मंगलवार, 16 दिसंबर 2014

वामपंथ की अपनी अलग पहचान बने

अरुण माहेश्वरी

(‘जनसत्ता’ के 14 दिसंबर, रविवार के अंक में असीम सत्यदेव जी ने मेरे एक लेख की स्थापनाओं का विरोध करते हुए एक उनके ‘मतांतर’ स्तंभ में एक टिप्पणी की थी - ‘पराजित नहीं हुआ समाजवाद। यहां मैं उसका एक प्रत्युत्तर प्रसारित कर रहा हूं। )

कार्ल मार्क्स का एक बहुत प्रसिद्ध कथन है - दार्शनिक अन्वेषण की पहली आवश्यकता एक साहसी, स्वतंत्र मस्तिष्क है।
कोरी आस्था किसी भी नये सच को जानने के रास्ते की सबसे बड़ी बाधा है।

असीम सत्यदेव की मेरे लेख ‘अवाम से वाम दूर क्यों’ पर की गयी टिप्पणी को देखिये। उनका आरोप है कि हमने ‘रोग के बजाय दवा की ज्यादा आलोचना’ की है। हम नहीं समझ पा रहे वे किसे रोग बता रहे हैं, किसे दवा। अगर वे समाजवाद को दवा बताते हुए हमारे लेख को समाजवाद की आलोचना मान रहे हैं, तो हमें कहना होगा - ‘‘या रब वो न समझे हैं न समझेंगे मेरी बात / दे और दिल उनको जो न दे मुझको ज़ुबाँ और”
और भी कहूंगा कि ‘‘वो बात, सारे फसाने में जिसका जिक्र न था वो बात उनको बहुत नागवार गुजरी।’’

उन्होंने अपने अभियोग का आधार बनाया है हमारे लेख की इस पंक्ति को - ‘‘ आज इतना तो साफ है कि दो शिविरों, पूंजीवादी और समाजवादी शिविरों में दुनिया के विभाजन और प्रतिद्वंद्विता के जरिये समाजवाद की अनिवार्य विजय के सारे अनुमान आधारहीन साबित हुए हैं।“

ठीक इसके बाद की पंक्ति है - ‘‘ समाजवाद के अन्तर्गत आर्थिक विकास का स्तर अमेरिका और विकसित औद्योगिक देशों में सामने आए पूंजीवादी उत्पादन की अवस्था को स्थानापन्न करने के लिये नाकाफी था।“

इन सबकों मिला कर ध्यान से देखने पर पता चलेगा कि यह एक वस्तु स्थिति का बयान भर है। सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के देशों में समाजवाद के पराभव के बाद सारी दुनिया के कम्युनिस्टों और कम्युनिस्ट पार्टियों ने इस समझ को गलत माना था कि पूंजीवाद में अब विकास की कोई संभावना नहीं बची है; समाजवाद उत्पादन के सभी मानको पर पूंजीवाद को पीछे छोड़ देगा। सोवियत संघ की अर्थ-व्यवस्था गतिरोध का शिकार हुई लेकिन पूंजीवाद अपने तमाम आवर्तित संकटों के बावजूद उत्पादन के क्रांतिकरण तथा दूसरे उपायों से उन संकटों से निकलता रहा। सोवियत संघ के पराभव के इन 25 साल बाद सत्यदेव जी के पास इससे उल्टे यदि कोई दूसरे तथ्य हो तो वह उनकी संपत्ति है, दुनिया अभी तक उनसे वाकिफ नहीं है। और अगर मामला कोरी आस्था का हो तो हम क्या कहेंगे ! आस्था के विषय बहुत संवेदनशील होते हैं !

दरअसल, पता नहीं किस उत्तेजनावश वे हमारे लेख को सही ढंग से पढ़ ही नहीं पायें। उस लेख का प्रतिपाद्य विषय यही है कि समाजवाद समस्याग्रस्त नहीं है, समस्याग्रस्त है कम्युनिस्ट पार्टियां, जिन्होंने समाजवाद लाने के ऐतिहासिक मिशन की कमान संभालने का बीड़ा उठाया है। अब अगर कम्युनिस्ट पार्टी को दवा मान कर सत्यदेव जी हमारे पर आरोप लगा रहे हो कि हमने ‘मर्ज की नहीं दवा की ज्यादा आलोचना की है’, तो इस अभियोग को हम स्वीकारते हैं। लेकिन हम सिर्फ इतना कहेंगे कि जिसे वे दवा मान रहे हैं, वह दरअसल अपने अभी के रूप में दवा है ही नहीं। अंग्रेजी में जिसे प्लेसिबो कहते है, एक बेअसरदार दवा। ऐसा हमने अपने लेख में भी कहा था और उसमें इसी बात पर विचार किया गया था कि आखिर यह दवा बेअसर होगयी है, तो इसकी वजह क्या है ?

अपने लेख में कम्युनिस्ट पार्टी और समाजवाद के बीच एक अविभाज्य संबंध के सच को मानते हुए हमने इसाई धर्म और सेंट पॉल्स तथा चर्च के बीच के अभिन्न संबंध की समरूपता का उल्लेख किया है। लेकिन आज के चर्च के लिये सेंट पॉल्स और उनके काम एक संदर्भ बिंदु भर है। उसी प्रकार, दुनिया में समाजवाद के लिये लड़ाई के इतिहास से कोई भी सोवियत संघ के अनुभव को मिटा नहीं सकता। लेकिन सोवियत संघ आगे के समाजवाद के लिये एक संदर्भ बिंदु भर है। और हमारा मानना है कि यदि रूस की क्रांति की तर्ज पर आगे कोई समाजवादी क्रांति नहीं हो सकती तो बोल्शेविक पार्टी के संगठन की तर्ज पर गठित कोई भी कम्युनिस्ट पार्टी आगे के समाजवादी आंदोलन का नेतृत्व भी नहीं दे सकती।

राजनीतिक पार्टी व्यक्ति नहीं, व्यक्तियों का समूह होती है। उन लोगों का समूह जो एक मान्य विचारधारा के अनुसार पूरे समाज को ढालने के लिये एकत्रित हुए हैं। उनका लक्ष्य होता है कि यह पार्टी क्रमश: फैलते-फैलते पूरे समाज या पूरी जनता का रूप ले लें। पार्टी का जनता में पूरी तरह से लोप ही पार्टी का अंतिम गंतव्य है। अपने उस लेख में हमने मूलत: कम्युनिस्ट पार्टी के सांगठनिक सिद्धांत ‘जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद’ पर विचार किया था। और कम्युनिस्ट पार्टी का मानना है कि इसी सिद्धांत के आधार पर आगे पूरे समाज का क्रांतिकारी रूपांतरण होगा।

जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद के सांगठनिक सिद्धांत का एक मूल तत्व है - बहुमत के समक्ष अल्पमत का समर्पण। हमने अपने लेख में उसकी तुलना संसदीय जनतंत्र के सिद्धांत से की है - जिसमें बंदों को गिना जाता है, तौला नहीं जाता। इसीलिये हमने यह आशंका जाहिर की कि यह सिद्धांत समाज के क्रांतिकारी रूपांतरण का आधार नहीं बन सकता। उल्टे, आज के समय के सभी जनतांत्रिक विमर्शों में जनतंत्र के इस प्रभुत्वकारी संख्या-तत्व को उसकी बुनियादी कमजोरी के तौर पर देखा जाता है और लगातार इस बात पर बल दिया जाता है कि ऐसी हरचंद कोशिश की जानी चाहिए ताकि अल्पमत की आवाज को बहुमत की आवाज की बराबरी का दर्जा मिल सके। इसी सिलसिले में अपने लेख में हमने सहभागी जनतंत्र संबंधी विमर्श का उल्लेख किया था।

इसके विपरीत, जो कम्युनिस्ट पार्टियां वर्तमान संसदीय जनतांत्रिक व्यवस्था का विकल्प देने के लिये मेहनतकशों को लामबंद कर रही है, वे इस प्रकार के ‘सहभागी जनतंत्र’ की तरह के किसी नये विमर्श की दिशा में बढ़ने के बजाय ‘जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद’ को एक ऐसा पवित्र सिद्धांत माने हुए हैं जिसपर सवाल उठाना किसी पाप से कम नहीं है। इसी पर हमने गहरी आपत्ति की। अभी हाल में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की 18वीं केंद्रीय कमेटी ने देश के लिये कानून के शासन का खाका तैयार किया है। लेकिन कानून के शासन की चर्चा के साथ ही वहां की कम्युनिस्ट पार्टी इस बात को दोहराने से कभी नहीं चूकती कि कम्युनिस्ट पार्टी का नेतृत्व अक्षुण्ण रहेगा, वह अलग से संविधान द्वारा सुरक्षित रहेगा, जो एक प्रकट द्वैत है। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी भी जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद को अपना सांगठनिक सिद्धांत मानती है।

समाजवादी क्रांतियों के मूल में सामाजिक गैर-बराबरी, अन्याय और वंचना की सचाई काम करती रही है। पैरिस कम्यून के छोटे से प्रयोग के बाद पहली समाजवादी क्रांति साम्राज्यवाद की सबसे कमजोर कड़ी में हुई और बाद में भी पिछड़े हुए और विकासशील देशों में इसका विस्तार हुआ। इसी आधार पर दुनिया में समाजवाद के अप्रतिम इतिहासकार एरिक हाब्सवाम ने अब तक के समाजवाद को सारी दुनिया के आधुनिकीकरण के प्रकल्प का ही एक अविभाज्य हिस्सा माना है।

इन स्थितियों में, कम्युनिस्ट पार्टियों की अपनी अलग पहचान बनाने के लिये भी उन्हें जनतंत्र और उसके विकास के प्रति निष्ठा का विशेष परिचय देना होगा। सिर्फ बाहर नहीं अपने अंदर भी। जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद के बहुमत के सामने अल्पमत के समर्पण के बजाय अपने अंदर अल्पमत को समान रूप से सम्मानित स्थान देने के उपाय खोजने होंगे। ‘समान रूप से सम्मानित स्थान’ का मतलब है कि पूरे समाज में जैसे पार्टी के बहुमत की आवाज सुनी जाती है, वैसे ही हमेशा अल्पमत की आवाज को भी सामने आने देना होगा। वास्तव में देखा जाए तो जनतांत्रिक विमर्श ‘जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद’ के दायरे से काफी आगे निकल चुका है। राष्ट्रीय विधायी सभाओं में सानुपातिक प्रतिनिधित्व तो आज दुनिया के बहुत से जनतांत्रिक देशों का सच है। जनतंत्र को सारवान बनाने के ऐसे और भी कई ठोस उपाय हो सकते हैं।

यही हमारे लेख की मुख्य चिंता है जिसके आधार पर पूरे वामपंथी आंदोलन के पुनर्विन्यास पर हमने बल दिया था। पूंजीवाद की जगह समाजवाद की लड़ाई की एक महत्वपूर्ण कड़ी है - जनतंत्र और बहुलतावाद। अभी हाल में जनसत्ता में ही प्रकाशित अपने एक लेख ‘पूंजीवादी विकास का चरित्र’ में हमने यही बताने की कोशिश की है कि पूंजीवाद नैसर्गिक रूप में इजारेदारी, तानाशाही और एकरूपता से जुड़ा हुआ है। समाजवाद को हर रूप में अपने को इससे अलगाना होगा। सीपीआई(एम) ने 1978 में अपने सलकिया प्लेनम में पार्टी को एक जनक्रांतिकारी पार्टी बनाने का निर्णय लेकर उसे बोल्शेविक पार्टी की तरह के लौह सामरिक अनुशासन वाली पार्टी के ढांचे से मुक्त करने का रास्ता अपनाया था। लेकिन यह कम्युनिस्ट आंदोलन का दुर्भाग्य रहा कि वह उस दिशा में ज्यादा आगे नहीं बढ़ पाई।

इसी संदर्भ में अपने लेख में हमने जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद के बंद ढांचे को तोड़ने की बात कही थी। जाहिर है ऐसे ‘अनादि अपौरुषेय सिद्धांत’ पर सवाल उठाना एक पाप है और किसी भी आस्थावादी के कोप का भाजन बनने का यथेष्ट कारण। हम इस अपराध को स्वीकारते हैं।

गालिब बुरा न मान , जो वाइज बुरा कहे
ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे

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