सोमवार, 28 अप्रैल 2014

चीन : एक नयी चुनौती


अरुण माहेश्वरी


हम नहीं जानते चीनी विशिष्टता वाले समाजवाद ने दुनिया के वर्तमान समाजवादी आंदोलन को कितना बल पहुंचाया है। इसके तहत चीन का आधुनिकीकरण हुआ है। आज भी वह प्रक्रिया जारी है। जोसेफ स्टिग्लिज जैसे अर्थशास्त्री कहते हैं, दुनिया का भविष्य निर्भर करता है अमेरिका की तकनीकी खोजों और चीन के शहरों पर। आज चीन की 55 प्रतिशत आबादी शहरी होगयी है और अनुमान है कि 2030 तक 70 प्रतिशत हो जायेगी। अर्थात 100 करोड़ लोग शहरों के निवासी हो जायेंगे।

जाहिर है कि इससे वहां की जनता का जीवन मान जरूर सुधरा है। लेकिन साथ ही कई नयी प्रकार की समस्याओं का भी जिक्र किया जा रहा है। इसमें सबसे बड़ी और पहली समस्या बढ़ती हुई सामाजिक विषमता की समस्या है। अभी से यह लातिन अमेरिका के देशों के स्तर तक पहुंच गयी बताते हैं। यही भ्रष्टाचार का भी उत्स है। कानूनी-गैरकानूनी किसी भी प्रकार से इकट्ठा किया गया बेशुमार धन स्वाभाविक गति से ही सुरक्षा की तलाश में देशी-विदेशी अंधेरी गुहाओं तक पहुंच जाता है। विदेशी बैंकें चीन से आने वाले धन से लबालब हो रही है। अतिरिक्त मूल्य की तरंग से पैदा होने वाली अतिरिक्त, फिर भी सदा अतृप्त मौज की तरंगों का सिलसिला।



इसके अलावा, पर्यावरण, शहरी बस्तियों और दूसरे सामाजिक तनावों की समस्याएं तो है ही।

यही है चीन की कम्युनिस्ट पार्टी(सीपीसी) के महासचिव और राज्य के प्रमुख सी जिन पिंग का  ‘चीनी सपना’। 12वीं कांग्रेस का चीन में सर्वत्र गूंजता नारा - ‘चीनी सपना’। शहर के लोगों को संपत्ति के अधिकार दे दिये गये हैं, लेकिन देहात के लोगों की जमीन की लूट अबाध रूप में जारी है। सारी स्थानीय(प्रादेशिक) सरकारों की आय का वही तो प्रमुख स्रोत है। खेती की जमीन डेवलेपरों को सौंप कर धन बंटोरने का सबसे आसान रास्ता, अर्थात, ग्रामीण जनता के दरिद्रीकरण से हो रहा आदिम संचय । फिर भी सी जिन पिंग का कहना है - ‘‘हम गहरे जल के क्षेत्र में प्रवेश कर चुके हैं। अब बाजार की ताकतों को ही निर्णायक भूमिका अदा करने देना होगा।’’

चीन की इस सामाजिक सचाई का हश्र क्या है, कहना मुश्किल है। सालों पहले ग्राम्शी ने सोवियत संघ के समाजवाद के बारे में कहा था कि यह समाजवाद नहीं है - उस अर्थ में तो कत्तई नहीं है जैसा कि समाजवाद की एक सर्वसुखदायी भव्य प्रतिमा से बताया जाता है। ‘‘यह सर्वहारा के नेतृत्व के तहत विकसित हो रहा मानव समाज है।’’ और इसी आधार पर उन्होंने यह आशा व्यक्त की थी कि एक बार यदि सर्वहारा वर्ग संगठित हो जाता है तो सामाजिक जीवन समाजवादी तत्वों से समृद्ध होगा, आज की तुलना में सामाजीकरण की प्रक्रिया तेज और सटीक दिशा में होगी। समाजवाद एक दिन में नहीं आता, यह एक अनवरत प्रक्रिया है, स्वतंत्रता के लक्ष्य की ओर कभी न खत्म होने वाली प्रक्रिया, जो नागरिकों के बहुमत, संगठित सर्वहारा द्वारा नियंत्रित होती है।

समाजवाद अर्थात स्वतंत्रता के लक्ष्य की ओर एक संगठित प्रयत्न। समानता और न्याय इसी स्वतंत्रता के अविभाज्य अंग। सोवियत संघ समस्या में पड़ा क्योंकि सर्वहारा वर्ग को कम्युनिस्ट पार्टी में और पार्टी को नेता के कठपुतलों वाले गिरोह में बदल दिया गया।
आज का चीन संभवत: ऐसी ही किसी प्रक्रिया से गुजर रहा है। कथित तौर पर ‘सर्वहारा के नियंत्रण में मानव समाज के विकास की प्रक्रिया’। लोग कहते हैं, चीन उन गल्तियों को नहीं दोहरा रहा है, जो गल्तियां सोवियत संघ में की गयी थी। हम नहीं जानते इसे कैसे परखा जाए। सोवियत संघ में हुई भूलों में एक बड़ी भूल बताते हैं - राज्य और व्यक्ति के अधिकारों के बीच सही संतुलन का अभाव । चीन की सरकार इस संतुलन को कैसे साध रही है, कहना मुश्किल है। अखबारों पर सरकारी नियंत्रण आज भी पूरी तरह से कायम है। इंटरनेट की तरह के विरोध के नये माध्यमों को लेकर राज्य और प्रतिवादी स्वरों के बीच चूहे-बिल्ली के खेल के समाचार रोज पढ़ने को मिलते हैं।

इन सबके परे, उल्टा हम यह देख रहे है कि चीन की शासन प्रणाली ने सारी दुनिया में संसदीय जनतंत्र की शासन प्रणाली को प्रश्नों के घेरे में ला खड़ा किया है। पश्चिम की तमाम पत्र पत्रिकाओं में चीन के हवाले से शासन के आदर्श रूप को लेकर गंभीर बहस चल रही है। एक खासे तबके को संसदीय प्रणाली जटिल और धीमी लगने लगी है और इसकी तुलना में चीन की प्रणाली तत्काल और दृढ़ निर्णय लेने और निर्णयों पर फौरन अमल करने की दृष्टि से कही ज्यादा सक्षम जान पड़ती है। दुनिया का कॉरपोरेट जगत इस प्रभावी और क्षिप्र प्रणाली पर मुग्ध है और अमेरिका सहित संसदीय जनतांत्रिक देशों में इससे सीखने और इसकी शक्ति को अपनाने पर बल दे रहा है।

यह कहना मुश्किल है कि शासन प्रणाली के बारे में चीन की इस नयी चुनौती से पश्चिमी देशों की सरकारें किस प्रकार के प्रशासनिक सुधारों की दिशा में कदम उठाने के लिये प्रेरित होगी। यह बात अभी भविष्य के गर्भ में है। लेकिन जो एक बात अभी आईने की तरह साफ है वह यह कि चीन की सरकार से प्रेरित होकर दुनिया में कहीं भी समतावादी या समाजवादी विचारों का प्रसार नहीं हो रहा है। कहीं भी चीन के चलते यह बात बहसतलब नहीं है कि समाज से गैर-बराबरी खत्म होनी चाहिए, न्यायपूर्ण समाज बनना चाहिए। स्वतंत्रता वाला पहलू तो बहुत दूर की बात है। कहने का तात्पर्य यह कि आज का चीन दुनिया को समानता, न्याय और स्वतंत्रता के विचारों के लिये जरा भी प्रेरित नहीं कर रहा है।

इसके विपरीत, चीन एक ऐसी शासन प्रणाली का उदाहरण बना हुआ है जो जनता की कम से कम भागीदारी पर टिकी हुई पूरी शक्ति के साथ निर्णयों पर अमल करने वाली प्रणाली है और जिसमें जनता के प्रतिवाद और आक्रोश को काबू में रखने की भरपूर सामथ्र्य है। शायद इसीलिये कॉरपोरेट जगत इसको लेकर उत्साही है - वित्तीय पूंजी के साम्राज्य के निर्माण की एक सबसे अनुकूल प्रणाली। वह दुनिया के संसदीय जनतंत्रवादियों को इससे सीखने, इसे अपनाने पर बल दे रहा है।

इसीलिये, सवाल है कि क्या आज का चीन दुनिया में समाजवादी आंदोलन का नहीं, कॉरपोरेट शासन की प्रेरणा का स्रोत बना हुआ है? सौ करोड़ का शहरी उपभोक्ता और उसपर शासक पार्टी की यह प्रतिज्ञा कि बाजार को निर्णायक भूमिका अदा करने देंगे - बहुराष्ट्रीय निगमों को और क्या चाहिए!



सोवियत शासन प्रणाली कमोबेस ऐसी ही थी। फिर भी वह दुनिया पर अमेरिकी प्रभुत्व को चुनौती दे रही थी। उसने संसदीय जनतांत्रिक नव-स्वाधीन देशों में विकास के गैर-पूंजीवादी रास्तों की तलाश को उत्प्रेरित किया था। इन्हीं कारणों से कॉरपोरेट विश्व उसका हमेशा कट्टर शत्रु बना रहा। चीन में आज लगभग वैसी ही शासन प्रणाली होने पर भी फर्क यह है कि वह अमेरिका का किसी भी अर्थ में प्रतिद्वंद्वी नहीं, बल्कि काफी हद तक साझीदार है। वह खुद अमेरिकी पूंजी का एक प्रमुख रमण-स्थल है।

क्या इस फर्क को ही हम मान लें कि चीन वह गलती नहीं कर रहा जो सोवियत संघ ने की थी !

मीर का एक शेर है : 
क्या कहे कुछ कहा नहीं जाता
और चुप भी रहा नहीं जाता     

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें