प्रमाता जो अनिवार्य तौर पर अपने में अस्थिर होता है, उसके विश्लेषण में किसी भी अवसर पर जब ठोस वस्तुमूलकता अर्थात् अद्व्य जड़ पहचान पर बल दिया जाता है तो उसके नतीजे में निराश करने वाली उबाऊ और फार्मूलाबद्ध चीजों के अलावा कुछ हासिल नहीं हुआ करता है ।
(You will see object relations overvalued and promoted from one end to the other in a way that is not always very satisfying in its articulation, but whose monotony and uniformity are surely striking — Jacques Lacan)
मोदी सरकार फासीवादी है या वह नवफासीवादी रुझान की है, अर्थात् फासीवाद-पूर्व की स्थिति को सूचित करने वाली सरकार है, इस प्रकार के कार्यनीति से जुड़े ठोस वस्तु-संबंध (object-relation) से जुड़ा विमर्श भी नितांत तात्कालिक स्तर पर भी किसी उबाऊ और जड़सूत्रवादी नतीजे के अलावा कुछ भी हासिल नहीं करा सकता है। मूल बात यही है कि मोदी सरकार आरएसएस नामक एक शुद्ध फासीवादी विचार का अंश भर है । उसके बाहर उसका कोई अस्तित्व नहीं है ।
लेकिन फिर भी, ऐसे वस्तुगत जड़ निष्कर्षों का बोझ आपकी किसी कार्यनीति के लिए अक्सर कितना भारी और घातक साबित हो सकता है, इसका एक रूप आज के “टेलिग्राफ” में छपी इस खबर से दिखाई देता है जिसमें कहा गया है कि जेएनयू में एसएफआई और आइसा के बीच छात्रों का लेफ्ट यूनिटी एलायंस मोदी सरकार के चरित्रांकन के सवाल पर ही टूट गया है ।
वाम एकता में इस फूट के बाद भी यदि जेएनयू में एबीवीपी को रोकने में सफलता मिलती है तो माना जायेगा कि इस विमर्श की जड़ता के बोझ ने ही शत्रु पर इसके प्रहार को बल पहुंचाया है । अन्यथा इस पूरे विमर्श की व्यर्थता तो स्वयंसिद्ध है ।
—अरुण माहेश्वरी
सच लिखा
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