-अरुण माहेश्वरी
नरेन्द्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री है । यह उनके निजी कर्त्तृत्व का एक बहुत बड़ा मुकाम है ।
मनोविश्लेषण के सिद्धांतों में कहते हैं कि कर्त्तृत्व के किसी भी मुकाम पर आदमी का कुल-शील, उसके चित्त की पैतृकता का अवबोध ही उसे संतुलित रखता है (वह भले पारिवारिक वंश-परंपरा से जुड़ी पैतृकता हो या राजनीतिक या आदमी की किसी अन्य पहचान की) । लेकिन जब किसी भी वजह से आदमी अपने उस अवबोध से कट जाता है, तब कर्त्तृत्व के मुकाम पर उसके चित्त के पैतृकता के जगत पर दस्तक पड़ने से उसका सामना एक शून्य से, एक छिद्र या कोरी खाई से होता है और यहीं से उसमें एक प्रकार के ‘दुनिया के अंत’ की तरह का अहसास उत्पन्न होने लगता है । इसे ही मनोरोग का प्राथमिक लक्षण कहा जाता है ।
(“The name of the father is simply absent from the mental universe of psychotic patient”)
इस अवस्था में व्यक्ति नाना विभ्रमों, अजीबोगरीब डर का शिकार होने लगता है । मौसम के बिगड़ने पर सोचने लगता है कि यह किसी दूसरे ग्रह के निवासी की साजिश है जो धरती के मौसम को नियंत्रित कर रहा है या सड़क से गुजरते वक्त किसी भी आवाज को सुन कर सोचता है कि किसी ने पाकिस्तान से संपर्क साधने के लिये ट्रांसमिटर चलाया है, यह उसीकी आवाज है !
हमारे प्रधानमंत्री का कथित ‘अर्बन नक्सलियों’ पर हमला उनकी कुछ इसी प्रकार की विक्षिप्तवस्था का द्योतक है । उनकी नोटबंदी, जीएसटी का जश्न और मौके-बेमौके विदेशी राष्ट्राध्यक्षों से जा चिपटने की मनोदशा भी यही बताती है कि उनके मनोजगत से राजनीतिक पैतृत्व की कौल्य-श्रृंखला पूरी तरह से लुप्त हो चुकी है । भारत की न्यायपालिका, सीबीआई आदि की तरह की सभी संवैधानिक, अर्द्ध-संवैधानिक संस्थाओं को अपनी मुट्ठी में कस कर उनके विरूपीकरण की कोशिशें भी इनके उच्छिष्ट भाव को ही बताती है । अभी ये रिजर्व बैंक के आरक्षित कोष के जिस प्रकार पीछे पड़े हैं, वह भी एक प्रकार का उन्माद ही है । ये इसके अंतिम परिणामों के बारे में सोच ही नहीं रहे हैं ।
प्रधानमंत्री मोदी कहते तो अपने को ‘चाय वाला’ है लेकिन सच यह है कि वे खुद अपनी उसी पितृ-परंपरा को मन में एक बड़ा झूठ मानने के कारण मन ही मन में अपने को किसी शहंशाह से कम नहीं समझते ।बड़े-बड़े पूंजीपतियों की सोहबत में ही उनका मन सबसे अधिक रमता है । उनका प्रत्येक कदम अपने इन शाही मित्रों के बीच जनता को नचाने की अपनी ताकत की धाक जमाने की कुवृत्ति के अलावा कुछ नहीं होता है । जनता को मूर्ख समझने के नाते इन्हें लगता है कि चुनाव के मौके पर कुछ लंबी-चौड़ी घोषणाएं ही उन्हें भरमाने के लिये काफी होगी !
दरअसल, कमोबेस यह स्थिति सिर्फ प्रधानमंत्री की नहीं, पूरे आरएसएस की है । आरएसएस के राजनीतिक पैतृत्व का व्योम जिस हिटलर के मूल से तैयार होता है, दुनिया की परिस्थितियों का उन पर ऐसा दबाव है कि उस पितृ-कौल्य को स्वीकार कर चलना उनके लिये संभव नहीं रह गया है । इसीलिये अपने राजनीतिक कर्त्तृत्व के हर बिंदु पर पैतृकता की जगह उन्हें कोरा शून्य दिखाई देता है । और, यही उन्हें सदा अस्थिर बनाये रखने के लिये काफी है । इसी पागलपन में वे कभी गांधी को अपनाने की कोशिश करते हैं तो कभी पटेल पर हाथ मारते हैं, जबकि गांधीजी की हत्या पर इन्होंने ही मिठाइयां बाटी थी और पटेल ने ही इन पर प्रतिबंध लगाते हुए कहा था कि ‘इनके फैलाये जहर की वजह से ही बापू को अपनी जान गंवानी पड़ी है’।
बहरहाल, पिछले दिनों अपनी दो दिवसीय वक्तृता श्रृंखला से आरएसएस के मोहन भागवत ने हिटलर-गोलवलकर की श्रृंखला को पूरी तरह से ठुकरा कर भारत के राष्ट्रीय आंदोलन और वैविध्यमय भारत के प्रति स्वीकार के भाव के साथ स्वयं से आरएसएस की एक नई पितृ-श्रृंखला तैयार करने की महत्वाकांक्षी कोशिश की थी । लेकिन उनकी मुश्किल है कि जहां एक से बड़े एक उन्मादी, जुनूनी और विक्षिप्त लोग भरे हुए हो, उनके बीच विवेकशीलता का संकेत देना ही आदमी के पागल करार दिये जाने के लिये यथेष्ट है ! काफी हद तक यह भी सच है कि भागवत की यह कोशिश खुद को सुधारने की कोशिश नहीं थी, अपने उन्माद के लिये सिर्फ एक तर्क खोजने की कोशिश थी ।
भागवत दो दिनों तक ‘विविधता में एकता’ का राग अलापने के बाद अब अंत में फिर ‘मंदिर वहीं बनायेंगे’ के जाप में स्वाभाविक रूप में लौट आए हैं और अपनी कमान समाज से भागे हुए, अपने एक अलग ही भाव जगत में डूबे हुए आत्म-विस्मृत साधुओं की सनक के हाथ में सौंप कर शांत हो गये हैं। ये सब धंधेबाज साधु इकट्ठे हो कर अभी इस प्रकार ‘धर्मादेश’ जारी कर रहे हैं मानो ये ही इस देश के कर्णधार हैं और यह देश उनके चलाये ही चल रहा है !
बहरहाल, मोदी का अपने शासन के किसी भी पहलू के पक्ष में एक शब्द न कहना और इसकी जगह ‘अर्बन नक्सलियों’ के भूत को खड़ा करना वास्तव में राजनीतिक कौल्य-बोध विहीन किसी भयाक्रांत विक्षिप्त व्यक्ति के प्रलाप के अलावा कुछ नहीं है !
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