रविवार, 13 अप्रैल 2014

डा. भीमराव अंबेडकर और समान नागरिक संहिता


बाबा साहब डा. भीमराव अंबेडकर को याद करते हुए सरला माहेश्वरी की पुस्तक ‘समान नागरिक संहिता’ (1997) का एक छोटा सा अंश :
‘‘1985 में शाहबानो मुकदमे के बाद की तनावपूर्ण स्थिति में इस प्रकार की जो तमाम बातें कही जा रही थी, वही बातें नवंबर 1948 की संविधान सभा की बहस के वक्त भी डा. अंबेडकर ने कही थी कि संविधान में इस आशय का जो अनुच्छेद शामिल किया जा रहा है वह केवल एक प्रकार का सुझाव है कि ‘‘राज्य देश के नागरिकों के लिये एक व्यवहार संहिता के निर्माण का प्रयत्न करेगा। यह ऐसे नहीं कहता है कि संहिता के निर्माण के पश्चात राज्य उसे सब नागरिकों पर केवल इसी आधार पर लागू कर देगा कि वे नागरिक है।’’
‘‘इसी संदर्भ में हिंदू कोड बिल के बारे में संसद तथा संसद के बाहर जो बहस खड़ी हुई थी उसका भी उल्लेख किया जाना चाहिए। इस विधेयक पर 1948 से 1951 तक, लगभग तीन साल से भी ज्यादा काल तक तीखी बहस चली थी। उन दिनों कम्युनिस्टों तथा कांग्रेस के भी महिला कार्यकर्ताओं ने हिंदू निजी कानून में सुधार के पक्ष में पूरे देश में बड़ी-बड़ी सभाओं ओर जुलूसों का आयोजन किया था। सांप्रदायिक शक्तियां उस विधेयक के विरुद्ध खुल कर मैदान में उतरी हुई थी। कम्युनिस्ट और कांग्रेस महिला कार्यकर्ताओं के विरुद्ध गंदी-गंदी बातों के प्रचार के अलावा उनपर शारीरिक हमलें भी किये गये। लेकिन उल्लेखनीय है कि 1951 में जब यह विधेयक पारित होने लगा तो उस समय अचानक ही हिंदू सांप्रदायिक शक्तियों के प्रतिनिधियों ने अपने रुख को बदल लिया ओर सारे मामले को एक सांप्रदायिक रंग देते हुए यह कहना शुरू कर दिया कि ‘‘यह यदि हिन्दुओं के लिये अच्छा है तो मुसलमानों के लिये भी अच्छा होगा। हम इसे तभी स्वीकारेंगे जब यह कानून सब पर लागू होगा।’’ उनकी ओर से उक्त कानून में यह प्रमुख संशोधन पेश किया गया कि ‘‘यह संहिता सभी भारतीयों पर, वे किसी भी धर्म, जाति या समुदाय के लोग क्यों न हों, लागू होगी। ’’
‘‘सांप्रदायिक शक्तियों के इस बदले हुए पैंतरे का जवाब देते हुए डा. अंबेडकर ने इस बात पर आश्चर्य व्यक्त किया कि ‘‘कल तक जो लोग हिंदू कानून के वर्तमान रूप के सबसे बड़े पहरेदार बने हुए थे, वे ही आज यह कहने लगे हैं कि उन्हें सर्वभारतीय नागरिक संहिता चाहिए। एक कहावत है कि चीते के शरीर के दिखाई देने वाले धब्बे कभी समाप्त नहीं होते और मुझे विश्वास नहीं होता कि जो चीते अब तक, जब भी मैं इस विधेयक को सदन के सामने लाया, मुझ पर झपट्टा मारते रहे हैं, उनकी मानसिकता में अचानक ही अब इतना सुधार होगया है कि वे बिल्कुल क्रांतिकारी बन गये हैं और एक पूरी तरह से नयी संहिता की मांग उठाने लगे हैं। ...हिंदू कोड को तैयार करने में चार-पांच साल लगे हैं। नागरिक संहिता को तैयार करने में दस वर्ष लगेंगे। ...मैं उन्हें कहना चाहता हूं कि इस काम को आधे घंटे में नहीं किया जा सकता।’’
‘‘कहने का तात्पर्य यही है कि नागरिक संहिता को न्याय संगत बनाना जहां शुरू से ही स्वतंत्र भारतीय समाज के न्यायपूर्ण विकास के लिये एक जरूरी बात समझी जाती रही है, वहीं यह भी स्पष्ट है कि सांप्रदायिक शक्तियां इस विषय पर अनेक प्रकार की पैंतरेबाजियों के जरिये सांप्रदायिक विद्वेष फैलाने की भी कोशिश करती रही है। इसके लिये एक ओर जहां वे निजी कानूनों में हस्तक्षेप को धर्म के क्षेत्र में हस्तक्षेप बता कर उसका विरोध करते रहे हैं, वहीं समान नागरिक संहिता की मांग की आड़ में अन्य संप्रदायों को हमले का निशाना बनाते रहे हैं। सांप्रदायिक शक्तियों का यह खेल आज भी जारी है।’’

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें