सोमवार, 27 जून 2016

' ब्रेक्सिट'

ब्रिटेन में ' ब्रेक्सिट' की जीत के बाद ही एक गहरी आशंका और उदासी ने वहाँ के नागरिकों को घेरना शुरू कर दिया है । अभी से फिर एक बार जनमतसंग्रह की माँग उठने लगी है ।
जहाँ तक यूरोपियन यूनियन का सवाल है, ऐतिहासिक दृष्टि से इसके टूटने में कोई हर्ज नहीं है, बल्कि एक साम्राज्यवादी ब्लाक के टूटने में ही मानवता का मंगल है ।
लेकिन यहाँ मसला कुछ और ही है । इसके मूल में उस उग्र राष्ट्रवाद की वापसी है, जिसकी कोख से हिटलर-मुसोलिनी पैदा हुए थे । यह द्वितीय विश्वयुद्ध के तमाम अनुभवों और पिछले सत्तर साल की शांति, समृद्धि, जनतंत्र और मानव अधिकारों की उपलब्धियों का अस्वीकार है ।
ब्रिटेन के जो एनआरआई मोदी-मोदी चीख़ कर भारत में विभाजनकारी, सांप्रदायिक और नस्लवादी राजनीति को बढ़ावा दे रहे हैं, वे ही अब ब्रेक्सिट की जीत के बाद खुद उसी नस्लवादी नफ़रत का शिकार बन रहे हैं । ऐसे ही कुछ लोग शायद अमेरिका में भी ट्रम्प का झंडा उठाए हुए हैं । जैसे भारत में पत्रकार स्वपन दासगुप्ता है।
जो इतिहास की इन विडंबनाओं को न समझ कर हमेशा किसी 'अन्य' शत्रु की तलाश में लगे रहते हैं, वे नहीं जानते कि कब वे खुद 'अन्यों' की क़तार में डाल दिये जाते हैं ।

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