-अरुण माहेश्वरी
चंद रोज पहले ‘वाशिंगटन पोस्ट’ ने हिसाब लगा कर बताया था कि ट्रंप ने अपने शासन के पिछले 558 दिनों में कुल 4229 बार झूठी बातें कही हैं। अर्थात् प्रतिदिन 7.6 झूठ ।
इस तथ्य के सामने आने पर ही स्वाभाविक रूप से हमारा ध्यान हमारे मोदी जी की ओर गया । इतना तो हम दावे के साथ कह सकते हैं कि झूठ बोलने की कला में तो ये ट्रंप से कई मील आगे हैं । भारत की राजनीति में मोदी अपनी झूठों की वजह से ही तो अद्वितीय हैं। जब अमेरिका से ट्रंप की झूठों की गिनती आई, तभी हमने बिना गिने ही समझ लिया कि मोदी चूंकि ट्रंप से दुगुना झूठ बोलते हैं, इसीलिये रोज के हिसाब से कम से कम पंद्रह झूठ तो जरूर बोलते ही है।
लेकिन हम सोच रहे थे कि आखिर मोदी और ट्रंप जैसे लोग इतना झूठ बोलते क्यों हैं ? और, वे अटकते नहीं, धड़ल्ले से बोलते हैं ! लगता है जैसे हमेशा झूठ बोलना ही इनकी फितरत है ! इसे मनोविश्लेषण में जुबान का फिसलना, slip of tongue कहते हैं और इस प्रकार की फिसलनों से भी विश्लेषक रोगी के मनोविज्ञान को समझने के सूत्र हासिल किया करते हैं ।
कहा जाता है कि जिस विषय में आदमी पारंगत नहीं होता, लेकिन अपने को उसी विषय के महापंडित के रूप में पेश करना चाहता है, तब वह अक्सर अपने बोलने की सामान्य गति की तुलना में कहीं ज्यादा तेज गति से बोलने लगता है । अर्थात् यहां उसकी कामना वास्तव में अपने ज्ञान का परिचय देने के बजाय अपनी धाक जमाने की ज्यादा होती है । और यह कामना स्वयं में आदमी के ज्ञान का विपरीत ध्रुव है । आदमी जिस मामले का जितना कम जानकार होता है, उसी मामले में वह अधिक अस्वाभाविक तेजी से बोलता है और, कहना न होगा, उसकी जुबान फिसलने लगती है । वह विषय के बजाय अपनी धाक की कल्पनाओं में खो जाता है । विषय की मर्यादाओं से मुक्त होकर ही वह अपने कल्पनालोक का आनंद ले पाता है । समझने लगता है कि उसके अंदर से तो साक्षात सत्य बोलता है । जॉक लकान के शब्दों में, ‘इस प्रकार सच और अपने कल्पनालोक के बीच के दोलन में ही उसकी जुबान फिसला करती है ।’ झूठ बकना उसका स्वभाव हो जाता है ।
ट्रंप और मोदी के साथ बिल्कुल यही बीमारी लगी हुई है । संसदीय जनतंत्र में काम करने का इनका कोई बाकायदा राजनीतिक प्रशिक्षण नहीं है । ट्रंप रीयल इस्टेट का बड़ा कारोबारी, साम-दाम-दंड-भेद से सौदे पटाने और मौज-मस्ती का जीवन जीने वाला अपने दायरे में एक प्रकार का माफिया सरदार रहा है । तो वहीं, हमारे मोदी भी शुरू में आरएसएस की तरह के हिटलर-पूजक संगठक की अफवाहबाजी के प्रमुख काम के एक संगठक थे । बाद में गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर भी उन्होंने पूरे चौदह साल 2002 के जनसंहार को संगठित करने और उसके कानूनी परिणामों को सम्हालने की अपराधी करतूतों में ही मुख्य तौर पर पूरे किये । इसी समय केंद्र में मनमोहन सिंह की सरकार के प्रति जनता के मोहभंग ने उन्हें देश का प्रधानमंत्री बना दिया और यहीं से उनमें अपनी सर्वज्ञता की धाक जमाने का भूत सवार हो गया । सत्ता पर आने के साथ ही वे इतना अधिक ‘मन की बात’ कहने लगे कि शांति से अपने ज्ञान और पद के बीच संतुलन बनाने की कोशिश तक करने की जरूरत नहीं महसूस की । उनके लिखित बयानों में भी धड़ल्ले से झूठ का प्रयोग होता है ।
उनके चरित्र में संतुलन बन गया होता यदि वे अपने पद के गरिमामय वलय के अनुरूप अपने चित्त का निर्माण कर पाते और उनमें अपनी वासनाओं के दमन की मजबूरी नहीं पैदा होती ; वे एक बुरी तरह से विखंडित व्यक्तित्व नहीं होते । यहां तो मीर के शब्दों में कहे तो — “मैं और / मेरा यार और / मेरा कारोबार और !” की दशा है । उनका विखंडन वहीं से रिस-रिस कर जुबान की फिसलन या किसी अन्य अस्वाभाविक क्रिया के जरिये सामने आने लगता है, जहां कहीं जीवन की लय में दरार आती है ।
बहरहाल, मोदी का यह बकबक का मर्ज अब तो लाइलाज हो चुका है । अब तो जनता नामक हकीम लुकमान ही उन्हें रास्ते पर लायेगा । लेकिन हाल ही में भाजपा के उनके ही अभिन्न अंग अमित शाह में जुबान की फिसलन का यह रोग एक नये रूप में, शरीर की फिसलन के रोग के रूप में सामने आया है । वे जानते है कि वे प्रधानमंत्री तो हैं नहीं, जिनकी जुबान का मूल्य होता है । उनका मूल्य है उनके शरीर से, भाग-दौड़ की उनकी सामर्थ्य से ।
मोदी विदेशों में सैर-सपाटों के बाद देश में अपनी धाक के लिये जहां अस्वाभाविक तेज गति से बकबक करते हैं, वहीं अब अमित शाह अस्वाभाविक तेजी से देश के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में दौड़ने लगे हैं ।जितना इन्हें अपनी जमीन खिसकती दिखाई दे रही है, इनकी चाल-ढाल की गति उतनी ही तेज हो जा रही है । और अब उनकी चाल का संतुलन भी बिगड़ने लगा है ।
पिछले दो दिनों में अमित शाह मिजोरम में प्लेन की सीढ़ियों से और मध्य प्रदेश में सभा मंच से उतरते हुए लड़खड़ा कर गिर चुके हैं ।
मोदी जी की जुबान और शाह के पैरों के फिसलने में पता नहीं क्यों, हमें एक अजीब सी संगति दिखाई दे रही है । दोनों का संपर्क उनकी बिगड़ती मनोदशा से जुड़ा हुआ लगता है ।
चंद रोज पहले ‘वाशिंगटन पोस्ट’ ने हिसाब लगा कर बताया था कि ट्रंप ने अपने शासन के पिछले 558 दिनों में कुल 4229 बार झूठी बातें कही हैं। अर्थात् प्रतिदिन 7.6 झूठ ।
इस तथ्य के सामने आने पर ही स्वाभाविक रूप से हमारा ध्यान हमारे मोदी जी की ओर गया । इतना तो हम दावे के साथ कह सकते हैं कि झूठ बोलने की कला में तो ये ट्रंप से कई मील आगे हैं । भारत की राजनीति में मोदी अपनी झूठों की वजह से ही तो अद्वितीय हैं। जब अमेरिका से ट्रंप की झूठों की गिनती आई, तभी हमने बिना गिने ही समझ लिया कि मोदी चूंकि ट्रंप से दुगुना झूठ बोलते हैं, इसीलिये रोज के हिसाब से कम से कम पंद्रह झूठ तो जरूर बोलते ही है।
लेकिन हम सोच रहे थे कि आखिर मोदी और ट्रंप जैसे लोग इतना झूठ बोलते क्यों हैं ? और, वे अटकते नहीं, धड़ल्ले से बोलते हैं ! लगता है जैसे हमेशा झूठ बोलना ही इनकी फितरत है ! इसे मनोविश्लेषण में जुबान का फिसलना, slip of tongue कहते हैं और इस प्रकार की फिसलनों से भी विश्लेषक रोगी के मनोविज्ञान को समझने के सूत्र हासिल किया करते हैं ।
कहा जाता है कि जिस विषय में आदमी पारंगत नहीं होता, लेकिन अपने को उसी विषय के महापंडित के रूप में पेश करना चाहता है, तब वह अक्सर अपने बोलने की सामान्य गति की तुलना में कहीं ज्यादा तेज गति से बोलने लगता है । अर्थात् यहां उसकी कामना वास्तव में अपने ज्ञान का परिचय देने के बजाय अपनी धाक जमाने की ज्यादा होती है । और यह कामना स्वयं में आदमी के ज्ञान का विपरीत ध्रुव है । आदमी जिस मामले का जितना कम जानकार होता है, उसी मामले में वह अधिक अस्वाभाविक तेजी से बोलता है और, कहना न होगा, उसकी जुबान फिसलने लगती है । वह विषय के बजाय अपनी धाक की कल्पनाओं में खो जाता है । विषय की मर्यादाओं से मुक्त होकर ही वह अपने कल्पनालोक का आनंद ले पाता है । समझने लगता है कि उसके अंदर से तो साक्षात सत्य बोलता है । जॉक लकान के शब्दों में, ‘इस प्रकार सच और अपने कल्पनालोक के बीच के दोलन में ही उसकी जुबान फिसला करती है ।’ झूठ बकना उसका स्वभाव हो जाता है ।
ट्रंप और मोदी के साथ बिल्कुल यही बीमारी लगी हुई है । संसदीय जनतंत्र में काम करने का इनका कोई बाकायदा राजनीतिक प्रशिक्षण नहीं है । ट्रंप रीयल इस्टेट का बड़ा कारोबारी, साम-दाम-दंड-भेद से सौदे पटाने और मौज-मस्ती का जीवन जीने वाला अपने दायरे में एक प्रकार का माफिया सरदार रहा है । तो वहीं, हमारे मोदी भी शुरू में आरएसएस की तरह के हिटलर-पूजक संगठक की अफवाहबाजी के प्रमुख काम के एक संगठक थे । बाद में गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर भी उन्होंने पूरे चौदह साल 2002 के जनसंहार को संगठित करने और उसके कानूनी परिणामों को सम्हालने की अपराधी करतूतों में ही मुख्य तौर पर पूरे किये । इसी समय केंद्र में मनमोहन सिंह की सरकार के प्रति जनता के मोहभंग ने उन्हें देश का प्रधानमंत्री बना दिया और यहीं से उनमें अपनी सर्वज्ञता की धाक जमाने का भूत सवार हो गया । सत्ता पर आने के साथ ही वे इतना अधिक ‘मन की बात’ कहने लगे कि शांति से अपने ज्ञान और पद के बीच संतुलन बनाने की कोशिश तक करने की जरूरत नहीं महसूस की । उनके लिखित बयानों में भी धड़ल्ले से झूठ का प्रयोग होता है ।
उनके चरित्र में संतुलन बन गया होता यदि वे अपने पद के गरिमामय वलय के अनुरूप अपने चित्त का निर्माण कर पाते और उनमें अपनी वासनाओं के दमन की मजबूरी नहीं पैदा होती ; वे एक बुरी तरह से विखंडित व्यक्तित्व नहीं होते । यहां तो मीर के शब्दों में कहे तो — “मैं और / मेरा यार और / मेरा कारोबार और !” की दशा है । उनका विखंडन वहीं से रिस-रिस कर जुबान की फिसलन या किसी अन्य अस्वाभाविक क्रिया के जरिये सामने आने लगता है, जहां कहीं जीवन की लय में दरार आती है ।
बहरहाल, मोदी का यह बकबक का मर्ज अब तो लाइलाज हो चुका है । अब तो जनता नामक हकीम लुकमान ही उन्हें रास्ते पर लायेगा । लेकिन हाल ही में भाजपा के उनके ही अभिन्न अंग अमित शाह में जुबान की फिसलन का यह रोग एक नये रूप में, शरीर की फिसलन के रोग के रूप में सामने आया है । वे जानते है कि वे प्रधानमंत्री तो हैं नहीं, जिनकी जुबान का मूल्य होता है । उनका मूल्य है उनके शरीर से, भाग-दौड़ की उनकी सामर्थ्य से ।
मोदी विदेशों में सैर-सपाटों के बाद देश में अपनी धाक के लिये जहां अस्वाभाविक तेज गति से बकबक करते हैं, वहीं अब अमित शाह अस्वाभाविक तेजी से देश के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में दौड़ने लगे हैं ।जितना इन्हें अपनी जमीन खिसकती दिखाई दे रही है, इनकी चाल-ढाल की गति उतनी ही तेज हो जा रही है । और अब उनकी चाल का संतुलन भी बिगड़ने लगा है ।
पिछले दो दिनों में अमित शाह मिजोरम में प्लेन की सीढ़ियों से और मध्य प्रदेश में सभा मंच से उतरते हुए लड़खड़ा कर गिर चुके हैं ।
मोदी जी की जुबान और शाह के पैरों के फिसलने में पता नहीं क्यों, हमें एक अजीब सी संगति दिखाई दे रही है । दोनों का संपर्क उनकी बिगड़ती मनोदशा से जुड़ा हुआ लगता है ।
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