गुरुवार, 20 फ़रवरी 2014

कल्पना चावला की विरासत


अरुण माहेश्वरी

धरती पर कोलंबिया नहीं, सिर्फ उसका मलबा वापस आया। 1 फरवरी 2003 की सुबह जब प्रतीक्षा थी कि 16 दिनों के सफल मिशन के बाद अमरीकी अंतरिक्ष संस्था नेशनल एअरोनाटिक्स एंड स्पेश एडमिनिस्ट्रेशन (नासा) का अंतरिक्ष यान कोलंबिया अपने सातों अंतरिक्ष यात्रियों के साथ वापस लौट आयेगा, उसी दिन धरती के वायुमंडल में प्रवेश के साथ ही लगभग 63 हजार फुट की ऊंचाई पर एक भारी विस्फोट के साथ वह टुकड़े-टुकड़े हो गया और एक साबुत कोलंबिया के बजाय, उसका मलबा और अंतरिक्ष यात्रियों के अवशेष अमरीका के टेक्सास के लगभग 500 वर्ग मील के दायरे में बिखर गये। आदमी के अंतरिक्ष अभियान के 41 वर्षों के इतिहास में पहली बार कोई यान इस तरह अपनी वापसी के वक्त धरती के वायुमंडल में प्रवेश के साथ ही चकनाचूर हो गया।

कोलंबिया की इस दुर्घटना ने दुनिया के समूचे वैज्ञानिक समाज को और विज्ञान की प्रगति पर आशा भरी निगाहें टिका कर रखने वाले हर प्रगतिशील इंसान को भारी धक्का पंहुचाया है। दुर्घटना के कारणों की जांच चल रही है। इसके आखिरी निष्कर्षों आने में काफी समय लगेगा। इसी बीच कुछ ऐसी बातें भी सामने आयी जिनसे पता चलता है कि ये अंतरिक्ष अभियान भी नौकरशाही की बीमारियों से अछूते नहीं रहते हैं। कोलंबिया यान की यह 28वीं अंतरिक्ष यात्रा थी। पिछले दिनों इस यान में कई खराबियां दिखाई देने लगी थी। खबरों के अनुसार नासा के कई विशेषज्ञों ने कोलंबिया के बारे में सुरक्षा संबंधी कई चेतावनियां दी थी, लेकिन नासा के अधिकारियों ने उनकी चेतावनियों पर कान देने के बजाय उन विशेषज्ञों को ही नौकरी से निकाल देना मुनासिब समझा। इसके अलावा अब अंतरिक्ष यानों में सुरक्षा संबंधी सभी कदम उठाने के लिये जरूरी अर्थ की कमी की बात भी कही जा रही है।

बहरहाल, कोलंबिया की इस दुर्घटना में मनुष्यता को दुनिया के अंतरिक्ष संबंधी खोजों में लगे सात बेहतरीन वैज्ञानिकों को गंवाना पड़ा, जो नि:सन्देह विज्ञान के  जगत के लिये एक बड़ी क्षति है। इन्हीं सात वैज्ञानिकों में एक भारतीय मूल की वैज्ञानिक कल्पना चावला भी थी। 41 वर्षीय कल्पना हरियाणा के करनाल में जन्मी थी। जिस देश के व्यापक समाज में आज भी घर में बेटी का जन्म नाना दुश्चिंताओं का कारण माना जाता है, उस देश की जिस बेटी ने अंतरिक्ष वैज्ञानिक के रूप में ब्रह्मांड के रहस्यों को जानने की कोशिशों में जिंदगी खपा देने वाले दुनिया के महान वैज्ञानिकों की कतार में अपने को शामिल कर लिया था, उसकी इस अकाल मृत्यु से सभी देशवासियों का गहराई से मर्माहत होना बहुत ही स्वाभाविक है।

ब्रह्मांड हमेशा से मनुष्य की जिज्ञासाओं के केंद्र में रहा है। इसके असीम अनंत रूप के रहस्य ने आदमी को अपने और इस धरती के अस्तित्व के बारे में कितने सवालों, विश्वासों और अंध-विश्वासों के रूबरू किया है, इसका कोई हिसाब नहीं है। कहा जा सकता है कि यदि ब्रह्मांड आदमी की जिज्ञासाओं का स्रोत रहा है, तो यही किसी सर्वशक्तिमान के विधान की कल्पना के आधार पर आदमी की कोरी आस्था और अंध-विश्वासों का आदि स्रोत रहा है। मनुष्य के स्वाभाविक सवालों और जिज्ञासाओं के विपरीत शुद्ध आस्था और अंध-विश्वासों के बल पर समाज पर अपना वर्चस्व कायम रखने वाले धर्म-संस्थानों ने ब्रह्मांड के रहस्य को एक बंद किताब बना कर आदमी की जिज्ञासु प्रवृत्ति के दमन के लिये ही इस ब्रह्मांड के बारे में ऐसे तमाम ‘ईश्वरीय’ सिद्धांत रच रखे थे, जिन पर सवाल उठाना ईश्वर की सत्ता को चुनौती देने समान भारी अपराध माना जाता था। कछुए की पीठ की मीनारों या शेषनाग के फन पर टिकी धरती की तरह की धार्मिक मान्यताओं की भांति ही आकाश में तमाम खगोलीय पिंडों की स्थिति को खोज के बजाय धार्मिक विश्वास और आस्था का विषय बना दिया गया था। धरती के स्वरूप के बारे में आम विश्वासों से भिन्न, 340 ई.पू. में युनानी दाशर्निक अरस्तू ने सामान्य अवलोकनों के आधार पर ही जब पृथ्वी को चपटी के बजाय गोल बताया था, तो इसके लिये उसे असीम धैर्य और साहस की जरूरत पड़ी थी। लेकिन अपने कोरे विश्वास के बल पर ही वे यह मानते रहे कि पृथ्वी ही ब्रह्मांड का केंद्र है; पृथ्वी स्थिर है और सूर्य, चंद्रमा, ग्रह तथा तारें इसके चारो ओर गोल कक्षा में घूम रहे हैं। दूसरी शताब्दी में टालेमी ने अरस्तू के विचारों को ब्रह्मांड के अवस्थान के एक पूर्ण मॉडल का रूप दिया। टालेमी के उस मॉडल में कुछ साफ खामियां होने पर भी इसाई चर्च ने उस पर इसलिये स्वीकृति की मोहर लगा दी कि वह बाइबिल में चित्रित ब्रह्मांड की तस्वीर से मेल खाती थी। उसमें सितारों से आगे ‘स्वर्ग’ और ‘नरक’ के बने रहने की गुंजाईश बनी हुई थी।

चर्च की इन स्थापनाओं को चुनौती दी थी रौगर बैकन (लगभग 1210 से 1293) ने। तीव्र भावावेग के साथ उन्होंने लिखा, यदि मेरा वश चले तो मैं अरस्तू की सारी किताबों को जला कर राख कर दूं क्योंकि उन्हें पढ़ना समय की बर्बादी, भूल करने और अज्ञानता को बढ़ाने के अलावा कुछ नहीं है। युरोपीय नवजागरण के अग्रदूतों के तेवर के साथ उन्होंने यह आान किया था कि जड़ सूत्रों और सत्ता बल के अधीन रहना बंद करो; दुनिया को देखो! इस प्रकार उन्होंने युरोप में स्थापित मान्यताओं को चुनौती देने और लगातार खोज और प्रयोगों की ओर बढ़ते रहने के बौद्धिक परिवेश को बनाने में एक अहम भूमिका अदा की थी। इसके बावजूद ब्रह्मांड के बारे में चर्च की स्थापना का आतंक ऐसा था कि परवर्ती दिनों, 16वीं शताब्दी के पूर्व में जब पोलैंड के एक पुरोहित निकालस कापर्निकस (1473-1543) ने यह पाया कि सूर्य केंद्र में स्थित है और पृथ्वी तथा दूसरे ग्रह सूर्य के चारों ओर चक्राकार कक्षाओं में घूमते हैं, तो उन्होंने अपने इस अवलोकन को गुमनाम प्रसारित किया था ताकि वे चर्च द्वारा खुद को विधर्मी घोषित किये जाने के दंड से बच सके। कापर्निकस के निष्कर्षों को चर्च की विश्व-दृष्टि के मूलाधार पर हमला माना गया था। प्रकृति का नियम धरती और पूरे ब्रह्मांड पर समान रूप से लागू होता है और यह कोई ईश्वरीय विधान नहीं, बल्कि मनुष्य के लिये बोधगम्य विधान है- इस बात को ईश्वर द्वारा पृथ्वी को रचे जाने के विश्वासों पर प्रहार के तौर पर समझा गया। इसीलिये चर्च ने सन् 1616 में कापर्निकस की पुस्तक ‘आन द रिवोल्यूशन्स आफ हेवनली स्फेयर्स’ पर पाबंदी लगा दी, कापर्निकस के निष्कर्षों को कोरी बकवास घोषित कर दिया गया। उनकी किताब पर लगी पाबंदी दो सौ वर्ष बाद, 1828 में ही उठ पायी।  

कापर्निकस के लगभग एक शताब्दी बाद जर्मनी के जॉहन्स कैपलर (1571-1630) और इटली के गैलेलियो गैलिली (1564-1642) ने उनके अवलोकन को गंभीरता से स्थापित करने का काम किया, लेकिन उनके प्रति भी चर्च का क्या रुख रहा, इसे सारी दुनिया जानती है। गैलेलियो को बाकायदा चर्च की अदालत में दंडित किया गया और उनसे यह इकबालिया बयान लिया गया कि कापर्निकस के सिद्धांत के बारे में उनकी राय सही नहीं है। यद्यपि दमन के बल पर हासिल की गयी गैलेलियो की इस स्वीकृति को कभी भी एक औपचारिकता से अधिक महत्व नहीं दिया गया, फिर भी कैथोलिक चर्च ने गैलेलियो को जो दंड दिया था उसे गलत मानने में कैथोलिक चर्च को लगभग चार सदी का समय लगा। अभी पांच साल पहले वैटिकन ने एक बयान जारी करके गैलेलियो के साथ किये गये अन्याय की अपनी भूल को स्वीकारा है।

गैलेलियो के उपरांत में न्यूटन (1643-1727) के गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत से लेकर आइंस्टाइन के सापेक्षता के साधारण सिद्धांत और आज तक इस ब्रह्मांड के बारे आदमी की समझ में लगातार विकास हो रहा है। ब्रह्मांड के बारे में आज जो बात सर्व-स्वीकृत है कि यह सदैव से स्थिर रहने के बजाय निरंतर परिवर्तनशील है, बीसवीं सदी के पहले किसी ने इसकी कल्पना तक नहीं की थी। यद्यपि ब्रह्मांड के बारे में आस्थावानों के बीच आज भी आम धारणा यही है कि यह एक शाश्वत सत्य है। इसके बारे में किसी प्रकार के प्रश्न को ईश्वरीय कार्यों में अवांछित मानवीय हस्तक्षेप माना जाता है। इसके बावजूद, निश्चित तौर पर यह कहा जा सकता है कि आज भी ब्रह्मांड मानव जाति की गहनतम जिज्ञासा का विषय बन कर मनुष्य द्वारा लगातार खोजों और अधिकतम ज्ञान हासिल करने का हेतु बना हुआ है।

कल्पना चावला ने खुद को खोज की इन्हीं अद्दम्य मानवीय कोशिशों के सुपुर्द कर दिया था। वे चांद पर जाना चाहती थी। अंतरिक्ष की उनकी यह दूसरी यात्रा थी और भविष्य में ऐसी और भी अनेक यात्राओं के सपने पाले हुए थी। उन्होंने खुद को आकाश गंगा का नागरिक कहा था। अंतरिक्ष में जाकर ही अखिल ब्रह्मांड के विराट संदर्भ में पृथ्वी के गौण अस्तित्व को देख कर उन्होंने कहा था कि इस अनंत ब्रह्मांड के असंख्य खगोल पिंडों में पृथ्वी मात्र एक पिंड भर है, फिर भी पता नहीं क्यों इसी पृथ्वी पर इतनी मार-काट, आपाधापी और स्वार्थों की टकराहट और धरती के अस्तित्व मात्र को समाप्त कर देने वाले नाभिकीय अस्त्रों की होड़ मची हुई है। अंतरिक्ष से उन्होंने धरती पर शांति की कामना की थी।

ब्रह्मांड के रहस्यों की वैज्ञानिक खोज के क्रम में कल्पना चावला ने धरती के इस कटु यथार्थ की जो पहचान की थी, दुनिया के सभी मानवतावादियों और समताकामी लोगों के लिये सदियों से यही सबसे बड़ी चिंता और चुनौती का विषय बना हुआ है। अब तक ज्ञात जीवन की संभावनाओं के एक मात्र ग्रह पृथ्वी पर स्वार्थों और प्रभुत्व की सीमाहीन लालसाओं ने क्या तांडव मचा रखा है, यह सभी जानते हैं। प्रभुत्व-विस्तार के लिये ही नाभकीय शस्त्रों का इतना विशाल भंडार तैयार कर लिया गया है जो एक बार नहीं, इस धरती को सौ-सौ बार समाप्त करने में सक्षम है। यहां तक कि अन्तरिक्ष को भी प्रभुत्व की इस रणनीति के दायरे में लाने की कोशिश चल रही है।

सृष्टि के प्राकृतिक विधान में मनुष्य का ऐसा महा-विध्वंसक हस्तक्षेप आज विज्ञान की जड़ों को हिला रहा है। यह पुन: संवेदनशील इंसानों के एक बड़े हिस्से में विज्ञान के बजाय  प्रकृति के दासत्व को स्वीकारने की जमीन तैयार कर रहा है। कल्पना ने अपनी वैज्ञानिक खोज के क्रम में मानव की सेवा में रत विज्ञान के मर्म को आत्मसात किया था और इसीलिये धरती पर चल रहे विध्वंस के अमानवीय कृत्यों के अंत की कामना की थी। अन्यायपूर्ण धरती के बजाय स्वच्छ आकाश गंगा की नागरिकता को अपना कर उन्होंने धरती पर मची इस आपा-धापी पर सवालिया निशान लगाया था और विज्ञान की मानवीय आत्मा का परिचय दिया था। इसीलिये कल्पना को सच्ची श्रद्धांजलि युद्ध और विध्वंस के खतरों से मुक्त एक समतामूलक न्यायपूर्ण मानव समाज के निर्माण से ही दी जा सकती है। सितारों की दुनिया की एक चिरस्थायी नागरिक बन कर कल्पना ने मनुष्यता को विरासत के तौर पर विज्ञान की जो मानवीय दृष्टि सौंपी है, उसे सहेजना और लगातार विकसित करना ही आज के मनुष्य का सच्चा कर्तव्य है।

इतिहास की पुनरावृत्ति और राष्ट्रीय विकल्प का प्रश्न



हंस के अक्तूबर 1987 के अंक में प्रकाशित
अरुण माहेश्वरी

(मित्रो,
आज मैं 27 साल पहले ‘हंस’ में प्रकाशित अपने एक लेख को आपके साथ साझा कर रहा हूं।सच कहा जाए तो,  सन् ‘77 से ‘87 तक के राजनीतिक घटना-चक्र को समेटने वाली एक टिप्पणी। सन् ‘75 के आंतरिक आपातकाल के बाद से लेकर राजीव गांधी की सरकार के लगभग चार साल बाद, सन् ‘89 के आम चुनाव की पूर्व स्थितियों पर टिप्पणी। इतने सालों बाद, आज भी इसे पढ़ कर भारतीय राजनीति की आंतरिक गतिशीलता के कुछ सूत्रों का अनुमान लगता है। मेरा मानना है कि भारत की संसदीय राजनीति के विद्यार्थियों के लिये यह टिप्पणी काफी दिलचस्प होगी  )

कार्ल मार्क्स की एक अत्यंत महत्वपूर्ण कृति है -‘लुई बोनापार्ट की अठारहवीं ब्रुमेर’। लुई बोनापार्ट अर्थात चाल्र्स लुई नेपोलियन बोनापार्ट जो इतिहास में नेपोलियन तृतीय के नाम से जाना जाता है। नेपोलियन प्रथम का भतीजा नेपोलियन तृतीय 1849-1851 तक फ्रांसके दूसरे गणतंत्र का राष्ट्रपति रहा तथा 2 दिसंबर 1851 के दिन उसने राज्य क्रांति करके अपनी फौजी तानाशाही कायम कर ली और 1870 तक फ्रांस का एकछत्र सम्राट बना रहा। ब्रुमेर का अर्थ है फ्रांस के गणतंत्रीय पंचांग का एक महीना। 18वीं ब्रुमेर अर्थात 9 नवंबर।

सन् 1799 की 9 नवंबर को राज्य क्रांति करके नेपोलियन प्रथम ने फ्रांस की सत्ता हथियायी थी और नये संविधान के जरिये खुद को फ्रांस का प्रथम कौंसिल घोषित करके निरंकुश अधिकारों को हासिल किया था। फ्रांस की पूंजीवादी क्रांति के बाद सितंबर 1792 में फ्रांस के पहले गणतंत्र की स्थापना हुई थी। लेकिन नेपोलियन इसके सात साल बाद सत्ता पर आसीन हो पाया था और सन् 1804 में उसने अपने को फ्रांस का सम्राट घोषित किया। सत्ता पर आने के पहले ही कई युद्धों में शानदार जीत हासिल करके नेपोलियन फ्रांस की जनता में लोकप्रियता के शिखर पर पंहुच गया था। सत्ता हथियाने के बाद भी उसने कई बड़ी-बड़ी लड़ाइयां लड़ी तथा फ्रांस के पुनर्निर्माण की योजनाओं में भी महत्वपूर्ण योगदान किया। अंत में स्पेन के विफल अभियान तथा सन् 1812 में रूस में पराजय के बाद ही नेपोलियन प्रथम के पतन का दौर शुरू हुआ और लिपजिग के युद्ध में जिसे ‘राष्ट्रों का युद्ध’ कहा जाता है, फ्रांस पर कुछ मित्र शक्तियों का कब्जा होगया। इसके बाद फिर एक बार वाटरलू की लड़ाई के जरिये नेपोलियन ने सत्ता पर लौटने की कोशिश की जहां 15 जून 1815 के दिन वह पूरी तरह पराजित होगया। तब से सन् 1848 तक फ्रांस में एक प्रकार का नियंत्रित राजतंत्र कायम रहा। सन् 1848 में लुई फिलिप को हटा कर फ्रांस में द्वितीय गणतंत्र की स्थापना हुई। किंतु यह गणतंत्र भी पहले गणतंत्र की तरह ही अत्यंत अल्पस्थायी रहा। इस गणतंत्र के राष्ट्रपति लुई नेपोलियन बोनापार्ट ने ही मात्र तीन साल बाद 2 दिसंबर 1851 को एक राज्य-क्रांति करके गणतंत्र के संविधान को खारिज कर दिया और 1851 में खुद को फ्रांस का सम्राट घोषित कर दिया। नेपोलियन तृतीय शुरू से ही खुदको हर मामले में नेपोलियन प्रथम की ही एक अनुकृति के रूप में पेश करने की कोशिश करता था।

कार्ल मार्क्स ने अपनी कृति ‘लुई बोनापार्ट की सातवीं ब्रुमेर’ में फ्रांस की इन्हीं परिस्थितियों का बड़ी सूक्ष्मता के साथ अत्यंत मूर्त ढंग से विश्लेषण किया है, जिनमें एक बार फिर फ्रांस के गणतंत्र को समाप्त कर वहां निरंकुश राजशाह शुरू हुई थी। मार्क्स ने इस कृति में सन् 1848 से 1851 के बीच के काल की तुलना 1799 के पहले की फ्रांस की उन राजनीतिक स्थितियों से की है जिनमें नेपोलियन प्रथम का उदय हुआ था। अपनी इस कृति के प्रारंभ में वे हेगेल के एक कथन की चर्चा करते हुए कहते हैं कि ‘‘हेगेल ने एक जगह कहा है कि ऐसा लगता है कि विश्व इतिहास में वे सभी घटनाएं और हस्तियां, जिनका भारी महत्व है, दो बार आविर्भूत हुई है।‘‘ इसपर मार्क्स ने अपनी टिप्पणी करते हुए लिखा था -‘‘वे इतना और कहना भूल गये : पहली बार दुखांत नाटक के रूप में और दूसरी बार प्रहसन के रूप में। ...अठारहवीं ब्रुमेर का द्वितीय संस्करण जिन परिस्थितियों में पैदा हुआ है वे इसे प्रथम वे इसे प्रथम संस्करण का कार्टून बना देती है।’’

दुखांत नाटक यूरोपीय साहित्य का वह उत्कृष्ट अंश है जिसमें मनुष्य की समस्त उदात्त शक्तियां अपने चरम रूप में व्यक्त होने पर भी कथा का अंत व्यवहारिक जीवन की कटु सच्चाई में होता है। प्रहसन हर प्रकार की मौलिकता और उदात्तता से रहित सिर्फ छुद्रताओं का प्रदर्शन भर है।

मार्क्स की इस कृति में किये गये विश्लेषण की रोशनी में जब हम विगत एक दशक से भी ज्यादा समय के अपने देश के राजनीतिक इतिहास, शासक दल के संकट और विपक्ष की वर्तमान स्थिति को देखते हैं तो माक्र्स द्वारा किये गये तमाम विश्लेषण हमें बिल्कुल भविष्यवाणियां करते हुए प्रतीत होते हैं। सन् ‘75 के पहले का समय, जेपी के नेतृत्व में शुरू हुआ जन-आंदोलन, फिर आपातकाल, आपातकाल-विरोधी संघर्ष तथा जनता पार्टी के शासन की स्थापना - यह समूचा घटनाक्रम लगभग एक दशक बाद आज जैसे फिर से खुद को दोहराता हुआ प्रतीत होता है। लेकिन जब हम बहुत गहराई से ‘पुनरावृत्ति’ के इस नये दौर का, इसके नाकों तथा अन्य अभिनेताओं की स्थितियों का विवेचन करेंगे तो यह समझते देर न लगेगी कि खुद को दोहराता सा प्रतीत होरहा यह इतिहास भी सचमुच अपने प्रथम संस्करण की एक कार्टून की तरह की ही नकल प्रस्तुत कर रहा है।

इन्दिरा गांधी पर आरोप था कि उन्होंने जनतंत्र का गला घोंट कर एकदलीय तानाशाही और फिर एक व्यक्ति की तानाशाही तक कायम करने की मुहिम शुरू की थी। जनतांत्रिक संस्थाओं की साख को गिराने का, न्यायपालिका को कार्यपालिका के अधीन करके संविधान को पंगु बनाने का अभियान शुरू किया। गरीबी हटाओं के नारे की आड़ में गरीबों को हटाने की योजनाओं पर अमल किया। सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार बढ़ा। इन्दिरा गांधी के खिलाफ देशव्यापी संघर्ष को नेतृत्व दिया था जयप्रकाश नारायण ने - भारत में स्वतंत्रता संग्राम के नायकों में से एक, सालों से सीधी राजनीति से अलग रह कर सर्वोदय के जरिये रचनात्मक कार्यों के गांधीवादी कार्यक्रमों को समर्पित व्यक्तित्व ने। उस समय जनता के तमाम हिस्से लड़ाई के मैदान में उतरने लगे थे। रेल हड़ताल तथा अन्य औद्योगिक हड़तालों के सिलसिले ने वर्ग संघर्ष को सड़कों पर उतार दिया था। तभी इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इन्दिरा गांधी द्वारा चुनाव में भ्रष्ट उपायों का प्रयोग करने के आरोप के पक्ष में राय दी जिसने संकट-ग्रस्त कांग्रसी बारूदखाने में चिंगारी का काम किया। अपनी सत्ता को बचाये रखने के लिये इन्दिरा गांधी ने आंतरिक आपातकाल की घोषणा की। जयप्रकाश सहित विपक्ष के नेताओं को जेलों की सींखचों में बंद कर दिया गया। अध्यादेशों का राज कायम हुआ। मनमाने ढंग से संसद की अवधि तक को बढ़ा दिया गया। संविधान का 42 वां संशोधन, जनता के सभी जनतांत्रिक और मूलभूत अधिकारों को रौंदा जाने लगा। इसी पूरे काल में प्रधानमंत्री के निवास पर प्रायोजित प्रदर्शनों के अनोखे दृश्य देखने को मिले थे जब श्रीमती गांधी बंटोर कर लाये गये लोगों के सामने  अपने ही बाप-दादाओं द्वारा रचे गये संविधान और न्याय प्र्रणाली की धज्जियां उड़ाते हुए अपनी तानाशाही की मुहिम पर ‘समाजवादी’ मुलम्मा चढ़ाया करती थी। उनके इस ‘समाजवाद’ के पक्ष में भारत के सबसे बड़े इजारेदार पूंजीपति के.के.बिड़ला भी अपने गोत्र के लोगों के साथ वातानुकूलित चैंबरों को त्याग कर सड़कों पर उतर आये थे।

आपातकाल के पक्ष में पूंजीपतियों का इस प्रकार सड़कों पर उतरना ऐसा ही था जैसे पूंजीपति वर्ग का एक हिस्सा अपने अस्तित्व और सुरक्षा के लिये अपने ही राजनीतिक शासन (संसदीय शासन) की समाप्ति को जरूरी समझने लगा था और प्रधानमंत्री के सामने दुम हिलाते हुए उन सारी व्यवस्थाओं को समर्थन दे रहा था जो हर स्तर पर जनतंत्र को कुचल डाले ताकि एक शक्तिशाली और निरंकुश सरकार की छत्रछाया में पूरे इत्मीनान के साथ वे अपना निजी धंधा चला सके।

इसके बाद ही सन् ‘77 का आमचुनाव आया। जनता और संसदीय जनतंत्र ने मतपेटियों में अपनी चरम शक्ति का परिचय दिया तथा जे.पी. की ‘संपूर्ण क्रांति’ जनता पार्टी की सरकार की स्थापनो के स्तर तक पर्यवसन के रूप में फलीभूत हुई। जनता पार्टी के रूप में इका हुए सभी ‘जनतंत्रवादी’ सूरमाओं ने शत्रु के पराजित हो जाने की कल्पना करके अपने मन में बना रखी ऐसी योजनाओं की डींग हांकने में सारा समय जाया करना शुरू कर दिया जिन पर वास्तव में अमल की उनके पास कोई परिकल्पना ही नहीं थी। संसदीय जनतंत्र एक बार फिर स्थापित हुआ लेकिन जनतंत्र के विस्तार के सारे वादे ताक पर धरे रह गये। मिनि मिसा, औद्योगिक सुरक्षा विधेयक की तरह के कदमों से इस कटु सच्चाई को वे भी छिपा के नहीं रख सके कि पूंजीवादी जनतंत्र एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्गों पर एक स्वेच्छाचारी शासन भर है। उल्टे जनता पार्टी में घुसी सांप्रदायिक और पुरातनपंथी शक्तियों ने खुद को तेजी से गोलबंद करना शुरू कर दिया ताकि संकट के फिर किसी नये दौर में ‘सैन्यवादी जनतंत्र’ नहीं तो कम से कम ‘सांप्रदायिक जनतंत्र’ का ही नुस्खा वे जनता के सामने रख सके। मात्र अढ़ाई वर्ष में वह जनता पार्टी जिसके कुछ घटकों ने शायद यह कल्पना की थी कि उन्होंने ‘क्रांति द्वारा त्वरित ऐतिहासिक गति की क्षमता’ प्राप्त कर ली है, सहसा खुद को एक मृतयुग में पहुंच गयी पाती है। उसके घटकों की अयोग्यता और उसके भीतर पैठी सांप्रदायिक शक्तियों के कारनामों की थाती पर ही फिर से इंदिरा कांग्रेस की सरकार कायम हुई।

दुबारा कायम हुए इंदिरा गांधी के शासन के बाद की स्थितियों ने यही साबित किया कि अयोग्यता अब कोई दलीय मामला नहीं बल्कि एक वर्गीय सच्चाई बन गयी है। पूंजीवादी-सामंती वर्गों के पास जनता की किसी भी समस्या के समाधान का कोई रास्ता नहीं है। सांप्रदायिक और विभाजनकारी ताकतों से रफ्त-जब्त भी इनकी राजनीतिक मजबूरी का रूप लेती जा रही है। समाजवाद का नारा तथा साम्राज्यवाद से घनिष्ठता तो इनकी राजनीतिक और आर्थिक जरूरतों की पूर्ति की पुरानी रणनीति रही है। इसी दौर में, चुनावों में हमेशा जनता द्वारा ठुकराये गये बददिमाग वित्त और विदेश व्यापार मंत्री प्रणव मुखर्जी ने विदेश व्यापार विभाग को कांग्रेस की दुकानदारी की खिड़की बनाकर चुनावों के वक्त देशी पूंजीपतियों के धन पर से कांग्रेस की निर्भरता को कम करने का एक नया नुस्खा खोजा कयोंकि आपातकाल विरोधी लड़ाई में भारतीय पूंजीपतियों के एक हिस्से ने भी मदद की थी। तभी से विदेशी कंपनियों के साथ सरकारी सौदेबाजियों में दलाल नामक एक तीसरे पक्ष की उपस्थिति का सिलसिला शुरू होगया। बोफोर्स कांड के पर्दाफाश होने के बाद भारत छोड़ कर अमेरिका भगा दिया गया दिल्ली का विन चड्ढा दरअसल उसी दौर की उपज था।

इसके अलावा आपातकाल और उसके बाद के अनुभवों से शिक्षित होकर इंदिरा गांधी ने नये-नये काले कानून बना कर आपातकालीन स्थितियों के स्थायी बंदोबस्त की मुहिम शुरू की। ‘फूट डालो और राज करो’ का औपनिवेशिक शासन का मंत्र अब हर दृष्टि से दिवालिया होते जा रहे पूंजीवादी सामंती वर्गों के शासन का स्थायी मंत्र होगया। इस बात की अब उन्हें कत्तई परवाह नहीं रही कि जनता की एकता में दरार देश की एकता और अखंडता पर घात लगाये बैठे दुश्मनों का ही रास्ता साफ करेगी। उल्टे सत्तासीन खुराफाती दिमागों ने अपने द्वारा पैदा किये गये संकटों को ही अपनी पूंजी बनाने का मायावी खेल खेलना शुरू किया। कुल मिलाकर इससे नफरत की ऐसी आग भड़की कि अंतत: अपने अंगरक्षकों के हाथों ह श्रीमती गांधी को अपनी जान गंवानी पड़ी ; अस्थिरता पैदा करने की अपनी कुचालों के साथ बिल्कुल नंगे रूप में भारत के मंच पर उतर आने में साम्राज्यवाद को अब कोई शर्म नहीं रही।

इन हालात में ही राजीव गांधी सत्ता में आयें। शासक दल का दिवालियापन इस सीमा तक पहुंच चुका था कि उसके पास जनता को देने के लिये वंश-परंपरा के अपने किस्म के राजतंत्रीय जनतंत्र के सिवा दूसरो कोई विकल्प नहीं था। जनतांत्रिक प्रक्रिया से गद्दी पर बैठा राजकुमार विरासत के तौर पर झूठ, धोखा, भ्रष्टाचार, सांप्रदायिकता, अदूरदर्शिता, तथा देशी-विदेशी पूंजीपतियों की सेवा के अलावा अपने साथ और कुछ नहीं लाया था। हवाई जहाज उड़ाने का शाहाना शौक फरमाते हुए लफंगा समझा जाने वाला छोटा राजपुत्र जब खुदा को प्यारा होगया तब ये महोदय हवाई जहाज चलाना छोड़ कर एक ऐसे काल में अपनी माता से राजनीतिक प्रशिक्षण लेने आये थे जब उनके पास झूठ, धोखा, भ्रष्टाचार, सांप्रदायिकता आदि की तरह के ‘राजनीतिज्ञ के महान गुणों’ के अलावा देने के लिये और कुछ नहीं था। राजनीति को इन्हीं महान गुणों का पर्याय समझने की इनकी शिक्षा ने सत्तासीन होने के पहले दिन ही हमारे सामाजिक ढांचे पर एक कहर बरपा दिया। ‘एक बड़ा वृक्ष गिरता है तो आसपास की घरती कुछ कांपती ही है’ के तर्क पर इन्होंने सिखों के खिलाफ दंगों को बढ़ावा दिया और पूरे सिख समाज में विलगाव की भावनाओं को स्थायी बना दिया।

प्रचंड बहुमत से सत्ता पर आने के ठीक बाद ही इनके भूसे भरे कूट दिमाग का जो परिचय मिलना शुरू हुआ तो फिर श्रीमान क्लीन, 21वीं सदी तथा कांग्रेस के अंदर सत्ता के दलालों के खिलाफ गलेबाजी की कोई भी छटा इनकी गिरती छवि को चमका नहीं पायी, क्योंकि ये सारी चीजें एक ऐसे व्यक्ति की बेईमानियों को छिपाने की कोशिश भर थी जिसने अब तक अपने लिए त्याग, ईमानदारी और दूरदर्शिता की कोई पूंजी इकट्ठी नहीं की थी। नई आर्थिक नीति, नई शिक्षा नीति की तरह की तमाम ‘नई नीतियां’ तलाकशुदा मुस्लिम महिला विधेयक, असम, मिजोरम, दार्जलिंग के अलगाववादियों के साथ उनकी रब्तो-जब्त कांग्रेस दल की नीतियों के नकारात्मक पक्षों का, साम्राज्यवादी, सांप्रदायिक और अलगाववादी शक्तियों के प्रति समझौता-परस्ती की नीतियों का भयावह विकास ही है क्योंकि जिस परिवेश में इनकी परिवरिश हुई है उसमें उन सकारात्मक पक्षों के प्रति उनके दिल में किसी प्रकार की श्रद्धा पैदा होने का कोई कारण नहीं था, जो आजादी की लड़ाई की विरासत के तौर पर कांग्रेस दल को मिले थे। इसके अलावा इन चंद अढ़ाई वर्षों के शासन की खुद की सबसे बड़ी विडंबना यह रही कि एक ओर तो सत्ता के शीर्ष पर बैठे व्यक्ति के संगी-साथी थे बेईमान पूंजीपति, कालाबाजारी और सत्ता के दलाल किंतु दूसरी ओर उनकी छवि को श्रीमान क्लीन के रूप में निखारने की गरज भी थी। इसी गरज के चलते वित्त मंत्री छापे मार-मार कर कई ‘इज्जतदारों’ को सरेआम नंगा कर रहे थे। लेकिन यह स्थिति अधिक दूर तक बनी रहे, यह मुमकिन नहीं था क्योंकि संगी-साथियों की सोहबत का असर नौजवान प्रधानमंत्री पर न पड़ें, यह नामुमकिन था।

अपने ‘इहलोक’ और ‘परलोक’ दोनों को ही सुरक्षित करने के लिये ईरान के शाह और फिलीपीन के सम्राट ने जिस प्रकार अपने देश के धन को भारी मात्रा में अमरीकी बैंकों में जमा कराया था, जो बाद में देश छोड़ कर भागने कके लिए मजबूर होने पर उनके शाहाना जीवन को बनाये रखने के काम भी आया, उसी प्रकार अपने दोनो लोकों को सुरक्षित कर लेने का मोह इस ‘राजतंत्रीय जनतंत्र’ के युवा सम्राट में भी पैदा हो जाये तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि आखिर उन सम्राटानें ने इतना तो स्थापित कर ही दिया कि इस प्रकार की ‘साधना’ एक ‘विश्वव्यापी सचाई’ है।

छापे मारने के लिये खोले गये हाथ विदेशों में धन उड़ाके ले जाने की बाजीगरी के रहस्य तक पहुंचने लगे और यहीं से शासक दल के भीतर चीखों-चिल्लाहटों का वर्तमान दौर शुरू होगया। जिस राजपुत्र की कल्पित विशाल मूर्ति की छाया तले शासक दल के कुकुरमुत्ते राजनीतिज्ञ अपनी शक्ति से बहुत ज्यादा निगलकर लुढ़क-पड़ रहे थे, उन्हें हठात् वह विशाल मूर्ति तेजी से बौनी होती दिखाई देने लगी। बोफोर्स कांड ने हवा से फुलाकर रखे गये बबुए में सूई चुभो दी। सत्ता की लूट के तमाम भागीदारों के लिए अस्तित्व का संकट पैदा होगया है। हमारा राजनीतिक वर्तमान इसी संकटकालीन भागदौड़ की उत्तेजनाओं से जकड़ा हुआ है। और यहीं से इतिहास की पुनरावृत्ति का वह सवाल पैदा होता है जिसकी विडंबना की चर्चा से हमारी यह टिप्पणी शुरू हुई थी।

जैसी कि हम पहले ही चर्चा कर चुके हैं, हमारे स्वातंत्रोत्तर राजनीतिक जीवन में पहले भी उत्तेजनाओं से भरा एक ऐसा ही दौर बीत चुका है जब ‘कड़वी दवा के घूंट’ से मर्ज का इलाज किया गया था और आपातकाल के जरिये जनता के सारे जनतांत्रिक अधिकारों का हनन कर के शासक दल के राजनीतिक संकट का समाधान प्राप्त करने का प्रयास किया गया था। उस वक्त जनवादी आंदोलन की शक्ति ने भी अपना गौरवशाली परिचय दिया यद्यपि उसका अंत अवसरवादी राजनीतिज्ञों के जमावड़े के साथ जनता पार्टी के उत्थान ओर पतन के दुखांत नाटक के रूप में हुआ।

अब एक बार फिर शासक दल पर संकट के बादल घने हो रहे हैं। आम जनता में उसकी साख पूरी तरह से गिर चुकी है। जीवन की बुनियादी समस्याओं पर जनता में भारी असंतोष है। शासक दल के भतर भी दरार पड़ चुकी है। यह सब धीरे-धीरे एक बहुत बड़े विस्फोट की दिशा में बढ़ रहा है। कहां तो उनका दंभ था कि देश को वे ही 21वीं सदी तक ले जायेंगे और आज हालत यह है कि वर्तमाने लोकसभा की बाकी अवधि का एक-एक दिन उन्हें एक-एक साल जितना भारी लग रहा है। उनके पास इस संकट से निकलने का कोई रास्ता नहीं है। साम्राज्यवादी साजिशों की दुहाई भी इस स्थिति में सिर्फ उनकी कमजोरी को दर्शाती है। प्रधानमंत्री के निवास पर प्रायोजित प्रदर्शनों तथा बंटोर कर लाये गये भाड़े के समर्थकों के सिामने प्रधानमंत्री की ‘नानी याद दिला देने’ की हुंकारे बदहवासी की हास्यास्पद तस्वीर ही पेश करती है।

संकट का मुकाबला करने के लिए ही सहमें हुए ढंग से आज फिर अतीत के उन्हीं प्रेतों को जगाने की कोशिश की जारही है, जो एक बार इंदिरा गांधी को अपनी सेवाएं अर्पित कर चुके हैं। लेकिन इतिहास का बसक यह भी है कि वे सारे प्रयत्न अधिक दूर तक कारगर साबित नहीं हुए थे। आपातकाल के बाद के चुनावों ने ‘एशिया के सूर्य’ को धरती की धूल चटवा दी थी। इसीलिए आज सबसे बड़ा खतरा यही है कि आपातकाल के बाद चुनाव परिणामों से मिली सीख आज एक के बाद एक चुनावों में हार रही शासक पार्टी का जनतांत्रिक प्रक्रिया पर से ही पूरी तरह से भरोसा उठा दे तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी।

इसी संदर्भ में आज विपक्ष की स्थिति पर भी गौर करने की जरूरत है। राजनीतिक दृष्टि से तब ( अर्थात आंतरिक आपातकाल की घोषणा के ठीक पहले) और अब की स्थिति में जो सबसे बड़ा फर्क है वह यह कि आज दो राज्यों ( पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा) में वामपंथी और जनवादी ताकतों की सरकारें मजबूती के साथ कायम हैं। इनके अलावा कई राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारें हैं। केंद्रीय स्तर से चरम तानाशाही की ओर उठते किसी भी कदम के खिलाफ जनता का व्यापक प्रतिरोध कायम करने में भी ये सभी सरकारें अत्यंत कारगर साबित हो सकती हैं। लेकिन इसके साथ ही वर्तमान संघर्ष का मुख्य क्षेत्र जो हिन्दी भाषी क्षेत्र है, जो भारत की राजनीति को सर्वाधिक प्रभावित करता है, उसमें लड़ाई का नेतृत्व एक ऐसा व्यक्ति कर रहा है जिसने जनता के दिलों में अपनी ईमानदारी की साख तो जरूर कायम की है लेकिन कल तक उन तमाम नीतिगत प्रश्नों पर, जिनके चलते जीवन के हर क्षेत्र में इतना गहरा संकट पैदा हुआ है, वह इसी शासक दल का अंश रहा है और इसीलिए स्वयं उनके पीछे भिन्न जनवादी नीतियों के आधार पर गोलबंद जनशक्ति नहीं है।
स्वयं को दोहराते से प्रतीत हो रहे इतिहास की यही विडंबना है जो इतिहास के एक दुखांत वाले अध्याय को फिर एक बार अत्यंत भयावह परिणतियों तक ले जाने वाले प्रहसन के रूप में हमारे राजनीतिक रंगमंच पर अवतरित कर सकती है। इंदिरा गांधी और परंपरागत कांग्रेसी राजनीतिज्ञों के समूह का स्थान हवाई जहाज चालक उनके बेटे तथा अभिनेता, अभिनेत्रियों और कमीशनखोर धंधेबाजों ने ले लिया है और दूसरी ओर जे.पी. के स्थिान पर वी.पी.सिंह दिखाई दे रहे हैं।

जैसा कि साफ नजर आता है आगे राजनीतिक संकट और घना होगा। सत्ता पर जितने ही मूर्ख, काठ के उल्लू क्यों न बैठे हों उनकी डोर किंतु बड़े-बड़े पूंजीपतियों और सामंतों के हाथ में बंधी हुई हे। दूसरी ओर क्रमश: विकसित होता हुआ जन आंदोलन विक्षुब्ध जनता को सड़कों पर उतार देगा। उसमें अपने अधिकारों की चेतना विकसित करेगा। इन परिस्थितियों में आपातकाल विरोधी संघर्ष के दिनों की तरह ही वर्गीय शक्तियों के कमोबेस वैसे ही गठबंधन को यदि फिर एक बार राष्ट्रीय विकल्प के तौर पर प्रस्तुत किया जाता है, संगठित वामपंथी और जनवादी शक्तियां यदि इस विकासमान परिस्थिति में हस्तक्षेप नहीं कर पाती है तो सबको यह भी जानकर रखने की जरूरत है कि सत्ता पर बैठा लूटने-खाने वालों का गिरोह जनता की जनतांत्रिक चेतना की स्वत: स्फूर्त अभिव्यक्ति के लिए आम चुनाव की तरह का शायद ही फिर कोई मौका प्रदान करे। चुनाव में पराजित होकर इंदिरा गांधी ने भी सभी सेनाध्यक्षों के साथ बैठक करके उनकी मानसिकता को जानने की कोशिश की थी। और आज रिबेरो फार्मूले पर केंद्रीय सरकार की अगाध आस्था वृहत्तर संदर्भों में बहुत ही भयावह और स्वेच्छाचारी रूप में व्यक्त हो सकती है।

इसीलिये विपक्ष की जो जनवादी और धर्म-निरपेक्ष पार्टियां तथा व्यक्ति आज इतिहास की हूबहू पुनरावृत्ति का सुहाना सपना देखने में मगन है, उन्हें बिल्कुल स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए कि यह समूचा घटनाक्रम किसी फासिस्ट शासन की स्थापना के भयावह प्रहसन में पर्यवसित न हो इसके लिए पूरी दूरदर्शिता के साथ उन्हें इतिहास की गति को पढ़ते हुए अपनी भूमिका तय करनी होगी। वर्तमान संकट किसी भी सकारात्मक दिश में तभी फलदायी हो सकता है जब जन-जीवन, जनतंत्र और राष्ट्र की मूलभूत समस्याएं, जमीन का प्रश्न, केंद्र-राज्य संबंधों के पुनर्विन्यास का प्रश्न, राष्ट्रीय एकता और अखंडता के प्रश्न, सांप्रदायिक और अलगाववादी ताकतों से संघर्ष का प्रश्न संघर्ष के केंद्र में आ जाये ; शक्तियों के संतुलन को बदलकर वामपंथी, जनवादी और धर्म-निरपेक्ष शक्तियों के पक्ष में हो जाये। भ्रष्ट और राष्ट्रविरोधी तत्वों को सत्ता से उखाड़ फेंकने का संघर्ष जनता के सच्चे जनवाद को कायम करने की लड़ाई के उत्कर्ष तक जाये। वर्ना भारत के भाग्य में अभी ओर भी अनेक जुल्मों और कष्टों को सहना बदा है, इसमें शक नहीं है। जन-विक्षोभ की इन्हीं तरंगों पर दक्षिणपंथी फासिस्ट ताकतें भी सत्ता पर काबिज हो सकती है और इन्हीं में वामपंथी जनवादी शक्तियों का भी भविष्य निहित है। विगत सालों में देश के विभिन्न हिस्सों में वामपंथी और जनवादी तथा धर्म-निरपेक्ष देशभक्त शक्तियों ने जो भी शक्ति अर्जित की है, अब वक्त आ रहा है जब इस समूची शक्ति को वर्तमान भ्रष्ट और जन-विरोधी सरकार के खिलाफ संघर्ष में झोंक कर भारत के राजनीतिक इतिहास की गति को बदला जाय, यह संघर्ष ही किसी सही राष्ट्रीय विकल्प को जन्म देगा।

वामपंथी पार्टियों ने राजीव गांधी के पदत्याग और मध्यावधि चुनाव की मांग उठा कर इसी संघर्ष का बिगुल बजाया है। यह संघर्ष उन मूल्यों की पुनस्र्थापना का संघर्ष है जिन्हें हमारे राष्ट्र ने आजादी की लड़ाई के दौरान अर्जित किये थे और जो विगत तीस वर्षों के कांग्रेसी शासन की गलत नीतियों के चलते क्रमश: कमजोर होते चले जा रहे हैं। यह लड़ाई हमारी अर्थ-व्यवस्था में साम्राज्यवादी घुसपैठ के खिलाफ देश की आजादी और अखंडता की रक्षा की लड़ाई है। यह लड़ाई सभी जनतांत्रिक संस्थाओं को पुनर्जीवित करने, जनतंत्र को और ज्यादा विस्तृत करने, मेहनतकश जनता को समाज में उसका सम्मानित स्थान दिलाने की लड़ाई है। भारत में सांप्रदायिक औ अलगाववादी ताकतों के विरुद्ध भी यह एक फैसलाकुन लड़ाई होगी। इसकी गंभीरता को आज देश के हरेक जनतंत्र-प्रेमी धर्म-निरपेक्ष और देशभक्त इंसान को समझना होगा। वर्ना असावधानी अब भारतीय जनतंत्र के लिए भयावह दुर्घटना का कारण बन सकती है।

बुधवार, 12 फ़रवरी 2014

आत्मलीनता के खिलाफ


प्रभात पटनायक की पुस्तक ‘The Value of Money’ को केंद्र में रख कर इस लेखक ने एक टिप्पणी लिखी थी - ‘आत्मलीनता के विरुद्ध’। यह ‘जनसत्ता’ में ‘चतुर्दिक’ स्तंभ के अंतर्गत छपी थी। आज उसे यहां  अपने ब्लाग पर भी डाल रहा हूं :



आत्मलीनता (आटिज्म) के नाना रूप है। मनोविज्ञान के क्षेत्र में आत्मलीनता एक बड़ी बीमारी है। वास्तविक चिंतन से सर्वथा भिन्न एक ऐसी विचार प्रक्रिया जिसका घटनाओं और वस्तुओं की वास्तविक प्रकृति से कोई संबंध नहीं होता, पूरी तरह से व्यक्ति की अपनी इच्छा-आकांक्षाओं द्वारा नियंत्रित होती है। इसमें कोई तर्क, कोई व्यवहारिक तकाजा नहीं होता। बीमारी होने के नाते ही यह किसी से भी करुणा की अपेक्षा रखती है। मजे की बात यह है कि साहित्य, संस्कृति और विचारधारा के क्षेत्र में, जहां पाठों से पाठों की, शास्त्रों से शास्त्रों की और विचारों से विचारों की श्रंखलाओं को तैयार करने का लंबा सिलसिला चला आरहा है, वहां यही आत्मलीनता पांडित्य, विद्वता और परम निष्ठा की मर्यादा पाती है। लेकिन गहराई से देखे तो साहित्य, संस्कृति और विचारधारा के पूरे क्षेत्र में पसरी हुई यह आत्मलीनता ही सांस्कृतिक जीवन की तमाम प्रकार की अहम्मन्यताओं, जड़ताओं और कट्टरताओं के मूल में होती है और इसीलिये ऐसी आत्मलीनता करुणा की नहीं, समझौताविहीन निर्ममता की अपेक्षा रखती है। प्रश्नविहीन अंधआस्था आत्मलीनता का ही एक बड़ा लक्षण है।

21वीं सदी के प्रारंभ के साथ ही सन् 2000 के जून महीने में फ्रांसीसी विश्वविद्यालयों के अर्थशास्त्र के कुछ छात्रों ने अर्थशास्त्र की चालू शिक्षा पद्धति के खिलाफ सरकार और शिक्षा अधिकारियों के पास एक अर्जी पेश की थी, जिसमें उन्होंने तत्कालीन शिक्षा पद्धति पर यह आरोप लगाया गया था कि यह कत्तई यथार्थपरक नहीं है। गणित के अनियंत्रित प्रयोग के चलते गणितीय आंकड़े ही इसके लक्ष्य बन कर रह गये है, जिसने इसे एक आत्मलीन विज्ञान में तब्दील कर दिया है। यहां पढ़ाये जाने वाला अर्थशास्त्र अपनी काल्पनिक दुनियाओं में खोया हुआ है। विश्वविद्यालयों के अर्थशास्त्र के पाठ्यक्रम पर नवशास्त्रीय सिद्धांतों और उससे पैदा होने वाले दृष्टिकोणों की दमनकारी जकड़बंदी है। अर्थशास्त्र के पठन-पाठन की इस जड़ीभूत पद्धति में आलोचनात्मक और वस्तुनिष्ठ चिंतन के लिये कोई स्थान नहीं है। इसीलिये इन फ्रांसीसी छात्रों की मांग थी कि अर्थशास्त्र ठोस यथार्थ के साथ शुद्ध अनुभववादी ढंग से टकरायें, विज्ञानवाद के बजाय विज्ञान को प्राथमिकता प्रदान करें, आर्थिक विषयों की जटिलता और अधिकांश बड़े आर्थिक सवालों और सिद्धांतों को घेर कर खड़ी अनिश्चयताओं के मद्दे-नजर बहुलतावादी दृष्टिकोण अपनायें। समग्रत:, उनके अध्यापक अर्थशास्त्र के पठन-पाठन को उसकी आत्मलीनता और सामाजिक गैरजिम्मेदारी की दशा से निकालने के लिये जरूरी सुधार करें।

फ्रांस के अर्थशास्त्र के विद्यार्थियों की इस अर्जी को वहां के अनेक नामी-गिरामी और स्थापित अर्थशास्त्रियों और अध्यापकों का समर्थन मिला। इस अर्जी पर सहमति की मोहर लगाने वालों में अन्य उच्च शिक्षा संस्थानों की तुलना में कहीं ज्यादा, बल्कि बेइंतहा अकादमिक प्रतिष्ठा वाले फ्रांस के ‘ग्रोन्द एकोल’ की तरह के मंच भी शामिल थे। वहां के प्रमुख अखबार ‘ल मोंद’ ने कई दिनों तक इस विषय को सुर्खियों पर रखा और देखते ही देखते छात्रों की इस मांग ने पूरे फ्रांस में एक बड़े आंदोलन का रूप ले लिया। तभी से ‘आत्मलीनोत्तर अर्थशास्त्र’ के नाम से एक पत्रिका के जरिये जो अभियान शुरू हुआ वह वहां आज भी समान रूप से जारी है और अर्थशास्त्र के क्षेत्र में हर नये-पुराने सिद्धांत को यथार्थ की ठोस जमीन से विश्लेषित करके उसकी सत्यता को परखने की एक सृदृढ़ परंपरा बना रहा है।

आत्मलीनता और आत्मलीनोत्तर अर्थशास्त्र की ये तमाम बातें हमारे दिमाग में हमारे विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभागों की आम दुर्दशा के खयाल से पैदा नहीं हुई है। इन विभागों की सचाई लंबे काल से इतनी प्रकट है कि अब उनसे किसी नयी बात के उद्रेक की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। दरअसल, हमारे दिमाग में यह समूची बहस तब कौंधी जब मात्र साल भर पहले प्रकाशित प्रभात पटनायक की किताब ‘वैल्यू आफ मनी’ (द्रव्य का मूल्य) को अभी पढ़ना शुरू किया। यह पुस्तक प्रभात पटनायक के उन चंद लेखों का संकलन है जिन्हें उन्होंने 1995 में लिखना शुरू किया था और तभी अर्थशास्त्र के अकादमिक क्षेत्र में ये लेख काफी लोकप्रिय हो गये थे। इनकी लोकप्रियता को देख कर प्रभात ने इस विषय पर अलग से एक पूरी किताब ही लिखने की योजना बनायी थी, लेकिन अंतत: सभी लेखों को जोड़ने वाली पृष्ठभूमि को एक भूमिका में लिख कर ही काम चला लेना उनके लिये संभव हुआ।

सभी जानते हैं कि प्रभात एक अन्तरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त मार्क्सवादी बुद्धिजीवी, अर्थशास्त्री और अध्यापक है। द्रव्य पूंजी, द्रव्य का मूल्य और समग्र सामाजिक ताने-बाने में द्रव्य की भूमिका के बारे में मार्क्स ने ‘पूंजी’ के तीसरे खंड में कुछ विस्तार से विवेचन किया है। एक ऐसे शास्त्रीय किस्म के विषय पर प्रभात पटनायक की तरह के प्रतिबद्ध मार्क्सवादी अर्थशास्त्री ने नया क्या लिखा होगा, इसे किस हद तक आज के समय के पूंजीवाद के विश्लेषण से जोड़ा होगा, यही जानने के लिये बड़े आग्रह के साथ हमने इस किताब को शुरू किया था। और, यह देख कर सचमुच एक सुखद आश्चर्य हुआ कि प्रभात द्रव्य पूंजी से जुड़े इस शास्त्रीय विषय पर मार्क्स की कही बातों की पुनरावृत्ति के लिये नहीं, बल्कि कई नये सवालों और प्रेरणाओं के साथ प्रवृत्त हुए हैं और इस उपक्रम में उन्होंने पूंजीवादी व्यवस्था के समग्र ढांचे के बारे में कुछ नयी उद्भावनाओं को भी पेश करने की कोशिश की है। अपनी इस पुस्तक में उन्होंने आह्वान किया है कि लंबे समय से चल रहे धीमे विकास, प्रमुख पूंजीवादी ताकतों पर लगातार बढ़ता हुआ कर्ज का बोझ, तेल-डालर मानक तथा अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा व्यवस्था पर मंडराते हुए अनिश्चय के बादल और इसके साथ ही तीसरी दुनिया के बाजारों के खुलने, वैश्विक वित्त के अबाध प्रवाह, बहुराष्ट्रीय निगमों की निर्बंध क्रियाशीलता तथा तेल संपदा वाले देशों पर राजनीतिक अधिकार की कोशिशों, और साम्राज्यवादी लोलुपता से उत्पन्न तथा उसीकों को वैद्यता प्रदान करने वाले विनाशकारी आतंकवाद के इस जटिल मुकाम की गुत्थी को सुलझाने के लिये जरूरी है कि हमे अपनी आंखों पर पड़ी ‘मुख्यधारा’ के अर्थशास्त्र के अंधेरे की पट्टी से खुद को मुक्त करना होगा।

प्रभात शुरू करते हैं इस सवाल से कि आखिर वह कौन सा सामाजिक ताना-बाना है जिसकी बदौलत रुपया कहलाने वाला कागज का टुकड़ा एक मूल्य ग्रहण करके उपयोगी सामग्रियों के विनिमय का माध्यम बन जाता है। जाहिर है कि यह ताना-बाना पूंजीवादी व्यवस्था का ताना-बाना है। और इसीलिये प्रभात का मानना है कि ‘पूंजी’ के बजाय यदि हम द्रव्य के अध्ययन से इस व्यवस्था की पड़ताल शुरू करें तो इससे पूंजीवाद के जिस महत्वपूर्ण पहलू को और ज्यादा मूर्त और स्पष्ट किया जा सकेगा वह यह कि पूंजीवाद कभी भी एक बंद और आत्म-केंद्रित प्रणाली के तौर पर अलग-थलग रूप में अस्तित्व में न रहा है और न रह सकता है, जैसा कि आम तौर पर आर्थिक विश्लेषणों की सुविधा के लिये मान लिया जाता है।

इस सवाल पर कि कौन सी चीज द्रव्य का, वह भले कागज का हो या धातु का, मूल्य निर्धारित करती है, प्रभात बताते हैं कि अर्थशास्त्र के पास इसके दो प्रकार के बुनियादी जवाब हैं। एक द्रव्यवादी और दूसरा संपत्तिवादी। प्रभात मुख्यधारा के अर्थशास्त्र को द्रव्यवादी धारा की श्रेणी में रखते हैं और यह मानते हैं कि वह किसी भी चीज के मूल्य के कारक संबंधी विवेचन में बाजार के माध्यम से मांग और आपूर्ति के संतुलन की अपनी जिस अवधारणा से प्रतिबद्ध है, वह अवधारणा अन्य मामलों की तरह ही द्रव्य के मूल्य के मामले में भी तर्क की कसौटी पर जरा भी खरी नहीं उतरती है। यह कुछ ऐसी खयाली अवधारणा है जिसमें कंपनियां ज्यादा से ज्यादा मुनाफा करती चली जाती है और व्यक्ति अधिक से अधिक सुविधाएं पाता रहता है। मुख्यधारा की ‘संतुलन’ की अवधारणा तार्किक रूप में सिर्फ उस संसार में टिक सकती है जहां द्रव्य नाम की कोई चीज न हो। ऐसा द्रव्यविहीन समाज पूंजीवाद नहीं हो सकता। इसीलिये पूंजीवाद के संदर्भ में मुख्यधारा के अर्थशास्त्र के द्रव्य संबंधी विवेचन का कोई औचित्य नहीं रह जाता। अंतत: वह द्रव्य को मुख्यत: ‘परिचलन का माध्यम’ भर मानने की जिद पर अड़ा दिखाई देता है। जबकि सचाई यह है कि द्रव्य तभी ‘परिचलन के माध्यम’ की भूमिका अदा कर सकता है जब वह खुद संपत्ति का भी एक रूप होता है।

द्रव्य के मूल्य के बारे में ‘द्रव्यवादी’ सोच से भिन्न प्रभात मार्क्स को ‘संपत्तिवादी’ धारा का एक प्रमुख प्रतिनिधि मानते हुए कहते हैं कि मार्क्स ने द्रव्य के संपत्ति को धारण करने के गुण को पहचाना था, इसीलिये पूंजीवादी समाज में अति-उत्पादन की संभावना की व्याख्या भी कर पाये थे। प्रभात के अनुसार मार्क्स के अनुयायियों ने उनके इस बुनियादी योगदान पर अधिक ध्यान नहीं दिया, वे अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत वाली खोज पर ही बल देते रहे। यह काम मार्क्स के बाद, लगभग 75 वर्ष गुजर जाने के उपरांत कालेस्की और केन्स के माध्यम से संपन्न हुआ। प्रभात कहते हैं कि मार्क्स ने द्रव्य के मूल्य के निर्धारण में ‘मूल्य के श्रम सिद्धांत’ का प्रयोग किया। केन्स का मानना था कि तमाम जिंसों के बरक्स द्रव्य का मूल्य एक जिंस, श्रम शक्ति के बरक्स तय किये गये द्रव्य के मूल्य से निर्धारित होता है।

प्रभात द्रव्यवादियों की तुलना में संपत्तिवादियों की परंपरा को कहीं ज्यादा यथार्थपरक और तर्क के लिहाज से पुष्ट मानते हैं तथापि संपत्तिवादी नजरिये में भी अधूरापन देखने से नहीं चूकते।

इसी बिंदु पर जरा थम कर, हम यह कहना चाहेंगे कि प्रभात पटनायक ‘मूल्य के श्रम सिद्धांत’ की जिस बात को मार्क्स के मत्थे मढ़ कर उनके ‘संपत्तिवादी’ नजरिये के अधूरेपन की बात करते हैं, दरअसल, वह नजरिया मार्क्स का नहीं, उस क्लासिकल अर्थशास्त्र का है जिसकी आलोचना के आधार पर ही मार्क्स के आर्थिक सिद्धांतों का पूरा महल खड़ा है।

श्रम ही सारी संपदा का श्रोत है, क्लासिकल अर्थशास्त्र की इस बात का खंडन करते हुए जोरदार शब्दों में मार्क्स ने कहा था कि "सारी संपदा का स्रोत श्रम ही नहीं है। प्रकृति को भी उपयोग मूल्यों का (भौतिक संपदा में और है भी क्या!) श्रम जितना ही स्रोत कहा जा सकता है।...और क्योंकि आदमी आरंभ से ही प्रकृति के प्रति, जो श्रम की सभी वस्तुओं और साधनों का आदिस्रोत है, स्वामी जैसा रवैया रखता है, उसके साथ अपनी संपत्ति जैसा व्यवहार करता है, इसलिये उसका श्रम उपयोग मूल्यों का, और इस कारण संपदा का भी स्रोत बन जाता है। पूंजीपति अगर झूठे ही श्रम पर अलौकिक सृजन शक्ति का आरोप करते है तो वे ऐसा सकारण करते है, क्योंकि ठीक इसी बात से कि श्रम प्रकृति पर निर्भर करता है, यह बात पैदा होती है कि जिस मनुष्य के पास अपनी श्रम-शक्ति के अलावा और कोई संपत्ति नहीं है, उसे समाज और संस्कृति की सभी अवस्थाओं में दूसरे मनुष्यों का दास होना पड़ेगा, जिन्होंने अपने को श्रम की भौतिक परिस्थितियों का मालिक बना लिया है। वह केवल उनकी आज्ञा से ही काम कर सकता है, इसलिये जी भी वह उनकी आज्ञा से ही सकता है।"

फ्रेडरिक एंगेल्स ने अपने लेख ‘वानर से नर बनने की प्रक्रिया में श्रम की भूमिका’ का प्रारंभ इन पंक्तियों से किया है: अर्थशास्त्रियों का दावा है कि श्रम समस्त सम्पदा का स्रोत है। वास्तव में वह स्रोत ही है, लेकिन प्रकृति के बाद।

कहना न होगा कि मार्क्स ‘श्रम पूजा’ की किसी एकांगी दृष्टि के आधे-अधूरेपन से मुक्त थे और तभी पूंजीवाद की एक समग्र आलोचना का मुकम्मल दृष्टिकोण विकसित कर पाये थे।

प्रभात ने पूंजीवाद को मांग-संकुचन वाली जो व्यवस्था कहा है, वह अति-उत्पादन की महामारी से एकबारगी बर्बरता के युग में पहुंचा दिये गये समाज के बारे में मार्क्स के विश्लेषण से अलग नहीं है। कम्युनिस्ट घोषणापत्र कहता है कि पूंजीवाद अपने इन संकटों से उबरने के लिये उत्पादक शक्तियों के एक बड़े भाग को जबर्दस्ती नष्ट करता है और नये-नये बाजारों को अपने में समाविष्ट करता है। पूंजीवाद को जीवित रखने की ये चतुर्दिक कोशिशें ही इस बात को भी साबित करती है कि पूंजीवाद कभी किसी ‘बंद, आत्मकेंद्रित प्रणाली के रूप में न कभी अस्तित्व में रहा है और न रह सकेगा’।
फ़ोटो: प्रभात पटनायक की पुस्तक ‘The Value of Money’ को केंद्र में रख कर इस लेखक ने एक टिप्पणी लिखी थी - ‘आत्मलीनता के विरुद्ध’। यह ‘जनसत्ता’ में ‘चतुर्दिक’ स्तंभ के अंतर्गत छपी थी। आज उसे यहां फेसबुक के मित्रों से साझा कर रहा हूं और साथ ही अपने ब्लाग पर भी डाल रहा हूं :

आत्मलीनता के खिलाफ

आत्मलीनता (आटिज्म) के नाना रूप है। मनोविज्ञान के क्षेत्र में आत्मलीनता एक बड़ी बीमारी है। वास्तविक चिंतन से सर्वथा भिन्न एक ऐसी विचार प्रक्रिया जिसका घटनाओं और वस्तुओं की वास्तविक प्रकृति से कोई संबंध नहीं होता, पूरी तरह से व्यक्ति की अपनी इच्छा-आकांक्षाओं द्वारा नियंत्रित होती है। इसमें कोई तर्क, कोई व्यवहारिक तकाजा नहीं होता। बीमारी होने के नाते ही यह किसी से भी करुणा की अपेक्षा रखती है। मजे की बात यह है कि साहित्य, संस्कृति और विचारधारा के क्षेत्र में, जहां पाठों से पाठों की, शास्त्रों से शास्त्रों की और विचारों से विचारों की श्रंखलाओं को तैयार करने का लंबा सिलसिला चला आरहा है, वहां यही आत्मलीनता पांडित्य, विद्वता और परम निष्ठा की मर्यादा पाती है। लेकिन गहराई से देखे तो साहित्य, संस्कृति और विचारधारा के पूरे क्षेत्र में पसरी हुई यह आत्मलीनता ही सांस्कृतिक जीवन की तमाम प्रकार की अहम्मन्यताओं, जड़ताओं और  कट्टरताओं के मूल में होती है और इसीलिये ऐसी आत्मलीनता करुणा की नहीं, समझौताविहीन निर्ममता की अपेक्षा रखती है। प्रश्नविहीन अंधआस्था आत्मलीनता का ही एक बड़ा लक्षण है।

21वीं सदी के प्रारंभ के साथ ही सन् 2000 के जून महीने में फ्रांसीसी विश्वविद्यालयों के अर्थशास्त्र के कुछ छात्रों ने अर्थशास्त्र की चालू शिक्षा पद्धति के खिलाफ सरकार और शिक्षा अधिकारियों के पास एक अर्जी पेश की थी, जिसमें उन्होंने तत्कालीन शिक्षा पद्धति पर यह आरोप लगाया गया था कि यह कत्तई यथार्थपरक नहीं है। गणित के अनियंत्रित प्रयोग के चलते गणितीय आंकड़े ही इसके लक्ष्य बन कर रह गये है, जिसने इसे एक आत्मलीन विज्ञान में तब्दील कर दिया है। यहां पढ़ाये जाने वाला अर्थशास्त्र अपनी काल्पनिक दुनियाओं में खोया हुआ है। विश्वविद्यालयों के अर्थशास्त्र के पाठ्यक्रम पर नवशास्त्रीय सिद्धांतों और उससे पैदा होने वाले दृष्टिकोणों की दमनकारी जकड़बंदी है। अर्थशास्त्र के पठन-पाठन की इस जड़ीभूत पद्धति में आलोचनात्मक और वस्तुनिष्ठ चिंतन के लिये कोई स्थान नहीं है। इसीलिये इन फ्रांसीसी छात्रों की मांग थी कि अर्थशास्त्र ठोस यथार्थ के साथ शुद्ध अनुभववादी ढंग से टकरायें, विज्ञानवाद के बजाय विज्ञान को प्राथमिकता प्रदान करें, आर्थिक विषयों की जटिलता और अधिकांश बड़े आर्थिक सवालों और सिद्धांतों को घेर कर खड़ी अनिश्चयताओं के मद्दे-नजर बहुलतावादी दृष्टिकोण अपनायें। समग्रत:, उनके अध्यापक अर्थशास्त्र के पठन-पाठन को उसकी आत्मलीनता और सामाजिक गैरजिम्मेदारी की दशा से निकालने के लिये जरूरी सुधार करें।

फ्रांस के अर्थशास्त्र के विद्यार्थियों की इस अर्जी को वहां के अनेक नामी-गिरामी और स्थापित अर्थशास्त्रियों और अध्यापकों का समर्थन मिला।  इस अर्जी पर सहमति की मोहर लगाने वालों में अन्य उच्च शिक्षा संस्थानों की तुलना में कहीं ज्यादा, बल्कि बेइंतहा अकादमिक प्रतिष्ठा वाले फ्रांस के ‘ग्रोन्द एकोल’ की तरह के मंच भी शामिल थे। वहां के प्रमुख अखबार ‘ल मोंद’ ने कई दिनों तक इस विषय को सुर्खियों पर रखा और देखते ही देखते छात्रों की इस मांग ने पूरे फ्रांस में एक बड़े आंदोलन का रूप ले लिया। तभी से ‘आत्मलीनोत्तर अर्थशास्त्र’ के नाम से एक पत्रिका के जरिये जो अभियान शुरू हुआ वह वहां आज भी समान रूप से जारी है और अर्थशास्त्र के क्षेत्र में हर नये-पुराने सिद्धांत को यथार्थ की ठोस जमीन से विश्लेषित करके उसकी सत्यता को परखने की एक सृदृढ़ परंपरा बना रहा है।

आत्मलीनता और आत्मलीनोत्तर अर्थशास्त्र की ये तमाम बातें हमारे दिमाग में हमारे विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभागों की आम दुर्दशा के खयाल से पैदा नहीं हुई है। इन विभागों की सचाई लंबे काल से इतनी प्रकट है कि अब उनसे किसी नयी बात के उद्रेक की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। दरअसल, हमारे दिमाग में यह समूची बहस तब कौंधी जब मात्र साल भर पहले प्रकाशित प्रभात पटनायक की किताब ‘वैल्यू आफ मनी’ (द्रव्य का मूल्य) को अभी पढ़ना शुरू किया। यह पुस्तक प्रभात पटनायक के उन चंद लेखों का संकलन है जिन्हें उन्होंने 1995 में लिखना शुरू किया था और तभी अर्थशास्त्र के अकादमिक क्षेत्र में ये लेख काफी लोकप्रिय हो गये थे। इनकी लोकप्रियता को देख कर प्रभात ने इस विषय पर अलग से एक पूरी किताब ही लिखने की योजना बनायी थी, लेकिन अंतत: सभी लेखों को जोड़ने वाली पृष्ठभूमि को एक भूमिका में लिख कर ही काम चला लेना उनके लिये संभव हुआ।

सभी जानते हैं कि प्रभात एक अन्तरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त मार्क्सवादी बुद्धिजीवी, अर्थशास्त्री और अध्यापक है। द्रव्य पूंजी, द्रव्य का मूल्य और समग्र सामाजिक ताने-बाने में द्रव्य की भूमिका के बारे में मार्क्स ने ‘पूंजी’ के तीसरे खंड में कुछ विस्तार से विवेचन किया है। एक ऐसे शास्त्रीय किस्म के विषय पर प्रभात पटनायक की तरह के प्रतिबद्ध मार्क्सवादी अर्थशास्त्री ने नया क्या लिखा होगा, इसे किस हद तक आज के समय के पूंजीवाद के विश्लेषण से जोड़ा होगा, यही जानने के लिये बड़े आग्रह के साथ हमने इस किताब को शुरू किया था। और, यह देख कर सचमुच एक सुखद आश्चर्य हुआ कि प्रभात द्रव्य पूंजी से जुड़े इस शास्त्रीय विषय पर मार्क्स की कही बातों की पुनरावृत्ति के लिये नहीं, बल्कि कई नये सवालों और प्रेरणाओं के साथ प्रवृत्त हुए हैं और इस उपक्रम में उन्होंने पूंजीवादी व्यवस्था के समग्र ढांचे के बारे में कुछ नयी उद्भावनाओं को भी पेश करने की कोशिश की है। अपनी इस पुस्तक में उन्होंने आह्वान किया है कि लंबे समय से चल रहे धीमे विकास, प्रमुख पूंजीवादी ताकतों पर लगातार बढ़ता हुआ कर्ज का बोझ, तेल-डालर मानक तथा अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा व्यवस्था पर मंडराते हुए अनिश्चय के बादल और इसके साथ ही तीसरी दुनिया के बाजारों के खुलने, वैश्विक वित्त के अबाध प्रवाह, बहुराष्ट्रीय निगमों की निर्बंध क्रियाशीलता तथा तेल संपदा वाले देशों पर राजनीतिक अधिकार की कोशिशों, और साम्राज्यवादी लोलुपता से उत्पन्न तथा उसीकों को वैद्यता प्रदान करने वाले विनाशकारी आतंकवाद के इस जटिल मुकाम की गुत्थी को सुलझाने के लिये जरूरी है कि हमे अपनी आंखों पर पड़ी ‘मुख्यधारा’ के अर्थशास्त्र के अंधेरे की पट्टी से खुद को मुक्त करना होगा।

प्रभात शुरू करते हैं इस सवाल से कि आखिर वह कौन सा सामाजिक ताना-बाना है जिसकी बदौलत रुपया कहलाने वाला कागज का टुकड़ा एक मूल्य ग्रहण करके उपयोगी सामग्रियों के विनिमय का माध्यम बन जाता है। जाहिर है कि यह ताना-बाना पूंजीवादी व्यवस्था का ताना-बाना है। और इसीलिये प्रभात का मानना है कि ‘पूंजी’ के बजाय यदि हम द्रव्य के अध्ययन से इस व्यवस्था की पड़ताल शुरू करें तो इससे पूंजीवाद के जिस महत्वपूर्ण पहलू को और ज्यादा मूर्त और स्पष्ट किया जा सकेगा वह यह कि  पूंजीवाद कभी भी एक बंद और आत्म-केंद्रित प्रणाली के तौर पर अलग-थलग रूप में अस्तित्व में न रहा है और न रह सकता है, जैसा कि आम तौर पर आर्थिक विश्लेषणों की सुविधा के लिये मान लिया जाता है।

इस सवाल पर कि कौन सी चीज द्रव्य का, वह भले कागज का हो या धातु का, मूल्य निर्धारित करती है, प्रभात बताते हैं कि अर्थशास्त्र के पास इसके दो प्रकार के बुनियादी जवाब हैं। एक द्रव्यवादी और दूसरा संपत्तिवादी। प्रभात मुख्यधारा के अर्थशास्त्र को द्रव्यवादी धारा की श्रेणी में रखते हैं और यह मानते हैं कि वह किसी भी चीज के मूल्य के कारक संबंधी विवेचन में बाजार के माध्यम से मांग और आपूर्ति के संतुलन की अपनी जिस अवधारणा से प्रतिबद्ध है, वह अवधारणा अन्य मामलों की तरह ही द्रव्य के मूल्य के मामले में भी तर्क की कसौटी पर जरा भी खरी नहीं उतरती है। यह कुछ ऐसी खयाली अवधारणा है जिसमें कंपनियां ज्यादा से ज्यादा मुनाफा करती चली जाती है और व्यक्ति अधिक से अधिक सुविधाएं पाता रहता है। मुख्यधारा की ‘संतुलन’ की अवधारणा तार्किक रूप में सिर्फ उस संसार में टिक सकती है जहां द्रव्य नाम की कोई चीज न हो। ऐसा द्रव्यविहीन समाज पूंजीवाद नहीं हो सकता। इसीलिये पूंजीवाद के संदर्भ में मुख्यधारा के अर्थशास्त्र के द्रव्य संबंधी विवेचन का कोई औचित्य नहीं रह जाता। अंतत: वह द्रव्य को मुख्यत: ‘परिचलन का माध्यम’ भर मानने की जिद पर अड़ा दिखाई देता है। जबकि सचाई यह है कि द्रव्य तभी ‘परिचलन के माध्यम’ की भूमिका अदा कर सकता है जब वह खुद संपत्ति का भी एक रूप होता है।

द्रव्य के मूल्य के बारे में ‘द्रव्यवादी’ सोच से भिन्न प्रभात मार्क्स को ‘संपत्तिवादी’ धारा का एक प्रमुख प्रतिनिधि मानते हुए कहते हैं कि मार्क्स ने द्रव्य के संपत्ति को धारण करने के गुण को पहचाना था, इसीलिये पूंजीवादी समाज में अति-उत्पादन की संभावना की व्याख्या भी कर पाये थे। प्रभात के अनुसार मार्क्स के अनुयायियों ने उनके इस बुनियादी योगदान पर अधिक ध्यान नहीं दिया, वे अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत वाली खोज पर ही बल देते रहे। यह काम मार्क्स के बाद, लगभग 75 वर्ष गुजर जाने के उपरांत कालेस्की और केन्स के माध्यम से संपन्न हुआ। प्रभात कहते हैं कि मार्क्स ने द्रव्य के मूल्य के निर्धारण में ‘मूल्य के श्रम सिद्धांत’ का प्रयोग किया। केन्स का मानना था कि तमाम जिंसों के बरक्स द्रव्य का मूल्य एक जिंस, श्रम शक्ति के बरक्स तय किये गये द्रव्य के मूल्य से निर्धारित होता है।

प्रभात द्रव्यवादियों की तुलना में संपत्तिवादियों की परंपरा को कहीं ज्यादा यथार्थपरक और तर्क के लिहाज से पुष्ट मानते हैं तथापि संपत्तिवादी नजरिये में भी अधूरापन देखने से नहीं चूकते।

इसी बिंदु पर जरा थम कर, हम यह कहना चाहेंगे कि प्रभात पटनायक ‘मूल्य के श्रम सिद्धांत’ की जिस बात को मार्क्स के मत्थे मढ़ कर उनके ‘संपत्तिवादी’ नजरिये के अधूरेपन की बात करते हैं, दरअसल, वह नजरिया मार्क्स का नहीं, उस क्लासिकल अर्थशास्त्र का है जिसकी आलोचना के आधार पर ही मार्क्स के आर्थिक सिद्धांतों का पूरा महल खड़ा है।

श्रम ही सारी संपदा का श्रोत है, क्लासिकल अर्थशास्त्र की इस बात का खंडन करते हुए जोरदार शब्दों में मार्क्स ने कहा था कि "सारी संपदा का स्रोत श्रम ही नहीं है। प्रकृति को भी उपयोग मूल्यों का (भौतिक संपदा में और है भी क्या!) श्रम जितना ही स्रोत कहा जा सकता है।...और क्योंकि आदमी आरंभ से ही प्रकृति के प्रति, जो श्रम की सभी वस्तुओं और साधनों का आदिस्रोत है, स्वामी जैसा रवैया रखता है, उसके साथ अपनी संपत्ति जैसा व्यवहार करता है, इसलिये उसका श्रम उपयोग मूल्यों का, और इस कारण संपदा का भी स्रोत बन जाता है। पूंजीपति अगर झूठे ही श्रम पर अलौकिक सृजन शक्ति का आरोप करते है तो वे ऐसा सकारण करते है, क्योंकि ठीक इसी बात से कि श्रम प्रकृति पर निर्भर करता है, यह बात पैदा होती है कि जिस मनुष्य के पास अपनी श्रम-शक्ति के अलावा और कोई संपत्ति नहीं है, उसे समाज और संस्कृति की सभी अवस्थाओं में दूसरे मनुष्यों का दास होना पड़ेगा, जिन्होंने अपने को श्रम की भौतिक परिस्थितियों का मालिक बना लिया है। वह केवल उनकी आज्ञा से ही काम कर सकता है, इसलिये जी भी वह उनकी आज्ञा से ही सकता है।"

फ्रेडरिक एंगेल्स ने अपने लेख ‘वानर से नर बनने की प्रक्रिया में श्रम की भूमिका’ का प्रारंभ इन पंक्तियों से किया है: अर्थशास्त्रियों का दावा है कि श्रम समस्त सम्पदा का स्रोत है। वास्तव में वह स्रोत ही है, लेकिन प्रकृति के बाद।

कहना न होगा कि मार्क्स ‘श्रम पूजा’ की किसी एकांगी दृष्टि के आधे-अधूरेपन से मुक्त थे और तभी पूंजीवाद की एक समग्र आलोचना का मुकम्मल दृष्टिकोण विकसित कर पाये थे।

प्रभात ने पूंजीवाद को मांग-संकुचन वाली जो व्यवस्था कहा है, वह अति-उत्पादन की महामारी से एकबारगी बर्बरता के युग में पहुंचा दिये गये समाज के बारे में मार्क्स के विश्लेषण से अलग नहीं है। कम्युनिस्ट घोषणापत्र कहता है कि पूंजीवाद अपने इन संकटों से उबरने के लिये उत्पादक शक्तियों के एक बड़े भाग को जबर्दस्ती नष्ट करता है और नये-नये बाजारों को अपने में समाविष्ट करता है। पूंजीवाद को जीवित रखने की ये चतुर्दिक कोशिशें ही इस बात को भी साबित करती है कि पूंजीवाद कभी किसी ‘बंद, आत्मकेंद्रित प्रणाली के रूप में न कभी अस्तित्व में रहा है और न रह सकेगा’।

मंगलवार, 11 फ़रवरी 2014

प्रभात पटनायक और उनकी व्यवहार बुद्धि





फिर एक बार प्रभात पटनायक। पता नहीं क्यों, हमें बार-बार उनकी बातों से गहरी असहमति व्यक्त करने की जरूरत महसूस होने लगती है।

कहीं ऐसा तो नहीं कि प्रभात के लेखन से भारतीय वामपंथी राजनीति की सामान्य या व्यवहार बुद्धि (common sense) व्यक्त होती है। और, व्यवहार बुद्धि की सबसे बड़ी समस्या है कि उसमें अंधविश्वासों या अनालोचकीय दृष्टि की प्रबलता होती है। व्यवहार बुद्धि पर किसी दर्शन या नये सोच का महल तैयार नहीं किया जा सकता, इसके लिये तो इसका अतिक्रमण करके विवेक को अपनाने की जरूरत पड़ती है; परंपरागत सोच से टकराने, उसपर सवाल उठाने की जरूरत रहती है। ग्राम्शी की शब्दावली में नया सोच हमेशा विवादों (polemics) के बीच से, एक निरंतर संघर्ष के जरिये सामने आता है।

मसलन्, हम काफी पहले उनकी किताब ’The Value of Money’ के संदर्भ में उनके भीतर बैठे केन्सवाद पर गंभीर सवाल उठा चुके हैं। केन्सवाद में वे सारे तत्व है जो वामपंथियों की आर्थिक मामलों में व्यवहार बुद्धि का कारक बन सकता है। बाजार को चंगा रखने के लिये राज्य की दखलंदाजी को अनिवार्य मानने वाला सोच। वामपंथियों की व्यवहार बुद्धि के सर्वथा अनुकूल, कि चलो यहां पर सब कुछ बाजार के भरोसे छोड़ने के बजाय राज्य की भूमिका को स्वीकृति तो दी गयी है!

मानो, राज्य की सर्व-व्यापकता और सर्वशक्तिमत्ता ही मार्क्सवाद का साध्य हो! राज्य के पूर्ण विलोप के दर्शन का साध्य! समाजवादी देशों में राज्य की ऐसी सर्व-व्यापकता और सर्वशक्तिमानता के इतने सारे दुखदायी अनुभवों के बाद भी!

पिछले दिनों, प्रभात के जरिये जाहिर हुई ऐसी ही एक और व्यवहार बुद्धि का नमूना सामने आया जब उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस में अपने एक लेख में ‘आम आदमी पार्टी’ को ‘विचार-विमुखता का चरम’ बताया और वामपंथ को उसके ठीक विपरीत ‘विचार-प्रमुखता का चरम’। इसपर हमने विस्तार से टिप्पणी की थी जो हमारे ब्लाग पर मौजूद है।
http://chaturdik.blogspot.in/2014/01/blog-post_9.html

हेगेल के Logic की एक प्रसिद्ध उक्ति है कि Being और Nothingness के बीच ऐसा कुछ नहीं होता जो मध्यवर्ती न हो। इसीलिये जो अभी पैदा भर हुआ हो, उसके बारे में ‘पूत के पांव पालने में’ की तर्ज पर कोई अंतिम राय सुनाना बौद्धिक लिहाज से लड़कपन के जोश की तरह है। क्या कहीं भी कुछ ऐसा है जिसमें तात्कालिकता या मध्यवर्ती कुछ नहीं होता? आंदोलनों पर कोई अंतिम राय उसके मध्यवर्ती स्वरूपों के आधार पर नहीं, अधिक से अधिक उसके मध्यवर्ती लक्ष्यों के आधार पर ही जाहिर की जानी चाहिए।

आज (11 फरवरी 2014 को) फिर एक बार टेलिग्राफ में वामपंथी व्यवहार बुद्धि का ही एक और नमूना पेश करता हुआ प्रभात पटनायक का लेख प्रकाशित हुआ है “Wrong at the top” (शीर्ष पर भूल)। वामपंथी राजनीति में अक्सर दोहरायी जाने वाली व्यवहार बुद्धि की यह बात कि ‘पार्टी का निर्माण हमेशा ऊपर से होता है’।

पार्टी का पतन, कहां से होता है, यह सवाल कोई नहीं उठाता। निर्माण ऊपर से होता है तो पतन नीचे से होता होगा!

और, माओ का आह्वान : हेड क्वार्टर पर हमला करो !

प्रभात का आज का लेख भी ‘आम आदमी पार्टी’ और तमाम मामलों में सीधे जनता से राय लेने के उनके तौर-तरीकों के संदर्भ में है। उनका कहना है कि जनता का आदर्शीकरण नहीं किया जाना चाहिए। इतिहास के कुछ चुनिंदा उद्धरणों की चर्चा करके लेख के अंत में उनका निष्कर्ष है कि ‘‘सिर्फ सत्ता का विकेंद्रीकरण नहीं उसमें अंकुश की भी जरूरत है। यह प्रस्तावना गलत है कि जनता जैसी भी हो, उसके हाथ में ज्यादा से ज्यादा शक्ति देना जनतंत्र के लिये अच्छा है।’’

यही है सामान्य या व्यवहार बुद्धि (common sense) का दोष, जिसकी जकड़नों के चलते जन-आकांक्षाओं और जन-आंदोलनों की शक्ति के साथ किसी भी राजनीति के संपर्कों के तार टूट जाते हैं।

‘जनता का आदर्शीकरण’ से क्या तात्पर्य है? जब हम कहते हैं, जनतंत्र में जनता ही आखिरी बात कहती है, तो क्या वह भी एक ‘आदर्शीकरण’ नहीं है?

यही वजह है कि absolute terms में की जाने वाली राजनीतिक टिप्पणियां अंतिम निष्कर्षों में खोखली होती है। absolute अर्थात ‘परम’ तो ब्रह्म है, जो सर्वत्र एक और समान है।

ग्राम्शी ने अपने प्रिजन नोटबुक में बुखारिन की किताब “The Theory of Historical Materialism,A manual of Popular Sociology” के संदर्भ में कॉमनसेंस के बारे में थोड़े विस्तार से चर्चा की है। इसे उन्होंने दर्शन शास्त्र का ‘लोकगीत’ (folk lore) कहा है, जो लोकगीतों की तरह ही हर तबके की मानसिकता से मेल खाता हुआ अनगिनत रूप ग्रहण करता है। इसमें उन्होंने व्यवहार बुद्धि के विपरीत सुबुद्धि (good sense) को लेकर कुछ पंक्तियां उद्धृत की है। उन पंक्तियों के साथ ही हम इस टिप्पणी का अंत करते हैं :

Good sense, which once ruled far and wide
Now in our schools to rest is laid
Science, its once beloved child
Killed it to see how it was made
(सुबुद्धि, जो कभी छायी थी विस्तीर्ण और व्यापक /अब लेटी है कब्र में हमारे स्कूलों में/विज्ञान, उसकी प्रिय संतान ने/ मार डाला यह जानने कि वह आयी कैसे)

गुरुवार, 6 फ़रवरी 2014

नामवर सिंह : हिंदी के श्रेष्ठतम सर्वहारा बुद्धिजीवी की निर्माण-कथा



कल ही एक सांस में काशीनाथ सिंह के नामवर सिंह से जुड़े संस्मरणों की किताब ‘घर का जोगी जोगड़ा’ पढ़ गया। सारी रात भारी अवसाद से भरी बेचैनी में गुजरी। 

ग्राम्शी याद आते रहे - ‘‘यदि हमारा लक्ष्य एक ऐसे सामाजिक समूह से, जिसने पारंपरिक तौर पर सही मानस विकसित न किया हो, बौद्धिकों की एक नयी जमात को तैयार करना है जिसमें सर्वोच्च स्तर की विशेषज्ञता (specialisation) की क्षमता के लोग भी शामिल हो, तो हमें अभूतपूर्व कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। ’’
(If our aim is to produce a new stratum of intellectuals, including those capable of highest degree of specialisation from a social group which has not traditionally developed the appropriate attitudes, then we have unprecedented difficulties to overcome)

इस किताब का पहला संस्करण 2008 में ही आगया था और पहली आवृत्ति 2012 में हुई, लेकिन हमने इसे पढ़ा छ: साल बाद, 2014 में। 

मन को डरा दे ऐसी ’अभूतपूर्व कठिनाई’। नामवर के निर्माण की यह कहानी उसीका एक मूर्त रूप है, हिंदी के अपने खास संदर्भों में। मुख्यधारा के विचारों को उसीके मंचों पर कहीं ज्यादा तैयारियों के साथ चुनौती देने की सर्वहारा के बुद्धिजीवी की कठिनाई; बौद्धिक कार्यों के संदर्भ में गैर-पारंपरिक समुदाय से आने वाले बुद्धिजीवी के निर्माण की कठिनाई; तमाम अकादमिक संस्थानों के शीर्ष पर बैठे पुरातनपंथी सोच के पंडितों के बेहिसाब षड़यंत्रों से जूझते रहने की कठिनाई। 

बनारस के पास के एक अनजान से जियनपुर गांव के क्षत्रिय किसान के पहली पीढ़ी के स्कूल मास्टर का बड़ा बेटा। पिता की अपने बेटे से सिर्फ इतनी सी आशा कि बेटा मिडिल पास करके गांव के आस-पास की ही किसी स्कूल में मास्टर बन जाए। अभी हाई स्कूल में था तभी पिता ने जबर्दस्ती शादी करा दी। बेटे के विरोध को जवानी का जोश मान कर, इस उम्मीद में कि ‘बीवी आयेगी तो सब ठीक हो जायेगा’। बीवी से पहला बेटा और बीस साल बाद एक बेटी हुई, लेकिन जिसे दांपत्य कहते हैं, वह कभी भी संभव नहीं हुआ। बनारस विश्वविद्यालय में अध्यापक हो जाने पर भी, साथ रहने बीवी नहीं, मां आई। और बनारस के लोलार्क कुंड में किराये का मकान, काशीनाथ सिंह के शब्दों में - ‘‘मुझे कभी-कभी लगता है, वह देश के कोने-कोने में नगर-नगर घूम कर वही कमरा ढूंढ रहे हैं - वही बारिश में टपकता रिसता कमरा, ठंड में कठुआया कांपता कमरा, ऊमस में पसीने से नहाया कमरा। 
‘‘यह कमरा भौजी की सौत था।’’

नामवर कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े हुए थे, लोकसभा का चुनाव भी लड़े थे। लेकिन उनकी असली चुनौती थी - काशी के सनातनी पंडित। नामवर अपभ्रंश के विद्वान -- भला अपभ्रंश का भी कोई विद्वान होता है! एक ओर मार्क्सवाद और साथ में अपभ्रंश। करेला और नीम चढ़ा। काशीनाथ के शब्दों में इन चुनौतियों ने ‘‘और चाहे जो किया हो - न किया हो; घर को किताबों-पत्रिकाओं का गोदाम तो बना ही दिया।’’
अर्थात दांपत्य किया ‘किताबों-पत्रिकाओं के गोदाम’ से। ‘भौजी की सौत’ किताबों-पत्रिकाओं का गोदाम!
हिंदी के इस मार्क्सवादी बुद्धिजीवी की जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा हिंदी विभागाध्यक्षों की ईर्ष्याओं, उनकी साजिशों, बेबात नौकरी से बर्खास्तगी के दंशों को सहते हुई गुजरी। लेकिन जिस ‘गोदाम’ से उन्होंने असल में शादी की, उसकी पैदाइशों ने नामवर की आवाज को महानगरों से लेकर कस्बाई शहरों और गांवों तक में फैला दिया। एक ‘तंग’ जिंदगी की अनोखी, गहन और विस्तृत गूंज-अनुगूंज।

लेकिन पिता प्रसिद्धी के शिखर पर पहुंच चुके बेटे के बारे में कहते हैं -‘‘भगवान न करे कि किसी दुश्मन को भी वैसी जिन्दगी जीनी पड़े जैसी वे जी रहे हैं।’’ 

रविवार, 2 फ़रवरी 2014

राहुल गांधी का साक्षात्कार

अर्नब गोस्वामी को दिये साक्षात्कार में राहुल गांधी का लगातार व्यवस्थागत प्रश्नों पर बल देना बहुत सुखदायी लगा । वे सत्ता के भूखे राजनीतिज्ञों से बिल्कुल विपरीत लगातार आम जन के सशक्तीकरण पर, महिलाओं, नौजवानों के हाथ मज़बूत करने पर बल देते रहे । उनकी बातचीत का मुहावरा आज के समय के बड़-बड़ करते, चालाक-चतुर दिखने की होड़ में लगे नेताजी लोगों के बिल्कुल विपरीत था । उनकी तुलना में नरेंद्र मोदी आज की राजनीति के एक सबसे बदतर प्रतिनिधि दिखाई देते हैं ।

एक बात और साफ़ दिखाई दी कि अर्नब की तरह के एक बड़बोले एंकर के उकसाने में न आना राहुल की सायास कोशिश नहीं थी, यही उसकी प्रकृति है ।

सालों बाद, इस प्रकार के मूलभूत सवालों पर संकेंद्रित राजनीतिज्ञ को सुनना बहुतों को अटपटा लग सकता है । राजनीतिक विमर्श के नाम पर आरोपों-प्रत्यारोपों का हंगामा देखने की अभ्यस्त आँखों को इसमें सबकुछ सारहीन भी दिखाई दे सकता है । लेकिन भारत के मुट्ठी भर राजनीतिज्ञों ने राज्य की समूची शक्ति को हड़प कर जिस प्रकार के आततायियों का रूप ले लिया है, इस परिस्थिति में सत्ता को सच्चे अर्थों में आम लोगों को सौंपने के सांस्थानिक परिवर्तनों की बात ही सबसे गंभीर राजनीति है । बाक़ी सब गर्जना-तर्जना पहले से ही अशक्त बना कर रख दिये गये भारत के मेहनतकशों को और निर्बल बनाने वाली अब तक चली आ रही राजनीति को आगे भी जारी रखने की बेशर्म कोशिशें हैं ।

राहुल गांधी का बहुचर्चित साक्षात्कार

राहुल गांधी का बहुचर्चित साक्षात्कार आज भी अपनी पूरी संरचना में सोचने के लिये विवश कर रहा है।

हमारी पहली टिप्पणी थी - राजनीति-चर्चा का एक नया मुहावरा, व्यवस्था-संबंधी मूल और गहरे प्रश्नों पर एक जरूरी, लेकिन आज के भागम-भाग के दौर में अजीब सा संकेंद्रण।

एक ओर धाराप्रवाह, अनर्गल भाषणबाजियों का शोर और दूसरी ओर हकलाहटों में गुंथी खामोशी, मौन। किसी भी सार्थक वार्ता (communication) के संप्रेषण के लिये जरूरी शोर के बीच मौन का वृत्त। शब्दों की सही गूंज-अनुगूंज के लिये जरूरी प्रेक्षागृहों में पसरा मौन। गड्ड-मड्ड संभाषण के बजाय दीर्घ विरामों का मौन। मौन किसी अघटन, अनिश्चय का, अस्वीकार और सहमति का ।

पता नहीं क्यों, हमें लगता है, कोरा शोर कोई काम का नहीं है। आदमी कोई पशु नहीं कि उसे कोई भी टेर ले जायेगा। बात बोलेगी। लोगों की बात-चीत ही निर्णायक है।

इसके अलावा कोरे शोर से कोई भारत की सबसे बड़ी शासक पार्टी के अस्तित्व को गायब कर देगा, ऐसी हैसियत तो हमें किसी की नहीं लगती।

शुक्रवार, 31 जनवरी 2014

‘पथ’ विमर्श



कल 30 जनवरी के मौके पर ‘आनंदबाजार पत्रिका’ में गौतम भद्र का एक लेख छपा था -‘‘पथ पर विचार न करने में खतरा है’’। अभीक दे द्वारा संपादित और संकलित गांधीवादी चिंतक निर्मल कुमार बसु के लेखों के संकलन की एक समीक्षा।

तीन कॉलम की इस समीक्षा के पहले दो कॉलम में गौतम भद्र ने बंगाल में लुप्तप्राय गांधीवादी विमर्श के कुछ ऐतिहासिक प्रसंगों का उल्लेख किया है। यह खुद में बहस का एक अलग विषय है।

हम यहां उनके लेख के अंतिम अंश की ओर सबका ध्यान खींचना चाहेंगे। इसमें उन्होंने निर्मल बसु के एक लेख में आये नंतुबिहारी नस्कर नामक चरित्र का जिक्र किया है। एक भोला-भाला साधारण आदमी, हमेशा दूसरों की भलाई के लिये तत्पर रहने वाला, पक्का सत्याग्रही। आजादी की लड़ाई में कई बार जेल गया। आजादी के बाद भी परोपकारी नंतुबिहारी, सबके सब मर्ज की दवा - किसी को परमिट लेना है, किसी को अपना तबादला रुकवाना है - नंतु नि:स्वार्थ भाव से सबका काम करता जाता। आस-पास के सब लोगों की भलाई, देश-सेवा के लिये समर्पित प्राण।

निर्मल बसु ने नंतुबिहारी के इन जन-सेवा कार्यों की ओर इशारा करते हुए अपने लेख में दिखाया कि कैसे निर्लोभी नंतुबिहारी के इन्हीं कामों की बदौलत ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार और सत्ता के केंद्र निर्मित होते जाते हैं। नंतुबिहारी की ‘देश सेवा’ वस्तुत: राष्ट्र के निर्माण की नींव को ही खोखला कर रही है।

दिन-रात व्यस्त रहने वाला नंतुबिहारी कहता है, ‘‘क्या कर रहा हूं दादा, खुद ही नहीं जानता। लेकिन सांस लेने की भी फुर्सत नहीं है।’’

गौतम भद्र ने इस कहानी के अंत में टिप्पणी की है - ‘‘पिछले तीस सालों से और आज भी, बंगाल के गांव-गांव में इस प्रकार के कैडर या कार्यकर्ता के दर्शन दुर्लभ नहीं हैं।’’

गौतम भद्र इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि व्यक्ति की सदिच्छा, ईमानदारी, व्यवहार- कुशलता या सांगठनिक दक्षता ही काफी नहीं होते। जरूरी है आदर्शों के बारे में जागरूकता और तदनुरूप चरित्र का निर्माण।

सरकारी प्रशासन से लेकर सामाजिक जीवन और रोजमर्रे के कामों में भी इन दोनों के बीच कैसे संतुलन रखा जाए, भद्र बताते हैं, पहले के गांधीवादियों के बीच विमर्श का यह एक प्रमुख मुद्दा था। भ्रष्टाचार अनेक रूपों में होता है, कई प्रकार के भ्रष्टाचार को समाज में भ्रष्टाचार माना भी नहीं जाता। भद्र कहते हैं, भ्रष्टाचार की सिनाख्त करने के लिये भी आत्म-शिक्षा जरूरी है।

आज भ्रष्टाचार का विषय राजनीतिक चर्चा के केंद्र में हैं। बड़े आदर्शों से शून्य, सिर्फ भलाई की सदिच्छा भी किसी जनतांत्रिक प्रणाली को भ्रष्टाचार में तब्दील कर सकती है। बंगाल में भुला दिया गया गांधीवादी विमर्श यही कहता है कि हर प्रयोग के अंतर्निहित आदर्शों के साथ रुको, सोचो और सवाल उठाओ।

गुरुवार, 30 जनवरी 2014

गांधी हत्या



आज 30 जनवरी। गांधीजी की शहादत का दिन। जो उनकी हत्या के लिये जिम्मेदार थे, वे ही आज अपने को सच्चा राष्ट्रवादी बताते हैं।
क्यों न हम इतिहास के उस सबसे दर्दनाक पृष्ठ पर एक नजर डालें, जिसमें गांधीजी की हत्या के लिये विषैला वातावरण तैयार किया गया था। यहां अपनी किताब ‘आरएसएस और उसकी विचारधारा’ का इससे संबंधित एक पन्ना दे रहा हूं :

गांधी हत्या

वे गांधीजी की हत्या से इन्कार करते हैं। सरकार ने भी मामले की जाँच करने के बाद सीधे तौर पर आर एस एस को उसके लिए अपराधी घोषित नहीं किया।यह बात सच है कि नाथूराम गोडसे पर चले अदालते मुकदमें में यह साबित नहीं किया जा सका था कि गोडसे आरएसएस का सदस्य था। इसकी सबसे बड़ी वजह यह थी कि उस समय तक आरएसएस का अपना कोई संविधान नहीं था, और न ही उसके सदस्यों का कोई बाकायदा रेकर्ड। जाहिर है कि आरएसएस की इसी सख्त गोपनीयता के कारण शुद्ध रूप से तकनीकी स्तर पर अदालत में तब यह साबित नहीं किया जा सका था कि गांधीजी का हत्यारा नाथूराम आरएसएस का सदस्य था। लेकिन आरएसएस के साथ नाथूराम के लंबे काल से संपर्क थे, इसके बारे में अब तक ढेरों तथ्य प्रकाश में आ चुके हैं। गोडसे की विचारधारा आरएसएस की विचारधारा से जरा भी भिन्न नहीं थी और वह एक समय में आरएसएस का सक्रिय प्रचारक था, इसे अब साबित करने की जरूरत नहीं है।

जिस प्रकार आरएसएस भारत की आजादी को ’’मुसलमानों के हाथों हिंदुओं की पराजय’ बताता रहा है, उसी तर्क पर नाथूराम ने अदालत में दिये गये अपने बयान में गांधीजी की हत्या को एक देशभक्तिपूर्ण काम बताया था और छाती ठोक कर कहा था कि ’’यदि देशभक्ति पाप है तो मैं जानता हूँ मैंने पाप किया है। यदि प्रशंसनीय है तो मैं अपने आपको उस प्रशंसा का अधिकारी समझता हूँ।...मैंने देश की भलाई के लिए यह काम किया। मैंने उस व्यक्ति पर गोली चलाई जिसकी नीति से हिन्दुओं पर घोर संकट आए, हिन्दू नष्ट हुए।’’ (गोपाल गोडसे, ’’गांधी वध क्यों’ में नाथूराम गोडसे के अदालत को दिए गए बयान से, पृ. 113)

गांधी जी की हत्या के बाद नाथूराम गोडसे ने अदालत में जो बयान दिया उसमें उसने खुद स्वीकार किया था कि उसने ’’कई वर्षो तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में काम किया है।’’ बाद में वह हिन्दू महासभा में आ गया था, लेकिन आजादी के बाद कांग्रेस सरकार के प्रति क्या दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए, इस प्रश्न पर हिन्दू महासभा के नेता सावरकर से उसके मतों का मेल नहीं बैठा। सावरकर आजादी की रक्षा के लिए नई सरकार को समर्थन देने के पक्ष में थे जो गोडसे को सही नहीं लगा और उसने सावरकर का साथ छोड़ दिया। (गोपाल गोडसे, वही, पृ. 62)

वास्तविकता यह है कि सावरकर जहाँ देश की आजादी को एक महत्त्वपूर्ण विजय समझते थे, वहीं आर एस एस इसे राष्ट्रीय पराजय, हिन्दुओं को मिली मात मानता था। आर एस एस का पुराना स्वयंसेवक रह चुका नाथूराम गोडसे इस मामले में फिर से पूरी तरह आर एस एस के मत का था। सावरकर तिरंगे झण्डे को राष्ट्रीय ध्वज की मर्यादा देना उचित समझते थे, नाथूराम आर एस एस के विचारों का हामी होने के नाते इसका भी विरोधी था।

उसी के शब्दों में : ’’वीर सावरकर ने स्वयं आगे बढ़कर कहा कि चक्रवाले तिरंगे झण्डे को राष्ट्रध्वज स्वीकार किया जाएँ। हमने इस बात का खुला विरोध किया।’’ (गोपाल गोडसे, वही, पृ. 63)

राष्ट्रध्वज के प्रसंग में आर एस एस के विचारों पर हम पहले चर्चा कर आए हैं। पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये की शेष राशि दिए जाने के प्रश्न पर भी आर एस एस और गोडसे के विचार एक थे। गांधी जी की हत्या के ठीक पहले के ’’आर्गनाइजर’, ’’पाँचजन्य’ के अंकों को देखने से ही साफ पता चल जाता है कि आर एस एस किस प्रकार गांधीजी के खिलाफ जहरीला वातावरण तैयार कर रहा था। नाथूराम गोडसे ने फाँसी के फंदे पर उसी प्रार्थना को दोहराया था जो आर एस एस के स्वयंसेवक रोज शाखा के कार्यक्रम में किया करते हैं।

खुद गोलवलकर जिन शब्दों में गांधी जी की हत्या के समय की परिस्थिति का बयान किया करते थे, वही परोक्ष रूप में यह साबित करता है कि इस हत्या को वे एक प्रकार से परिस्थितियों का स्वाभाविक परिणाम मानते थे। गोलवलकर के जीवनीकार प्र.ग. सहस्त्रबुद्धे के शब्दों में : ’’सम्पूर्ण देश में क्षोभ फैला हुआ था। महात्मा गांधी ने उस समय अपना मुकाम हेतुत: दिल्ली में रखा था। प्रतिदिन अपनी सायं प्रार्थना-सभा में वे लोगों को शान्ति, प्रेम एवं बन्धु-भावना का महत्त्व समझाते थे। भारत पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये अवश्य दें, ऐसा वे कहते थे। उसके लिए वे आमरण अनशन के लिए भी जिद किए हुए थे। इसका परिणाम यह हुआ कि बहुत से आहत और व्यथित लोग गांधी जी को बुरा-भला कहने लगे।

’’इनके इस प्रकार से बोलने से ही मुसलमान सिर पर चढ़ बैठे हैं। इनके वक्तव्यों से पाकिस्तान को बल मिलता है।’’ इस प्रकार की आलोचना सर्वत्र होने लगी। कुछ युवक आपे से बाहर हो गए। उनमें से एक ने 30 जनवरी, 1948 की शाम को, प्रार्थना-सभा में पिस्तौल चलाकर गांधी जी की हत्या कर दी।’’ (प्र.ग. सहस्त्रबुद्धे, श्री गुरू जी, एक जीवन यज्ञ, पृ. 59)

सहस्त्रबुद्धे ने लिखा है कि गांधीजी की हत्या का समाचार सुनकर गुरू जी ने कहा था : ’’यह तो देश का बड़ा दुर्भाग्य हुआ।’’ सहस्त्रबुद्धे की यह बात किसी भी रूप में विश्वास योग्य नहीं लगती है, क्योंकि आर एस एस की शाखाओं और उसके अखबारों में ही उन दिनों गांधीजी के खिलाफ सबसे ज्यादा जहर उगला जा रहा था, इसका एक नमूना है ’’पाँचजन्य’’ में छपा निम्न कार्टून :

गांधीजी की हत्या के ठीक बाद ही इस तथ्य को अनेक लोगों ने नोट किया था कि आरएसएस के लोगों ने खुशी मनाते हुए आपस में मिठाइयां बांटी थी। गांधीजी के निजी सचित प्यारेलाल की पुस्तक ’’महात्मा गांधी द लास्ट फेज’ के दूसरे खंड में गांधीजी की हत्या के पूरे षड़यंत्रका और उसमें आरएसएस  वालों की भूमिका का विस्तार से जिक्र किया गया है। इसमें उन्होंने बताया है कि सरकार को हत्या के इस षड़यंत्र के पुख्ता सबूत मिल गये थे। पहला विफल प्रयास तो 20 जनवरी के दिन ही कर लिया गया था, जिसमें गोडसे भी शामिल था। सरदार पटेल ने इस पर गांधीजी से अनुरोध किया था कि आगे से उनकी प्रार्थना सभा में शामिल होने वाले प्रत्येक व्यक्ति की पुलिस तलाशी लेगी। लेकिन गांधीजी ने यह कह कर पुलिस के पहरे से इंकार कर दिया कि कि प्रार्थना सभा में जब वे खुद को ईश्वर की पूर्ण सुरक्षा के सुपुर्द कर देते हैं, उस समय उन्हें मनुष्य द्वारा दी गयी सुरक्षा मंजूर नहीं है। सरदार पटेल को गांधीजी की जिद को मानना पड़ा था। लेकिन प्यारेलाल ने इस बात पर आश्चर्य व्यक्त किया कि जब सरकार को इस प्रकार के षड़यंत्रका पता चल गया था, तब फिर क्यों नहीं उस षड़यंत्रको पहले ही विफल कर देने के लिये अन्य स्तरों पर उचित कार्रवाइयां की गयी। इसी सिलसिले में वे आगे लिखते हैं कि सरकार की ’’यह विफलता इस बात का संकेत थी कि किस हद तक यह गंदगी (आरएसएस के विचारों की गंदगी -अ.मा.) प्रशासन की अनेक शाखाओं तक फैल चुकी थी, जिससे पुलिस भी नहीं बची थी। दरअसल, यह बाद में प्रकाश में आया कि आरएसएस के संगठन की शाखाए-प्रशाखाएं सरकारी विभागों तक में फैल चुकी थी, आम कर्मचारी तो क्या, यहां तक कि पुलिस अधिकारियों में से भी कइयों की उसके प्रति सहानुभूति थी और वे आरएसएस के कामों में शामिल लोगों की सक्रिय सहायता किया करते थे। ...सरदार पटेल को हत्या के बाद एक नौजवान, जिसने खुद स्वीकारा था कि वह भी कभी आरएसएस का सदस्य था लेकिन बाद में उसका मोहभंग होगया था, से जो पत्र मिला उसमें बताया गया है कि कैसे कुछ स्थानों पर आरएसएस के सदस्यों को यह कहा गया था कि वे उस भाग्यशाली शुक्रवार के दिन ’’अच्छी खबर’ सुनने के लिये अपने रेडियो चालू रखे। खबर आने के बाद दिल्ली सहित कई स्थानों पर आरएसएस के लोगों ने आपस में मिठाइयां बांटी।’’

प्यारेलाल ने इस षड़यंत्र में नाथूराम गोडसे के साथ प्रत्यक्ष रूप से शामिल पुणे से निकलने वाले ’’हिंदू राष्ट्र’ अखबार के संपादक नारायण डी आप्टे, दिगंबर डी बेज, गोपाल गोडसे, करकरे, मदनलाल पहवा आदि के जो नाम दिये हैं, उन सबके बारे में साफ लिखा है कि ’’वे सभी हिंदू महासभा अथवा आरएसएस के सदस्य थे।’’      

सहस्त्रबुद्धे ने गांधी जी की शान्ति, प्रेम की बातों तथा पाकिस्तान को 55 करो़ड़ देने की बात पर नौजवानों के जिस गुस्से की बात लिखी है, वह गुस्सा और कहीं नहीं आर एस एस के मंचों पर ही व्यक्त किया जाता था। गांधी जी की हत्या के ठीक बाद गोलवलकर ने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और गृहमन्त्री वल्लभभाई पटेल के नाम शोक सन्देश के तार भेजे थे, गांधी जी के परिवार के लोगों और राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद के नाम उन्होंने कोई सन्देश नहीं भेजा। इसी से गोलवलकर की चालाकी का पता चलता है। गांधी जी की हत्या के बाद गोलवलकर ने सिर्फ उन लोगों के सामने ही घड़ियाली आँसू बहाना उचित समझा, जिनके हाथ में राज सत्ता थी तथा जिनसे उन्हें दमन की कार्रवाई का डर था। अगर ऐसा न होता तो जिस प्रकार गांधी जी की हत्या पर आर एस एस के लोगों ने मिठाइयाँ बाँटी, उसी प्रकार गोलवलकर ने नेहरू ओर पटेल को भी शोक सन्देश के बजाय मिठाई के डिब्बे ही भेजे होते !

बुधवार, 29 जनवरी 2014

‘खुला संगठन’ और ‘बंद संगठन



राहुल गांधी ने अपने बहुचर्चित साक्षात्कार में आम आदमी पार्टी की प्रशंसा में कहा कि यह एक खुला संगठन है, इसमें नये-नये लोग आ रहे हैं।

‘खुला संगठन’ और ‘बंद संगठन’।

सार्त्र का नाटक है - ‘No Exit’।

नर्क पहुंची तीन पतित आत्माओं को यातना देने के बजाय एक कमरे में हमेशा-हमेशा के लिये बंद कर दिया जाता है। आपस में कोई अपना पाप कबूल नहीं करना चाहता। लेकिन एक कहता है - हमें अपना नैतिक अपराध कबूल करना चाहिए। और इसी क्रम में एक बिना किसी यंत्रणादायी के ही यंत्रणा पाने के सच को देख लेता है। कहता है -

‘‘रुको! देखों यह कितनी सीधी बात है, बच्चों की तरह सीधी। यहां कोई शारीरिक यंत्रणादाता नहीं है। यह तो तुमलोग मानोंगे? फिर भी हम नर्क में हैं। और, यहां कोई दूसरा नहीं आने वाला। हम तीनों हमेशा-हमेशा के लिये, इस कमरे में रहेंगे। ...संक्षेप में, यंत्रणा अधिकारी यहां नहीं है...जाहिर है उनके पास लोगों की कमी है - हममें से प्रत्येक बाकी दोनों के लिये यंत्रणादायी का काम करेगा।’’

बंद कमरा और शत्रु की तलाश की प्रवृत्ति - सोच लीजिये यह सब क्या किसी नर्क से कम है!

संगठन जितना बंद, उतना ही घनघोर नर्क।

सोमवार, 27 जनवरी 2014

गुरू गोलवलकर और आरएसएस का राष्ट्रवाद

अरुण माहेश्वरी



आर एस एस की विचारधारा को परिभाषित करने का काम किया था उसके द्वितीय सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर ने। हेडगेवार ने अपनी मृत्यु (21 जून, 1940) के वक्त उन्हें आर एस एस का पूरा भार सौंपा था। आर एस एस का कोई संविधान तो था नहीं, इसीलिए प्रथम सरसंघचालक की इच्छा को ही सर्वोपरि मान कर गोलवलकर को आर एस एस का सर्वोच्च अधिकारी बना दिया गया था। यह सच्चाई है कि जबसे गोलवलकर नागपुर आकर संघ में शामिल हुए तभी से आर एस एस का नागपुर के बाहर भी फैलाव शुरू हुआ और हेडगेवार में तको के जरिए अपने विचार को रखने की जिस सामथ्र्य का अभाव था, गोलवलकर ने उसे काफी हद तक पूरा करने की कोशिश की। इसीलिए आर एस एस की विचारधारा को जानने के लिए, उनकी प्रेरणा के मूल स्रोतों को समझने के लिए गोलवलकर का लेखन ही सबसे प्रामाणिक माना जा सकता है।

हेडगेवार की मृत्यु के वक्त गोलवलकर आर एस एस के सरकार्यवाहक (महासचिव) थे। सन् 1939 में हेडगेवार ने इसकी घोषणा की थी। आर एस एस के लोग हेडगेवार और गोलवलकर के सम्बनों की तुलना रामकृष्ण परमहंस और विवेकानन्द के सम्बनों से किया करते हैं। सरसंघचालक बनने के बाद गोलवलकर ने ही अपने पहले भाषण में हेडगेवार की उन पर कृपा को परमहंस की विवेकानन्द पर हुई कृपा के सादृश्य बताया था। (प्र.ग. सहस्रबुद्धे, श्री गुरू जी : एक जीवन यज्ञ, पृ. 5)

19 फरवरी, 1906 को नागपुर में जन्मे माधवराव गोलवलकर ने 1928 में प्राणिशास्त्र में एम एस सी की परीक्षा पास की। फिर 1930 में कुछ अर्से के लिए बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हुए और वहीं उनका सम्बन आर एस एस के एक और संस्थापक सदस्य प्रभाकर बलवंत दाणी (भय्या जी दाणी) से हुआ। बनारस में ही उनकी मुलाकात हेडगेवार से भी हुई थी और हेडगेवार ने उन्हें नागपुर में आर एस एस की शाखा देखने का निमंत्रण दिया। इस प्रकार 1931 के जमाने से गोलवलकर आर एस एस से जुड़ गए थे। बनारस में तीन साल रहने के बाद गोलवलकर अपने पिता के साथ रहने के लिए नागपुर आ गए तथा वहीं उन्होंने लॉ कॉलेज में दाखिला भी ले लिया। उनकी इच्छा वकालत करके जीवन यापन करने की थी। दो वषो तक उन्होंने वकालत की भी। लेकिन वकालत में सफलता न मिलने पर वे हेडगेवार की शाखा से गहराई से जुड़ गए। हेडगेवार ने उनकी मदद से ही आर एस एस को महाराष्ट्र के अन्य हिस्सों में फैलाने का काम शुरू किया। इसीलिए गोलवलकर के विचारों को आर एस एस की मूलभूत विचारधारा माना जा सकता है।

आर एस एस की गीता

गोलवलकर ने 1939 में अपनी पहली शायद एकमात्र, किताब लिखी : ’’वी आर आवर नेशनहुड डिफाइण्ड‘। बाद में ’’बंच ऑफ थाट्स‘ के नाम से उनके भाषणों आदि का एक संकलन तथा 6 खण्डों में ’’श्री गुरु जी समग्र दर्शन‘ भी प्रकाशित हुए हैं। लेकिन योजनाबद्ध ढंग से उन्होंने खुद यह अकेली किताब लिखी थी। उनकी अन्य पुस्तकें दूसरे लोगों ने बिखरी हुई सामग्री को संकलित करके तैयार की। मजे की बात है कि आर एस एस ही उनकी इस इकलौती किताब को अब प्रकाशित नहीं करता है। एक समय था जब संघियों के लिए गोलवलकर की ’’वी आर आवर नेशनहुड डिफाइन्ड‘, गीता के समान थी। अमरीकी शोधार्थी करान ने इस किताब को आर एस एस के सिद्धान्तों की मूल पुस्तक बताते हुए लिखा था कि ’’इसे आर एस एस की ‘बाइबिल’ कहा जा सकता है। संघ के स्वयंसेवकों को दीक्षित करनेवाली यह पहली पाठ्य पुस्तिका है।‘ (जे.ए. करान, पूर्वोक्त, पृ. 28)

गोलवलकर ने यह पुस्तक बाबूराव सावरकर की पुस्तक ’’राष्ट्र मीमांसा‘ (मराठी) से प्रेरणा लेकर लिखी थी। इसे खुद उन्होंने भी पुस्तक की भूमिका में स्वीकारा है। (देखिए, ’’एम.एस. गोलवलकर, वी आर आवर नेशनहुड डिफाइन्ड,‘ पृ. 4) गोलवलकर ने ही ’’राष्ट्र मीमांसा‘ का अंग्रेजी अनुवाद भी किया था। लेकिन जब से आर एस एस के आलोचकों ने आर एस एस को हिटलर और मुसोलिनी के ’’तुफानी दस्तों‘ की तरह के संगठन के रूप में सही पहचान लिया तथा इस ओर इशारा किया जाने लगा, तब से खुद गोलवलकर ने ही इस किताब का प्रकाशन बन्द करवा दिया। इसकी वजह यह रही कि इस पुस्तक में गोलवलकर ने खुलकर हिटलर और मुसोलिनी के प्रति अपने झुकाव को जाहिर किया था।


सन् 1939 में जब यह पुस्तक लिखी गई, दुनिया में नाजियों और फासीवादियों के बढ़ाव के दिन थे। बहुतों को यह भ्रम था कि आनेवाले दिनों में दुनिया पर उन्हीं (फासीवादियों) के विचारों की तूती बोलेगी। गोलवलकर और हेडगेवार भी उन्हीं लोगों में शामिल थे। गोलवलकर ने इसी विश्वास के बल पर आर एस एस के विचारों के सारी दुनिया में नगाड़े बजने की बात कही थी। गोलवलकर के संघी जीवनीकार सहस्त्रबुद्धे ने गोलवलकर की बात को उद्धृत किया है कि ’’लिख लो, आज साम्यवाद, समाजवाद आदि के नगाड़े बज रहे हैं। परन्तु संघवाद के सम्मुख ये सब निष्प्रभ सिद्ध होंगे।‘ (पूर्वोक्त, पृ. 30)

गोलवलकर की यह पुस्तक 1939 में प्रकाशित हुई और इसी वर्ष हेडगेवार ने उन्हें आर एस एस का सरकार्यवाहक घोषित किया था। इससे जाहिर है कि इस पुस्तक में व्यक्त गोलवलकर के विचारों से हेडगेवार सिर्फ पूरी तरह सहमत ही नहीं थे, बल्कि वास्तव अथो में वे खुद इस पुस्तक को ही आर एस एस की विचारधारा की मूल पुस्तक मानते थे। एम.एन काले ने अपनी किताब ’’द मोस्ट रेवर्ड डॉ. हेडगेवार‘ (परम पूजनीय डॉ. हेडगेवार) में लिखा है कि हेडगेवार अपने प्रशिक्षण शिविरों में अपने अनुयायियों को यही बताया करते थे कि हिन्दुस्तान हिन्दुओं का है। ’’इंग्लैण्ड अंग्रेजों का, फ्रांस फ्रेंच लोगों का, जर्मनी जर्मनों का तथा इन देशों के लोग गर्व के साथ यह बात कहते हैं।‘ (पृ. 40) गोलवलकर ने अपनी पुस्तक ’’वी‘ में भी इसी विचार को प्रतिपादित किया है।

सिर्फ 77 पृष्ठों की इस पुस्तक को वास्तव में एक ’’पैम्फलेट‘ कहा जा सकता है। इसके लिखने का ढंग भी ऐसा ही है जिसमें बहुत प्रमाणों के साथ अपनी बात कहने की कोई कोशिश नहीं की गई है। ’’राष्ट्र‘ के बारे में विश्व स्तर के विद्वानों के कुछ कथनों की चर्चा से विषय को उठाया तो गया है, लेकिन सबकी बातों को मनमाने ढंग से तोड़-मरोड़ कर नस्लवाद को ही राष्ट्रवाद का पर्याय बताते हुए नस्लवादी चेतना के विकास की तारीफ की गई है और हिटलर के सुर में सुर मिलाकर यह साफ ऐलान किया गया है कि अन्य सभी छुद्र नस्ल के लोगों को श्रेष्ठ नस्ल की (अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों की) गुलामी स्वीकार करनी होगी, तथा अपनी स्वतंत्र सत्ता को गँवाकर उनमें मिल जाना होगा। इसमें हिटलर द्वारा यहूदियों के साथ किए गए सलूक की तारीफ करते हुए उसे भारत के लिए एक अच्छा सबक बताया है।

‘राष्ट्र’ की विकृत व्याख्या

गोलवलकर ने अपनी इस किताब में मनमाने ढंग से ’’राष्ट्र‘ की परिभाषा करते हुए लिखा है कि इसका संगठन ’’पाँच प्रसिद्ध इकाइयों के मिश्रण से होता है, वे हैं : भौगोलिक (देश), नस्ली (नस्ल), धार्मिक (धर्म), सांस्कृतिक (संस्कृति) तथा भाषायी (भाषा) और इनमें से एक भी नष्ट होने का अर्थ है राष्ट्र के रूप में राष्ट्र की समाप्ति।‘ (पृ. 33)

इस प्रकार उन्होंने नस्ल और धर्म को राष्ट्र के अभिन्न तत्त्व के रूप में गिनाकर हिटलर और मुसोलिनी के नस्ल तथा खुद की साम्प्रदायिकता की अवधारणा को राष्ट्रीयता का आधार बताने की जमीन तैयार कर ली और उसके बाद राष्ट्रवाद के नाम पर साम्राज्यवादी लूट औेर हिंसा की प्रशंसा में, जर्मनी में हिटलर की करतूतों की तारीफ में लम्बा लेख लिख डाला। इंग्लैण्ड द्वारा सारी दुनिया में अपने साम्राज्य को फैलाने की कोशिशों का भी इसी तर्क पर उन्होंने समर्थन किया था।

गोलवलकर ने लिखा : ’’आज हम जिस राष्ट्र के सबसे अधिक सम्पर्क में हैं, वह है इंग्लैण्ड और इसे ही हम सबसे पहले अययन का विषय बनाएँगे। जहाँ तक देश और नस्ल का प्रश्न है यह इतना स्थापित सत्य है कि राष्ट्र की अवधारणा में इसके महत्त्व पर कोई भी प्रश्न नहीं उठाता। संस्कृति भी इसी श्रेणी में पड़ती है। यह इसलिए बदनाम भी है कि प्रत्येक राष्ट्र भारी ईष्र्या के साथ इसकी रक्षा करता हुआ पाया जाता है और अपनी संस्कृति कोश्रेष्ठ बनाए रखता है। जिस बात को लेकर गुत्थी है वह है धर्म को लेकर तथा कुछ हद तक को भाषा को लेकर। खासतौर पर आज जब जनतांत्रिक राज्य इस बात की गर्वोक्ति किया करते हैं कि उन्होंने धर्म से अपने को अलग कर लिया है तब धर्म के विषय में और भी ज्यादा सावाधनी से जाँच की आवश्यकता है। क्या इंग्लैण्ड किसी राजकीय धर्म पर विश्वास करता है?  इसका उत्तर सीधे तौर पर हाँ के सिवा और कुछ नहीं हो सकता क्योंकि अन्यथा क्यों यह जरूरी माना जाता है कि इंग्लैण्ड का सम्राट प्रोटेस्टेंट मतावलम्बी ही होना चाहिए?  क्यों इंग्लैण्ड के चर्च के तमाम पादरियों को राजकीय खजाने से पैसे दिए जाते हैं।...जहाँ तक भाषा का प्रश्न है, सभी स्वदेशी भाषाओं की हत्या करके विजित नस्लों पर अपनी ’’राष्ट्रीय‘ भाषा अंग्रेजी को आरोपित करने का इतना गर्व है कि वे उसे सारी दुनिया की सम्पर्क भाषा बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते। इस प्रकार इंग्लैण्ड के राष्ट्र संबंधी विचार का सिद्धान्त के साथ व्यावहारिक स्तर पर पूरी तरह मेल बैठता है।‘ (वही पृ. 33-34)

इस प्रकार, अपनी संस्कृति की श्रेष्ठता की स्थापना के लिए ’’ईष्र्यापूर्ण‘ कार्रवाइयों, धर्म और दूसरी भाषाओं पर अपनी भाषा को लादने के बारे में इंग्लैण्ड के उदाहरण से गोलवलकर ने राष्ट्रीयता संबंधी अपनी अवधारणा के मूल तत्त्वों को गिना दिया और बताया कि इस प्रकार की जोर-जबर्दस्ती ही सच्ची राष्ट्रीयता के लक्षण हैं। इसके बाद ही उन्होंने हिटलर के जर्मनी, उसके विस्तारवाद तथा उसके पैशाचिक नस्लवाद की तारीफ करके हत्या, दमन, सैन्यीकरण तथा अन्य धर्मों, नस्लों को पशु-बल से कुचले जाने की प्रशंसा की और धर्म से अलग होने के जनतांत्रिक राज्य के दावे का उपहास करके आर एस एस की घनघोर अमानवीय और हत्यारी कार्यपद्धति और साम्प्रदायिक तानाशाही की विचारधारा की आाधरशिला रखी।

हिटलर के जर्मनी का गुणगान

जर्मनी के बारे में गोलवलकर ने लिखा : ’’आज दुनिया की नजरों में सबसे ज्यादा जो दूसरा राष्ट्र है वह है जर्मनी। यह राष्ट्रवाद का बहुत ही ज्वलन्त उदाहरण है। आधुनिक जर्मनी कर्मरत है तथा वह जिस उद्दंश्य में लगा हुआ है उसे काफी हद तक उसने हासिल भी कर लिया है। पुरखों के समय से जो भी जर्मनों का था लेकिन जिसे राजनीतिक विवादों के कारण अलग-अलग राज्यों के अलग-अलग देशों के रूप में बाँट दिया गया था, उसे फिर उन्होंने अपने आीन कर लिया है। उदाहरण के लिए आस्ट्रिया सिर्फ एक प्रान्त भर था, जैसे प्रुशिया, बवारिया तथा अन्य कई प्रान्त हैं जिन्हें मिलाकर जर्मन साम्राज्य बना था। तर्क के अनुसार आस्ट्रिया एक स्वतंत्र देश नहीं होना चाहिए था, बल्कि उसे बाकी जर्मनी के साथ ही होना चाहिए था। इसी प्रकार के क्षेत्र हैं जिनमें जर्मन बसते हैं, जिन्हें युद्ध के बाद नए चेकोस्लोवाकिया राज्य में मिला दिया गया था। पितृभूमि के प्रति जर्मन गर्वबोध, जिसके प्रति उस जाति का परम्परागत लगाव रहा ह,ै सच्ची राष्ट्रीयता का जरूरी तत्त्व है। आज वह राष्ट्रीयता जाग उठी है तथा उसने नए सिरे से विश्व युद्ध छेड़ने का जोखिम उठाते हुए अपने ’’पुरखों के क्षेत्र‘ पर एकजुट, अतुलनीय, विवादहीन, जर्मन साम्राज्य की स्थापना की ठान ली है। जर्मनी की यह स्वाभाविक तार्किक आकांक्षा अब प्राय: परिपूर्ण हो गई है तथा एक बार फिर वर्तमान काल में राष्ट्रीयता में ’’देशवाले पहलू‘ का अतीव महत्त्व प्रमाणित हो गया है।‘ (गोलवलकर, पूर्वोक्त, पृ. 34-35)

गोलवलकर अब अपने राष्ट्रीयता संबंधी विचार के दूसरे तत्त्व ’’जाति‘ (रेस) की महत्ता को हिटलर के ही उदाहरण से स्थापित करते हैं। वे लिखते हैं :

’’अब हम राष्ट्रीयता संबंधी विचार के दूसरे तत्त्व जाति पर आते हैं जिसके साथ संस्कृति और भाषा अभि रूप से जुड़े हुए हैं।...जर्मनों का जाति संबंधी गर्वबोध इन दिनों चर्चा का विषय बन गया है। अपनी जाति और संस्कृति की शुद्धता बनाए रखने के लिए जर्मनी ने देश से सामी जातियों - यहूदियों का सफाया करके विश्व को चौंका दिया है। जाति पर गर्वबोध यहाँ अपने सर्वोच्च रूप में व्यक्त हुआ है। जर्मनी ने यह भी बता दिया है कि सारी सदिच्छाओं के बावजूद जिन जातियों और संस्कृतियों के बीच मूलगामी फर्क हों, उन्हें एक रूप में कभी नहीं मिलाया जा सकता। हिन्दुस्तान में हम लोगों के लाभ के लिए यह एक अच्छा सबक है।‘ (गोलवलकर, पूर्वोक्त, पृ. 35)

इसके बाद ही वे जर्मनी में भाषा और धर्म के तत्त्वों के बारे में लिखते हैं। कहते हैं कि तमाम भाषाई अल्पसंख्यक आपस में भले ही अपनी भाषा का वहाँ प्रयोग कर लें, लेकिन सार्वजनिक जीवन में वे सिर्फ राष्ट्रीय भाषा, जर्मनी का ही प्रयोग कर सकते हैं। धर्म के मामले में, जर्मनी के राष्ट्रपति को ईसाई धर्म के अनुसार ही शपथ लेनी पड़ती है। इस प्रकार गोलवलकर ने यह स्थापित किया कि ’’राष्ट्रीयता के विचार के पाँचों संघटक तत्त्व आधुनिक जर्मनी में पूरी दृढ़ता के साथ सही साबित हुए हैं...उन्होंने अपने महत्त्व को प्रदर्शित कर दिया है।‘ (वही, पृ. 36)

यह है आर एस एस और भाजपा, विहिप आदि की तरह के उनके तमाम संगठनों की ’’सच्ची राष्ट्रीयता‘ का मूल रूप। हिटलर के नाजी विचारों की प्रेरणा से ही आर एस एस और भाजपा के लोग...’’पुरखों के जर्मन साम्राज्य‘ की तर्ज पर अपने ’’प्राचीन अखण्ड भारत‘ का एक नक्शा पेश किया करते हैं। गोलवलकर बताते हैं : ‘हमारा अमर साहित्य’ तथा हमारे पुराण भी हमारी मातृभूमि की वही विस्तृत प्रतिमा प्रस्तुत करते हैं। अफगानिस्तान हमारा प्राचीन उपगणस्थान था। महाभारत के शल्य वहीं से आते हैं। आधुनिक काबुल और कंधार गांधार थे जहाँ से कौरवों की माता गांधारी आती थीं। यहाँ तक कि इरान भी मूलत: आर्य था। वहाँ का पहले का राजा रेजा शाह पहेलवी इस्लाम के बजाय आर्य मूल्यों से कहीं ज्यादा प्रभावित था। पारसियों का धर्म ग्रंथ ’’जेंद अवेस्ता‘ प्राय: ’’अथर्ववेद‘ ही है। पूरब में वर्मा हमारा प्राचीन ब्रह्मदेश है। महाभारत में इरावत का उल्लेख है, जो आधुनिक इरावडी है जो उस महायुद्ध में शामिल था। इसमें असम का उल्लेख भी प्राज्ञोतिषा के रूप में है क्योंकि वहीं सूरज पहले उगता है। दक्षिण में लंका का हमेशा भारत से सबसे निकट का सम्पर्क रहा है तथा उसे कभी भी मुख्य भूमि से भि नहीं समझा गया। (गोलवलकर, बंच ऑफ थाट्स, पृ. 111)

इस प्रकार अफगानिस्तान, इरान से लेकर पाकिस्तान, भारत, वर्मा, श्रीलंका, नेपाल आदि सभी देशों को मिलाकर उन्होंने प्राचीन अखण्ड भारत का नक्शा बिल्कुल वैसे ही पेश किया जैसे हिटलर ’’पुरखों के जर्मन साम्राज्य‘ का किया करता था।

गैर-हिन्दुओं के लिए कोई स्थान नहीं

जातीयता के मामले में संघियों का साफ कहना है हिन्दुस्तान में राष्ट्र का अर्थ ही हिन्दू है। गैर-हिन्दू तबकों के लिए यहाँ कोई स्थान नहीं है। ’’मूलगामी विभेदवाली संस्कृतियों और जातियों का मेल हो ही नहीं सकता‘ के हिटलरी फार्मूले को वे भारत पर हुबहू लागू करते हैं। उनकी यह साफ राय है कि गैर-हिन्दू भारत में रह सकते हैं, लेकिन वे सीमित समय तक तथा बिना किसी नागरिक अिधकार के रहेंगे। गोलवलकर के शब्दों में :

’’विदेशी तत्त्वों के लिए सिर्फ दो रास्ते खुले हैं, या तो वे राष्ट्रीय जाति के साथ मिल जाएँ और उसकी संस्कृति को अपना लें या जब तक राष्ट्रीय जाति अनुमति दे तब तक उनकी दया पर रहें और जब राष्ट्रीय जाति कहे कि देश छोड़ दो तो छोड़कर चले जाएँ। यही अल्पसंख्यकों की समस्या के बारे में आजमाया हुआ विचार है। यही एकमात्र तर्कसंगत और सही समाधान है। सिर्फ यही राष्ट्रीय जीवन को स्वस्थ्य और निरापद रखता है।...जाति और संस्कृति की प्रशंसा के अलावा मन में कोई और विचार न लाना होगा अर्थात् हिन्दू राष्ट्रीय बन जाना होगा और हिन्दू जाति में मिलकर अपने स्वतंत्र अस्तित्व को गँवा देना होगा, या इस देश में पूरी तरह से हिन्दू राष्ट्र की गुलामी करते हुए, बिना कोई माँग किए, बिना किसी प्रकार का विशेषािधकार माँगे, विशेष व्यवहार की कामना करने की तो उम्मीद ही न करे, यहाँ तक कि बिना नागरिकता के अिधकार के रहना होगा। उनके लिए इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं छोड़ना चाहिए। हम एक प्राचीन राष्ट्र हैं; हमें उन विदेशी जातियों से जो हमारे देश में रह रही हैं उसी प्रकार निपटना चाहिए जैसे कि प्राचीन राष्ट्र विदेशी नस्लों से निपटा करते हैं।‘ (गोलवलकर, ’’वी‘ पृ. 47-48)

हिटलर ने जिस तरह यहूदियों को जर्मन जाति का एक नम्बर दुश्मन बताकर उनके खिलाफ तीव्र घृणा के जरिए अपनी राजनीति का आाधर तैयार किया था, बिल्कुल इसी प्रकार आर एस एस ने भी शुरू से मुसलमानों को हिन्दू राष्ट्र का दुश्मन नम्बर एक कहना शुरू किया और उनके खिलाफ हर समय नफरत फैलाने को अपनी राजनीति के मूलकार्य के रूप में अपनाया। ’’राष्ट्र‘ संबंधी अपने हिटलरी सिद्धान्त को भारत पर लागू करते हुए गोलवलकर लिखते हैं : ’’हिन्दुस्तान, हिन्दुओं की भूमि, जिसका पुरखों से प्राप्त एक क्षेत्र है।...इस देश में प्रागैतिहासिक काल से एक प्राचीन जाति, हिन्दू जाति रहती है।...इस महान हिन्दू जाति का प्रख्यात हिन्दू धर्म है।...निजी, सामाजिक, राजनीतिक तमाम क्षेत्रों में इस धर्म से दिशा निर्देश लेकर इस जाति ने एक संस्कृति विकसित की है जो पिछली दस सदियों से मुसलमानों और यूरोपियनों की अधोपतित ’’सभ्यताओं‘ के घातक सम्पर्क में आने के बाद भी विश्व में सबसे श्रेष्ठ संस्कृति हैं।‘ (वही, पृ. 40-41)

फिर इसी बात को दोहराते हुए गोलवलकर कहते हैं ’’सिर्फ वे लोग ही राष्ट्रवादी देशभक्त हैं जो अपने हृदय में हिन्दू जाति और राष्ट्र की शान बढ़ाने की आकांक्षा रखते हुए इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील होते हैं। अन्य सभी या तो राष्ट्रीय हित के लिए विश्वासघाती और शत्रु हैं या नरम शब्दों में कहें तो मूर्ख हैं।‘ (वही, पृ. 44)

जर्मनी की नाजी पार्टी ने जर्मन श्रेष्ठता के अपने सिद्धांतों के प्रचार के जरिए एक ऐसी अवधारणा विकसित की थी कि सच्चा जर्मन वह है जो नाजी पार्टी का सदस्य है तथा सच्चा नाजी वह है जो यहूदियों से नफरत करता है। भारत में मुस्लिम लीग वालों ने भी यही पद्धति अपनाई थी कि वही व्यक्ति सच्चा मुसलमान है जो मुस्लिम लीगी है तथा सच्चा मुस्लिम लीगी वह है जो हिन्दुओं से नफरत करता है। नाजियों और मुस्लिम लीगियों के पदचिन्हों पर ही चलते हुए आर एस एस भी शुरू से यही रटता रहा है कि वही व्यक्ति सच्चा हिन्दू है जो आर एस एस का सदस्य है और वही सच्चा संघी है जो मुसलमानों से नफरत करता है। उनकी यह रट आज इस स्तर पर उतर आई है कि जो बाबरी मस्जिद को ढहाये जाने का समर्थक है वही सच्चा हिन्दू है तथा सच्चा हिन्दू वही है जो मुसलमानों से घृणा करता है।

इस प्रकार के धार्मिक या जातीय उन्माद को पैदा करके उसकी आग पर अपनी राजनीति की रोटियाँ सेंकनेवाली तमाम पार्टियाँ हमेशा समाज में किसी-न-किसी प्रकार के अल्पसंख्यक तबके को अपनी घृणा का विषय बनाकर उनके खिलाफ बिषवमन और हमलों के जरिए ही अपना प्रचार-प्रसार किया करती है। फ्रांस में ले पेन के राष्ट्रीय मोर्चे ने अप्रवासियों के खिलाफ जहरीला प्रचार करके उग्र राष्ट्रवाद के जरिए अपना विस्तार किया है। जर्मनी में अब नई दक्षिणपंथी पार्टियों ने भी विदेशियों को अपने हमलों का निशाना बनाया है।

गोलवलकर जिसे ’’सच्चा राष्ट्रवाद‘ बताते हैं उसकी प्रेरणा के स्रोतों को हमने ऊपर देख लिया है। आर एस एस का संघवाद इंग्लैण्ड के उपनिवेशवाद, हिटलर के नाजीवाद और मुसोलिनी के फासीवाद के भारतीय संस्करण के अलावा और कुछ नहीं है। चूँकि भारत की अन्य राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियाँ हिटलर के नाजीवादी दर्शन को स्वीकार नहीं करती इसीलिए आर एस एस उन्हें हमेशा ’’नकली राष्ट्रवादी‘ कहता रहा है और खुद को अकेले ’’सच्चा राष्ट्रवादी‘ बताता है, जैसे आज सारे संघी धर्मनिरपेक्ष पार्टियों को ’’नकली धर्मनिरपेक्षतावादी‘ कहते हैं और खुद को (आर एस एस, भाजपा के कथित संघ परिवार को) ’’सच्चा धर्मनिरपेक्षतावादी‘ कहते हैं।

सच्चा राष्ट्रवाद

जिस समय हेडगेवार, गोलवलकर और उनके संघी चेले हिटलर के नाजीवाद को ’’सच्चा राष्ट्रवाद‘ बताकर उसका स्तुति गान कर रहे थे, इंग्लैण्ड के उपनिवेशवाद को भी सच्ची राष्ट्रीयता का नमूना बता रहे थे, और बिल्कुल उन्हीं की विचारधारा की आाधरशिला पर अपने ’’हिन्दुत्व‘ के दर्शन की इमारत तैयार कर रहे थे, उसी समय हमारे भारत के ही अनेक मनीषियों ने पश्चिमी देशों में सामने आ रहे उग्र राष्ट्रवाद के घिनौने रूप को पहचान कर कड़े-से-कड़े शब्दों में उसकी भत्र्सना की थी।

मुंशी प्रेमचन्द ने ऐसी पैशाचिक राष्ट्रीयता का प्रहार करते हुए 1933 में ही लिखा था :
’’राष्ट्रीयता वर्तमान युग का कोढ़ है, उसी तरह जैसे मध्यकालीन युग का कोढ़ साम्प्रदायिकता थी। नतीजा दोनों का एक है। साम्प्रदायिकता अपने घेरे के अन्दर पूर्ण शान्ति और सुख का राज्य स्थापित कर देना चाहती थी, मगर उस घेरे के बाहर जो संसार था, उसको नोचने-खसोटने में उसे जरा भी मानसिक क्लेश न होता था। राष्ट्रीयता भी अपने परिमित क्षेत्र के अन्दर राम-राज्य का आयोजन करती है। उस क्षेत्र के बाहर का संसार उसका शत्रु है। सारा संसार ऐसे ही राष्ट्रों या गिरोहों में बँटा हुआ है, और सभी एक-दूसरे को हिंसात्मक सन्देह की दृष्टि से देखते हैं और जब तक इसका अन्त न होगा, संसार में शान्ति का होना असम्भव है।‘ (प्रेमचन्द, ’राष्ट्रीयता और अन्तर्राष्ट्रीयता‘, विविा प्रसंग, खण्ड-2, पृ. 333, 334)

रवीन्द्रनाथ ने लिखा था : ’’पाश्चात्य जातियों को अपनी सभ्यता पर जो गर्व है उसके प्रति श्रद्धा रखना अब तो असम्भव हो गया है। वह सभ्यता हमें अपना शक्ति रूप दिखा चुकी है लेकिन मुक्ति रूप नहीं दिखा सकी...।

’’इसी बीच मैंने देखा कि योरोप में मूर्तिमन्त क्रूरता अपने नख-दन्त बाहर निकालकर विभीषिका की तरह बढ़ती जा रही है। मानव जाति को पीडि़त करनेवाली इस महामारी का पाश्चात्य सभ्यता की मज्जा में जन्म हुआ। वहाँ से उठकर आज उसने मानव आत्मा का अपमान करते हुए दिग-दिगान्तर के वातावरण को कलुषित कर दिया है।‘‘

आर एस एस का ’’हिन्दुत्व‘ इसी महामारी की मार से ग्रसित विकृत विचारों की उपज है।

फासीवाद विरोधी विश्वव्यापी आन्दोलन में भारत में रवीन्द्रनाथ के साथ ही सभी भाषाओं के देशभक्त लेखकों, कवियों और विचारकों ने एक स्वर में फासिस्ट विचारों की भत्र्सना की थी। लेकिन फिर भी आर एस एस-भाजपा के लोग खुद को ही ’’सच्चे राष्ट्रवाद‘ के वजाधारी बताएँगे और रवीन्द्रनाथ, प्रेमचन्द तथा उनकी सारी विरासत को, ’’नकली राष्ट्रवादी‘।

यह वर्ष विवेकानन्द के प्रसिद्ध शिकागो भाषण का शताब्दी वर्ष है। विश्व धर्म महासभा, शिकागो में 11 सितम्बर, 1893 के दिन विवेकानन्द ने अपने स्वागत का उत्तर देते हुए जो संक्षिप्त भाषण दिया, उसका अन्त उन्होंने इन शब्दों से किया था :

’’साम्प्रदायिकता, धार्मिकता और उनकी बीभत्स वंशार धर्मांधता इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज कर चुकी है। वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही है, उसको बारंबार मानवता के रक्त से नहलाती रही है, सभ्यताओं को विवस्त करती और पूरे-पूरे देश को निराशा के गर्त में डालती रही है। यदि ये बीभत्स व दानवी शक्तियाँ न होतीं, तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता। पर अब उनका समय आ गया है, और मैं आन्तरिक रूप से आशा करता हूँ कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घंटा वनि हुई है वह समस्त धर्मांधता का, तलवार और लेखनी के द्वारा होनेवाले सभी उत्पीड़नों का तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होनेवाले मानवों की पारम्परिक कटुताओं का मृत्यु-निनाद सिद्ध हो।‘ (विवेकानन्द साहित्य, खण्ड 1, पृ. 4)
ऐसी बातें कहनेवाले विवेकानन्द ने यदि हिटलर के जर्मन ’’जाति गौरव‘ काल को, उसकी विभीषिका और बीभत्सता को देखा होता तो उसे सिर्फ धिक्कारने और धिक्कारने के अलावा उनकी वाणी से दूसरा कोई शब्द न निकलता। आर एस एस और उसका संघ परिवार हिटलर के उन्हीं पैशाचिक कृत्यों की शव-साधना में लगा हुआ है। समूचा भारतवर्ष अपने हजारों वषो की परम्पराओं और मूल्यों के साथ इसीलिए उन्हें धिक्कार रहा है। रवीन्द्रनाथ ने अपनी ’’गीतांजलि‘ के एक गीत में लिखा था :
’’एसो है आर्य, एसो अनार्य,हिन्दू मुसलमान
एसो एसो आज तुमी इंगरेज,
एसो एसो ख्रिस्टान।
एसो ब्राह्मण, शुचि करि मन
धरो हाथ सबाकार,
एसो हे पतित, करो अपनीत
सब अपमान भार।
मा‘र अभिषेके एसो एसो त्वरा
मंगलघट होय निर्भरा
सबार परशे पवित्र-करा
तीर्थ नीरे
आजि भारतेर महामानवेर
सागर तीरे‘‘।
(रवीन्द्र रचनावली, बांग्ला खण्ड-2, पृ. 257)

(आओ हे आर्य, आओ अनार्य, हिन्दू मुसलमान! आओ आज तुम अंग्रेज आओ आओ क्रिश्च्यन। आओ ब्राह्मण, मन को साफ करें, सबका हाथ थामे, आओ पतित अपने सारे अपमान के बोझ से मुक्त होओ। मां के अभिषेक के लिए तेजी से आओ, मंगलघट सबके स्पर्श से पवित्र हुए तीर्थ जल से अभी पूर्ण नहीं हुआ है। आज भारत के महामानव के सागर तट पर आआ)

यह है भारत का दृष्टिकोण। मंगलघट पवित्र होता है सबके स्पर्श से। आर एस एस और संघियों की दृष्टि इसके बिल्कुल विपरीत है। सबके स्पर्श से मंगलघट की पवित्रता की वे कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। आर एस एस दुनिया के तमाम दरिन्दों, नादिरशाहों और हिटलर-मुसोलनियों का पुजारी है जिन्हें विश्व मानवता सिर्फ नफरत के साथ ही स्मरण करती है। संघी उन्हीं के नक्शे कदम पर चलने को आतुर है। वे मानवता के दुश्मन हैं। इतिहास में उनका स्थान वही होगा, जो हिटलर-मुसोलिनी का है। लेकिन इसमें शक नहीं कि इसके पहले वे हमारे समाज पर भयावह कहर बरपा कर सकते हैं। शिक्षा, समाज, संस्कृति, भाषा, स्त्रियों तथा वर्णव्यवस्था आदि संबंधी तमाम विषयों पर आर एस एस के विचार चरम प्रतिक्रियावादी और फासिस्ट विचारों की पुनरावृत्ति के अलावा और कुछ नहीं है। वे हर प्रकार के सामाजिक सुधार के कट्टर विरोधी हैं।

(इस लेखक की पुस्तक 'आरएसएस और उसकी विचारधारा' का एक अंश)