भारत के अधिकांश टेलिविज़न न्यूज़ चैनलों की रत्ती भर विश्वसनीयता नहीं रह गई है । इन पर प्रसारित होने वाली ख़बरें और इन पर होने वाली तमाम बहसें इतनी एक ही ढर्रे की प्रायोजित क़िस्म की हुआ करती हैं कि उनसे गहरी ऊब और वितृष्णा के अलावा और कुछ पैदा नहीं होते । इनसे सृजनात्मकता तो पूरी तरह से विदा हो चुकी है । अर्नब गोस्वामी नाम का सिर्फ चीख़ने वाला एक भोपूं इसका मुख्य प्रतीक है । रवीश कुमार की तरह की संयत आवाज इतनी दबती जा रही है जैसे अपनी भिन्न आवाज उनको ही रास नहीं आ रही है ! एनडीटीवी के अभिज्ञात तो पहले से ही धीमी गति के मंद एंकर बने हुए हैं । राज़दीप एक पुरानी प्रतिमा में जड़ है । करन थापर की समस्या है कि उन्हें बात करने लायक सही पात्र ही नहीं मिल रहे ।
सारे चैनल किसी न किसी बहाने उग्र राष्ट्रवाद और सांप्रदायिक विभाजन के काम में जुटे हुए लगते हैं, बहाना भले कश्मीर में उग्रवादियों या पंडितों का हो या चीन और पाकिस्तान का हो । हफ़्ते भर से ये बेबात कैराना का रेकर्ड बजा रहे हैं । गंदी से गंदी सांप्रदायिक घृणा की बातों को बेख़ौफ़ प्रसारित करते हैं । सब चैनलों पर संघी प्रचारकों का क़ब्ज़ा दिखाई देता है ।
हर मोर्चे पर विफल मोदी सरकार के दो साल पर भी सारे न्यूज़ चैनल सरकारी विज्ञापनबाजी ही करते रह गये । दुनिया शंकित है कि आज जब इतनी बदतर आर्थिक स्थिति है, तब आगे, जब इस सरकार को ऊँची दरों पर तेल ख़रीदना पड़ेगा, क्या दशा होगी ? मोदीजी की उद्देश्यहीन विदेश यात्राएँ भी इन्हें विदेश मामलों की गहराई से जाँच के लिये प्रेरित नहीं करती ।
ग़नीमत यही है कि ख़बरों पर अब टेलिविज़न की इजारेदारी नहीं बची है ।
टेलिविज़न आज भी मनोरंजन का साधन ज़रूर बना हुआ है । अच्छे-बुरे सीरियलों के साथ ही नाच-गाने के कार्यक्रमों और एपिक चैनल के तरह गंभीर डाक्यूमेंट्री और दूसरे प्रकार की चर्चाओं वाले चैनल से भारतीय टेलिविज़न थोड़ा बचा हुआ है । न्यूज़ चैनल तो उबाऊ सरकारी ढिंढोरची हैं ।
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