शनिवार, 1 मार्च 2014

राजनीति का सौन्दर्यशास्त्र

आज राहुल गांधी की प्रचार शैली पर टिप्पणी करते हुए हमने राजनीति के सौन्दर्य शास्त्र की बात कही थी। सालों पहले, सन्  2005 में बिहार और हरियाणा की विधान सभाओं के चुनावों के वक्त हमने इसी शीर्षक से एक लेख लिखा था - ‘राजनीति का सौंदर्यशास्त्र’। 

आज अपने मित्रों से उस लेख को साझा कर रहा हूं :




राजनीति का सौन्दर्यशास्त्र

बिहार में चुनाव हो रहे हैं। हरियाणा में भी। भारत की संसदीय राजनीति के इतिहास में ये दो ऐसे प्रदेश हैं जो वर्तमान दौर की राजनीति के अनेक रोमांचक तत्वों के उत्स कहे जा सकते हैं। जातिवाद ने भारत के और भी कई राज्यों की राजनीति के स्वरूप को बदला है, लेकिन किसी भी अन्य राज्य में लालू यादव पैदा नहीं हुए। इसी प्रकार राजनीतिक अनीतियां दूसरे राज्यों में कम नहीं दिखाई देती फिर भी हरियाणा हरियाणा ही है। यहां किसी का भी शासन क्यों न आजाए, राजनीतिक किस्सागोइयों में इसकी लाल-त्रिमूर्ति (भजन-बंशी-देवी) का रोमांच कभी खत्म नहीं होगा। 

दरअसल सामान्यतौर पर व्यवहारिक राजनीति का संबंध कॉमन सेंस से होता है। हालात को देख कर चालें चली जाती है। ऐसी राजनीति में आम तौर पर किसी प्रकार का रोमांच या कौतुहल नहीं होता, और इसीलिये इसका अपना कोई सौंदर्यशास्त्र भी नहीं होता। इतिहास के व्यर्थताबोध की जो सबसे अधिक चर्चा की जाती है और जो आज के उत्तरआधुनिकतावादी दर्शन के मूल में है, उसके पीछे भी वस्तुत: किसी राजनीतिक सौंदर्यशास्त्र की अनुभूति का अभाव ही काम कर रहा होता है। समाज को बदलने की प्रेरणादायी क्रांतिकारी राजनीति जब दुनिया की परिस्थितियों से ताल-मेल बैठाने की कसरत में पर्यवसित होती दिखाई देने लगती है तो ‘इतिहास के अंत’ का सूत्र जन्म लेता है। फ्रांसिस फुकुयामा ने 1989 में जब इतिहास के अंत की बात की तब उसके पीछे उनका तर्क था कि सारी दुनिया में ‘उदारतावादी जनतंत्र’(लिबरल डेमोक्रेसी) की प्रशासनिक व्यवस्था के औचित्य के बारे में जिस प्रकार की सर्वसम्मति पैदा हो रही है, उसने ‘मनुष्यमात्र के विचारधारात्मक विकास को अंतिम बिंदु’ तक पंहुचा दिया है। इतिहास से अपने तात्पर्य को समझाते हुए वे कहते हैं कि हेगल और मार्क्स ने भी इतिहास को सदैव विकासमान रूप में नहीं देखा था। हेगल ने एक उदारतावादी राज्य के विकास में इतिहास के अंत को देखा था तो माक्र्स ने कम्युनिस्ट समाज में। लेकिन इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि जन्म, जीवन और मृत्यु का सिलसिला रुक जायेगा; कि आगे अब और महत्वपूर्ण घटनाएं नहीं घटेगी और अखबार उन्हें प्रकाशित करना बंद कर देंगे। इतिहास के अंत से उनका तात्पर्य मानवता द्वारा ऐसे उदारतावादी जनतंत्र की स्थापना से था जो अन्य सभी दूसरी व्यवस्थाओं के अंदर के ‘गंभीर दोषों और अयौक्तिक्ताओं’ से बुनियादी तौर पर मुक्त है और इसीलिये अंतिम है।   

बहरहाल, हमारा मकसद कत्तई इस दार्शनिक बहस और उसके तमाम निहितार्थों पर चर्चा का नहीं है। यह एक लंबी बहस है और इसके अनेक आयाम है। सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के समाजवादी देशों के पराभव के साथ ही विचारधारा के मैदान में फुकुयामा का इस प्रकार का सैद्धांतिक घोषणा-पत्र लेकर कूदना पूंजीवाद को ही इतिहास का अंतिम सत्य घोषित करने की अश्लीलता से भरा हुआ था और इसीलिये सर्वत्र निंदित भी हुआ। हम यहां इस प्रसंग पर चर्चा नहीं करेंगे। यहां हमारा मकसद बिहार और हरियाणा के चुनावों की खासियत से अपनी बात शुरू करके आम जनता को उत्साहित और प्रेरित करने वाले राजनीति के रोमांच और कौतुहल के तत्व के संधान और इसतरह एक प्रकार के ‘राजनीतिक साैंदर्यशास्त्र’ की चर्चा के अनजाने रास्ते की ओर बढ़ना है। 

फुकुयामा के ‘इतिहास के अंत’ का एक प्रमुख तत्व है ‘सर्वसम्मति’। जहां ‘सर्वसम्मति’ है, वहीं ‘अंत’ है। और इस ‘अंत’ का अर्थ है प्रेरणा और उत्साह का, कौतुहल और रोमांच का अंत। अब यदि हम फिर बिहार और हरियाणा तथा आज के राजनीतिक यथार्थ की बात करें तो पायेंगे कि क्या यह भारतीय राजनीति की ‘सर्वसम्मति’ का ही प्रताप नहीं है कि अब हरियाणा के ‘लालों’ और एक हद तक बिहार के लालू का भी पुराना आकर्षण क्रमश: म्लान होता दिखाई देता है; कि बार-बार चाहने पर भी सांप्रदायिक भाजपा के लिये रामजन्म भूमि का झंडा उठा कर चुनाव के मैदान में उतरना संभव नहीं जान पड़ता? लालू हो या कोई लाल (जिनमें लालकृष्ण आडवाणी भी शामिल है) सभी ‘विकास’ के ‘सर्वसम्मत’ रथ के सारथी दिखाई देना चाहते हैं। यह अब तक की उनकी राजनीति के ‘गंभीर दोषों’ और उसकी ‘अयौक्तिक्ता’ के अंत का ही सूचक है। और इसीलिये आज वे सभी रोमांचविहीन तथा आकर्षणहीन हो गये हैं।    

सौन्दर्य का एक बड़ा श्रोत कौतुहल और रोमांच है। साहित्य और कला में आदमी खुद के और अपने इर्द-गिर्द के अभावनीय रूपों को देख कर जब कौतुहल और रोमांच से भरता है, वहीं से साहित्यिक पाठ के सौन्दर्य की सृष्टि होती है। इस प्रसंग में पाब्लो नेरूदा के जीवन की एक घटना पर गौर किया जा सकता है जिसका उनके एक जीवनीकार ऐडम फीनस्टीन ने हाल में प्रकाशित उनकी जीवनी ‘पाब्लो नेरूदा अ पैशन फॉर लाइफ’ में उल्लेख किया है। 

यह घटना 1945 की है जब द्वितीय विश्वयुद्ध खत्म होगया था, नाजी सेना पराजित हुई थी और चौतरफा सोवियत संघ की लाल सेना की ख्याति फैली हुई थी और नेरूदा ने भी कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ले ली थी। नेरूदा तभी चीले के एक मरु क्षेत्र से सिनेटर भी चुने गये और तत्कालीन चीले सरकार ने उन्हें चीले का पहला राष्ट्रीय साहित्य पुरस्कार दिया। इस समूचे घटना-क्रम ने नेरूदा में एक लेखक और एक कम्युनिस्ट सिनेटर की दोहरी जिम्मेदारी की चेतना पैदा की जो 30 मई 1945 के दिन चीले के पार्लियामेंट में उनके पहले भाषण में साफ तौर पर दिखाई दी थी। अपने इस भाषण में उन्होंने कहा था कि "हम सब, अथवा लगभग हम सभी जिस विचारधारात्मक, नैतिक और वैद्यानिक जिम्मेदारी को महसूस करते हैं, मेरे मामले में वे और भी ज्यादा हैं।"

नेरूदा का यह पहला भाषण राजनीतिक आवेग से भरा भाषण था जिसमें उन्होंने हिटलर की मौत, नाजियों पर मित्र शक्ति की जीत और वामपंथ, खासतौर पर कम्युनिज्म की विजय पर खुशी जाहिर की थी। 

"कुछ दिनों पहले तक एक पागल आदमी था जिसने कम्युनिज्म-विरोध के झंडे तले कत्लेआम और विध्वंस किया, ईश्वर को कलुषित किया और उसकी निंदा की, मनुष्यों, शहरों, खेतों और गांवों, आमलागों और संस्कृतियों पर हमले किये और उनकी हत्या की। उस आदमी ने एक भयंकर शक्ति हासिल कर ली थी जिसे उसने मानवता के इतिहास में पहले कभी नहीं देखी गयी वैसी नफरत और हिंसा की एक सबसे जबर्दस्त आंधी का रूप दे दिया। आज, अपने राष्ट्र के अवशेषों के बगल में, उन लाखों मृत लोगों की बगल में जिन्हें उसने कब्र में घसीट लिया, वह अपने खुद के दुर्ग के मलबे के तले जले और सूखे हुए अनाम मांस के लोथड़े की भांति पड़ा हुआ है। उस दुर्ग पर आज हंसिया, हथोड़े और सितारे के साथ शानदार लाल झंडा लहरा रहा है। और इस झंडे का, विजय की अन्य निशानियों के साथ, अर्थ है शांति और हमारी अपमानित मानवीय मर्यादा का पुनर्निर्माण।"

नेरूदा ने सोवियत संघ की प्रशंसा सिर्फ युद्ध के मैदान में नाजियों का मुकाबला करने की बहादुरी की लिये ही नहीं की, एक दूसरे सांस्कृतिक नजरिये से भी उन्होंने अपने इस भाषण में सोवियत संघ को सराहा। "मैंने अभी-अभी सरकारी आंकड़ों से एक तथ्य को जाना है जो मेरे लेखक के हृदय को अकूत खुशियों की बाढ़ से भर दे रहा है। वह यह तथ्य है कि युद्ध के दौरान सोवियत संघ में 100 विभिन्न भाषाओं में 1000 किताबों की एक अरब प्रतियां प्रकाशित हुई थी।" 

यह नेरूदा की एक राजनीतिज्ञ के रूप में नयी तस्वीर थी। 

उसी समय नेरूदा को मिले साहित्य के राष्ट्रीय पुरस्कार के लिये सांतियागो में उनके सम्मान में ‘सोसाइटी आफ चीलियन राइटर्स’ की ओर से एक सभा बुलायी गयी थी। नेरूदा के राजनीतिज्ञ रूप से आहत कुछ लोगों ने इस सभा में उन्हें कठघरे में खड़ा करते हुए यह अभियोग लगाया था कि आपने कविता, कवियों, मानवतावादियों और गैर-राजनीतिक कविता की पूरी व्यवस्था के प्रति विश्वासघात किया है। आपने गुप्त संधानो को त्याग दिया है, आप हमसे जादू के बारे में, आंद्रे ब्रेतां (तत्कालीन प्रसिद्ध अतियथार्थवादी स्पैनिश लेखक) के बारे में बात नहीं करते हैं। आप एक ...प्रचारक है। आप बहुत ही ग्राह्य और बहुत ज्यादा स्पष्ट है। आपके मिथ कहां गये, तिलिस्म कहां गया? मैंने काफ्का, अपोलिनेयर, मारक्वि द सादे, पिकासो और पॉल एलुआर्द को पढ़ा है, और उन सबमें अलौकिकता है।

नेरूदा ने इन सभी प्रहारों का संयत ढंग से जवाब देते हुए कहा था कि मैं मानव संस्कृति में सभी गहन अवदानों को अलौकिक मानता हूं। टोटेमिक आदिवासियों की रहस्यपूर्ण संगीतमय गोपनीयता का, चौसर, विल्लोन, बर्सिओ, अलिघियेरी के महान काव्यमय मुहावरों की चमकदार पैदाइश से लेकर रोनसार्द के रसिया पियानो, शेक्सपियर के आवेश और रत्नों, बाक अथवा तालस्ताय की काष्ठ शक्ति से होते हुए सोस्ताकोविच और पिकासो तथा पॉल एलुआर्द का भी मैं भक्ति भाव से आदर करता हूं। तिलिस्म और शिल्प कला के दो स्थायी डैने हैं, लेकिन मेरा मानना है कि जो लोग संस्कृति की रक्षा करने के बजाय खुद को उस अग्नि से दूर रखते है जिसमें संस्कृति जल रही है (भले ही इससे किसी का हाथ भी क्यों न जल जाए) वे कविता के प्रति विश्वासघाती है।

और, इसप्रकार नेरूदा ने फासीवाद के खिलाफ अपनी लड़ाई को संस्कृति की रक्षा के लिये अनिवार्य बताया था। 

लेकिन उनके इस बयान में गौर करने लायक एक बात यह है कि वे मानव संस्कृति में ‘सभी गहन अवदानों’ को अलौकिक मानते हैं और तिलिस्म तथा शिल्प को कला के दो स्थायी डैने, अर्थात वह चीज जिसके बिना कोई कला उड़ान ही नहीं भर सकती है। कहना न होगा कि शायद यही दो डैने साहित्यिक पाठ को अन्य पाठों से अलगाते हैं, और उसमें सौन्दर्य की सृष्टि करते हैं। 

अब यदि इसी मानदंड को कोई राजनीति के कर्मकांडों के सौन्दर्य पर लागू करें जो व्यापक जनता को अपनी ओर आकर्षित करते हैं, उनके अंदर नाना प्रकार के स्वप्नों और कल्पनाओं को जन्म देते हैं तो इसमें भी बहुत कुछ तिलिस्म के रोमांच और अलौकिक के आकर्षण की तरह का तत्व पायेंगे। जब राजनीति इन स्वप्नों और तिलिस्मी रोमांच से कट कर शुद्ध कॉमन सेंस की, अथवा ‘सर्वसम्मति’ की चीज बन जाती है तो वह किसी भी अखबारी समाचार की तरह का एक एकार्थी उबाऊ पाठ भर बन कर रह जायेगी। इसका अंदुरूनी लोकरंजक अथवा प्रेरणादायी आकर्षण खत्म हो जायेगा। 

हरियाणा और बिहार के चुनावों में इधर नजर आरहा घटनाक्रम, नकारात्मक अर्थों में ही सही, यह जाहिर करता है कि वहां की अब तक चली आरही राजनीति विकास की ‘सर्वसम्मत’ कॉमनसेंस वाली राजनीति की चपेट में आकर अपना विशेष आकर्षण गंवा रही है। इससे राजनीति के सौन्दर्यशास्त्र के सामान्य सूत्रों के बारे में निश्चित तौर पर कुछ संकेत हासिल किये जा सकते हैं। जब हम कला के दो डैनों के रूप में ‘तिलिस्म और शिल्प’ की नेरूदा की बात को दोहराते हैं तो इससे हमारा तात्पर्य कत्तई यह नहीं होता कि कला सिर्फ तिलिस्म और शिल्प ही है। हमारा सिर्फ यही कहना होता है कि ये दोनों किसी भी कला के कला होने की अनिवार्य शर्त है। इनके बिना कोई कला कला नहीं हो सकती। इसीप्रकार, राजनीति का भी तब तक अपना कोई अलग सौन्दर्य अथवा आकर्षण नहीं हो सकता है जब तक वह किन्हीं विशिष्ट स्वप्नों और कल्पनाओं से न जुड़ी हो। ‘सर्वसम्मति’ हर प्रकार की राजनीतिक विशिष्टता के आकर्षण के लिये किसी दलदल की तरह है जिसमें प्रवेश करने के बाद उसके जिंदा बचे रहने की कोई उम्मीद नहीं रह जाती है। 

लालू के ‘जातिवाद’ और लालों की अनीतियों का दौर-दौरा अक्षुण्ण बना रहे, यह हमें कत्तई काम्य नहीं है। लालू का स्थान कोई रामजन्मभूमि वाला लाल लें, यह तो और भी नहीं स्वीकारा जा सकता। वह तो बेहद खतरनाक है, जो सर्वसम्मतिवाद का भी सबसे खूंखार रूप है। वह फासीवाद है जो तमाम मानवीय व्यवहारों को एक सामरिक सांचे में ढाल कर उन्हें यकसां बना देने पर उतारू है। इसीलिये वह तो पूरी तरह से त्याज्य है। त्याज्य उदार सर्वसम्मतिवाद भी है। इस पूरे उपक्रम में आशा की बात है कि लालू सिर्फ जातिवाद नहीं है, उनके दिये स्वप्नों से सामाजिक न्याय के, धर्म-निरपेक्ष और सहिष्णु भारत के स्वप्न भी समान रूप से जुड़े हुए हैं। इसीलिये लालू अब भी अपना आकर्षण बनाये हुए हैं, पूरी तरह से ‘सर्वसम्मति’ के दलदल की ओर बढ़ते नहीं दिखते और इसीलिये किसी न किसी रूप में राजनीतिक सौंदर्य का उद्रेक करते हैं। जहां तक हरियाणा की लाल-त्रिमूर्ति की परंपरा का सवाल है, कभी वह सिर्फ इसीलिये विशिष्ट थी क्योंकि सर्वसम्मतिवाद के चरम भ्रष्ट रूप के पूरी तरह से परिपक्व होकर सामने आने के पहले ही इसमें उसकी झलक दिखाई दे दी थी। अब तो सर्वत्र उसी का बोलबाला है। इसलिये उनकी ‘विशिष्टता’ वाली कोई बात नहीं रह गयी है। हरियाणा के चौटाला वहां की लाल-त्रिमूर्ति की परंपरा की बदबूदार लावारिश लाश भर है, जिसका इस चुनाव में किसी कूड़े के ढेर पर फेंक दिया जाना तय है। 
बहरहाल, राजनीति के सौन्दर्यशास्त्र की तलाश में बिहार, हरियाणा, फुकुयामा, नेरूदा और पुन: लालू, चौटाला तक की इस यात्रा के वृत्तांत के अंत में एक ही निष्कर्ष निकलता है कि सचमुच यदि हमें राजनीति के सौन्दर्यशास्त्र की रक्षा करनी है, उसके स्वप्निल तिलिस्म और करोड़ों लोगों को उत्साहित करने वाले शिल्प को बचाना है तो एक बड़ी जरूरत विकास के ‘सर्वसम्मतिवाद’ के दलदल को ठुकराने की है। वर्ना यह सचमुच राजनीति की संभावनाओं के अंत की पटकथा लिखेगा।    






 







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