सोमवार, 2 जनवरी 2017

शंखो घोष : मौन के स्वातंत्र्य का कवि

(समालोचन ब्लाग पर शंखो घोष के बारे में की गई एक टिप्पणी पर प्रतिक्रिया)
-अरुण माहेश्वरी

सचमुच यह सोच कर गहरा अफसोस होता है ! जिंदगी में अफरा-तफरी की शोर मचाती ढेर सारी खबरों के बीच यह समाचार आया था कि शंखो घोष को ज्ञानपीठ पुरस्कार की घोषणा की गई है। अन्य सारी व्यग्रताओं के बीच यह एक गहरी आश्वस्ति की खबर थी, सांत्वनादायी, संतोष देने वाली। तमाम आकांक्षाओं से परिपूर्ण लेकिन किसी से भी कोई अपेक्षा न रखने वाले स्वतंत्रता के संतुष्टी के भाव से भरी हुई खबर ! लेकिन फिर भी, उस पर दो शब्द तक नहीं लिख पाया !

शंखो घोष बांग्ला के एक ऐसे मौन कवि है, जिनसे आज की आपाधापी से भरे जीवन में फंसे हुए किसी भी व्यक्ति में एक गहरी ईष्‍​र्या का बोध पैदा हो सकता है। आज के समय के भक्तों ने पूजा के साथ जुड़े आत्म के एक सुरीले और लयात्मक विनय भाव को जिस प्रकार की कर्कश ध्वनियों के डरावने शोर में बदल दिया है, उसमें शंखो घोष को आदमी के मौन और उसकी गुमनामी का पुजारी कहने में भी डर लगने लगता है।

शंखो घोष की एक छोटी सी कविता है -

‘‘कहकर बताता या लिखकर या करके स्पर्श
लगता है भूल हुई मेरे समझने में, यह तो नहीं चाहा था कहना
अंत में सभा के जब कागज ले हाथ में जाते हैं लोग तब
लगता है, कहूं मैं पुकारकर : आइए, सकूंगा कह
मैं अबकी बार।’’

यही हमेशा मौके पर चुक जाने का भाव, अर्थात बात कह कर भी अपने बात न कह पाने का भाव, लेकिन असंतोष नहीं, कोई गम नहीं, फिर कभी कहने की आकांक्षाओं से परिपूर्ण, अपेक्षाओं से विरत, अपनी स्वतंत्रता में संतुष्टी का भैरव-भाव - यही रहा है शंखो घोष के सृजन का स्थायी भाव।

देखिये, उनकी एक और छोटी से कविता - हवा।

‘‘हुआ तो हुआ, नहीं तो नहीं
रखना जीवन को
इसी तरह
यही नहीं, सीखो कुछ
रस्ते पर, गुमसुम
बैठी भिखारिन की आँखों के
धीर प्रतिवाद से

है, यह सब भी है।’’

राजकमल पेपरबैक्स ने शंखो धोष और शक्ति चट्टोपाध्याय की कविताओं का एक मिला-जुला छोटा सा संकलन प्रकाशित किया है जिसमें शंखो घोष की 30 कविताएं संकलित है। इस संकलन की कविताओं का अनुवाद प्रयाग शुक्ल ने किया है। इसमें शंखो घोष अपनी छोटी सी दो पन्नों की भूमिका में ‘शब्द और शब्द’ से भरे थका देने वाले हर दिन की व्याकुलता में मौन की अपनी तलाश के बारे में लिखते हैं - ‘‘शब्द और शब्द, केवल। जैसे कभी कहीं मौन नहीं था - कभी भी- जैसे कभी किसी हाथ ने दूसरा हाथ नहीं छुआ था। वह मौन, जिसकी खोज में तुम थे, हवा में गायब हो गया है और क्या तुम्हें इसकी बिल्कुल परवाह नहीं।...सिर्फ शब्दों को ही यह आता है कि मौन का तत्व धारण कर ले, बिना आध्यात्मिक जगत से रिश्ता तोड़े।...आदमी के लिये सबसे कठिन है गुमनामी सहन करना। ...वह पहचाना नहीं जायेगा और कोई अँगुली उसकी ओर नहीं उठेगी - ‘देखो ! वह कवि आ रहा है।’ सिर्फ तब मौन कविता जन्म लेगी।’’

इसी भूमिका में वे जीवनानंद का प्रसंग लाते हैं और बड़ी मार्के की एक बात कहते हैं कि ‘‘जो चीजें उनकी कविताओं में बहुत निजी थीं, समकालीन लेखन में प्रदर्शनी के लिए सजा दी गयी हैं, जैसे किसी अजायबघर में कफन जमा रखे हों। उनकी खामोशी का पारदर्शी परदा कहाँ गया? वही चीज थी उनकी जिसकी पूजा की जानी चाहिए थी।’’ हिंदी में मुक्तिबोध की कविताओं के तमाम निजी प्रसंगों की सार्वजनिक प्रदर्शनी के सच को इस कथन की रोशनी में देखें, शायद मुक्तिबोध भी कुछ और नये दिखाई देने लगेगे।

बहरहाल, ‘पूजा की जानी चाहिए थी’ - शंखो घोष का यह कथन। वे आज भी हमारे बीच है, आज के समय के प्रत्यक्षदर्शी। वे ‘पूजा और भक्ति’ की प्रदर्शनी के खेलों को हर रोज देख रहे हैं। वे इस ‘शोरगुल में मौन की पताका उठाने’ की बात कहते भी है और कविता को उस पताका की खोज भी बताते हैं। लेकिन जो शंखो घोष की गतिविधियों पर नजर रखते है, वे जानते हैं, उनका यह चिर-परिचित मौन कब और कैसे मुखर होता है, नाना रूपों में, कविता से लेकर जुलूसों तक में ! कहना न होगा, उनकी ‘मौन की पताका की तलाश’ उस स्वातंत्र्य की तलाश ही है, जिसमें आकांक्षाओं की परिपूर्णता और अपेक्षाओं की शून्यता का बोध विराज करता है।

आपको बहुत धन्यवाद, समालोचन में प्रिय कवि शंखो घोष को याद करने के लिये।


 

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