बुधवार, 25 जनवरी 2017

पांच राज्यों के चुनाव और भारतीय वामपंथ की उहापोह


-अरुण माहेश्वरी

भारतीय राजनीति में कांग्रेस और भाजपा के अलावा एक तीसरी महत्वपूर्ण शक्ति है वामपंथ, जिसकी एक से अधिक राज्यों में सरकारें रही हैं, आज भी दो राज्यों में हैं, देश के सभी कोनों में जिसके अपने जन-संगठनों और कार्यकर्ताओं का पूरा ताना-बाना है और सर्वोपरि जिसका राजनीतिक परिप्रेक्ष्य हमेशा से अखिल भारतीय है। ऐसे में किसी भी व्यक्ति के मन में यह सवाल उत्पन्न हो सकता है कि अभी जिन पांच राज्यों में चुनाव होने जा रहे हैं, उनमें भारतीय वामपंथ क्या कर रहा है? खास तौर पर उत्तर प्रदेश में, जहां कम्युनिस्ट पार्टियों का थोड़ा परंपरागत आधार भी रहा है, आज की महत्वपूर्ण चुनावी लड़ाई में वामपंथ कहां है ?

अभी के बिकाऊ मीडिया के पूरे शोरगुल में काफी अर्से से वामपंथ पूरी तरह से नदारद है। इसी के चलते बहुतों को तो शायद यह पता भी नहीं होगा कि उत्तर प्रदेश में छ: वामपंथी दलों, सीपीआई, सीपीआई(एम), सीपीआई(एम-एल), एसयूसीआई, एआईएफबी और आरएसपी ने मिल कर अपना एक अलग मोर्चा बनाया है और 105 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़ा करने की घोषणा की है, जिनमें नब्बे से ज्यादा सीटों पर उम्मीदवारों के नामों की घोषणा भी कर दी गई है। इनमें सीपीआई 58 सीटों पर, सीपीआई(एम) 18 पर, सीपीआई(एम-एल) 17 पर, फारवर्ड ब्लाक 7 और एसयूसी 5 सीटों पर चुनाव लड़ रही है।

अब सवाल उठता है कि उत्तर प्रदेश में वामपंथी दलों के इस अलग मोर्चे का क्या तात्पर्य है ? आज की वहां की जो जमीनी सचाई है उससे सामान्य तौर पर तो यही लगता है कि वहां सपा-कांग्रेस, बसपा और भाजपा के अलावा किसी चौथे मोर्चे की कोई खास स्थिति नहीं है। दूसरी पार्टियों को चालू मुहावरे में वोट-कटुवा पार्टी कहा जाता है, और बाज हलकों से वामपंथी पार्टियों को भी इसी ‘वोट-कटुवा’ श्रेणी में रखा जा रहा है।

आज के भारत की समग्र राजनीतिक स्थिति क्या है ? मोदी के सत्ता में आने के बाद भारतीय राजनीति में एक बड़ा परिवर्तन आया है। इसने आजादी की लड़ाई के मूल्यों के बिल्कुल विपरीत छोर पर खड़े एक राजनीतिक समूह को केंद्र की सत्ता पर ला दिया है। आज भले ही वे परिस्थितिवश धर्म-निरपेक्ष संविधान की सीमा में काम करने के लिये मजबूर हो रहे हैं, लेकिन इनकी राजनीति का स्थायी भाव इस धर्म-निरपेक्ष संविधान के खिलाफ धर्म-आधारित फासीवादी संघवाद का भाव है। खास तौर पर गुजरात के जनसंहार के नायक नरेन्द्र मोदी ने जिस प्रकार पूरी भाजपा को अपने अधीन कर लिया है, उससे और भी जाहिर है कि आज की उनकी सारी राजनीतिक गतिविधियों से भारतीय राजनीति की जो दिशा तैयार हो रही है, वह फासीवादी राजनीति की दिशा है।

इस पूरे प्रसंग को थोड़ा सा रस-निष्पत्ति की अपनी शास्त्रीय चिंतन प्रणाली के निकष पर कसना बहुत दिलचस्प होगा। नाट्यशास्त्र के प्रणेता भरत मुनी ने रंगमंच पर विभाव-अनुभाव और संचारी भाव के परस्पर संयोग से रस की निष्पत्ति की बात कही थी, अर्थात कारण(नाटक), कार्य (अभिनय) और उनके प्रभाव के संयोग से। बाद में आनंदवर्द्धन ने इसमें एक और, स्थायी भाव को जोड़ा जो उनके अनुसार विभाव-अनुभाव-संचारी भाव की प्रक्रिया के विपरीत (बाहर) होने पर भी विभाव-अनुभाव से प्रभाव ग्रहण करने में दर्शकों के चित्त को संस्कारित करने के लिये जरूरी मंथन (चर्वणा) में एक भूमिका अदा करता है। इस स्थायी भाव को आंशिक रूप से काम के औचित्य को तय करने वाला एक भाव कहा जा सकता है।

संघ परिवार का स्थायी भाव धर्म-निरपेक्षता के खिलाफ हिंदुत्व का एकछत्र राज (पादशाही) कायम करना है। इसकी तुलना में कहा जाता है कि वामपंथ का स्थायी भाव पूंजीवाद के विपरीत समाजवाद की स्थापना है। इसी के आधार पर यह राय दे दी जाती है कि दोनों ही संसदीय जनतंत्र के रंगमंच पर अपने-अपने विपरीत स्थायी भाव के साथ उतरे हुए हैं।

लेकिन वामपंथ के इतिहास की गहराई से जांच करें तो पता चलेगा कि भारत में वामपंथियों ने समाजवाद के बजाय जनता के जनवादी राज्य की स्थापना के स्थायी भाव को अपनाया है। समाजवाद उसके आगे की कोई मंजिल हो सकती है, जैसे साम्यवाद को समाजवाद के उत्तरण की मंजिल के तौर पर लिया जाता है। जाहिर है कि जनता के जनवाद की स्थापना का यह स्थायी भाव किसी भी मायने में, भले धर्म-निरपेक्षता का सवाल हो, जनतंत्र का सवाल हो या संपत्ति के अधिकार का भी सवाल हो, भारत के वर्तमान संविधान के विपरीत नहीं है। इसी समझ के तहत अब तक वामपंथ अपना काम करता रहा है, कई राज्यों में उसकी सरकारें भी बनी है और भारतीय जनतंत्र की रक्षा और विस्तार में उसकी एक खास महत्वपूर्ण भूमिका भी रही है।

इसी आधार पर नि:संकोच यह कहा जा सकता है कि धर्म-निरपेक्ष अन्य पूंजीवादी पार्टियों के साथ वामपंथ का एक स्वाभाविक मेल होना चाहिए, क्योंकि गहराई में जाकर देखने पर संघर्ष के मौजूदा चरण में दोनों के स्थायी भाव में कुछ लाक्षणिक भेदों के अलावा कोई बुनियादी फर्क नहीं है। लेकिन ज्योंही, किसी भी कारणवश, वामपंथ जनता के जनवादी राज्य के बजाय समाजवाद को अपने लक्ष्य के तौर पर अपनाता है, उसका स्थायी भाव पूंजीवादी धर्म-निरपेक्ष जनतांत्रिक पार्टियों के विपरीत हो जाता है।

हमारे अनुसार पिछले दिनों भारतीय वामपंथ के पतन के अघटन के तथ्य में इस सचाई की एक बड़ी भूमिका रही है कि अनजाने में ही भारतीय वामपंथ के नये जोशीले नेतृत्व ने जनता के जनवादी राज्य के रणनीतिक लक्ष्य और जन-क्रांतिकारी पार्टी के सांगठनिक सिद्धांत के बजाय क्रमश: समाजवाद और क्रांतिकारी पार्टी के लक्ष्य को अपना लिया और अपने को एक ऐसी संकीर्णतावादी राजनीति के जाल में फंसा लिया, जिसकी कीमत अभी की व्यवहारिक राजनीति के क्षेत्र में उसे हर रोज चुकानी पड़ रही है।

इसी संदर्भ में, उत्तर प्रदेश में, जहां आज वास्तव में भारत में भावी राजनीति की दिशा को तय करने वाली एक महत्वपूर्ण लड़ाई लड़ी जा रही है, वामपंथियों का यह अलग-थलगपन निश्चित तौर पर गहरी चिंता का विषय है। सारी दुनिया इस सच को जानती है वामपंथी इस देश में मोदी पार्टी को सबसे बड़ा खतरा मानते हैं। फिर भी, वामदलों में उहाँ-पोह की स्थिति हैं ! उनके आचरण से किसी को भी लगेगा कि वे धर्म-निरपेक्षता को किसी भी प्रकार की विभाजक रेखा के रूप में देखने में असमर्थ हैं। इसकी तुलना में, वे नव-उदारवाद से लड़ाई की बात कहते हैं जो, जहां तक सीपीआई(एम) का संबंध है, हम कह सकते हैं, उसके घोषित कार्यक्रम के विपरीत पूंजीवाद के खिलाफ सीधे समाजवाद की स्थापना की लड़ाई के मानिंद है। कहना न होगा, यह पूंजीवाद और समाजवाद, दोनों के बारे में ही एक भ्रामक समझ का उदाहरण है।

इसीलिये वामपंथी क्रमश: अपने दायरे में सिकुड़ रहे हैं। वाम एकता पर अतिरिक्त बल भी इसीलिये दिया जा रहा है। वामपंथियों का यह अपना दायरा उनकी अपनी सांगठनिक गतिविधियों का दायरा भर है। ऐसे में, जिन तमाम क्षेत्रों में उनका सांगठनिक विस्तार नहीं है, उन सभी जगहों पर उनकी कोई भूमिका भी नहीं है। जिस चुनाव को भारत के आम लोग एक असीम महत्व का चुनाव मानते हैं, वही वामपंथियों के लिये महत्वहीन सा जान पड़ता है। वामपंथियों का अलग मोर्चा की बहादुरी समग्र रूप में वामपंथ की विश्वसनीयता को नुकसान पहुंचा रही है।

वामपंथ का वर्तमान नेतृत्व नहीं चाहता कि उसे व्यवस्था की पार्टी के रूप में समझा जाए! लेकिन वह यह नहीं समझ पा रहा है कि ज्योंही आप एक संसदीय व्यवस्था में सत्ता की प्रतिद्वंद्विता में उतरते हैं, उसी समय आप अपने को प्रकारांतर से व्यवस्था की ही एक पार्टी मान लेते हैं। इसके बारे में कोई भ्रम नहीं होना चाहिए। इस प्रकार के भ्रमवश आप एक जगह पर होते हुए भी नहीं होते हैं और अपने से अपेक्षित भूमिका से भिन्न कुछ और ही करते हुए दिखाई देने लगते हैं।

सोच के परिप्रेक्ष्य को बदल देने से यथार्थबोध किस प्रकार विरूपित हो जाता है, यह उसी का एक उदाहरण है।


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