शनिवार, 6 दिसंबर 2014

नेहरू की विरासत पर फ्रंटलाइन का अंक : एक विहंगम दृष्टि


अरुण माहेश्वरी


फ्रंटलाइन पत्रिका के 12 दिसंबर 2014 के नेहरू की विरासत पर केंद्रित अंक को पढ़ना एक दिलचस्प अनुभव रहा। इसमें नेहरू पर कुल 53 पन्नों की सामग्री है। तीन लेख राजनीतिज्ञों (मणिशंकर अय्यर, प्रकाश करात और तरुण विजय) के हैं, दो लेख अर्थशास्त्रियों (सी पी चंद्रशेखर और प्रभात पटनायक) के, एक इतिहासकार बेंजामिन जाकरिया का, एक राजदूत के.पी.फेबियन का और एक लेख शिक्षाशास्त्री एस. इरफान हबीब का है। इनके अलावा ईएमएस नम्बुदिरिपाद की किताब Nehru : Ideology and Practice से एक अंश लिया गया है और नेहरू जी के जीवन-क्रम की तालिका है।
यहां हम प्रभात पटनायक के लेख से शुरू करते हैं। इस लेख के अंत में प्रभात ने अर्थ-व्यवस्था के बारे में नेहरू-मोहलानबिस रणनीति की बुनियादी बातों को रखते हुए Turnpike Theorem की बात की है। इसके अनुसार एक बंद अर्थ-व्यवस्था में परेशानियों के बिंदुओं (bottleneck sector) पर सारे संसाधनों को झोंक कर बाकी चीजों के विकास की दीर्घकालीन रणनीति अपनाई जाती है। प्रभात बताते हैं कि विश्व बैंक वालों ने इस नीति की यह कह कर आलोचना की कि इसमें विश्व वाणिज्य के जरिये बहुतेरी समस्याओं को दूर कर लेने की संभावनाओं को सोच में नहीं लिया गया था। इसके अलावा, दूसरी आलोचना परेशानियों के बिंदुओं की पहचान को लेकर भी रही। मशीनों के निर्माण की ओर जाया जाएं या कृषि का विकास किया जाए। प्रभात बताते हैं कि कृषि की अवहेलना वाली बात सच नहीं है। नेहरू-मोहलनाबिस रणनीति में जमीन की उत्पादकता को बढ़ाने के लिये काम किया गया था। इसप्रकार की चर्चाओं के अंत में प्रभात कुछ इस प्रकार के नतीजे पर पहुंचते हैं कि नेहरू की आर्थिक नीतियों का संबंध राष्ट्र की सार्वभौमिकता की रक्षा की भावना से था।
फ्रंटलाइन के इस अंक पर अपनी बात का प्रारंभ हमने प्रभात के लेख से किया इसकी वजह उनके लेख का आखिरी हिस्सा है, जिसमें वे केन्स और आइंस्टाइन के बीच की एक बातचीत का उल्लेख करते हैं। आइंस्टाइन केन्स से कहते हैं कि वे अर्थनीति के बारे में ज्यादा कुछ नहीं जानते, लेकिन इतना जानते हैं कि माक्‍​र्स ने जो कहा, वह सही था। ‘‘अब अगर तुम मुझसे पूछोगे कि वह क्यों सही था तो मैं तुम्हें वह बता नहीं पाऊंगा।’’ इसपर प्रभात की टिप्पणी है कि किसी भी रणनीति के पीछे जो अंत:प्रेरणा (intution) काम करती है और जिन तर्कों से उस रणनीति को पेश किया जाता है, उन दोनों के बीच फर्क करने की जरूरत है।
आजादी के समय आम भावना यह थी कि देश को सिर्फ कृषि अथवा कृषि-आधारित उत्पादों का निर्यात नहीं करना चाहिए। नेहरू और मोहलनाबिस की यही भावना थी। अब इस भावना के पीछे कौन से विचार या सिद्धांत काम कर रहे थे, उन पर सवाल उठाने पर भी इस भावना के सहीपन पर सवाल नहीं उठाया जा सकता है।
प्रभात का यह अंतिम निष्कर्ष जिसमें किसी भी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में अपनाई गयी नीतियों की अंत:प्रेरणा की जो बात कही गयी है, राजनीतिक अर्थशास्त्र का मूल तत्व इसी में निहित है। बाकी चीजें कि नेहरू के काल में जीडीपी का स्तर यह था और मुद्रास्फीति का आलम यह। नेहरू के काल में प्रति व्यक्ति खाद्यान्न की उपलब्धता आज की तुलना में कहीं ज्यादा थी। यह सब तो गणितीय अर्थशास्त्र से जुड़ी चीजें हैं - नीति की सफलता या विफलता के गणितीय आकलन की।
इस लिहाज से इस अंक में दूसरे अर्थशास्त्री सी पी चंद्रशेखर के लेख In the name of Nehru की कमी यही है कि वे अपने विश्लेषण में राजनीतिक अर्थशास्त्र के बजाय नितांत गणितीय तत्वों को अपने तर्कों का आधार बनाते हैं और आश्चर्यजनक रूप से कुछ ऐसे नतीजों पर पहुंच जाते हैं जो बहुत ही पुख्ता आधार पर नहीं टिके होते हैं, क्योंकि उसमें राजनीतिक समझ का अभाव है। मसलन, उन्होंने अपने लेख में नेहरू युग के शुरूआती 15 सुनहरे सालों, इस दौरान की मिश्रित अर्थ-व्यवस्था के अभिनव प्रयोग का बखान करते हुए नेहरू की मृत्यु के बाद नीतियों में आये तमाम परिवर्तनों के लिये ‘60 के दशक के मध्य में लगातार दो बार बुरे मानसून को जिम्मेदार ठहरा दिया। उनके अनुसार इसीके चलते अर्थ-व्यवस्था की गाड़ी पटरी से उतर गयी, भुगतान-संतुलन की समस्या पैदा हुई, रुपये का अवमूल्यन हुआ, ब्रेटनवुड संस्थाओं के शरणापन्न होना पड़ा और सबकुछ उलट-पलट गया। इंदिरा गांधी की आर्थिक असमानता पर चोट करने वाली नीतियों से भी कुछ बदला नहीं जा सका। अर्थ-व्यवस्था ने विदेशी पूंजी के जरिये विकास का आसान रास्ता अपना लिया। चन्द्रशेखर सवाल करते हैं कि ऐसी स्थिति में कांग्रेस किस मूंह से नेहरू की विरासत का जश्न मनायेगी।
प्रभात नेहरू के कामों की अंत:प्रेरणा की बात करते हैं और चंद्रशेखर ‘60 के मध्य बुरे मानसून की वजह से पटरी से उतरी अर्थ-व्यवस्था की उल्टी दिशा का आख्यान देकर नेहरू की विरासत पर सवाल उठाते हैं।
इस अंक का पहला लेख है बेंजामिन जाकरिया का - The importance of being Nehru। जाकरिया इस लेख में व्यक्ति स्वातंत्‍​र्य के पक्षधर, अन्तर‍रष्ट्रीयतावादी, समाजवादी नेहरू द्वारा विरासत में एक संकीर्णतावादी राज्य को छोड़ कर जाने की कहानी कहते हैं। इसके विपरीत पूर्व राजदूत के.पी.फेबियन का लेख बहुत महत्वपूर्ण है जिसमें वे शीत युद्ध के काल में ध्रुवीकृत दुनिया में नवस्वाधीन भारत की आवाज को विश्व मंचों पर जगह दिलाने के नेहरू के अवदान को अच्छी तरह से रेखांकित करते हैं। अकेले चीन के मामले में किंचित विफलता के अलावा विदेश नीति के मोर्चे पर नेहरू की भारी सफलता का इसे एक सारगर्भित वृत्तांत कहा जा सकता है। इसीप्रकार एस. इरफान हबीब ने विज्ञान के प्रति नेहरू की आशाभरी निगाहों, लगाव और सपनों को राष्ट्र को देखने का उनका रचनात्मक दृष्टिकोण बताया है और एक आधुनिक समाज में अंधविश्वासों के बजाय विज्ञान-मनस्कता पैदा करने के उनके आग्रह को अनेक तथ्यों से रेखांकित किया है।
राजनीतिज्ञों में, मणिशंकर अय्यर ने अपने लेख A vision for India में नेहरू के भारत को जनतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद और गुटनिरपेक्षता के चार खंभों पर टिका हुआ भारत बताने की कोशिश की है। प्रकाश करात लिखते हैं कि नेहरू में सांप्रदायिकता से लड़ने और धर्म-निरपेक्ष राज्य की स्थापना की जो साफ दृष्टि थी, वह कांग्रेस के दूसरे किसी नेता की नहीं थी। बी टी रणदिवे को उद्धृत करते हुए प्रकाश कहते हैं कि नेहरू की तरह का एक गहरे धर्म-निरपेक्ष नजरिये और जनतंत्र की आधुनिक अवधारणा से प्रतिबद्ध व्यक्तित्व यदि सरकार के नेतृत्व में न होता तो देश की स्वतंत्रता भी गड़बड़ा सकती थी। पुनरुत्थानवादी परंपरा को ठुकरा कर जनता को धर्म-निरपेक्ष और आधुनिक जनतांत्रिक मूल्यों के आधार पर संबोधित करने के नेहरू के अवदान को लघु करके नहीं देखा जाना चाहिए।
गौर करने लायक बात है कि नेहरू की विरासत पर इन तमाम लेखों की श्रंखला में तरुण विजय के लेख को उसकी भाषा-शैली और तर्कों के लिहाज से भी एक चरम  कुत्सित लेख कहा जा सकता है। नेहरू के प्रति अपनी नफरत की उत्तेजना में वे यहां तक कह जाते हैं कि सरकार अगर पैसा न दे तो आज नेहरू को उसकी जयंती पर कोई याद तक नहीं करेगा, जबकि सुभाषचंद्र बोस, सरदार पटेल, लाल बहादुर शास्त्री, किसी के साथ भी ऐसा नहीं है। (गनीमत है कि उन्होंने इन दूसरे नामों के साथ गोलवलकर, हेडगवार और श्यामाप्रसाद मुखर्जी का नाम नहीं जोड़ा।) उनके शब्दों में ‘‘गुलाब, सोवियत ढर्रे की पंचवर्षीय योजना, बड़ी-बड़ी बांधों, राज्य-नियंत्रित अर्थ-व्यवस्था, धर्मनिरपेक्षता, बाल दिवस, पंचशील का एशियाई सपना, टिटो, सुहार्तो, नासिर के साथ कॉफी (उत्तेजना में सुकर्णो को सुहार्तो बना दिया गया - अ.मा.), हिंदी चीनी भाई-भाई और शेख अब्दुल्ला से अनोखी प्रीति के जरिये नेहरू का जो वलय तैयार किया गया था, 1962 की आंधी में वह चकनाचूर होगया जो उनके लिये प्राणघाती भी साबित हुआ।’’
तरुण विजय का यह जहर भरा लेख इस बात की गवाही है कि नेहरू की स्मृति में होने वाले किसी भी आयोजन के साथ भाजपा को नहीं जोड़ा जाना चाहिए। उन्होंने लेख का अंत इस पंक्ति से किया है कि ‘‘नेहरू से मुक्ति जरूरी है ताकि भारत को उसकी आत्मा और गति प्राप्त होसके।’’
मुहावरों की भाषा में सोचिये, सचमुच तरुण विजय यही तो चाहते हैं - भारत अपनी 'गति' को प्राप्त करे!


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