गुरुवार, 18 दिसंबर 2014

क्यूबा और अमेरिका के बीच कूटनीतिक संबंधों की पुनर्स्थापना:



‘‘बहुत दिनों बाद खुला आसमान 
निकली है धूप, हुआ खुश जहान’’

अरुण माहेश्वरी

आधी सदी से भी ज्यादा समय बीत गया। अमेरिका से सिर्फ 90 मील दूर छोटा सा देश क्यूबा। उसने शक्ति और वैभव के विश्वप्रभु को, उसके मूल्यों को, उसके इरादों को, उसकी शक्ति को चुनौती दी थी। राष्ट्रपति फिदेल कास्त्रो ने कहा था, यह अमेरिकी एकाधिपत्य चल नहीं सकता, उसके सारे वैभव की रोशनी के तले गहरा अंधेरा ही अंधेरा है। यह लूट और अन्याय का साम्राज्य है; अंधेरे का राज्य है। सम्य समाज में अमेरिका और क्यूबा के बीच की लड़ाई की तुलना हमेशा तूफान और दीये के बीच की लड़ाई से की जाती थी। 1959 में क्यूबा की क्रांति के बाद फिदेल कास्त्रो की सरकार कायम हुई और तभी से अमेरिका इस दीये की रोशनी को कुचल देने के लिये मचल उठा था। क्या-क्या नहीं किया। सीआईए का एक पूरा महकमा इसी काम के लिये झोंक दिया गया। फिदेल तक की हत्या की न जाने कितनी कोशिशें की गयी। सैनिक कार्रवाई तक हुई। आर्थिक नाकेबंदी कर दी। संयुक्त राष्ट्र संघ में इस दादागिरी की खुल कर निंदा हुई फिर भी दुनिया का कोई देश क्यूबा के साथ आर्थिक लेन-देन नहीं कर पा रहा था। इन सारी बाधा-विपदाओं के बावजूद क्यूबा अपनी स्वतंत्रता और सार्वभौमिकता की रक्षा की जिद के साथ अड़ा रहा। एक समय में उसे विश्व समाजवादी शिविर का समर्थन रहा तो सन् ‘89 के बाद से ही लातिन अमेरिका के राजनीतिक परिदृश्य में आए भारी परिवर्तन ने अमेरिका की एक न चलने दी। क्यूबा लातिन अमेरिका में स्वतंत्रता और सार्वभौमिकता की रक्षा का प्रकाशस्तंभ बना रहा।
और आज - निराला जी की पंक्ति याद आती है :

‘‘बहुत दिनों बाद खुला आसमान
निकली है धूप, हुआ खुश जहान’’

‘‘हारी नहीं, देख, आंखें
आयी है फिर मेरी ‘बेला’ की यह वेला’’

आज क्यूबा की सड़के नौजवानों के उच्छवास से फूट पड़ी है। वाशिंगटन और हवाना, दोनों राजधानियों से 17 दिसंबर की रात, एक साथ यह घोषणा की गयी कि दोनों देशों के बीच पचास साल से भी ज्यादा समय से टूटे हुए कूटनीतिक संबंधों को फिर से कायम किया जाता है। खुद राष्ट्रपति ओबामा ने यह खुले आम स्वीकारा  कि क्यूबा को अलग-थलग करने की बाबा आदम के जमाने की नीति विफल हुई है। क्यूबा के राष्ट्रपति राउल कास्त्रो ने ऐलान किया है कि और भी समृद्ध तथा दीर्घस्थायी समाजवाद की दिशा में क्यूबा की यात्रा जारी रहेगी। नेरुदा के शब्दों में :
‘‘हर रोज मैंने धमकियां सुनी,
रिश्वतें, क्षोभ और झूठ,
और मैं अपने सितारे से पीछे नहीं हटा।
नहीं मेरे दोस्तों।

कहना न होगा, चीजें इसी तरह मिटती हुई बनती रहती है। दोनों देशों के बीच कूटनीतिक संबंधों की पुनर्स्थापना की घोषणा के पहले दिन, 16 दिसंबर को राष्ट्रपति ओबामा और राष्ट्रपति रॉउल कास्त्रो के बीच पूरे एक घंटे टेलिफोन पर बात हुई थी। 55 सालों में इन दोनों देश के राष्ट्रप्रधानों के बीच यह पहली बातचीत थी। और इसके बाद, 24 घंटे बीतते न बीतते, कूटनीतिक संबंधों की फिर से स्थापना की घोषणा कर दी गयी। वेनेजुएला के राष्ट्रपति निकोलज माउरो ने कहा कि ‘‘यह जीत क्यूबा की जीत है, फिदेल की जीत है।’’ अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी के नेता जॉन मैकैन ने कहा - ‘‘अमेरिका पीछे हटा है।’’

सच कहा जाए तो यह उस पूरी राजनीति की जीत है जो आज दुनिया में एक खास लातिन अमेरिकी परिघटना के रूप में चिन्हित की जा रही है।

दुनिया में कोई भी नहीं कहेगा कि कूटनीतिक संबंधों की वापसी से इन दो देशों के बीच के बुनियादी मतभेद दूर होगये है। कोई नहीं कहेगा कि क्यूबा ने अमेरिकी रास्ते को स्वीकृति दे दी है या अमेरिका ने क्यूबा के समाजवाद को मान लिया है। इसमें कोई शक नहीं है कि ये दो समाज दो अलग-अलग सामाजिक मान्यताओं के आधार पर बन-बिगड़ रहे हैं। लेकिन यह जानना कम महत्वपूर्ण नहीं है कि जो कुछ हो रहा है, उसके परे और क्या हो रहा है और जो नहीं है, उसके परे क्या नहीं है। स्थायी कुछ नहीं होता। कार्य-कारण संबंधों के परे मनुष्यता का सच विजयी होता है, उसी से मुक्ति का मार्ग खुलता है।

रॉउल कास्त्रो ने तो साफ शब्दों में कहा है कि ‘‘ मानवाधिकार, विदेश नीति और राष्ट्रीय सार्वभौमिकता के सवाल पर हमारे गहरे मतभेद हैं। लेकिन मतभेदों के बावजूद हमें सभ्य तरीके से सह-अस्तित्व के रास्ते को अपनाना होगा।’’ रॉउल कास्त्रो ने दोनों देशों के बीच लगभग एक साल से चल रही वार्ता को सफल बनाने में कनाडा की सरकार और पोप फ्रांसिस के प्रति कृतज्ञता जाहिर की है।





कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें