शुक्रवार, 12 दिसंबर 2014

उबर, पूंजीवाद, प्रतिद्वंद्विता और इजारेदारी




अरुण माहेश्वरी

उबर कांड ने दिल्ली के सत्ता के गलियारों तक में एक भारी हलचल पैदा की है। सारी दुनिया में अभी इस कंपनी का शोर है। मात्र चार साल पहले सैन फ्रांसिस्को में यात्रियों को बड़ी और आलीशान गाडि़यों की सुविधा आसानी से मुहैय्या कराने के उद्देश्य से बनायी गई इस कंपनी ने देखते ही देखते सारी दुनिया के पूरे टैक्सी बाजार पर अपना प्रभुत्व कायम कर लेने का आतंक पैदा कर दिया है। अब तक 50 देशों के 230 शहर में इसने अपने पैर पसार लिये हैं और हर हफ्ते इसके दायरे में एक नया शहर आता जा रहा है। चार साल पहले की इस मामूली कंपनी की आज बाजार कीमत 40 बिलियन डालर कूती जा रही है।

उबर और ऐसी ही सिलिकन वैली की दूसरी तमाम कंपनियों के इस विश्व-प्रभुत्व अभियान ने दुनिया में प्रतिद्वंद्विता बनाम इजारेदारी की पुरानी बहस को फिर एक बार नये सिरे से खड़ा कर दिया है। दिल्ली की सत्ता के गलियारों में गृह मंत्रालय और परिवहन मंत्री के परस्पर-विरोधी बयानों में भी कहीं न कहीं, सूक्ष्म रूप से ही क्यों न हो,  उसी वैचारिक द्वंद्व की गूंज सुनाई देती है।
व्यापार और वाणिज्य की दुनिया में यह एक अनोखे प्रकार का घटनाक्रम है। मार्क्स ने पूंजीवाद के तहत पूंजी के संकेंद्रण को पूंजीवाद की नैसर्गिकता बताया था। सामान्य तौर पर मार्क्स के उस कथन की ‘बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है’ की तरह के मतस्य-न्याय से तुलना की जाती रही है। इसके मूल में संकेन्द्रण की प्रक्रिया को दर्शाने वाला मार्क्स का यह कथन था कि संपत्तिहरणकारियों का संपत्तिहरण होता है। लेकिन आज जिस प्रकार कुकुरमुत्तों की तरह विश्व इजारेदारी कायम करने वाली ढेर सारी कंपनियों का कोलाहल सुनाई दे रहा है, इस प्रकार के नये परिदृश्य का इससे कोई भान नहीं होता था। इस लिहाज से यह एक बिल्कुल नयी परिघटना प्रतीत होती है - जिसे आज के अर्थशास्त्री ‘नेटवर्किंग एफेक्ट’ (इंटरनेट की संतानें) बताते हैं। इंटरनेट के तानेबाने से उत्पन्न एक नयी सामाजिक परिघटना। इसीकी रोशनी में इजारेदारी बनाम प्रतिद्वंद्विता की बहस ने भी आज एक नया आयाम ले लिया है।
पूंजीवादी अर्थशास्त्री आज तक प्रतिद्वंद्विता को पूंजीवाद की सबसे बड़ी आंतरिक शक्ति, उसकी आत्मा बताते रहे हैं। पूंजीवाद के निरंतर विकास और उसकी सामाजिक प्रासंगिकता का तथाकथित प्रमुख स्रोत ; बाजार का मूल तत्व। इसके बरक्श पूंजीवाद के पैरोकार इजारेदारी को हमेशा एक सामाजिक बुराई, एक विचलन के तौर पर देखते हैं, जो उनके अनुसार पूंजीवाद की आंतरिक गतिशीलता का, उसकी आत्मा का हनन करती है और व्यापक समाज का भी अहित करती है। अमेरिका सहित सभी विकसित पूंजीवादी देशों के संविधान में इजारेदारी को रोकने के कानूनी प्राविधान है और गाहे-बगाहे इन प्राविधानों का अक्सर प्रयोग भी किया जाता रहा है। भारत में भी उन्हीं की तर्ज पर बदस्तूर एमआरटीपी एक्ट बना हुआ है।
अमेरिकी इतिहास में ऐसे कई मौके आए हैं जब राज्य की ओर से सीधे हस्तक्षेप करके आर्थिक इजारेदारियों को तोड़ने के कदम उठाये गये। अमेरिकी राष्ट्रपति थियोडर रूजवेल्ट को तो इतिहास में ‘ट्रस्ट बस्टर’ अर्थात ‘इजारेदारी भंजक’ की ख्याति प्राप्त है, जिन्होंने 1901-1909 के अपने शासन काल में 44 अमेरिकी इजारेदार कंपनियों को भंग किया था। अमेरिका में सबसे पहला इजारेदारी-विरोधी कानून शरमन एंटी ट्रस्ट एक्ट 1850 में बना था। उसके बाद  क्लेटन एंटी ट्रस्ट एक्ट और फेडरल ट्रेड कमीशन एक्ट (1914), रॉबिन्सन-पैटमैन एक्ट (1936) तथा सेलर-केफोवर एक्ट (1850) आदि कई कानून बने। अमेरिका में कंपनियों की इजारेदाराना हरकतों को लेकर हमेशा अदालतों में कोई न कोई मुकदमा चलता ही रहता है।
लेकिन, आज वेंचर कैपिटल के सहयोग से कुकुरमुत्तों की तरह अमेरिकी गराजों से विश्व विजय पर निकलने वाली इन नये प्रकार की इजारेदाराना कंपनियों के सिलसिले में यह सवाल उठाया जा रहा है कि क्या सचमुच इजारेदारी पूंजीवाद की आंतरिक ऊर्जा को सोखती है और समाज का अहित करती है ? आज की दुनिया की सबसे बड़ी माने जानी वाली कंपनियां माइक्रसोफ्ट, गूगल, एपल, फेसबुक आदि सब रास्ते के छोकरों का ऐसा करिश्मा है जिसकी पहले कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। और आज इन कंपनियों की स्थिति यह है कि इनसे सारी दुनिया की सरकारें एक स्तर पर खौफजदा होने पर भी कोई इनसे आसानी से किनारा करने के लिये भी तैयार नहीं है। सबके लिये ‘न निगलते बने न उगलते बने’ वाली स्थिति बनी हुई है। खुद अमेरिका में भी यही हाल है। पिछले दिनों अमेरिकी अदालतों में माइक्रोसोफ्ट, गूगल आदि को लेकर जितने भी मुकदमे चले, उन सबमें न्यायाधीशों ने इन कंपनियों के बारे में कोई साफ राय देने में अपने को लगभग असमर्थ पाया है। इनपर रोक, या इन्हें भंग करने के बजाय अधिकांश फैसलें इन्हें आगे एहतियात बरत कर चलने की हिदायत देने तक सीमित रहे हैं। इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण है गूगल पर इजारेदारी कायम करने के लिये चलाये गये मुकदमे का परिणाम। इसमे गूगल को सिर्फ डांट पिला कर छोड़ दिया गया। जानकारों का कहना है कि उससे गूगल के काम करने के ढंग में जरा सा भी फर्क नहीं आया है।


सारी दुनिया में इंटरनेट और मोबाइल के जरिये भुगतान करने की सुविधा उपलब्ध कराने वाली कंपनी पे पॉल के संस्थापक पीटर थियेल की अभी इसी सितंबर महीने में किताब आई है - जीरो टू वन (नोट्स आन स्टार्ट्स अप ऑर हाउ टू बिल्ड द फ्यूचर)। थियेल ही है जिसने जुकरबर्ग के फेसबुक में सबसे पहले निवेश किया था। अपनी इस किताब में थियेल ने प्रतिद्वंद्विता के प्रति सामान्य तौर पर अर्थशास्त्रियों और सरकारों के अति-आग्रह को लताड़ते हुए कहा कि यह सोच कि प्रतिद्वंद्विता से ग्राहक को लाभ होता है, इतिहास के कूड़े पर फेंक देने लायक सोच है। प्रतिद्वंद्विता सफलता की नहीं विफलता की द्योतक है। किसी भी समस्या के समाधान के ‘एकमात्र’ हल को प्राप्त करना ही सफलता है और इसीलिये इजारेदारी में ही समाज का हित है।



मार्क्स ने पूंजीवाद के तहत उत्पादन के साधनों के क्रांतिकारण की जिस लगातार और अनिवार्य प्रक्रिया की बात कही थी, थियेल लगभग उसी बात को थोड़े दूसरे अंदाज में, नाक को घुमा कर पकड़ने के अंदाज में कह रहा है। कम्युनिस्ट घोषणापत्र में कहा गया था कि ‘‘उत्पादन के औजारों में क्रांतिकारी परिवर्तन और उसके फलस्वरूप उत्पादन संबंधों में, और साथ-साथ समाज के सारे संबंधों में क्रांतिकारी परिवर्तन के बिना पूंजीपति वर्ग जीवित नहीं रह सकता। ...उत्पादन प्रणाली में निरंतर क्रांतिकारी परिवर्तन, सभी सामाजिक अवस्थाओं में लगातार उथल-पुथल, शाश्वत अनिश्चयता और हलचल - ये चीजें पूंजीवादी युग को पहले के सभी युगों से अलग करती है। सभी स्थिर और जड़ीभूत संबंध, जिनके साथ प्राचीन और पूज्य पूर्वाग्रहों तथा मतों की एक पूरी श्रंखला होती है, मिटा दिये जाते हैं, और सभी नये बननेवाले संबंध जड़ीभूत होने के पहले ही पुराने पड़ जाते हैं। जो कुछ भी ठोस है वह हवा में उड़ जाता है, जो कुछ पावन है, वह भ्रष्ट हो जाता है, और आखिरकार मनुष्य संजीदा नजर से जीवन की वास्तविक हालतों को, मानव मानव के आपसी संबंधों को देखने के लिए मजबूर हो जाता है।’’
घोषणापत्र में व्यक्त यह सचाई आज और भी प्रकट रूप में हमारे सामने हैं। प्रतिद्वंद्विता को पूंजीवाद की पवित्र आत्मा मानने वाले पूंजीवादी अर्थशास्त्री उसके अंदर की खोजपरकता (innovativeness) में निहित बाजार पर इजारेदारी कायम करने की प्रवृत्ति पर पर्दादारी करते हैं और पूंजीवाद को आर्थिक जनतंत्र के साथ, बहुलता के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा बताते हैं। पूंजीवाद के सबसे उल्लेखनीय प्रवक्ता जोसेफ शुम्पेतर ने ‘30 के दशक में ही नयी खोज के जरिये बाजार पर कब्जा करने के सच को लक्षित किया था, लेकिन पीटर थियेल ने तो अपनी किताब के जरिये पूंजीवाद के तहत इजारेदारी का पूरा शास्त्र ही रच दिया है। वे अपनी किताब में उद्यमियों को प्रतिद्वंद्विता की नहीं, इजारेदारी कायम करने की सीख देते हैं। उसकी दृष्टि में ‘‘प्रतिद्वंद्विता तो पराजितों का राग है। आप यदि टिकाऊ मूल्य पैदा और प्राप्त करना चाहते हैं तो इजारेदारी कायम करो।’’

‘जीरो टू वन’ के प्राक्कथन की पहली पंक्ति ही है - ‘‘ व्यापार में हर क्षण सिर्फ एक बार घटित होता है। अगला बिल गेट्स ऑपरेटिंग सिस्टम नहीं बनायेगा। अगला लैरी पेज या सर्गे ब्रिन सर्च इंजन नहीं बनायेगा। और अगला जुकरबर्ग सोशल नेटवर्क तैयार नहीं करेगा। आप यदि इन लोगों की नकल कर रहे हैं तो आप उनसे कुछ नहीं सीख रहे हैं।’’


आज सिलिकन वैली की गूगल, माइक्रोसोफ्ट की तरह की तमाम कंपनियों के बीच भी कभी-कभी प्रतिद्वंद्विता के जो चिन्ह दिखाई देते हैं, वे बेहद कमजोर से चिन्ह हैं। सचाई यह है कि सिलिकन वैली की तमाम कंपनियां उन क्षेत्रों से अपने को धीरे-धीरे हटा लेती है, जिन क्षेत्रों में एक कंपनी ने बढ़त हासिल कर ली है। और जो दूसरे उपेक्षित क्षेत्र, जिनकी ओर अभी दूसरों का ध्यान नहीं गया है, उन पर अपने को केंद्रित करती है। विश्व विजय में उतर रहे उबर की तरह के नये रणबांकुरे भी अभी किसी भी क्षेत्र में सीधे ताल ठोक कर किसी पहले से स्थापित कंपनी से प्रतिद्वंद्विता के लिये काम नहीं कर रहे हैं। इस मामले में उनकी दृष्टि हमारे ‘एक और ब्रह्मांड’ के नायक राधेश्याम जैसी ही है, जिसने स्थापित ब्रांडों से टकराते हुए अपना ब्रांड बनाने के बजाय ‘‘किसी निर्जन या उजड़े हुए पथ पर ही अपनी बांसुरी की तान छेड़ना श्रेयस्कर समझा। प्रसाधन के आधुनिक क्षेत्र के बजाय पुरातन, आयुर्वेद के क्षेत्र का चयन किया। ...आज की चकदक पैकिंग में आयुर्वेदिक उत्पाद - रॉक की थाप पर ‘रघुपति राघव राजा राम’ - आधुनिकता की प्रक्रिया में पूर्व-आधुनिक सम्मोहन की छौंक का उत्तर-आधुनिक सौन्दर्यशास्त्र...पुरातन के इंद्रजाल पर टिका एक सर्वाधुनिक रास्ता।’’

फेसबुक को देखिये। छात्रों के एक समूह के बीच आपसी संपर्कों के उद्देश्य से तैयार किया गया सोशल नेटवर्किंग साइट रातो-रात सारी दुनिया में अरबों लोगों के बीच संपर्कों का साइट बन गया। यह एक खास सामाजिक परिस्थिति की उपज भी है। जब तक व्यापक पैमाने पर लोगों के हाथ में मोबाइल फोन या टैब्लेट, कमप्यूटर न हो, तब तक इसप्रकार के पूरे संजाल और उसपर आधारित इन नयी इजारेदारियों की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।
समग्र रूप से आज विश्व अर्थनीति की परिस्थितियां किस दिशा में जा रही है, उसका एक ब्यौरा मिलता है सन माउक्रोसिस्टम्स के सह-संस्थापक, कमप्यूटर तकनीक के क्षेत्र के एक बादशाह विनोद खोसला की 11 जून 2014 की ‘फोर्ब्स’ पर लगायी गयी पोस्ट से। चीज़ें जिस गति से बदल रही है,  वास्तव में उसका आसानी से अंदाज भी नहीं लगाया जा सकता है ।

विनोद खोसला कमप्यूटर की दुनिया का एक विश्वप्रसिद्ध नाम है, जिसने कमप्यूटर की जावा प्रोग्रामिंग की भाषा और नेटवर्क फाइलिंग सिस्टम को तैयार करने में प्रमुख भूमिका अदा की थी। आज उनकी कंपनी खोसला वेंचर्स सूचना तकनीक के क्षेत्र में काम करने वाली दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियों में एक हैं। अपनी इस पोस्ट, ”The Next Technology Revolution Will Drive Abundance And Income Disparity” (अगली तकनीकी क्रांति समृद्धि और आमदनी में असमानता लायेगी) की शुरूआत ही वे इस बात से करते हैं कि आगे आने वाले समय में और भी बड़ी-बड़ी तकनीकी क्रांतियां होने वाली हैं, लेकिन जिस एक चीज का मनुष्य पर सबसे अधिक असर पड़ेगा, वह है ऐसी प्रणालियों का निर्माण जिनमें मनुष्य की विचार करने की शक्ति से कहीं ज्यादा गहराई से विचार करने की, निर्णय लेने की क्षमताएं होगी। विचारशील मशीन, जिसे दूसरे शब्दों में कृत्रिम बुद्धि कहा जाता है, उसमें जटिल से जटिल विषयों पर निर्णय लेने में समर्थ तकनीकी प्रणाली के निर्माण की दिशा में बड़ी तेजी से काम चल रहा है। उदाहरण के तौर पर, पांच साल पहले तक गाड़ी चलाना कमप्यूटर के लिये एक बेहद कठिन चीज समझी जाती थी, लेकिन अब यह एक सचाई बन चुकी है।


खोसला लिखते हैं कि इस बात पर बिना मगजपच्ची किये कि क्या-क्या संभव है, कम से कम इतना जरूर कहा जा सकता है कि सृजनात्मकता के क्षेत्र में, भावनाओं और समझदारी के क्षेत्र में, मसलन, श्रोताओं को मुग्ध करने वाली संगीत की सबसे अच्छी बंदिश, पाठकों के मन को छूने वाली प्रेम कहानी या अन्य रचनात्मक लेखन में तो यह प्रणाली बहुत ही कारगर साबित होगी, क्योंकि उसके पास श्रोताओं और पाठकों को छूने वाले तमाम पक्षों और संगीत तथा लेखन के अब तक के विकास की पूरी जानकारी होगी।

इस विषय पर आगे और विस्तार से जाते हुए खोसला बताते हैं कि मनुष्य की श्रम-शक्ति और मानवीय विचारशीलता की जरूरत जितनी कम होगी, पूंजी की तुलना में श्रम शक्ति की और विचारशील मशीन की तुलना में मनुष्य के विचारों की कीमत उतनी ही कम होती जायेगी। ‘‘प्रचुरता और आमदनी में बढ़ती हुई विषमता के युग में हमें पूंजीवाद के एक ऐसे नये संस्करण की जरूरत पड़ सकती है जो सिर्फ अधिक से अधिक दक्षता के साथ उत्पादन पर केन्द्रित न रह कर पूंजीवाद के अन्य अवांछित सामाजिक परिणामों से बचाने के काम पर केन्द्रित होगा।’’

अपने इस लेख में खोसला ने विचारवान मशीन के निर्माण के उन तमाम क्षेत्रों की ठोस रूप में चर्चा की हैं जिनमें खुद उनकी कंपनी तेजी से काम कर रही है और जिनके चलते खेतिहर मजदूरों, गोदामों में काम करने वाले मजदूरों, हैमबर्गर बनाने वालों, कानूनी शोधकर्ताओं, वित्तीय निवेश के मध्यस्थों तथा हृदय रोग और ईएनटी रोग के विशेषज्ञों, मनोवैज्ञानिकों आदि की कोई जरूरत नहीं रह जायेगी। इनके कामों को मशीनें कहीं ज्यादा दक्षता के साथ कर दिया करेगी।

उनका साफ कहना है कि अतीत के आर्थिक इतिहास में, हर तकनीकी क्रांति से जहां कुछ प्रकार के रोजगार खत्म हुए तो वहीं कुछ दूसरे प्रकार के रोजगार पैदा हुए। लेकिन आगे ऐसा नहीं होगा। ‘‘आर्थिक सिद्धांत मुख्य रूप से कार्य-कारण के बजाय अतीत के अनुभवों पर टिके होते हैं, लेकिन यदि रोजगार पैदा करने के मूल चालक ही बदल जाए तो उसके परिणाम बिल्कुल अलग होसकते हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से तकनीक आदमी की क्षमताओं को बढ़ाती और तीव्र करती रही है, जिससे मनुष्य की उत्पादनशीलता बढ़ी है। लेकिन यदि किसी भी ख़ास काम के लिये बुद्धि और ज्ञान, इन दोनों मामलों में बुद्धिमान मशीन आदमी से श्रेष्ठ बन जाती है तो कर्मचारियों की कोई जरूरत ही नहीं रह जायेगी और इसके चलते आदमी का श्रम दिन प्रति दिन सस्ता होता जायेगा।’’ उनकी राय में कोई भी आर्थिक सिद्धांत बेकार साबित होगा यदि उसमें अतीत की तकनीकी क्रांतियों और इन नयी विचारशील मशीनी तकनीक के बीच के फर्क की समझ नहीं होगी।

इस सिलसिले में खोसला कार्ल मार्क्स को उद्धृत करते हैं - ‘‘इतिहास की गाड़ी जब किसी घुमावदार मोड़ पर आती है तो बुद्धिजीवी उससे झटक कर औंधे मूंह गिर जाते हैं।’’ अर्थशास्त्रियों का अतीत के अनुभवों को अपना अधिष्ठान बनाने का ढंग भविष्य के लिये वैध साबित नहीं होगा । एक नये कार्य-कारण संबंध से पुराने, ऐतिहासिक परस्पर-संबंध टूट सकते हैं। जो लोग कमप्यूटरीकरण से रोजगार पर पड़ने वाले प्रभाव का हिसाब-किताब किया करते हैं, और अब भी कर रहे हैं, वे इस बात को समझ ही नहीं रहे हैं कि आगे तकनीक क्या रूप लेने वाली है और उनके सारे अनुमान अतीत के अनेक ‘सत्यों’ की तरह झूठे साबित हो सकते हैं।

खोसला की तरह पीटर थियेल ने भी अपनी किताब में इजारेदारी के पक्ष में यही दलील दी है कि इजारेदारी से दुनिया में एक बिल्कुल नये प्रकार की समृद्धि पैदा होती है। इजारेदारी के तहत होने वाली खोजों से जिन्दगी नये रूप में संवरती है। 1911 में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने जब ट्रस्ट विरोधी कानून के जरिये स्टैंडर्ड ऑयल कंपनी को 34 अलग-अलग कंपनियों में विभाजित कर दिया था, उस फैसले में भी इस तथ्य को नोट किया गया था कि 1880 से तेल के व्यापार पर एकाधिकार बनाये रखने वाली इस कंपनी ने अतीत में कुछ ऐसे काम भी किये हैं जिनसे उपभोक्ता का और पूरे समाज का भला हुआ था। मसलन, इसी कंपनी ने केरोसिन तेल को इजाद किया जो जलकर चमकता है, लेकिन उसमें विस्फोट नहीं होता, जबकि बाकी सभी ज्वलनशील तेल में चमक के साथ ही विस्फोट हो जाता है। उस कंपनी ने शोध कार्य और दूसरी ढांचागत सुविधाओं के विकास में अच्छा खास निवेश किया था। उसीने कई प्रकार की चिकनाई वाले तेल भी विकसित किये। ये सारे काम तेल के क्षेत्र में इजारेदारी और भारी पूंजी की उपलब्धता के बिना संभव नहीं हो सकते थे।

इन्हीं तमाम तथ्यों की रोशनी में खोसला ने अपनी पोस्ट में साफ कहा है कि वे पूंजीवाद के कट्टर समर्थक है और इसी नाते वे साफ शब्दों में कहते हैं कि आज जो कुछ चल रहा है, उसे अबाध गति से और भी तेजी के साथ चलने दिया जाना चाहिए। खोसला की इस पोस्ट पर पिछले दिनों अपने ब्लाग में इस लेखक ने एक टिप्पणी की थी। उसमें हमने श्रम का कोई मूल्य न रह जाने वाले उनके कथन के पहलू पर यह बुनियादी सवाल उठाया था कि यदि किसी समाज में श्रम शक्ति का मूल्य नहीं रहता है तो फिर पूँजी का भी क्या मूल्य रह जायेगा ? श्रमिक और पूँजीपति का अस्तित्व परस्पर निर्भर है । यदि पूँजीपति की भूमिका उत्पादन के काम में ख़त्म हो जाती है तो श्रमिक की तरह ही उसके अस्तित्व का भी कोई कारण बचा नहीं रह जाता है। अगर कुछ बचा रह जाता है, तो वह है, राज्य की भूमिका । ऐसे में हमारा यह निष्कर्ष था कि समाज के अंदर वर्गीय अन्तर्विरोधों के अंत के साथ राज्य के वर्गीय चरित्र का भी लोप हो जाता है । हमने पूछा था, क्या सचमुच, एक शोषण-विहीन, राज्य-विहीन समाज के निर्माण का मार्क्स का यूटोपिया आदमी की जद के इतना क़रीब है ?

बहरहाल, तेजी के साथ कुकुरमुत्तों की तरह पनप रही नाना प्रकार की इजारेदारियों और तमाम सामाजिक संबंधों में आने वाले भूचाल को देखते हुए पिटर थियेल और बिनोद खोसला जिस साफगोई के साथ पूंजीवाद के सच का बयान कर रहे हैं, उससे कम्युनिस्ट घोषणापत्र से लिये गये उपरोक्त उद्धरण की उस बात की एक साफ झलक मिलती है जिसमें कहा गया था कि ‘‘ जो कुछ भी ठोस है वह हवा में उड़ जाता है, जो कुछ पावन है, वह भ्रष्ट हो जाता है, और आखिरकार मनुष्य संजीदा नजर से जीवन की वास्तविक हालतों को, मानव मानव के आपसी संबंधों को देखने के लिए मजबूर हो जाता है।’’ थियेल और खोसला जिस संजीदगी से जीवन की मौजूदा वास्तविक स्थिति को देख पा रहे हैं, वह पारंपरिक अर्थशास्त्रियों की दृष्टि पर छाये हुए कोरे भ्रमों से पूरी तरह मुक्त है। थियेल साफ कहता है कि अमेरिकी प्रतिद्वंद्विता को एक मिथक बना दे रहे हैं और इस बात का श्रेय लेते है कि वे इसके जरिये समाजवाद से रक्षा कर रहे हैं। सच यह है कि पूंजीवाद और प्रतिद्वंद्विता दो विरोधी चीजें हैं। पूंजीवाद पूंजी के संचय पर टिका हुआ है, लेकिन वास्तविक प्रतिद्वंद्विता की परिस्थिति में तो सारा मुनाफा प्रतिद्वंद्विता की भेंट चढ़ जायेगा।’’

All fixed, fast-frozen relations, with theirtrain of ancient and venerable prejudices and opinions, are swept away, all new-formed ones become antiquated before they can ossify. All that is solid melts into air, all that is holy is profaned, and man is at last compelled to face with sober senses his real conditions of life, and his relations with his kind
थियेल साफ कहता है कि पेटेंट देने के काम के जरिये सरकार का एक विभाग भी तो इजारेदारी कायम करने के काम में ही लगा हुआ है।

‘इकोनोमिस्ट’ पत्रिका के एक ताजा अंक में, इजारेदारियों से आच्छादित इस पूरे आर्थिक परिदृश्य के वृत्तांत के अंत में अमेरिकी सिनेटर जॉन सरमैन के इस कथन को उद्धृत किया गया है कि ‘‘हमें उत्पादन, परिवहन और जीवन की जरूरत की किसी भी चीज के विपणन के लिये शहंशाह की कामना नहीं करनी चाहिये, भले वे हमारे लिये चीजों को कितना भी आसान क्यों न बनाते हो।’’ इसप्रकार, सरमैन अभी भी, वही पुराना पूंजीवाद और प्रतिद्वंद्विता, पूंजीवाद और जनतंत्र तथा पूंजीवाद और बहुलतावाद वाला राग ही अलाप रहे है, जबकि जो सच सामने आरहा है वह इन सबके सर्वथा विपरीत है। पूंजीवाद की नैसर्गिकता प्रतिद्वंद्विता में नहीं, जनतंत्र में नहीं और न ही बहुलतावाद में है। पूंजीवाद का अन्तर्निहित सच है इजारेदारी, तानाशाही और एकरूपता। इसीलिये यह सभ्यता के सच्चे जनतंत्रीकरण के रास्ते की एक पहाड़ समान बाधा है और, इसीलिये यह आश्चर्य नहीं है कि अमेरिका के खास हलकों में चीन का शासनतंत्र आजकल काफी ज्यादा चर्चा में हैं ! दिल्ली की सत्ता के गलियारे में भी उबर पर पाबंदी के फौरन बाद उतनी ही जोरदार आवाज में इस कदम के पीछे विवेक की कमी की आवाज का उठना भी अस्वाभाविक नहीं है। पूंजीवादी विकास का रास्ता सिर्फ और सिर्फ इजारेदारियों के जरिये ही आगे बढ़ सकता है।











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