोहलत दो, अगर मैं इसके सुफल नहीं बता सका तो आप है और यह चौराहा है, मेरा फैसला कर दीजिएगा । फिर जीएसटी के लिये तो इन्होंने आधी रात में यह कहते हुए जश्न मनाया था कि उन्होंने आजादी की नई लड़ाई जीत ली है ।
इसी प्रकार न जाने वे कितनी बातों का यकीन दिलाते रहे हैं । भारत को स्वच्छ बना देंगे, भ्रष्टाचार दूर करेंगे, बलात्कार खत्म कर देंगे, अर्थ-व्यवस्था को दुनिया में सबसे तेज गति से बढ़ने वाली अर्थ-व्यवस्था बना देंगे, किसानों को लागत से डेढ़ गुना एमएसपी, फाइव ट्रिलियन इकोनोमी और न जाने क्या-क्या ! लेकिन हर मामलें में वे यकीन के लायक साबित नहीं हुए । घुमा-फिरा कर हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण और पाकिस्तान-विरोधी थोथी बातें करके ये राष्ट्रवाद का भूत की शरण में जाकर किसी प्रकार अपनी रक्षा करते हैं !
बहरहाल, लोग इन सब बातों को अब अच्छी तरह से जान रहे हैं । फिर भी, मजे की बात यह है कि 2019 के चुनाव में मोदी अच्छी तरह से विजयी हुए । इस जीत के बाद से तो मोदी ने जैसे मान लिया कि लोग उनकी झूठ और विफलताओं को ही प्यार करते हैं ! लोकसभा चुनाव के बाद से ये अपने विश्वासघात की राजनीति की दिशा में और भी अधिक निर्द्वंद्व भाव से बढने लगे हैं । कश्मीर के बारे में उनकी कार्रवाई और अब नागरिकता कानून को लेकर किया जा रहा मजाक उनके इस मनमौजीपन के सबसे बड़े उदाहरण हैं ।
आइये ! आज हम मोदी के झूठ और उसके प्रति ‘जनता के यकीन’ के विषय पर थोड़ी भिन्न दृष्टि से रोशनी डालते हैं । दुनिया के सबसे प्रमुख मनोचिकित्सक सिगमंड फ्रायड की मनोविश्लेषकों को, जिन्होंने मनोरोगी का इलाज करने का जिम्मा लिया है, सबसे पहली हिदायत यह दी थी कि कभी भी रोगी की खुद के बारे में कही गई बात पर विश्वास मत करो । वे बातें सिर्फ रोगी के अहम् की तुष्टि के लिये होती है । तभी से फ्रायड की इस बात को मनोविश्लेषकों की दुनिया का एक मूलभूत सिद्धांत माना जाता है ।
फ्रायड के कामों को मनोविश्लेषण में आगे एक बिल्कुल नई, दर्शनशास्त्रीय ऊंचाई तक ले जाने वाले फ्रांसीसी मनोविश्लेषक जाक लकॉन ने इसी विषय पर एक पूरा नया विमर्श तैयार किया था — ‘मनोविश्लेषण में बातों और भाषा की भूमिका और इनका क्षेत्र’ । इसमें वे फ्रायड की बात को बुनियादी तौर पर मानते हुए भी कहते हैं कि रोगी की बातें ही मनोविश्लेषण का प्रमुख औजार होती है, बातें कितनी भी खोखली क्यों न हो, मूल चीज यह है कि वे जैसी दिखती है, उन्हें बिल्कुल वैसी ही नहीं समझना चाहिए ।... भले वे कुछ न कहती हो, लेकिन बातचीत संवाद के अस्तित्व को बताती है ; भले जो साफ दिखता है उनमें उससे इंकार किया गया हो, लेकिन यही इस बात की भी पुष्टि है बात में सत्य होता है; भले उनका मकसद छल करना हो, लेकिन वे अन्य की गवाही में विश्वास पर निर्भरशील होती है । मूल बात यह है कि विश्लेषक को इस बात की समझ होनी चाहिए कि बातें किस प्रकार काम किया करती है । बातों के महत्व को मान कर रोगी की हर थोथी बात के पीछे भागने से विश्लेषक को हासिल कुछ नहीं होगा, बल्कि वह खुद रोगी के संदर्भ में अपने अंतर में खोखला होता चला जायेगा क्योंकि मनोविश्लेषण रोगी के साथ विश्लेषक का एक परस्पर द्वंद्वात्मक संबंध भी कायम करता है ।
इसी सिलसिले में लकॉन विश्लेषकों के लिये एक बहुत ही महत्वपूर्ण और पते की बात कहते हैं । वे कहते हैं कि आदमी को उसकी नितांत निजी बातों में देखने अथवा जड़ समझने, इन दोनों के ही खतरे हैं । इन खतरों से तभी बचा जा सकता है जब आदमी की आत्म-मुग्ध बातों से इन दोनों चीजों, उसकी निजता और उसकी जड़ता, दोनों को ही किन्हीं खामोश पक्षों के रूप में फिर से जोड़ा जा सके । इसका एक ही डर है कि आदमी अपने बारे में एक पत्थर की मूर्ति की तरह की कल्पना करके उसमें फंस सकता है ; अर्थात् उसका अलगाव और मजबूत हो जाता है ।
लकॉन कहते हैं कि “विश्लेषक की कला इस बात में है कि वह आदमी की खुद के बारे में निश्चित धारणाओं पर अपनी अंतिम राय को तब तक लटकाए रखे, जब तक उसकी अंतिम अभिलाषाएं (मरीचिकाएँ) खुल कर सामने नहीं आ जाती । आदमी की इन बातों से ही उसके अपने अंत को पढ़ा जाना संभव हो सकता है ।”
अब देखिये, हमारे यहां एक ओर मोदी-शाह-आरएसएस है और दूसरी ओर है भारत की जनता, इनका विश्लेषण करके उन पर राय देने वाला विश्लेषक । हमारे देश के लोगों ने अब तक मोदी की सारी छल-कपट की बातों को देखा है, और आज भी देख रही है । लेकिन वह मोदी के बारे में अपनी अंतिम राय को आज तक लटकाए हुए हैं । पिछले छः सालों से ही मोदी के झूठ और छल के खिलाफ कई रूप में असंतोष जाहिर करने पर भी अब तक उसने उन पर अपनी अंतिम राय को स्थगित रख छोड़ा है । ऐसा लगता है जैसे लोग किसी सधे हुए कुशल मनोविश्लेषक की तरह यह सब देखते हुए भी मोदी-शाह-आरएसएस तिकड़ी की महत्वकांक्षाओं को, उनके अंदर की मरीचिकाओं को पूरी तरह से सामने आने देने का मौका दे रही है । अब वे क्रमशः और भी तेजी से अपने मूल रोग को व्यक्त करने लगे हैं जो उन्हें आरएसएस की पाठशाला से लगे हुए हैं ।
पहले पांच साल तक तो वे उन पर पर्दा डाले रहते थे । यहां तक कि कश्मीर में महबूबा मुफ्ती के साथ मिल कर सरकार बनाई । शुरू में तो पाकिस्तान सहित सभी पड़ौसी देशों से अच्छे संबंधों की बाते की । गोगुंडों की गतिविधियों पर मोदी ने कड़े शब्दों का प्रयोग किया । लेकिन जैसे-जैसे नोटबंदी, जीएसटी की तरह के मूर्खतापूर्ण कदमों से इनके अंदर का खोखलापन सामने आने लगा, इन्होंने परपीड़क राष्ट्रवादी उत्तेजना की आड़ तैयार करने के लिये पाकिस्तान, नेपाल आदि से संबंध बिगाड़ लिये । कुल मिला कर उनकी विक्षिप्तता का पूरा सच सामने नहीं आया था । और यही वजह रही कि जनता की भी इनके बारे में अंतिम राय स्थगित रह गई ।
कहना न होगा, आदमी की अपनी बातों और उसकी आंतरिक जड़ताओं के बीच से उसके सच को सामने लाने में भ्रम और स्थगित अंतिम राय के बीच की खाई अब मोदी-शाह-संघ के चरित्र को खोलने में अपनी भूमिका अदा करने लगी है ।
अब नागरिकता संशोधन कानून और नागरिकता रजिस्टर के बारे में मोदी-शाह जिस प्रकार की दलीलों से लोगों को आश्वस्त करना चाहते हैं, वे काम नहीं कर सकती है । कश्मीर, असम के लोगों और उत्तर-पूर्व के लोगों के साथ किये गये विश्वासघात से आरएसएस की वह संविधान-विरोधी एकात्म सत्ता की फासिस्ट विचारधारा पूरी तरह से सामने आ रही है, जो मोदी सरकार की हर क्षेत्र में पंगुता और विफलता के मूल में है ।
अब कोई भी दुष्यंत कुमार के शब्दों में यह पूरे निश्चय से कह सकता है कि “उनकी अपील है कि उन्हें हम यकीं (मदद) करें, चाकू की पसलियों से गुज़ारिश तो देखिये।” मोदी-शाह-संघ की तिकड़ी पर जनता की अंतिम राय सुनाने की घड़ी अब शायद नजदीक आ रही है ।
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