मंगलवार, 6 नवंबर 2018

क्रांति, राजसत्ता और जनगण

(नवंबर क्रांति की शताब्दी के अवसर पर )
—अरुण माहेश्वरी

दो साल पहले जब हमारी पुस्तकें 'समाजवाद की समस्याएं' और 'धर्म, संस्कृति और राजनीति' प्रकाशित हुई थीं, हम दिल्ली में नामवर सिंह जी के घर पर उनसे मिलने गये थे और उसी समय उन्हें दोनों किताबें भेंट की । किताबों को पाकर नामवर जी उन्हें उलटने-पुलटने लगे, और 'समाजवाद की समस्याएँ' को देख कर मुस्कुराते हुए कहा —

'रकीबों ने रपट लिखवाई है जा जा के थाने में
कि अकबर नाम लेता है खुदा का इस जमाने में'

और इसके साथ ही हम तीनों एक बार ठहाका मार कर हंस दिये थे । बाद में काफी देर तक यही सोचते रह गये कि यह कैसा समय चल रहा है जब जिसे सब समाजवाद समझते-कहते रहे हैं, मनुष्यता का भविष्य, आज कुछ भी उसके पक्ष में जाता दिखाई नहीं देता है । एक अजीब सी ऑरवेलियन परिस्थिति है जिसमें ऑरवेल के शब्दों में हम सभी समाज में वर्ग-विभाजन के खिलाफ तो हैं लेकिन बहुत कम लोग ही इसे खत्म करने के बारे में गंभीर हैं । ऐसा लगता है मानो हर क्रांतिकारी मत अंदर ही अंदर कुछ इस प्रकार के निराशावाद पर विश्वास से ही अपनी ताकत ग्रहण कर रहा है कि कहीं कुछ बदलने वाला नहीं है । क्रांतिकारी परिवर्तन की बातें उनके लिये महज एक रूढ़ि की तरह है, कोरा मंत्र-जाप । इस हद तक जाप कि मंत्र के फलीभूत हो जाने पर इस बात का डर लगने लगे कि तब आगे करने को क्या रह जायेगा, क्योंकि दिमाग ने आगे का कोई नक्शा बनाने की शक्ति को ही खो दिया है । सिर्फ राम-राम करते रहे या हनुमान चालिसा का पाठ करते रहे कि सर पर जो बला आ गई है वह किसी प्रकार टल जाए ; उधर जन-असंतोष सड़कों पर भी दिखाई देने लगे लेकिन समाजवाद के पराभव के बाद की कोई नई समाजवादी परिकल्पना और उसकी रणनीति के अभाव के चलते उसमें प्रवेश करके दिशान्वित करने की कोई सकारात्मक सोच की प्रेरणा न मिल पाए ।

यह एक चरम नाउम्मीदी का फल नहीं तो क्या है कि नामवर सिंह की तरह के हिंदी के शिक्षाजगत की एक घोषित वामपंथी हस्ती और एक श्रेष्ठतम माने गये मार्क्सवादी बुद्धिजीवी को अपने जन्मदिन के अवसर पर ऐन उसी वक्त मोदी सरकार के मंत्री से अभिनंदित होने में जरा भी शर्म नहीं महसूस हुई जब भारी संख्या में लेखकों के द्वारा पुरस्कार वापसी के आंदोलन की आग ठंडी भी नहीं हुई थी । जैसे हाइडेगर को नाजी सत्ता से अपना मेल बैठाने में कोई कठिनाई नहीं महसूस हुई थी क्योंकि अगर पूंजीवादी क्षितिज के बाहर कुछ है ही नहीं तो फिर उसका उदार चेहरा हो या कोई विकट राक्षसी चेहरा, क्या फर्क पड़ता है ! नामवर सिंह ने भी सोच लिया कि भोंकने वाले यूं ही भोंकते रहेंगे ! सरकार से प्रस्ताव आया है, उसे ठुकरा कर क्या हासिल हो जायेगा ! परिवर्तन की बातें खुद में भी एक रूढ़ि भर है !


जीवन में निराशा की सचाई से कोई इंकार नहीं कर सकता । भविष्य को लेकर दुश्चिंताएं भी बनी रहती है । नवंबर क्रांति के पहले जब लेनिन के सामने यह साफ हो गया था कि यह एक कोई वैश्विक क्रांति नहीं होगी, न ही यूरोपीय क्रांति, 'एक देश में समाजवाद' का विचार उन्हें चिंताग्रस्त किये हुए था, तभी उन्होंने ट्राटस्की से एक बार पूछा था कि अगर हमारी क्रांति विफल होती है तो क्या होगा, तो ट्राटस्की ने उनके सामने प्रति-प्रश्न रखा कि अगर वह सफल ही होती है तो क्या हो जायेगा ? यह पूरा विमर्श वही है कि क्रांति तो हो गई, लेकिन आगे क्या ? जन-असंतोष पैदा हुआ, उसे एक संगठित दिशा में मोड़ा गया और फिर एक नये राज्य के निर्माण में लग गये, तो फिर राज्यविहीन समाज के निर्माण के लक्ष्य का क्या हुआ ? मूल और अंतिम लक्ष्य एक अपेक्षाकृत कल्याणकारी राज्य की स्थापना ही तो नहीं था, राज्य-विहीन समाज का था । नवंबर क्रांति के ठीक पहले अगस्त 1917 में लेनिन ने अपनी प्रसिद्ध कृति 'राज्य और क्रांति' की भूमिका में लिखा था कि “अन्तरराष्ट्रीय सर्वहारा क्रांति साफ तौर पर परिपक्व हो रही है । राज्य के प्रति उसके रुख का प्रश्न अमली महत्व का प्रश्न है ।”(व्ला. इ. लेनिन ; संकलित रचनाएं, दस खंडों में, खंड – 7, प्रगति प्रकाशन, मास्को, पृष्ठ – 19)

इस पुस्तक के शुरू में ही वे राज्य के बारे में मार्क्स–एंगेल्स के विचारों को रखते हुए इस विषय को विचार का विषय बनाते हैं कि “राज्य वर्ग विरोधों की असाध्यता की उपज और अभिव्यक्ति है ।” कहा जा सकता है सभ्यता के विकास की एक जरूरत । उनके शब्दों में, “ राज्य उस समय, उस जगह और उस हद तक पैदा होता है, जब, जहां और जिस हद तक वर्ग विरोधों का वस्तुपरक ढंग से समाधान नहीं हो सकता है । और उलट कर कहें, तो राज्य की मौजूदगी यह साबित करती है कि वर्ग विरोधों का समाधान असंभव है ।”

इसी बिन्दु पर वे राज्य को वर्गों के समन्वय का निकाय मानने वालों की काट करते हुए मार्क्स को लाते हैं कि “अगर वर्गों का समन्वय संभव होता, तो राज्य पैदा नहीं हो सकता था, कायम नहीं रह सकता था ।” आगे लेनिन राज्य को अनिवार्य तौर पर एक निश्चित वर्ग के शासन का निकाय मानते हुए इस नतीजे पर पहुंचते है कि उत्पीड़ित वर्ग की आजादी “राज्य सत्ता की इस मशीनरी के उन्मूलन के बिना संभव नहीं है ।” (वही, पृष्ठ – 23-24)



अभिनवगुप्त के प्रत्यभिज्ञादर्शन में भेद-भेदाभेद-अभेद की जो मानव स्वातंत्र्य की ओर यात्रा का जिक्र आता है उसमें विकल्पों से भरे जीवन में अर्थात भेदों में क्रांति के जरिये निर्विकल्प दिशा, अभेद का प्रवेश होता है लेकिन आगे की दिशा अभेद में अर्थात परम स्वातंत्रय में लयीभूत होने की है । समाजवाद को भेदाभेद की एक सर्वहारा की तानाशाही के राज्य की स्थिति मान लिया जाए तो साम्यवाद जो उसका निर्विकल्प अभेद है और जो राज्य-विहीन होगा, लेनिन-ट्राटस्की के जेहन में यही चिंता बनी हुई थी कि जब तक क्रांति का स्वरूप वैश्विक नहीं होगा, क्या उस राज्य-विहीन राजनीति की दिशा में बढ़ना मुमकिन हो पायेगा ! स्टालिन परवर्ती समय में 'एक देश में समाजवाद' को ही मनुष्य की यात्रा का अभेद क्षितिज मान कर पूरी ताकत से उसे ही साकार करने में लग गये । और, हमने देखा कि द्वितीय विश्वयुद्ध ने कैसे पूरी सोवियत व्यवस्था को एक कठोर नौकरशाही की व्यवस्था के रूप में विकृत कर दिया । राज्य-विहीनता का लक्ष्य और भी दमनकारी राज्य में पर्यवसित हुआ । आज भी जारी इन्हीं विश्व परिस्थितियों में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी और भी ज्यादा चुस्त और दमनकारी राज्य के अस्तित्व को समाजवाद के बने रहने की शर्त मानती है ।

प्रसिद्ध मार्क्सवादी फ्रांसीसी दार्शनिक ऐलेन बाद्यू का एक नाटक है — L’Incident d’Antioche (एंटियोक की घटना) । इसकी पृष्ठभूमि में कहीं न कहीं ईसाई मिशन में लगे सेंट पॉल्स और पीटर के बीच एंटियोक में बाइबल की सार्वलौकिकता को लेकर हुआ शास्त्रार्थ भी है । नाटक का विषय यह है कि क्या किसी भी क्रांतिकारी को परंपरागत रूढ़ियों का पालन करते रहना चाहिए ? मसलन्, देवदूत पीटर को क्या पुराने यहूदी रीति-रिवाजों का पालन जारी रखना चाहिए ; मसलन्, आज क्रांति-विमुख लोगों को बाजार अर्थ-व्यवस्था और संसदीय जनतंत्र की निर्विकल्पता से ही चिपके रहना चाहिए ? अथवा ईसाइयों ने यहूदी-विद्वेष का जो रास्ता अपनाया, या पौल पौट के खमेर रूज ने पुराने काल के समर्थकों के सफाये की जो नीति अपनाई, उस लाइन को अपनाया जाना चाहिए ? इस नाटक के एक अंश में क्रांति का नेता काम्यू क्रांति हो जाने के बाद कहता है — मेरा काम पूरा हो गया, अब चलता हूं ।

उसका साथी डेविड कहता है कि आज जब काम करने का समय आया है, तभी तुम मूंह फेर रहे हो । तो काम्यू कहता है — “विजय के बाद जो बचता है वह है पराजय ।... फौरन पराजय नहीं, जो भी वर्तमान के साथ निबाह करके चलेगा उसकी धीरे-धीरे निश्चित पराजय ।...उस प्रकार की पराजय की शान को मैं तुम्हारे लिये छोड़ता हूं, किसी अहंकारवश या धीरज की कमी की वजह से नहीं, बल्कि इसलिये क्योंकि मैं उसके लिये उपयुक्त नहीं हूं ।“

बाद्यू इसकी व्याख्या करते हुए एक जगह लिखते हैं कि उसने इसलिये नई सत्ता का त्याग किया क्योंकि कुछ लोग सिर्फ विध्वंस से प्यार करते हैं और चूंकि वह देख रहा है कि अब एक नये राज्य के पुनर्निर्माण का काम होगा, उस पुनर्निर्माण में उसे एक प्रकार के दोहराव की ऊब दिखाई देने लगती है, इसीलिये उसकी उसमें कोई दिलचस्पी नहीं रहती है । (Alain Badiou, The Communist Hypothesis, Verso, 2015, page – 15-17)

यह कुछ वैसा ही है जैसे महाभारत के महा-विध्वंस के अंत में महर्षि व्यास पांडवों को हिमालय की ओर रवाना कर देते हैं । पांडु जो गुरुओं के लिये हिंसक पशुओं का वध करने ऋषि-मुनियों के साथ वन में ही रह गये थे, उनके वंशधर पांचों पांडवों की अस्मिता भी युद्ध और विध्वंस से ही जुड़ी हुई थी, वे राजर्षि योग के लिये अनुपयुक्त थे । इसीलिये जब युद्ध के अंत में राजगद्दी पर बैठ कर एक नये राज्य के निर्माण का समय आता है, भूत, वर्तमान और भविष्य तक की चतुर्वणीय समाज-व्यवस्था की कथा कहने वाले व्यास ने नहीं चाहा कि अपने इन नायकों को  फिर से उसी हमेशा के ध्वंस-निर्माण-ध्वंस के वृत्त में शामिल कर दिया जाए ! पांडवों के इस संन्यास के जरिये व्यास कौरवों के राज्य के संहारकर्ताओं को किसी नये दमनकारी राज्य के निर्माण के लिये या तो उपयुक्त नहीं पाते जैसे ऊपर बाद्यू के चरित्र काम्यू ने अपने को नहीं पाया था, या वे पांडवों के इस वैराग्य के जरिये किसी ऐसी सामाजिक व्यवस्था की ओर बढ़ने का संदेश देना चाहते हैं जो राज्य-विहीन मानव की स्वातंत्र्य सत्ता पर टिकी समाज-व्यवस्था हो । व्यास ने महाभारत के आदि पर्व में ही एक जगह शैवमत के भैरव-भाव के प्रतीक, पाशुपत की चर्चा की है, लेकिन उसके साथ वे उसे राजसत्ता के किसी भी रूप को जोड़ने  के बजाय न्याय, शिक्षा और स्वास्थ्य की तरह के आत्म-सत्ता के पक्षों से जोड़ कर पेश करते हैं ।

“न्यायशिक्षाचिकित्सा च दानं पाशुपतं“ । इसे मनुष्य के किसी भी राजसत्ता से, हर बंधन से मुक्ति के भाव को राजनीति के धरातल पर राज्य-विहीन साम्यवादी समाज की परिकल्पना का संकेत भी कहा जा सकता है ।
बाद्यू के उपरोक्त नाटक में क्रांति के बाद की आगे की कहानी भी है । क्रांति का नेता काम्यू तैयार नहीं था पुनर्निर्माण की एक धीमी और निरंतर जारी उबाऊ प्रक्रिया के बीच से आने वाली अनिवार्य विफलता को अपनाने के लिये । लेकिन क्रांति की इस आंतरिक कमजोरी के साथ ही, इस नाटक में उसकी विफलता का आगे एक और, दूसरा आख्यान  भी आता है, जब क्रांति के बाद के नये शासक डेविड की मां पौला उससे कहती है — 'तुम सत्ता छोड़ दो ।'

डेविड मां से कहता है कि 'तुम मेरी मां होकर प्रति-क्रांतिकारी काम क्यों कर रही हो',
तो पौला उसे कहती है — “प्रति-क्रांति तुम हो । तुमने न्याय के सारे बोध को गंवा दिया है । तुम्हारी राजनीति कुत्सित है ।...सुनो । ...हमारी परिकल्पना, सिद्धांततः, यह नहीं थी कि हम एक अच्छी सरकार की समस्याओँ का समाधान करेंगे ।...हमने कहा था कि दुनिया एक ऐसी नीति के रास्ते पर चल सकती है जिसे बदला जा सकता है, राजनीति को ही खत्म कर देने वाली नीति । ...उस परिकल्पना के ऐतिहासिक स्वरूप को राजसत्ता ने निगल लिया है । एक मुक्तिदायी संगठन का राजसत्ता में विलय हो गया है । ...कोई भी सही नीति यह दावा नहीं कर सकती है कि वह अब तक किये जा चुके कामों की ही निरंतरता है । हमारा उद्देश्य एक बार और हमेशा के लिये उस चेतना को मुक्त कर देने का है जो न्याय, समानता को कायम करती है और राजसत्ता और दरबारों की साजिशों का हमेशा के लिये अंत करती है, और उस बची हुई जमीन का भी सफाया करती है जिससे पैदा होने वाली सत्ता की लिप्सा आदमी की ऊर्जा के प्रत्येक रूप को लील लेती है ।”

...डेविड मां से कहता है — “दुनिया हमेशा के लिये बदल गई है । विश्वास करो । मेरी प्यारी मां तुम चीजों को नीचे से देख रही हो । तुम निर्णय लेने वालों में नहीं हो ।”

“पौला — यही पुरानी आजमाई हुई चाल है ।... जरूर तुम कुछ नया करोगे । तुम सूरज को भूरे रंग से रंग दोगे ।“

इसी सिलसिले में बौखला कर डेविड मां से पूछता है — “कहो तो ! तुम कौन हो ? ...तुम निश्चय ही हमें और शक्तिशाली बनने के लिये नहीं कह रही हो । बल्कि हमें सत्ता को त्याग देने, आने वाले लंबे काल के लिये उसे छोड़ देने के लिये कह रही हो।”

तो पौला कहती है, “मानव जाति की महानता सत्ता में नहीं है । बिना परों वाले दोपाये का खुद पर नियंत्रण हो, और वह, जो उतना संभव भी नहीं लगता,   प्रकृति के सभी नियमों, इतिहास के सभी नियमों के खिलाफ जाए और उस राह पर चले जिसमें हर व्यक्ति प्रत्येक के प्रति समान होगा । सिर्फ कानून में नहीं, भौतिक यथार्थ में भी।” (जोर हमारा)

इसपर डेविड कहता है, “ तुम इतनी पागल हो !”
पौला कहती है — “नहीं, मैं नहीं । मैं तुमसे कहूंगी सारे उन्माद को छोड़ो । तुम्हें बहुत धीर-स्थिर हो कर निर्णय करना है । जो भी व्यक्ति मरीचिका के पीछे भागता है, वह यह नहीं समझ सकता है । विजय और समग्रता के प्रति अपने आग्रह को भूल जाओ । वैविध्य के सूत्र को पकड़ कर चलो ।“

...“राजनीति का अर्थ एक राजनीतिक भविष्य दृष्टि के आधार पर इकट्ठा होना है ताकि आदमी राजसत्ता की मानसिक जकड़बंदी से मुक्त रह सके ।“ (वही, पृष्ठ – 15-22) (जोर हमारा)
(Our hypothesis was not, in theory, that we were going to resolve the problem of good government…We said that the world could stand the trajectory of a policy that could be reversed…Historical realization of that hypothesis was swallowed up by the state. A liberating organisation merged completely into the state…No correct policy can now argue that it is a continuation of the work that has already been done. Our mission is to unseal, once and for all, the consciousness that organises justice, equality, the end of states and imperial rackets, and the residual platform where the concern for power sucks in every form of energy…Ofcourse you’ii do something new. You’ii paint the surface of the sun grey…Power is not the mark of the human race’s greatness. The featherless biped must get a grip on himself and, unlikely as it seems, go against all the laws of nature and all the laws of history, and follow the path that means that anyone will be equal of everyone…For anyone who gives in to the passion for images, it is incomprehensible. Forget about the obsession with conquest and totality. Follow the thread of multiplicity…Politics means uniting around a political vision that escapes the mental hold of the state.)

अभिनवगुप्त का भैरव भाव क्या है ? अंतहीन लालसाओं से भरे स्वातंत्र्य का वह भाव जो किसी से कोई अपेक्षा नहीं रखता है । यह नाउम्मीदी का साहस है । सुविधा के लिये इसे एक सच्ची सर्वहारा चेतना भी कह सकते हैं । हम 'सुविधा के लिये' पद का इसलिये प्रयोग कर रहे हैं कि सर्वहारा की कथित क्लासिक व्याख्या में वह पूंजीवादी समाज की कोख से उत्पन्न एक ठोस रूप से निश्चित वर्ग माना जात है । यद्यपि सर्वहारा की यह परिभाषा भी एक प्रकार की 'सुविधा के लिये' अपनाई गई परिभाषा ही है, जो वास्तव जीवन में मजदूर वर्ग से भिन्न नहीं माना जाता है । लेकिन सर्वहारा से तात्पर्य सिर्फ मजदूर वर्ग नहीं है और मजदूर वर्ग की राजनीति सर्वहारा राजनीति का पर्याय नहीं है, इस पर दुनिया में काफी विमर्श हो चुका है । (देखें, अरुण माहेश्वरी, 'हम भी इक अपनी हवा बांधते हैं : प्रसंग 'वर्गीय राजनीति', समाजवाद की समस्याएं, अनामिका प्रकाशन, पृष्ठ 127)

अभिनव अपने तंत्रालोक को परम भोग और परम त्याग का दर्शन कहते हैं । बाद्यू की कम्युनिस्ट परियोजना में प्रत्येक निर्लोभी और स्वतंत्र मनुष्य की समानता की कामना और विजय और समग्रता के आग्रह को छोड़ कर वैविध्य के सूत्र को पकड़ने का जो मंत्र दिया गया है, उसी 'विभिन्नस्य भावौघस्यापि सङ्गति:', वैविध्य के भाव से संगति की बात अभिनव कहते हैं । तंत्रालोक इसी वैविध्य को अपनी चेतना शक्ति में समाहित करने की प्रक्रिया का, तर्क की एक विधि से विकल्पों के संस्कार अर्थात द्वंद्वों का निवारण करते हुए ज्ञान के सोपानों पर चढ़ने और फिर चेतना-शक्ति के स्फुरण की, कहा जा सकता है मनुष्य की रचना-प्रक्रिया पर समग्र विमर्श की एक महान कृति है । संस्कार की इस प्रक्रिया में द्वंद्व द्वंद्व नहीं रहते, विमर्श बन जाते हैं । यह अपने आप से एक प्रकार का प्रत्यवमर्श भी होता है । दुविधा एक बंधन, बद्धता है । द्वंद्वों, दुविधाओं से सत्तर्क मुक्त अभेद चेतना शक्ति के प्रहार से भेद की जमीन तोड़ कर ही स्फुटता, रचनात्मकता का उदय होता है । जड़ता टूटती है और रचनात्मकता का विस्फोट होता है ।

बाद्यू के नाटक के उपरोक्त पूरे प्रसंग को हम अपने यहां आजादी की लड़ाई के महानायक गांधी पर पूरी तरह से घटित होते देख सकते हैं । लड़ाई के दौर में हमेशा नेतृत्व की कमान थामे रहने वाला, खुद को डिक्टेटर तक कहने वाला वह नायक आजादी के ठीक बाद अपने को नई राजसत्ता के खेल में पूरी तरह से अनुपयुक्त पाता है और उससे विरत हो जाता है। वह गुलामी की जंजीर को तोड़ने आया था, उसे तोड़ दिया । अब आजाद भारत का नया राज्य बनेगा, नई जंजीरें तैयार होगी, बापू उसमें क्यों शामिल होंगे ! वे देख रहे थे जीत के बाद आगे सिर्फ हार खड़ी प्रतीक्षा कर रही है — फौरन नहीं, धीरे-धीरे । इस पराजय को सबको मानना होगा क्योंकि यह निर्रथक पराजय नहीं होगी, एक प्रकार के स्वातंत्र्य से स्फूरित पराजय, जीवन में किंचित शांति लाने और राज्य को मजबूत करने वाली पराजय । गांधी इस पराजय के गौरव को दूसरों के लिये छोड़ने को तैयार थे क्योंकि नाफरमानी के उनके विचार क्यों किसी के भी फरमान को मानने के लिये मजबूर हो ! वे आजादी की लड़ाई के उत्साह की समाप्ति के बाद राजसत्ता पर बैठे लोगों के प्रति आम लोगों की तिरछी नजरों की कल्पना कर पा रहे थे और अपने को उन बुरी नजरों के वृत्त के बाहर रखना ही श्रेयस्कर समझते थे । उन्होंने अपने जीवन को ही अपना संदेश कह कर राजनीति मात्र को उस भविष्य दृष्टि का रूप देने की बात कही, जो नैतिक स्वातंत्र्य के बल पर आदमी को राजसत्ता के मानसिक दबावों से मुक्त रहने की ताकत देती है, नाफरमानी की ताकत देती है, जैसा कि बाद्यू के नाटक में डेविड की मां पौला उससे कहती है ।


इस विषय को और भी गहराई से समझने के लिये हम स्टालिन की प्रसिद्ध पुस्तक 'सोवियत संघ में समाजवाद की आर्थिक समस्याओं' (Economic problems of Socialism in the USSR) की माओ त्से तुंग की आलोचना को देख सकते हैं । माओ ने 1958 के नवंबर महीने में चेंगचोंग सम्मेलन (Chenchong Conference) में सबसे पहले इस विषय पर अपने विचारों को रखा था । इसके बाद 1967 में चीन से प्रकाशित पुस्तिका ‘Long live thought of Mao Tse Tung’ और 1969 में प्रकाशित इसके वृहद संकलन में इसे शामिल किया गया था । 1972 में 'मंथली रिव्यू' ने इस पूरी सामग्री को माओ त्से तुंग की एक किताब का रूप दे दिया — ‘A critique of Soviet Economics’। इसमें 1958-59 की  स्टालिन की किताब के अलावा सोवियत संघ की पाठ्य पुस्तक 'Political Economy' के दृष्टिकोण की समीक्षा भी की गई है ।

माओ उस समय सोवियत संघ के ग्रामीण क्षेत्र में सामुदायिक विकास के अनुभवों की समीक्षा के आधार पर अपने देश में समाजवाद के विकास से साम्यवाद की ओर बढ़ने के रास्ते की समस्याओं पर विचार कर रहे थे । माओ के पास अपने 'लंबी छलांग' के भी अनुभव थे । माओ प्रशासन को राजनीति से अलग करके नहीं देखते थे । राज्य उनके अनुसार आम जन की आकांक्षाओं, उनके विश्वास, सबकी समानता और जनता के डर से निर्मित एक प्रकार से जनता के स्वयं-प्रणोदित प्रतिनिधित्व का प्रतीक होना चाहिए । इसीलिये आर्थिक नियमों की अपनी कोई स्वाधीन सत्ता के बजाय उन्हें भी राज्य के इस स्वयं-प्रणोदित प्रतिनिधित्व के अधीन मानते थे । स्टालिन के प्रशासनिक सोच को माओ इसके विपरीत पाते हैं । माओ राज्य की प्रकृतिवादी, निष्क्रिय और संरक्षणवादी दृष्टि के खिलाफ थे । माओ ने किसी लक्ष्य को साधने के लिये राज्य की भूमिका के बारे में स्टालिन के दृष्टिकोण का विरोध करते हुए कहा था कि यह रवैया जनता की आकांक्षा के अराजनीतिकरण का रवैया है । माओ लिखते हैं —

“ स्टालिन की किताब शुरू से लेकर अंत तक कहीं भी ऊपरी ढांचे (super-structure) की बात नहीं करती है । उसका जनता से कोई सरोकार नहीं है ; वह चीजों पर विचार करती है, लोगों पर नहीं । उपभोक्ता सामग्रियों की आपूर्ति की खास व्यवस्था आर्थिक विकास को बढ़ाती है या नहीं ? उन्हें इस पर कम से कम चर्चा करनी चाहिए थी । एक माल का उत्पादन करना अच्छा है या नहीं ? इस पर सब ध्यान देते हैं । अपने अंतिम पत्र में ( 'कामरेड ए.वी.सैनिना और वी.जी.वैंजर को उत्तर' —अ.मा.) स्टालिन का दृष्टिकोण पूरी तरह से गलत था । इसकी बुनियादी भूल है, किसानों पर अविश्वास ।”

“...वे एक पैर पर चलते हैं, हम दो पैर पर । वे यह मानते हैं कि तकनीक हर चीज को तय करती है, कि कॉडर हर चीज तय करता है, सिर्फ विशेषज्ञ की बात करते हैं, “लाल” की नहीं, फकत कॉडर की, जनता की कभी नहीं । यह एक पैर पर चलना है । (उपरोक्त, पेज -136)

“... किसानो पर अविश्वास तीसरे पत्र का मूलभूत दृष्टिकोण है । सारतः स्टालिन  ने सामुदायिक से सार्वजनिक मिल्कियत में संक्रमण के किसी रास्ते को नहीं खोजा । पण्य उत्पादन और विनिमय वे रूप है जिन्हें हम जारी रखे हुए हैं, जबकि मूल्य के नियम के संबंध में हमें योजना की बात करनी होगी और इसके साथ ही राजनीतिक-निदेशन की । वे सिर्फ उत्पादन-संबंधों की बात करते हैं, न ऊपरी ढांचे की, न राजनीति की, न जनता की भूमिका की । बिना एक कम्युनिस्ट आंदोलन के कम्युनिज्म तक नहीं पहुंचा जा सकता है ।”(उपरोक्त, पेज -137)
 (Stalin’s book from first to last page says nothing about super-structure. It is not concerned with people ; it considers things, not people. Does the kind of supply system for consumer goods help spur economic development or not ? He should have touched on this at the least. Is it better to have commodity prodution or is it better not to ? Everyone has to study this. Stalin’s point of view in his last letter is almost altogether wrong. The basic error is mistrust of the peasants.
…They walk on one leg, we walk on two. They believe that technology decides every thing, the cadres decide every thing, speaking only of “experts” never of “Red”, only cadres, never of masses. This is walking on one leg.
...Mistrust of peasants is the basic viewpoint of the third letter. Essentially Stalin did not discovera way to make the transition from collective to public ownership. Commodity production and exchange are forms we have kept, while in connection with the law of value we must speak of planning and at the same time politics-in-command. They speak only of production relations, not of the super-structure and politics, nor the role of the people. Communism can not be reached unless there is Communist movement.”)

स्टालिन सिर्फ अर्थनीति की बात करते हैं ; वे राजनीति की कोई चर्चा नहीं करते । एक समाजवादी राज्य से साम्यवाद में संक्रमण का एक मात्र स्रोत तो यह राजनीतिक विच्छेदन ही है अन्यथा “पुराने नियमों और पुरानी व्यवस्थाओं को खत्म करने की इच्छाशक्ति के बिना साम्यवाद में संक्रमण महज एक भ्रम होगा । माओ का स्टालिन पर आरोप है कि वे “सामुदायिक मिल्कियत को सार्वजनिक मिल्कियत में रूपांतरण की समस्या से नजर चुराते हैं ।” ( Stalin is avoiding the issue, having failed to find a method or suitable formulation on the transition from collective to public ownership.) (उपरोक्त, पृष्ठ-145)

वे बार-बार कहते हैं कि “ बिना एक कम्युनिस्ट आंदोलन के साम्यवाद की ओर बढ़ना असंभव है”, तो इसका अर्थ भी यही है । इसीलिये माओ ने स्टालिन पर यह आरोप लगाया था कि उनमें जनता की अपनी सक्रियता अथवा कम्युनिस्ट आंदोलन की कोई लालसा नहीं है, और इसके मूल में किसान जनता पर उनका अविश्वास है । माओ की साफ राय थी कि किसान जनता पर भरोसे के बिना समाजवादी आंदोलन अव्यवहारिक है; तब हर चीज पर बेड़ियां होगी, हर चीज मृत होगी । अभिनवगुप्त के दर्शन में भी मुक्ति की हर क्रिया को एक प्रकार की विच्छेदक प्रक्रिया के रूप में देखा गया है । समाजवादी राज्य का अभेद तत्व है — जनाकांक्षा, समानता, जन-विश्वास और जनता का डर । इसी से प्रेरित 'स्फोट' से समाजवादी राजसत्ता का एक राज्य-विहीन साम्यवाद में रूपांतरण संभव है ।

स्टालिन की पुस्तक में एंगेल्स की 'ड्युहरिंग मतखंडन का उद्धरण आता है “ अपनी खुद की सामाजिक कार्रवाइयों के कानून अब जब मनुष्य के सम्मुख प्रकृति के नियम के रूप में, उनसे अलग, और प्रभुत्वकारी रूप में खड़े होते हैं, तब उनका इस्तेमाल पूरी समझ के साथ और इस प्रकार उनपर अधिकार कायम करके किया जाता है ।” इस पर माओ यह टिप्पणी करते हैं कि “स्वतंत्रता जनता के द्वारा समझ लिया गया एक जरूरी वस्तुनिष्ठ नियम है । यह नियम जनता के सामने, उससे स्वतंत्र रूप में आता है । लेकिन जब एक बार जनता इसे समझ लेती है, वह उसपर अपना अधिकार कायम कर लेती है ।”
( That is why Engels says in the same book : “The laws of his own social action, hitherto standing face to face with man as laws of nature foreign to, and dominating, him, will then be used with full understanding, and so mastered by him.” (Anti-Duhring)
माओ लिखते हैं : “Freedom is necessary objective law understood by people. Such law confronts people, is independent of them. But once, people understand it, they can control it.”)

क्रांति और उसके बाद फिर एक नये राज्य के निर्माण के दोहराव की ऐसी तमाम त्रासदियों, जिनकी ऊपर विभिन्न रूपों में चर्चा हुई है, के अतिरिक्त एक तीसरा पहलू यह भी हो सकता है, जिससे इस पूरे विमर्श का एक और त्रिक बनता है, वह यह कि शुरू में ही जनरोष किसी संगठित शक्ति के अभाव में बदलाव की कोई शक्ल न ले और सिर्फ अराजकता पैदा करके बिखर जाए, जैसा हमने खास तौर पर अफ्रीका और मध्य एशिया के अरब वसंत (2010-2014) के तूफानी घटना क्रम में देखा । यह राजसत्ता-केंद्रित परिवर्तन की पूरी त्रासदी का वह पहलू है जो आदमी के सामयिक क्रोध की तरह भड़कता है लेकिन कोई विवेकपूर्ण परिणति तक नहीं पहुंच पाता है,  बल्कि और भी पतन की दिशा में बढ़ जाता है — कांग्रेस के भ्रष्टाचार के खिलाफ रोष से मोदी की तरह के सांप्रदायिक फासीवादी तुगलक के शासन का उदय भी एक ऐसा ही उदाहरण है । यह उस ठोस सामाजिक परिस्थिति का पहलू है जिसमें राजनीति को अपने को हर रोज साबित करना पड़ता है ।


इस पूरे संदर्भ में हमें अपने देश के अभी के राजनीतिक संदर्भों को और भी गहराई से समझते हुए, ऊपर जिस भेदाभेद की चर्चा है, विकल्पों के साथ ही निर्विकल्प दिशा को समझने की, उसे बहुत ठोस रूप में अपने विवेचन का विषय बनाने की जरूरत है । रूस अथवा चीन, कहीं भी समाजवादी क्रांति के समय वे परिस्थितियां नहीं रही है जो आज के भारत की है । इस यथार्थवादी अवबोध के साथ की जाने वाली चर्चा ही हमारे लिये अभी के संदर्भों में नवंबर क्रांति से जुड़े किसी भी विमर्श को सार्थक बना सकती है । इस पर हमने काफी विस्तार से अन्य लेखों में एक ही आधुनिक जीवन के क्षितिज में पूंजीवादी जनतंत्र, फासीवाद और समाजवाद से जुड़ी समाज-व्यवस्थाओं पर चर्चा की है । कोई भी क्रांतिकारी कार्रवाई ठोस परिस्थितियों की यथार्थ समझ के बिना असंभव है ।   

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