सोमवार, 2 दिसंबर 2019

यह भारतीय मीडिया की एक अलग परिघटना है

-अरुण माहेश्वरी

(रवीश कुमार के भाषणों के प्रभाव में एक सोच)


रवीश कुमार के भाषणों को सुनना अच्छा लगता है । इसलिये नहीं कि वे विद्वतापूर्ण होते हैं ; सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ के चमत्कृत करने वाले नये सुत्रीकरणों की झलक देते हैं । विद्वानों के शोधपूर्ण भाषण तो श्रोता को भाषा के एक अलग संसार में ले जाते हैं । रवीश ऐसे किसी नए भाषाई संसार की रचना नहीं करते । एक पत्रकार की अपेक्षाकृत सावधानीपूर्ण भाषाई संरचना के दायरे में वे वाग्मिता के उस लोकप्रिय ढांचे का ही निर्वाह करते चलते हैं जिसमें गंभीर से गंभीर परिस्थिति के आख्यानों के बोझ को हमेशा कुछ हंसी, कुछ कटाक्ष और यदा-कदा गुस्से से भी हल्का करते हुए आगे बढ़ा जाता हैं ।

फिर भी मजे की बात है कि रवीश के भाषण कुल मिला कर किसी लोकप्रिय वक्तृता श्रंखला की कड़ी भर नहीं लगते हैं । बल्कि हम उन्हें उनके भाषणों से अलग, बल्कि उनके जरिये स्वयं में एक अलग परिघटना के रूप में सामने आता हुआ देखते हैं । भारतीय मीडिया की एक खास, कुछ नई परिघटना के रूप में पाते हैं ।

रवीश हिंदी के पहले मीडियाकर्मी हैं जिन्हें प्रतिष्ठित मैगसेसे पुरस्कार मिला है । मैगसेसे के पीछे कई कारण हुआ करते हैं । इनमें एक प्रमुख कारण अपने समय की कसौटी पर सामने आए व्यक्ति का समग्र चरित्र होता है ; किसी खास समय में व्यक्ति के क्रियाशील पहलू की विशेषता की स्वीकृति होती है । इसीलिये देखेंगे कि इसकी ख्याति पुरस्कृत व्यक्ति के सक्रिय जीवन काल तक ही बनी रहती है । यह उस अर्थ में नोबेल पुरस्कार नहीं होता है, जिसके लिये माना जाता है कि नोबेल पुरस्कारजयी लोगों की खोजों ने मनुष्यों के लिये उनकी सोच और भाषा के, उनके चित्त के एक नये वृत्त को रचने का काम किया है । वह भले भौतिकी के लिये हो, रसायनशास्त्र के लिये, चिकित्साशास्त्र अथवा साहित्य और विश्व शांति के लिये ही क्यों न हो ।

इसके बावजूद, जब हम रवीश कुमार को स्वयं में एक अलग परिघटना कहते हैं तो जाहिरा तौर पर यह आदमी की क्रियाशीलता के किसी क्षेत्र के पूर्व-स्वीकृत दायरे में उनके विशेष कर्तृत्व का, या समय की मांग पर उनके निष्ठापूर्वक सामने आने का मसला भर नहीं रह जाता है । यदि हम कहे कि रवीश प्रेस के असली, मूलभूत धर्म का निर्वाह कर रहे हैं, जबकि इस क्षेत्र में काम करने वाले अन्य उससे भटक रहे हैं, तो कहीं न कहीं हम उन्हें उस खास दायरे में सीमित करके ही देख रहे होते हैं ।

और, कोई भी लकीर, वह कितनी ही पवित्र और प्रेरक क्यों न हो, उसे पीट कर, सराहना तो पाई जा सकती है पर, हम नहीं समझते, उससे किसी ‘भिन्न परिघटना’ का साक्षी बनने की अनुभूति पैदा की जा सकती है । कोई लकीर जितनी ही हल्की या गाढ़ी क्यों न हो, उसे पीटने में धार्मिक कर्मकांडों की तरह की एक जुनूनियत का अंश प्रमुख होगा ; उससे किसी भिन्न परिघटना की अभिनवता का अहसास पैदा नहीं होगा ।

इसके पहले कि हम ‘रवीश एक नई परिघटना’ को विषय बनाए, आइये, भारत के समाचार मीडिया के सच पर एक नजर डालते हैं, रवीश जहां से पैदा होते हैं । लोकतंत्र के कथित चौथे खंभे का यह डिजिटल अवतार अपने जन्म से ही मूल रूप से भारत के राजनीतिक दलों के एक अभिन्न अंग के रूप में विकसित हुआ है । इसकी आंतरिक संरचना पर गौर करें तो पायेंगे कि इसकी अपनी कोई धुरी नहीं रही है, वह राजनीतिक दलों की धुरी पर ही घूमता रहा है ।

पत्रकारिता, वह भले प्रिंट हो या डिजिटल, उसके दो प्रमुख संघटक तत्त्व होते हैं— समाचार और विश्लेषण । इन तत्त्वों के स्रोतों की सचाई से, अर्थात् इनकी क्रियात्मकता से यदि हम परिचित नहीं होंगे तो यह मान कर चलिये कि हम मीडिया के सच से भी हमेशा कोसों दूर रहेंगे । किसी भी विचार पद्धति से लेकर तकनीक तक को तब तक न समझा जा सकता है और न ही उनका सही ढंग से प्रयोग किया जा सकता है जब तक हम यह नहीं जान लेते हैं कि वे किन मूलभूत चीजों पर आधारित हैं । मार्क्सवाद के प्रयोग के लिये जरूरी माना जाता है कि हेगेल के द्वंद्ववाद के सच को समझा जाए और फायरबाख के भौतिकवाद से उसके फर्क को भी । उसके बिना मार्क्सवाद को समझना और उसकी विधि का सही ढंग से प्रयोग करना लगभग असंभव होता है ।

भारत के समाचार मीडिया में समाचार और विश्लेषण, दोनों का ही केंद्रीय विषय राजनीतिक दल के अलावा कुछ नहीं रहा हैं । और मीडिया में राजनीतिक दलों की एक प्रकार की अनिवार्य और सर्वव्यापी उपस्थिति ही वह प्रमुख सच है जो उसे इन दलों के अधीन बनाने की भी जमीन तैयार करती है । पूरा मीडियातंत्र जब सत्ता के दलालों की उपज की सबसे उर्वर जमीन माना जाता है, तब संकेत इस जगत के पतन के पहलू की ओर भी होता है । मीडिया पर किसी सत्ताधारी, शक्तिशाली दल के आधिपत्य का विषय जितना मीडिया की अपनी इच्छा-अनिच्छा पर निर्भर करता है, उससे बहुत ज्यादा वह सत्ताधारी दल की नीति और चयन का विषय होता है । मीडिया के अर्थशास्त्र का यह एक सबसे कटु सच है । मीडिया का अस्तित्व जुड़ा हुआ है विज्ञापनों से और विज्ञापन सबसे अधिक सरकार के पास है ! गोदी मीडिया इसी लाचारी भरे कटु सच का एक सबसे विकृत रूप है ।

मीडिया के इस जगत में हमें रवीश एक अलग परिघटना प्रतीत होते हैं तो सवाल उठता है कि ऐसा कहने से हमारा क्या तात्पर्य है ? जब मीडिया अपने पतन के इस स्तर तक पहुंच चुका है कि एक अदना सा मंत्री बड़ी आसानी से उसे प्रेस्टीट्यूट कह कर उसी मीडिया का चहेता बना रहता है, तब रवीश क्यों और कैसे एक अलग परिघटना बन कर सामने आते हैं ।

मीडिया के अनैतिक संसार में पत्रकार का नैतिक साहस इस विशेष स्थिति में निश्चित रूप से एक जरूरी पहलू होता है । लेकिन नैतिक ऊंचाई से बोलने की कोशिश करने वाले रवीश अकेले नहीं है । ऐसे और भी पत्रकार है जिन्होंने इसके लिये अपनी अच्छी-खासी नौकरियों तक की कीमत अदा की है । इस मामले में तो रवीश उनसे खुशनसीब कहे जा सकते हैं, जिन्हें तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद एनडीटीवी के प्रणव राय का संरक्षण मिला रहा है । इसीलिये अकेला नैतिक बल उनकी एक अलग परिघटना के रूप में पहचान का कारण नहीं हो सकता है ।

अगर हमें रवीश को एक अलग परिघटना के रूप में समझना है तो हमें उनके अंदर के व्यक्ति से बाहर उनके मीडिया कर्म की विशेषता को समझना होगा । वहां देखना होगा जहां वे मीडिया कर्म के प्रमुख संघटक तत्व, समाचार और विश्लेषण की क्रियात्मकता की अपनी समझ का प्रयोग कर रहे होते हैं ।

रवीश मीडिया में राजनीति की किसी नैतिकतावादी समझ से रवीश और एक अलग परिघटना नहीं बने हैं, मीडिया में समाचार के विषयों के उनके चयन और उनके विश्लेषणों ने उन्हें रवीश बनाया है । एक ओर जहां मुख्यधारा का मीडिया राजनीतिक दलों की करतूतों के कीचड़ में ही लोट-पोट रहा है, वहीं रवीश कुमार का मीडिया नोटबंदी के कारण बैंकों के सामने कतारों में जूझ रहे कातर लोगों और गांव के किसानों, शहरों के नौजवानों और मजदूरों के बीच जीवन की लड़ाइयों से निर्मित होता है । रवीश बेरोजगार नौजवानों के जुलूसों में कदम बढ़ाते हुए अपने मीडियाकर्म कर रहे होते हैं ।

जैसा कि हम बार-बार कह रहे हैं, समाचार मीडियाकर्मी का एक प्रमुख औजार होता है, लेकिन यदि उसके पास यह दृष्टि नहीं होती कि उसे किन समाचारों पर ध्यान देना है और किन पर नहीं, उसकी अपनी चयन की कोई दृष्टि नहीं है तो वह फालतू किस्म के समाचारों के पीछे ही दौड़ता-हांफता रहता है । फालतू बातों का खोखलापन उसके अंतर का खोखलापन बनने लगता है, जिसे भरने के लिये वह अंततः मूल विषय से ही दूर भटकता चला जाता है । वह झूठ-मूठ हिंदुओँ- मुसलमानों को लड़ाता रहता है । जो कहीं नहीं है, पत्रकार उसी को दिखाने, बताने में लगा रहता है ।

इसीलिये रवीश जब कहीं भाषण दे रहे होते हैं तो उनकी बातों को अर्थ प्रदान करने वाला जो तीसरा, ‘अन्य’ तत्व उनके साथ वहां मौजूद होता है, वह उनका बाकी के मीडिया से बिल्कुल अलग प्रकार का मीडियाकर्म होता है । उसमें खोखले समाचारों की खोखली प्रस्तुतियों की कोई छाया नहीं होती है । मीडिया के बाकी अंश में राजनीतिक दलों का जो खोखलापन गूंजा करता है, रवीश के यहां जीवन का ठोस सत्य बोलता है । यहां तक कि इसमें किसी निराश गुलाम की मृत्यु की कामना वाली आक्रामक नैतिकता भी नहीं होती है । उनके साथ सत्य को धारण करने वाला सुस्थिर तर्क बोलता है । आदमी के जीवन में जैसे शरीर और भाषा के अलावा उसके बाहर के एक सत्य की भूमिका होती है, वैसे ही मीडिया में पत्रकार और समाचार के बाहर जीवन के सच की भूमिका होती है । अगर वही खोखला होता है तो मीडियाकर्मी और उसका पूरा काम खोखला हो जाता है ।

अर्थात्, रवीश जब भाषण दे रहे होते हैं तब उनकी शालीन उपस्थिति और सुलझी हुई शैली के अतिरिक्त उसमें जो एक अतिरिक्त बाहर का सत्य बोल रहा होता है और वह उनके ठोस मीडियाकर्म का सच होता है । उनका हर श्रोता उन्हें सुनते हुए उनके मीडियाकर्म से भी जुड़ा होता है । उनके कामों की यह खास संरचना ही रवीश को भारतीय मीडिया की एक विशेष परिघटना का रूप दे रही है । और शायद इसीलिये उनके भाषण इतने अधिक प्रभावशाली होते हैं ।                       

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें