सीपीआई (एम) में यह क्या हो रहा है ?
सीपीआई(एम) की केंद्रीय कमेटी ने पिछले चुनाव में पश्चिम बंगाल में अपनाई गई लाईन को पार्टी- विरोधी क़रार दिया है । इसके बावजूद केंद्रीय कमेटी की एक सदस्या ने यह कह कर पार्टी से इस्तीफ़ा देने की घोषणा कर दी कि केंद्रीय कमेटी की इतनी सी भर्त्सना काफी नहीं है । जगमति के इस एकतरफ़ा फ़ैसले का जो परिणाम निकलना था, वही निकला । पार्टी के एक सुचिंतित मत के खिलाफ उनकी इस सार्वजनिक घोषणा के साथ ही उन्हें पार्टी से निष्कासित कर दिया गया ।
फिर भी, सीपीआई(एम) में यह जो चल रहा है, बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है । थोड़ी सी गहराई से देखने पर ही कोई भी यह समझ सकता है कि पार्टी की केंद्रीय कमेटी में एक अजीबोग़रीब बहुमत और अल्पमत का खेल चल रहा है । इसके साथ पार्टी के विकास में साफ़ तौर पर दिखाई दे रहे गतिरोध को तोड़ने की कोई बहुत गंभीर चिंता नहीं जुड़ी हुई नहीं दिखाई देती है । जिस ढर्रे पर चल कर पार्टी अभी के गतिरोध में फँस गई है, उस पर केंद्रीय कमेटी का अभी का बहुमत विचार भी करने के लिये तैयार नहीं है ।
यह वही पुराना रोग है जिसके कारण ज्योति बसु, यूपीए -1, और सोमनाथ चटर्जी के सवालों पर भारी भूलें की गई और वामपंथी राजनीति को अंतहीन पतन की दिशा में धकेल दिया गया । जिस समय पार्टी के कार्यक्रम में संशोधन करके केंद्रीय सरकार तक में शामिल होने की संभावना को मान लिया गया, उस समय ज्योति बसु को प्रधानमंत्री न बनने देने के विषय की कोई समीक्षा नहीं की गई । जिस समय यूपीए-1 से समर्थन वापस लिया गया उस समय यूपीए-1 को समर्थन देने के कारणों को दरकिनार कर दिया गया । और अब, जब पश्चिम बंगाल में कांग्रेस के साथ किये गये गठबंधन के विषय में चर्चा की जा रही है, तब कौन सी परिस्थितियों में कांग्रेस से सीटों के बारे में समझौता करने और सभी जनतांत्रिक ताक़तों को एकजुट करने का केंद्रीय कमेटी ने निर्णय लिया था , उसे बिल्कुल भुला दिया जा रहा है । आज जो विचार किया जा रहा है, उसका कोई सैद्धांतिक आधार नहीं है, शुद्ध रूप से पश्चिम बंगाल का चुनाव परिणाम है ।
आगे भी इन बहुमतवादियों का यही खेल चलता रहेगा, जगमति की सार्वजनिक घोषणा इसी का एक उदाहरण है ।
श्रीमती जगमति की सबसे पहली समस्या तो यह है कि वे पार्टी की राजनीतिक- कार्यनीतिक लाईन को उसकी जान मानती है, जबकि उसमें हमेशा नयी- नयी परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन होता रहता है । इस प्रकार तो पार्टी रोज मरती है और फिर रोज एक नई जान में पैदा होती है !
उनकी दूसरी सबसे बड़ी समस्या है कि वे संगठन को महत्वहीन मानती है । पार्टी का सांगठनिक सिद्धांत उसकी राजनीतिक-कार्यनीतिक लाईन से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण रणनीतिक लाईन के समकक्ष होता है । बिना संगठन के और कुछ भी हो सकता है, पार्टी नहीं हो सकती । लाईन का राग अलापने वाले इस सबसे बुनियादी महत्व के विषय के प्रति पूरी तरह उदासीन या अनभिज्ञ होते हैं और इसीलिये सही ढंग से अपने क्षेत्रों में पार्टी नहीं बना पाते हैं ।
यह सारी दुनिया की कम्युनिस्ट पार्टियों के साथ जुड़ी बहुत बड़ी समस्या है क्योंकि उनके पास ग़ैर-क्रांतिकारी परिस्थिति में संगठन और उसके प्रभावशाली संचालन के सिद्धांतों संबंधी कोई अवधारणा नहीं है, जो पार्टी के विस्तार के रास्ते में हमेशा सहयोगी बने न कि बाधक । इसीलिये इसमें भी एक ऐसे लचीलेपन की ज़रूरत है जिससे व्यापकतम जनता के साथ पार्टी का बराबर संवाद बन सके । कथित क्रांतिकारियों की गिरोहबंदी का स्वरूप पार्टी के जनतांत्रिक विस्तार के रास्ते की सबसे बड़ी बाधा है । पार्टी में जनतंत्र जनता की भूमिका से परिभाषित होना चाहिए न कि मुट्ठी भर विशेषाधिकार- प्राप्त पार्टी सदस्यों से । इसी कमी की वजह से दुनिया में कम्युनिस्ट पार्टियाँ आज अस्तित्व की लड़ाइयां लड़ रही है । उसने संगठन के एक निश्चित लेकिन अचल सिद्धांत को उसी प्रकार अपना प्राण- तत्व मान लिया है, जैसे जगमति जी राजनीतिक- कार्यनीतिक लाईन को माने बैठी हुई है ,जबकि वे इस बात को जानती है कि अगली पार्टी कांग्रेस में ही यह कथित पार्टी लाइन उलट सकती है , अर्थात इसका प्राण निकल सकता है ।
हमें तो ऐसा लगता है जैसे सीपीआई(एम) में कुछ कठमुल्ले इस पार्टी के अंत का ठाने हुए हैं । वे न भाजपा को समझ रहे हैं, न तृणमूल कांग्रेस को । और कांग्रेस तो हमेशा की एक समस्या है । यह तब है जब आरएसएस का रोडरोलर साफ़ चलता हुआ दिखाई दे रहा है जो हमारे देश में विवेकशीलता और धर्मनिरपेक्ष मानसिकता के उदय को उसकी किशोरावस्था में ही मार डालने पर उतारू है । ऐसे अविवेकशील हुजूम का मुक़ाबला कैसे होगा, इसकी इनके पास कोई अवधारणा ही नहीं है ।
हमारा तो दृढ़ विश्वास है कि बंगाल की पार्टी ने पिछले विधान सभा चुनाव में किसी भी किताब या पूर्व- प्रस्ताव की बेड़ियों को अस्वीकार कर ठोस परिस्थिति के अनुरूप कांग्रेस के साथ गठबंधन की लाईन अपना कर पूरे भारत की पार्टी की भावी लाईन का संकेत दिया है ।
सीपीआई(एम) की केंद्रीय कमेटी में बहुमतवादियों और अल्पमतवादियों के बीच की यह तकरार बोल्शेविक पार्टी में बोल्शेविकों और मेंशेविको के बीच की तकरार की ही एक प्रहसनात्मक पुनरावृत्ति लगती है, क्योंकि रूस के कम्युनिस्टों के एजेंडा पर तब तत्काल क्रांति के ज़रिये राजसत्ता पर क़ब्ज़ा करने का सवाल था । यहाँ ऐसा कुछ नहीं है और आज की देश और दुनिया की परिस्थिति में उस प्रकार की क्रांति की कोई संभावना भी नहीं है । इसीलिये यह सारा उपक्रम एक पार्टी को हाथ में लेने का सिद्धांतविहीन और स्वार्थपूर्ण उपक्रम जैसा लगता है ।
हमारा तो दृढ़ विश्वास है कि बंगाल की पार्टी ने पिछले विधान सभा चुनाव में किसी भी किताब या पूर्व- प्रस्ताव की बेड़ियों को अस्वीकार कर ठोस परिस्थिति के अनुरूप कांग्रेस के साथ गठबंधन की लाईन अपना कर पूरे भारत की पार्टी की भावी लाईन का संकेत दिया है ।
सीपीआई(एम) की केंद्रीय कमेटी में बहुमतवादियों और अल्पमतवादियों के बीच की यह तकरार बोल्शेविक पार्टी में बोल्शेविकों और मेंशेविको के बीच की तकरार की ही एक प्रहसनात्मक पुनरावृत्ति लगती है, क्योंकि रूस के कम्युनिस्टों के एजेंडा पर तब तत्काल क्रांति के ज़रिये राजसत्ता पर क़ब्ज़ा करने का सवाल था । यहाँ ऐसा कुछ नहीं है और आज की देश और दुनिया की परिस्थिति में उस प्रकार की क्रांति की कोई संभावना भी नहीं है । इसीलिये यह सारा उपक्रम एक पार्टी को हाथ में लेने का सिद्धांतविहीन और स्वार्थपूर्ण उपक्रम जैसा लगता है ।
सीपीआई(एम) की केंद्रीय कमेटी ने पिछले चुनाव में पश्चिम बंगाल में अपनाई गई लाईन को पार्टी- विरोधी क़रार दिया है । इसके बावजूद केंद्रीय कमेटी की एक सदस्या ने यह कह कर पार्टी से इस्तीफ़ा देने की घोषणा कर दी कि केंद्रीय कमेटी की इतनी सी भर्त्सना काफी नहीं है । जगमति के इस एकतरफ़ा फ़ैसले का जो परिणाम निकलना था, वही निकला । पार्टी के एक सुचिंतित मत के खिलाफ उनकी इस सार्वजनिक घोषणा के साथ ही उन्हें पार्टी से निष्कासित कर दिया गया ।
फिर भी, सीपीआई(एम) में यह जो चल रहा है, बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है । थोड़ी सी गहराई से देखने पर ही कोई भी यह समझ सकता है कि पार्टी की केंद्रीय कमेटी में एक अजीबोग़रीब बहुमत और अल्पमत का खेल चल रहा है । इसके साथ पार्टी के विकास में साफ़ तौर पर दिखाई दे रहे गतिरोध को तोड़ने की कोई बहुत गंभीर चिंता नहीं जुड़ी हुई नहीं दिखाई देती है । जिस ढर्रे पर चल कर पार्टी अभी के गतिरोध में फँस गई है, उस पर केंद्रीय कमेटी का अभी का बहुमत विचार भी करने के लिये तैयार नहीं है ।
यह वही पुराना रोग है जिसके कारण ज्योति बसु, यूपीए -1, और सोमनाथ चटर्जी के सवालों पर भारी भूलें की गई और वामपंथी राजनीति को अंतहीन पतन की दिशा में धकेल दिया गया । जिस समय पार्टी के कार्यक्रम में संशोधन करके केंद्रीय सरकार तक में शामिल होने की संभावना को मान लिया गया, उस समय ज्योति बसु को प्रधानमंत्री न बनने देने के विषय की कोई समीक्षा नहीं की गई । जिस समय यूपीए-1 से समर्थन वापस लिया गया उस समय यूपीए-1 को समर्थन देने के कारणों को दरकिनार कर दिया गया । और अब, जब पश्चिम बंगाल में कांग्रेस के साथ किये गये गठबंधन के विषय में चर्चा की जा रही है, तब कौन सी परिस्थितियों में कांग्रेस से सीटों के बारे में समझौता करने और सभी जनतांत्रिक ताक़तों को एकजुट करने का केंद्रीय कमेटी ने निर्णय लिया था , उसे बिल्कुल भुला दिया जा रहा है । आज जो विचार किया जा रहा है, उसका कोई सैद्धांतिक आधार नहीं है, शुद्ध रूप से पश्चिम बंगाल का चुनाव परिणाम है ।
आगे भी इन बहुमतवादियों का यही खेल चलता रहेगा, जगमति की सार्वजनिक घोषणा इसी का एक उदाहरण है ।
श्रीमती जगमति की सबसे पहली समस्या तो यह है कि वे पार्टी की राजनीतिक- कार्यनीतिक लाईन को उसकी जान मानती है, जबकि उसमें हमेशा नयी- नयी परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन होता रहता है । इस प्रकार तो पार्टी रोज मरती है और फिर रोज एक नई जान में पैदा होती है !
उनकी दूसरी सबसे बड़ी समस्या है कि वे संगठन को महत्वहीन मानती है । पार्टी का सांगठनिक सिद्धांत उसकी राजनीतिक-कार्यनीतिक लाईन से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण रणनीतिक लाईन के समकक्ष होता है । बिना संगठन के और कुछ भी हो सकता है, पार्टी नहीं हो सकती । लाईन का राग अलापने वाले इस सबसे बुनियादी महत्व के विषय के प्रति पूरी तरह उदासीन या अनभिज्ञ होते हैं और इसीलिये सही ढंग से अपने क्षेत्रों में पार्टी नहीं बना पाते हैं ।
यह सारी दुनिया की कम्युनिस्ट पार्टियों के साथ जुड़ी बहुत बड़ी समस्या है क्योंकि उनके पास ग़ैर-क्रांतिकारी परिस्थिति में संगठन और उसके प्रभावशाली संचालन के सिद्धांतों संबंधी कोई अवधारणा नहीं है, जो पार्टी के विस्तार के रास्ते में हमेशा सहयोगी बने न कि बाधक । इसीलिये इसमें भी एक ऐसे लचीलेपन की ज़रूरत है जिससे व्यापकतम जनता के साथ पार्टी का बराबर संवाद बन सके । कथित क्रांतिकारियों की गिरोहबंदी का स्वरूप पार्टी के जनतांत्रिक विस्तार के रास्ते की सबसे बड़ी बाधा है । पार्टी में जनतंत्र जनता की भूमिका से परिभाषित होना चाहिए न कि मुट्ठी भर विशेषाधिकार- प्राप्त पार्टी सदस्यों से । इसी कमी की वजह से दुनिया में कम्युनिस्ट पार्टियाँ आज अस्तित्व की लड़ाइयां लड़ रही है । उसने संगठन के एक निश्चित लेकिन अचल सिद्धांत को उसी प्रकार अपना प्राण- तत्व मान लिया है, जैसे जगमति जी राजनीतिक- कार्यनीतिक लाईन को माने बैठी हुई है ,जबकि वे इस बात को जानती है कि अगली पार्टी कांग्रेस में ही यह कथित पार्टी लाइन उलट सकती है , अर्थात इसका प्राण निकल सकता है ।
हमें तो ऐसा लगता है जैसे सीपीआई(एम) में कुछ कठमुल्ले इस पार्टी के अंत का ठाने हुए हैं । वे न भाजपा को समझ रहे हैं, न तृणमूल कांग्रेस को । और कांग्रेस तो हमेशा की एक समस्या है । यह तब है जब आरएसएस का रोडरोलर साफ़ चलता हुआ दिखाई दे रहा है जो हमारे देश में विवेकशीलता और धर्मनिरपेक्ष मानसिकता के उदय को उसकी किशोरावस्था में ही मार डालने पर उतारू है । ऐसे अविवेकशील हुजूम का मुक़ाबला कैसे होगा, इसकी इनके पास कोई अवधारणा ही नहीं है ।
हमारा तो दृढ़ विश्वास है कि बंगाल की पार्टी ने पिछले विधान सभा चुनाव में किसी भी किताब या पूर्व- प्रस्ताव की बेड़ियों को अस्वीकार कर ठोस परिस्थिति के अनुरूप कांग्रेस के साथ गठबंधन की लाईन अपना कर पूरे भारत की पार्टी की भावी लाईन का संकेत दिया है ।
सीपीआई(एम) की केंद्रीय कमेटी में बहुमतवादियों और अल्पमतवादियों के बीच की यह तकरार बोल्शेविक पार्टी में बोल्शेविकों और मेंशेविको के बीच की तकरार की ही एक प्रहसनात्मक पुनरावृत्ति लगती है, क्योंकि रूस के कम्युनिस्टों के एजेंडा पर तब तत्काल क्रांति के ज़रिये राजसत्ता पर क़ब्ज़ा करने का सवाल था । यहाँ ऐसा कुछ नहीं है और आज की देश और दुनिया की परिस्थिति में उस प्रकार की क्रांति की कोई संभावना भी नहीं है । इसीलिये यह सारा उपक्रम एक पार्टी को हाथ में लेने का सिद्धांतविहीन और स्वार्थपूर्ण उपक्रम जैसा लगता है ।
हमारा तो दृढ़ विश्वास है कि बंगाल की पार्टी ने पिछले विधान सभा चुनाव में किसी भी किताब या पूर्व- प्रस्ताव की बेड़ियों को अस्वीकार कर ठोस परिस्थिति के अनुरूप कांग्रेस के साथ गठबंधन की लाईन अपना कर पूरे भारत की पार्टी की भावी लाईन का संकेत दिया है ।
सीपीआई(एम) की केंद्रीय कमेटी में बहुमतवादियों और अल्पमतवादियों के बीच की यह तकरार बोल्शेविक पार्टी में बोल्शेविकों और मेंशेविको के बीच की तकरार की ही एक प्रहसनात्मक पुनरावृत्ति लगती है, क्योंकि रूस के कम्युनिस्टों के एजेंडा पर तब तत्काल क्रांति के ज़रिये राजसत्ता पर क़ब्ज़ा करने का सवाल था । यहाँ ऐसा कुछ नहीं है और आज की देश और दुनिया की परिस्थिति में उस प्रकार की क्रांति की कोई संभावना भी नहीं है । इसीलिये यह सारा उपक्रम एक पार्टी को हाथ में लेने का सिद्धांतविहीन और स्वार्थपूर्ण उपक्रम जैसा लगता है ।
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