शनिवार, 3 नवंबर 2018

सनातन धर्म की संस्थापना के लिये ललकारती कविता : 'अभिनव पाण्डव'


—अरुण माहेश्वरी

उद्भ्रांत जी हिंदी के सचमुच एक उत्कट कवि है । जो भी उनसे संपर्क में आया होगा, इतना तो जान ही जायेगा कि अपनी कविता को साबित करने की कवि की चरम जिद कैसी होती है । आपकी प्रतिक्रिया के किसी भी शब्द को पकड़ कर वे खुद की और साथ ही आपकी भी नींद हराम करके जो कुहराम मचा सकते हैं, इसका अनुमान तक करना मुश्किल है ।

बहरहाल, वे अपनी कविता के लिये जिद्दी हैं — इसे सकारात्मक रूप में कुछ इस प्रकार भी लिया जा सकता है कि वे उसके प्रति बेहद समर्पित और ईमानदार हैं, तो कुछ-कुछ स्त्री के प्रति पति के 'स्वामित्व-भाव' की तरह के एकनिष्ठ पुरातनपंथी, गुह्य कट्टरपंथी भी हो सकते हैं । मिथकीय कथाओं के प्रति उनका आकर्षण, अपनी संशयमूलक सृजनात्मकता के बीच भी उनके नीति-उपदेशों के प्रति उनकी आंतरिक निष्ठा भी शायद कुछ ऐसी ही पंडित की जिद का परिणाम है ! उन्होंने अनेक धर्मशास्त्री लेखकों की तरह ही हिंदू भगवानों के नाना मिथकीय रूपों पर भरपूर लिखा है, लेकिन अपने प्रकार से कुछ सवालों की ओट लेकर ताकि उन पर लेखन के काव्यात्मक प्रगतिशील प्रयोजन की छाया बनी रहे । मिथक उनके आधुनिक संवेदनात्मक प्रवाहों में अनायास ही उनकी सघन अन्तश्चेतना की निर्मिति के अंधेरे कोने को प्रकाशित करते हुए, या अपनी चेतना के अति नग्न पक्ष पर पर्दादारी करने की सायास कोशिश के रूप में नहीं आते हैं । वे मिथकीय कथाओं को, अर्थात ईश्वर के अंधकार में जुगनुओं की कहानियों को स्थापित करने के लिये अपने प्रकार के कुछ नये आख्यान रचते हैं, और इसीलिये हमें धर्मशास्त्रियों की याद दिला देते हैं । वैसे उनका साहित्य काफी बड़ा है, लेकिन उनकी  खास प्रसिद्धी इस खास प्रकार के, 'ईश्वरीय महात्म्य' के लेखन के चलते ही हैं ।

जो भी हो, इधर काफी दिनों से उनकी एक लंबी कविता 'अभिनव पांडव' मेरे सामने लिखने के लिये पड़ी थी । उसकी एक अनुशंसात्मक भूमिका हमारे डा. शिवकुमार मिश्र ने लिखी है, इसीलिये मैंने भी मान लिया कि इस पर लिखा जायेगा । लेकिन मुझे नहीं पता था कि मेरे कारण इस पर लिखे गये अनेक महत्वपूर्ण लेखों का एक संकलन प्रकाशित होने से टलने भी लगेगा ! उद्भ्रांत जी का सुबह-शाम दबाव बनने लगा कि फेसबुक पर तो आप रोज हाजिर रहते हैं, लेकिन मुझसे किये इस वादे को पूरा करना इतना भारी क्यों पड़ रहा है ! अब मैं कैसे बताता कि हम तो शिवकुमार जी हैं नहीं, जिनका हिंदी के शोध ग्रंथों की अनुशंसाएं लिखने का भी सहज अभ्यास था । रोजमर्रा की राजनीतिक टिप्पणियां और हमेशा की तरह ही समय-समय पर उठने वाले विचारधारात्मक सवाल ही हमारे कामों के लिये प्राथमिक बने रहे । शायद जिस संकलन के लिये लिखना था, वह अब तक निकल भी गया होगा !

बहरहाल, उद्भ्रांत जी ने किताब तो भेजी नहीं थी, उसके एक फाइल का लिंक भेजा था । बड़े कष्ट से चार बार में, न जाने कितने पन्नों को बर्बाद करके कई दिनों में मैंने उसे छापा, लेकिन अंत तक भी वह करीने से नहीं छप पायी । और बिखरे हुए पन्नों में उनकी फड़फड़ाती किताब हमारी मेज पर इधर-उधर उड़ती रही । उन पन्नों को सहेजते-सहेजते ही, शायद सौ से भी ज्यादा दिनों में मैं सौ पन्नों की उस किताब को पढ़ गया । आज उद्भ्रांत जी के जन्मदिन पर सोचा कि जब पढ़ ही लिया गया है तो क्यों न उस पर कुछ लिखने की भी कोशिश की जाए । गणेश जी का नाम लेकर लिखने बैठ गया । महाभारत की तरह की भूत, वर्तमान और भविष्य के तीनों कालों की कथा, ज्ञान की इस सलाई को लिखने के लिये ब्रह्मा जी ने व्यास जी से गणेश जी के नाम की ही संस्तुति की थी । गणेश जी ने कहा कि यदि मैं बिना एक क्षण भी रुके इस ग्रंथ को लिख सका तभी मैं इस काम को हाथ में लूंगा, और व्यास ने उनसे कहा कि बिना समझे किसी भी प्रसंग में एक अक्षर भी मत लिखियेगा ।

“श्रुतवैतत् प्राह विघ्नेशो यदि में लेखनीक्षणम् ।
लिखितो ना वतिष्ठेत तदा स्यां लेखको ह्यहम् ।।

समझ लीजिए, हमारे लिये यह सारा काम और भी कितना कठिन हो गया !

बहरहाल, महाभारत के बारे में हम सब जानते हैं, इसे सत्ता-विमर्श जगत की एक सर्वोत्कृष्ट और शायद आदि कृति कहा जा सकता है । अक्सर इसके संदर्भ में पश्चिम में होमर के 'इलियड' और 'ओडिसी' की चर्चा की जाती है, लेकिन महाभारत के विस्तृत आयतन के संदर्भ में वास्तव में वे कहीं ठहरती नहीं है । यह तो सत्ता विमर्श का एक संपूर्ण दर्शन है ; मनुष्य की प्राणीसत्ता का विमर्श ।

महाभारत के आदि पर्व में नारायण की स्तुति के बाद ही जब व्यास जी कथा के ढांचे के निर्माण के प्रारंभ में लोमहर्षण के पुत्र, पुराणों के विद्वान और कथावाचक उग्रश्रवा को महर्षि शौन के आश्रम में अवकाश के क्षणों में बैठे ब्रह्मर्षियों के सामने लाते हैं, तब उग्रश्रवा सबके कौतुहल को शान्त करने के लिये कुरुक्षेत्र की कथा, जहां कौरव और पाण्डव और अन्य सब राजाओं के बीच युद्ध हुआ था, कहने के पहले पूछते हैं कि “धर्म और अर्थ के गूढ़ रहस्यों से युक्त, अन्त:करण को शुद्ध करने वाली (पुण्या:) भिन्न-भिन्न पुराणों की कथा सुनाऊं अथवा उदारचरित महानुभावों एवं सम्राटों का पवित्र इतिहास ।”

पुराणसंहिता: पुण्या: कथा धर्मार्थसंश्रिता: ।
इति वृत्तं नरेन्द्राणामृषीणां च महात्मनाम ।।

और जब राजाओं का जिक्र करते हैं तो यह कहते हुए कि सृष्टि के आरंभ में जहां वस्तु विशेष या नाम रूप आदि का भान नहीं होता था, प्रकाश का कहीं नाम नहीं था “तदन्तर यक्ष्य, साध्य, पिशाच, गुह्यक और पितर एवं तत्व ज्ञानी सदाचार परायण साधु शिरोमणि ब्रह्मर्षिगण प्रकट हुए, इसी प्रकार राजर्षियों का प्रार्दुभाव हुआ है जो सबके सब शौर्यादि सद्गुणों से सम्पन्न थे ।”

इस प्रकार राजाओं के उदय को मानव जीवन की एक प्राकृतिक परिघटना के रूप में विवेचित करने की प्रस्तावना के साथ ही व्यास ने इस महाग्रंथ का प्रारंभ किया गया था । और इसका अंत भी सृष्टि के आदि और अंत की दार्शनिक समझ के तर्ज पर ही हुआ कि यह जो भी स्थावर-जंगम जगत दृष्टिगोचर होता है, वह सब प्रलय काल आने पर अपने कारण में ही विलीन हो जाता है । यह ऋतुओं के बदलने के साथ फल, पुष्प आदि नाना चिन्हों के प्रकट और फिर समाप्त हो जाने की तरह ही है ।

यदिदं दृश्यते किंचिद् भूतं स्थावरजंगमम् ।
पुन: संक्षिप्यते सर्वे जगत् प्राप्ते युगक्षये ।।

युद्ध में विजेता पाण्डव हिमालय की दिशा में बढ़ते हुए उसी प्रकार हवा में विलीन हो जाते है जैसे वे शौर्यादि गुणों से संपन्न हो कर राजा के रूप में इस धरती पर प्राकृतिक रूप में ही आए थे । रह जाती है दूर क्षितिज पर कहीं धर्मराज युधिष्ठिर की एक धुंधली सी छवि और उनके साथ एक स्वान, एक अन्य जीव ।

व्यास जी ने अपने इस ग्रंथ को ज्ञानांजन की शलाका कहा था जिसका अरणी पर्व इस वृक्ष का ग्रंथिस्थल है, विराट और उद्योग पर्व इसका सार भाग, भीष्म पर्व इसकी बड़ी शाखा, द्रोण पर्व इसके पत्ते, कर्ण पर्व इसके श्वेत पुष्प और शल्य पर्व सुगंध है । स्त्री पर्व और ऐषीक पर्व इसकी छाया है तथा शांति पर्व इसका महान फल है । और इस प्रकार उन्होंने इस ग्रंथ के कथा-गुच्छ से सत्ता विमर्श के एक पूरे दर्शन का महल तैयार किया था ।

बहरहाल, उद्भ्रांत जी ने प्राणी-सत्तात्मक सत्ता-विमर्श के इस विशाल कथानक के एक केंद्रीय चरित्र युधिष्ठिर को अपनी रचना का विषय बनाया है । जब युद्ध के अंत में विजयी होने के बाद राज-पाट संभालने की जगह वह अपने सभी भाइयों के साथ हिमालय की ओर रवाना हो जाता है तब अन्य सारे भाई तो रास्ते में ही दम तोड़ देते है, युधिष्ठिर की धर्मराज वाली सत्ता अंत तक कहीं जाती दिखाई देती है, मरती नहीं है ।


यह पूरा प्रसंग हमें अनायास ही हमें आज के प्रसिद्ध मार्क्सवादी फ्रांसीसी दार्शनिक ऐलेन बाद्यू के एक नाटक L’Incident d’Antioche (एंटियोक की घटना) की याद दिला देता है । ईसाई मिशन में लगे सेंट पॉल्स और पीटर के बीच एंटियोक में बाइबल की सार्वलौकिकता को लेकर हुए संघर्ष की पृष्ठभूमि में यह नाटक सत्ता-विमर्श के ऐसे ही दार्शनिक पक्ष के बारे में है । इसकी चिंता का केंद्रीय विषय है — क्रांति के बाद क्या ? नाटक के एक अंश में क्रांति का नेता कमिउ क्रांति हो जाने के बाद कहता है — मेरा काम पूरा हो गया, अब चलता हूं ।
उसका साथी डेविड कहता है कि आज जब काम करने का समय आया है, तभी तुम मूंह फेर रहे हो । तो कमिउ कहता है — “विजय के बाद जो बचता है वह है पराजय ।...फौरन पराजय नहीं, जो भी वर्तमान के साथ निबाह करके चलेगा उसकी धीरे-धीरे निश्चित पराजय ।...उस प्रकार की पराजय की शान को मैं तुम्हारे लिये छोड़ता हूं, किसी अहंकारवश या धीरज की कमी की वजह से नहीं, बल्कि इसलिये क्योंकि मैं उसके लिये उपयुक्त नहीं हूं ।“
बाद्यू इसकी व्याख्या करते हुए एक जगह लिखते हैं कि उसने इसलिये नई सत्ता का त्याग किया क्योंकि कुछ लोग सिर्फ विध्वंस से प्यार करते हैं और चूंकि वह देख रहा है कि अब एक नये राज्य के पुनर्निर्माण का काम होगा, उस पुनर्निर्माण में उसे एक प्रकार के दोहराव की ऊब दिखाई देने लगती है, इसीलिये उसकी उसमें कोई दिलचस्पी नहीं रहती है । (Alain Badiou, The Communist Hypothesis, Verso, 2015, page – 15-17)

कहना न होगा, यह कुछ वैसा ही है जैसा महाभारत के महा-विध्वंस के अंत में महर्षि व्यास पांडवों को हिमालय की ओर रवाना कर देते हैं । पांडु जो गुरुओं के लिये हिंसक पशुओं का वध करने ऋषि-मुनियों के साथ वन में ही रह गये थे, उनके वंशधर पांचों पांडवों की अस्मिता भी युद्ध और विध्वंस से ही जुड़ी हुई थी, वे राजर्षि योग के लिये अनुपयुक्त थे । इसीलिये जब युद्ध के अंत में राजगद्दी पर बैठ कर एक नये राज्य के निर्माण का संयोग आता है, भूत, वर्तमान और भविष्य तक की चतुर्वणीय समाज-व्यवस्था की कथा कहने वाले व्यास ने नहीं चाहा कि अपने इन नायकों को फिर से उसी हमेशा के राज्य के निर्माण-ध्वंस-निर्माण के पारंपरिक वृत्त में उतार दिया जाए । व्यास या तो कौरवों के राज्य के संहारकर्ताओं को किसी नये दमनकारी राज्य के निर्माण के लिये उपयुक्त नहीं पाते थे जैसा ऊपर बाद्यू के चरित्र कमिउ ने अपने को नहीं पाया था, या वे पांडवों के इस संन्यास के जरिये किसी ऐसी समाज व्यवस्था की ओर बढ़ने का संदेश देना चाहते हैं जो राज्य-विहीन हो, मानव की स्वातंत्र्य सत्ता पर टिकी समाज-व्यवस्था हो । व्यास ने महाभारत के आदि पर्व में ही एक जगह शैवमत के भैरव-भाव के प्रतीक, पाशुपत की चर्चा की हैं, लेकिन उसके साथ वे राजसत्ता के किसी भी दमनकारी शासकीय रूप को जोड़ने  के बजाय न्याय, शिक्षा और स्वास्थ्य की तरह के मनुष्य की आत्म-सत्ता के विस्तार के पक्षों को जोड़ते हैं । “न्यायशिक्षाचिकित्सा च दानं पाशुपतं“ । यह राजसत्ता से मुक्त शुद्ध मानव कल्याण पर टिकी राज्य-विहीन समाज-व्यवस्था का संकेत था ।

बाद्यू के उपरोक्त नाटक में भी क्रांति के बाद की आगे की कहानी है । क्रांति के बाद फिर एक नये दमनकारी राज्य के उदय को देखते हुए क्रांति में विजयी नये शासक डेविड की मां पौला उससे कहती है — 'तुम सत्ता छोड़ दो ।'

डेविड मां से कहता है कि 'तुम मेरी मां होकर प्रति-क्रांतिकारी काम क्यों कर रही हो',
तो पौला उसे कहती है — “प्रति-क्रांति तुम हो । तुमने न्याय के सारे बोध को गंवा दिया है । तुम्हारी राजनीति कुत्सित है ।...सुनो । ...हमारी परिकल्पना, सिद्धांततः, यह नहीं थी कि हम एक अच्छी सरकार की समस्याओँ का समाधान करेंगे ।...हमने कहा था कि दुनिया एक ऐसी नीति के रास्ते पर चल सकती है जिसे बदला जा सकता है, राजनीति को ही खत्म कर देने वाली नीति । ...उस परिकल्पना के ऐतिहासिक स्वरूप को राजसत्ता ने निगल लिया है । एक मुक्तिदायी संगठन का राजसत्ता में विलय हो गया है । ...कोई भी सही नीति यह दावा नहीं करेगी कि वह अब तक किये जा चुके कामों की ही निरंतरता है । हमारा उद्देश्य एक बार और हमेशा के लिये उस चेतना को उनमुक्त कर देने का है जो न्याय, समानता को कायम करती है और राजसत्ता और दरबारों की साजिशों का हमेशा के लिये अंत करती है, और उस बची हुई जमीन का भी सफाया करती है जिससे पैदा होने वाली सत्ता की लिप्सा आदमी ऊर्जा के प्रत्येक रूप को लील लेती है ।“

...डेविड मां से कहता है — “दुनिया हमेशा के लिये बदल गई है । विश्वास करो । मेरी प्यारी मां तुम चीजों को नीचे से देख रही हो । तुम निर्णय लेने वालों में नहीं हो ।

“पौला — यही पुरानी आजमाई हुई चाल है ।... जरूर तुम कुछ नया करोगे । तुम सूरज को भूरे रंग से रंग दोगे ।“

इसी सिलसिले में बौखला कर डेविड मां से पूछता है — कहो तो, तुम कौन हो ? ...तुम निश्चय ही हमें और शक्तिशाली बनने के लिये नहीं कह रही हो । बल्कि हमें सत्ता को त्याग देने, आने वाले लंबे काल के लिये उसे छोड़ देने के लिये कह रही हो ।

तो पौला कहती है, “मानव जाति की महानता सत्ता में नहीं है । बिना परों वाले दोपाये का खुद पर नियंत्रण हो, और वह, जो उतना संभव भी नहीं लगता, प्रकृति के सभी नियमों, इतिहास के सभी नियमों के खिलाफ जाए और उस राह पर चले जिसमें हर व्यक्ति प्रत्येक के प्रति समान होगा । सिर्फ कानून में नहीं, भौतिक यथार्थ में भी।“ (जोर हमारा)

इसपर डेविड कहता है, “ तुम इतनी पागल हो !“

पौला कहती है — “नहीं, मैं नहीं । मैं तुमसे कहूंगी सारे उन्माद को छोड़ो । तुम्हें बहुत धीर-स्थिर हो कर निर्णय करना है । जो भी व्यक्ति इस मरीचिका के पीछे भागता है, वह यह नहीं समझ सकता है । विजय और समग्रता के प्रति अपने आग्रह को भूल जाओ । वैविध्य के सूत्र को पकड़ कर चलो ।“

...“राजनीति का अर्थ एक राजनीतिक भविष्य दृष्टि के आधार पर इकट्ठा होना है ताकि आदमी राजसत्ता की मानसिक जकड़बंदी से मुक्त रह सके ।“ (वही, पृष्ठ – 15-22) (जोर हमारा)

(Our hypothesis was not, in theory, that we were going to resolve the problem of good government…We said that the world could stand the trajectory of a policy that could be reversed…Historical realization of that hypothesis was swallowed up by the state. A liberating organisation merged completely into the state…No correct policy can now argue that it is a continuation of the work that has already been done. Our mission is to unseal, once and for all, the consciousness that organises justice, equality, the end of states and imperial rackets, and the residual platform where the concern for power sucks in every form of energy…Ofcourse you’ii do something new. You’ii paint the surface of the sun grey…Power is not the mark of the human race’s greatness. The featherless biped must get a grip on himself and, unlikely as it seems, go against all the laws of nature and all the laws of history, and follow the path that means that anyone will be equal of everyone…For anyone who gives in to the passion for images, it is incomprehensible. Forget about the obsession with conquest and totality. Follow the thread of multiplicity…Politics means uniting around a political vision that escapes the mental hold of the state.)

और कहना न होगा, महाभारत के अंत में 'धर्मराज' युधिष्ठिर का अनंत की ओर महायात्रा के क्रम में बचे रह जाना, उस 'धर्म' के, उस भविष्य दृष्टि के बचे रह जाने की तरह ही था, जो डेविड की मां पौला के शब्दों में 'मनुष्य को राजसत्ता की जकड़बंदी से मुक्त कर सके' । कह सकते हैं, भारत की आजादी के बाद गांधी जी ने 'कांग्रेस को भंग कर देने' का परामर्श देकर हमारे बीच संभवतः इसी विमर्श को छोड़ा था ।

बहरहाल, उद्भ्रांत जी ने महाभारत में इसी 'धर्म-विमर्श' के मूर्त रूप युधिष्ठिर के अंतरद्वंद्वों को अपनी इस रचना 'अभिनव पाण्डव' का विषय बनाया है । यह 'धर्म' का, अर्थात सत्य और न्याय की सत्ता का आत्मालाप है, महाभारत की कथा के विस्तृत संदर्भों में जीवन के इस सत्य की यात्रा की एक हद तक आत्म-ग्लानिमूलक आत्म-समीक्षा है, एक विमर्श का आत्म-निंदापरक अंतर-विमर्श ।

युधिष्ठिर का यह आत्म-विमर्श युद्ध के मैदान के बीचो-बीच अर्जुन की तरह का आत्म-संशय नहीं है, जिसके निवारण के लिये कृष्ण ने गीता का पूरा ज्ञान उलीच दिया था । गीता का वह ज्ञान ही इस बात का भी संकेत है कि सामाजिक विकास के जिस काल में महाभारत की रचना हुई थी उसमें धर्म और अधर्म से जुड़े सामाजिक-नैतिक शीलाचरणों की संहिताएं लगभग स्थिर हो चुकी थी । कथित धर्म-विमर्श के परे धर्म की रक्षा और अधर्म को दंडित करने के विधान तय हो चुके थे, इसीलिये गीता में कृष्ण की भूमिका 'धर्म-संस्थापनाय' आती है, 'धर्म-विमर्शनामाय' नहीं । कृष्ण की गीता धर्म के उन विधानों को फिर से अर्जित करने के लिये थी जिन्हें अंधे राजा धृतराष्ट्र के पुत्र कौरवों के स्वैराचार ने तहस-नहस कर दिया था । लेकिन कृष्ण किसी मूलभूत मानव-धर्म की संस्थापना के लिये संघर्ष हेतु अर्जुन को संशयमुक्त होने का पाठ नहीं पढ़ाते हैं । इस अर्थ में पांडवों के बीच सत्ता के बजाय मनुष्य को केंद्र में रख कर धर्म की आवाज उठाने वाला यदि कोई चरित्र था तो वह युधिष्ठिर था । इसीलिये व्यास ने 'धर्मराज' युधिष्ठिर को कहा था, 'धर्म-संस्थापनाय' मैदान में उतरे कृष्ण को नहीं ।

और हमारे उद्भ्रांत जी अपनी रचना में इसी धर्मराज युधिष्ठिर को भयंकर आत्म-ग्लानि में डाल कर एक प्रकार से चतुर्वणीय सनातन धर्म के बजाय मानव धर्म को आत्म-ग्लानि में डालते हैं, कदम-कदम पर उसकी ओर से दिये गये निर्णयों और उठाये गये सवालों को बींधते हुए रचना के अंत तक आते-आते तो इसमें पूरी शान और गर्व-बोध के साथ संस्थापित धर्म की मान्यताओं और आचरणों की ध्वजा लहराने लगते हैं । व्यास ने क्यों अपने विजयी पांडवों को युद्ध के अंत में हिमालय की ओर रवाना करके अकेले युधिष्ठिर को ही क्षितिज में जीवित रख दिया, इससे निकलने वाले संदेश की ओर देखते भी नहीं है !

उद्भ्रांत जी की इस कविता का पहला वाक्य ही युधिष्ठिर का यह कथन  है —
“क्योंकि मैं निर्वीर्य था / उस निर्णायक क्षण में भी शक्ति / नहीं जुटा सका रंचमात्र / समुचित प्रतिरोध की !”
धर्म और धर्म की संस्थापना का द्वंद्व, मानव जीवन में परिवर्तन का एक चिरस्थायी द्वंद्व — इसमें धर्म निर्वीर्य मान लिया जाए और उसकी संस्थापना के किसी 'एक' प्रयत्न को ही शाश्वत सत्य, तो क्या यह मानव समाज के विकास के अंत का सिद्धांत, अर्थात जड़ता का राग नहीं होगा ?

उद्भ्रांत जी ने इस कविता के प्रारंभ में ही समर्पण पृष्ठ के बाद महाभारत के उद्योग पर्व में सनत्सुजात ऋषि के साथ धृतराष्ट्र की वार्ता में से सनत्सुजात के एक कथन को अपनी इस कविता के मुख्य आप्त वचन के रूप में रखा है —

“पूर्णात्पूर्णान्युद्धरन्ति पूर्णात्पूर्णानि चक्रिरे।
हरन्ति पूर्णात्पूर्णानि पूर्णमेवावशिष्यते।”
(पूर्ण से पूर्ण का स्फुरण होता है । पूर्ण से पूर्ण निकालने पर पूर्ण ही शेष रहता है ।)

विदुर ने यहां सनत्सुजात का धृतराष्ट्र को परिचय देते हुए उनकी बुद्धि को सनातन ब्रह्म को विषय करने वाली बताया था । और महाभारत के जिस अंश, सनत्सुजातीय छठे अध्याय में वे धृतराष्ट्र को उपरोक्त बात कहते हैं, उसमें वे उन्हें योगीजनों के द्वारा देखे गये परमात्मा के स्वरूप के बारे में बता रहे होते हैं । इसके हर श्लोक में एक अतिरिक्त पंक्ति यह भी है — “योगिनस्तं प्रपश्यन्ति भगवन्तं सनातनम् ”(योगियों ने देखा है कि परमात्मा सनातन है ।)

'पूर्ण से पूर्ण की निःसृति' की पूरी अवधारणा ही अंध-आस्था और भक्ति की अवधारणा है, यथास्थितिवाद है, जो है वही परमात्मा का स्वरूप अर्थात पूर्ण है — इसमें अपूर्णता से पूर्णता की ओर द्वंद्वमूलक विकास का कोई स्थान नहीं हो सकता है । शैवगुरू अभिनवगुप्त ने अपने समय तक की भारत की अन्य सभी दार्शनिक प्रणालियों की गहन समीक्षा करके अभेद की ओर मानव जाति की यात्रा को भेद-भेदाभेद-अभेद के सूत्र से, अर्थात भेद से शुरू करके अभेद के स्वातंत्र्य तत्त्व से चालित होते हुए अभेद की ओर बढ़ने से व्याख्यायित किया है । इस द्वंद्वमूलक विकास में भेद के साथ पूर्ण स्वातंत्र्य के अभेद तत्त्व के योग की सर्वप्रमुख भूमिका होने से यहां परमात्मा के विराट रूप के सामने अंध समर्पण की अवधारणा का कोई स्थान नहीं है । लेकिन जब किसी रचना का ध्येय सनातन धर्म की ध्वजा को लहराना हो तो वह स्वातंत्र्य का पथ लेगी या समर्पण का, इसे उद्भ्रांत जी की इस कविता में बाकायदा देखा जा सकता है । यह चित्त से शुरू में ही प्रश्नों की ग्रंथी को हमेशा के लिये खारिज करके, फ्रायड की शब्दावली में फोरक्लेज्ड करके अंध भक्ति के लिये तैयार करने का पथ है, ईश्वर-स्वरूप राजा के सामने पूर्ण समर्पण का पथ ।

मजे की बात यह है कि जिस युद्ध में पांडव विजयी हुए और युधिष्ठिर पांडव पक्ष के ही थे, उसी में उद्भ्रांत जी बार-बार युधिष्ठिर से कहलवाते रहते हैं कि अगर उसने इस निर्णय या उस निर्णय के बारे में तब धर्म और नीति से जुड़े सवाल उठाने के बजाय कृष्ण के कहे अनुसार बिना सवाल किये अपने युयुत्सु पौरुष का परिचय दिया होता तो 'इतिहास ही बदल जाता' ! युधिष्ठिर के सवाल पांडवों की जीत के आड़े नहीं आए, इसके बावजूद उसकी यह ग्लानि कि ऐसा या वैसा नहीं करता तो 'इतिहास ही बदल जाता', क्या विजयी पक्ष के सबसे ज्येष्ठ व्यक्ति की ग्लानि है या यह उद्भ्रांत जी के अंदर की कोई ग्रंथी है जो चाहती है कि कम से कम आज तो हमारे बीच धर्म-अधर्म के सवालों पर कोई सवाल  न रहे और हम तमाम दुविधाओं से मुक्त हो कर अपने सनातन धर्म की स्थापना की लड़ाई में उतर सके ! यह कत्तई एलेन बाद्यू के नाटक में 'क्रांति के बाद क्या' से जुड़ी डेविड की मां पौला, एक क्रांतिकारी की चिंता नहीं है, यह सत्ताधारी बन गये डेविड के पूर्ण वर्चस्व और अहंकार के पक्ष की दलीलें हैं — गीता में कृष्ण की पूर्ण समर्पण, कर्त्तव्यपरायणता और धर्मयुद्ध की दलीलों का दोहराव है, मनुष्य के कल्याण की धर्म और नीति की बात करने वाला युधिष्ठिर का निष्ठुर  उपहास है । इस चक्कर में, इसमें महाभारत युद्ध में जब भी कुछ अघटन हुआ उसके लिये येन-केन-प्रकारेण युधिष्ठिर के नीति बोध को दोषी के कठघरे में खड़ा करने की कोशिश दिखाई देती है । यहां तक कि अभिमन्यु की मृत्यु के लिये भी युधिष्ठिर की कायरता को जिम्मेदार कहा गया है ।

“सत्य यह था / कायर थे हम सभी / चाहते थे / राज्य का सुख भोगना / और जानते थे हम / भलीभांति— / चक्रव्यूह में जाने के पश्चात / लौटना असंभव है / इस तरह / किशोर अभिमन्यु की अकाल-मृत्यु / मेरी निर्वीर्यता के / कारण हुई थी ; ”

इस पूरे आख्यान के ढांचे में मिथकीय अंध-विश्वासों का जिस प्रकार धड़ल्ले से प्रयोग किया गया है, वे भी कवि के धर्मयुद्ध के अवबोध की जमीन तैयार करने का ही काम करते हैं । कोई भी कथा कोरे शीलवानों से नहीं बनती है । जब भी कहीं प्रचलित सामाजिक शील का भंग होता है, नई कहानी का सूत्रपात होता है । महाभारत की कथा भी कोई अपवाद नहीं है । इसीलिये धर्मराज युधिष्ठिर भी यदि धर्म का पालन करने और कराने में ही सफल होते तो शायद महाभारत की कहानी ही नहीं बनती ।

उद्भ्रांत जी की इस कविता का सबसे दिलचस्प और हमारी नजर में उनकी सनातनी धर्मबुद्धि का सबसे नग्न उदाहरण पेश करने वाला अंश वह है जहां वे 'धर्म की जय हो' (यतो धर्मस्ततो जयः) की ध्वजा फहराने वाले धर्म के अंगों-उपांगों का वर्णन करते हुए ढेर सारे आप्त वचनों की झड़ी लगाते हैं । यथा — “ ब्राह्मण वही / जिसने वेदाध्ययन से,/ तपश्चर्या से महत्पद, / धैर्य से सत्संग और / बुद्धिमान-सज्जनों की / सेवा से कहलाता !” “दया श्रेष्ठ धर्म / वेदोक्त कर्म नित्य फलदायी, / मन के नियंत्रण से शोक नहीं हो, / सत्पुरुष की मित्रता — / नहीं होती नष्ट कभी।” आदि आदि । पूरे छः पृष्ठों तक उनकी ये ब्राह्मण सुक्तियां चलती है । और, अंत में काल और सनातन धर्म की अपार महिमा के बखान से होते हुए युधिष्ठिर को ही बींधते हुए वे इस आर्य भूमि में एक नये महाभारत की विजयी शंखध्वनि सुनाते हुए कविता का अंत करते हैं । धर्म का संस्थापना के लिये युद्धरत अश्वारोही आर्य, अर्थात 'नये मनुष्य' की अभ्यर्थना से वे कविता का समापन करते हैं ।

“समय के अश्व पर सवार
यह नया मनुष्य है
...
करे संघर्ष
दुर्निवार
जानता भविष्य है

समय के
अश्व पर सवार
यह नया मनुष्य है !”

मनुष्य के स्वातंत्र्य, उसके कल्याण, उसकी उन्नति के संघर्षों की कवि के पास कोई अवधारणा नहीं है । ये विषय तो धर्मयुद्ध के युयुत्सु भाव को कमजोर करने वाले, नीति-नैतिकता के धारक धर्मराज की चिंता के विषय हो सकते हैं, जो इस कविता में अपराधी के कठघरे में खड़े हैं ! इसे अधिक से अधिक सनातनी युयुत्सु धर्मबोध पर टिकी धर्मयुद्ध के लिये ललकारने वाली एक ब्राह्मण-कविता कहा जा सकता है । 





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