मंगलवार, 28 जून 2016

राजनीति और ‘सिद्धांतवादिता’



आज के ‘आनंदबाजार पत्रिका’ में शिवाजीप्रतिम बोस के लेख ‘बंगीय कामरेडरा बेक्सिट कोरबेन की’ (बंगाल के कामरेड क्या बेक्सिट करेंगे) पढ़ कर खूब हंसी आ रही थी। शिवाजी प्रतिम ने सीपीएम में हाल के जगमति प्रकरण को लेकर उठे चाय के प्याले (केंद्रीय कमेटी) में तूफान का मजा लेते हुए एस. ए. डांगे को याद किया है, जिनके काल में लोग सीपीआई को ‘कौशल (टेक्टिक्स) पार्टी आफ इंडिया’ कहने लगे थे।

किसी भी स्थिति के इतिहास लेखन की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह कितना भी पीछे जड़ों तक क्यों न चला जाए, कभी भी उसके गैर-ऐतिहासिक लोकोत्तर परम सत्य को उद्घाटित नहीं कर सकता है। और, कोरे लोकोत्तर विषयों का इतिहास-लेखन का अर्थ होता है सारे दुनियावी मामलों को किसी गहरी खाई में फेंक देना।

यह बात कितनी ही रुच्छ और आदर्श-विहीन क्यों न प्रतीत हो, राजनीति का परम सत्य है - सत्ता-प्राप्ति। यह सत्ता को भूल कर कभी नहीं चल सकती। इसे भूल कर चलना एक प्रकार का एनजीओवाद कहलायेगा। तमाम स्तरों पर की जाने वाली दूरगामी गोलबंदियों के बावजूद अर्जुन की नजर मछली की आंख पर ही टिकी होती है। लेनिन कहते थे कि ‘सिद्धांतवादियों’ को राजनीति से दूर रहना चाहिए।

आज की राजनीति की और भी बड़ी विडंबना है कि समसामयिकता के बिना वह बिल्कुल निरर्थक लगती है। पहले के युगों के फासले आज क्षणों में तय हो रहे हैं। इसमें आज अप्रासंगिक होकर कल प्रासंगिक होना असंभव है, क्योंकि कभी कोई स्थान रिक्त नहीं रहता है। ‘आज पराजित कल फतहयाब’ आज की राजनीति का आदर्श वाक्य नहीं हो सकता है।

हमारी किताब ‘सिरहाने ग्राम्शी’ में ग्राम्शी के इस कथन पर ही एक अध्याय है कि ‘बोल्शेविक क्रांति माक्‍​र्स की ‘पूंजी’ के खिलाफ क्रांति है।’ ‘पूंजी’ में निहित इतिहास के ‘परम विचार’ में तो ऐसी किसी कार्रवाई का कोई विशेष मायने नहीं होता है। अर्थात, लोकोत्तर विषयों के ठोस आख्यान नहीं हुआ करते।

तथापि, राजनीति के परम सत्य और उसके दुनियावी सत्य के बीच का फर्क किनारे बैठ कर उसका मुजाहिरा करने वालों के लिये आनंद के अनेक उपादान जरूर मुहैय्या करा सकता है। कहना न होगा, शिवाजीप्रतिम बसु ने भी उसीका आनंद लिया है।

http://www.anandabazar.com/editorial/bong-comrades-and-brexit-1.421797


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