शुक्रवार, 2 नवंबर 2018

भाषाई प्रतिश्रुतियों के स्रोतों को भी समझा जाना चाहिए

—अरुण माहेश्वरी


भाषाई प्रतिश्रुतियों के स्रोतों को भी समझा जाना चाहिए
—अरुण माहेश्वरी

आज के 'टेलिग्राफ' में भाषाशास्त्री जी एन देवी का एक महत्वपूर्ण लेख है — 'अनसुने शब्द' (अभी बिखरी पड़ी है आधुनिक भारतीय भाषाओं की प्रतिश्रुति) । (Words Unheard ; The promise of modern Indian languages now lies broken)

अपने इस लेख में देवी ने बिल्कुल सही पिछले एक हजार साल में प्राकृत और अपभ्रंश को पीछे छोड़ कर आज की तमाम स्वीकृत भारतीय भाषाओं के विकास के इतिहास को लैटिन से यूरोपीय भाषाओं के विकास के इतिहास का समकालीन और समकक्ष बताया है । इस संदर्भ में लिखा है कि भाषाओं के विकास के बारे में विश्व इतिहास की यह समान धारा भारतीय भाषाओं के मामले में खास तौर पर आजादी के बाद के काल में इस तरह अवरुद्ध हो गई है कि आज दुनिया के भाषाई नक्शे पर एक भी भारतीय भाषा को उसके बोलने वाले भी 'ज्ञान की भाषा' के रूप में नहीं स्वीकारते हैं । एक भी भारतीय भाषा को अवसरों की भाषा, भारत के भविष्य की भाषा नहीं माना जाता है । (Not one of them is seen even by its speakers as a language of knowledge. Not one is considered the language of opportunities, not one as the language of India’s future.)

भारतीय भाषाओं की इस त्रासदी को खत्म करने में क्या सरकार की कोई भूमिका हो सकती है, इससे इंकार करते हुए देवी लेख के अंत में लिखते हैं — उस प्रकार का सारा संरक्षण सिर्फ अधकचरेपन को बढ़ा सकता है । आंशिक तौर पर लकवाग्रस्त भारतीय भाषाओं को तभी चंगा किया जा सकता है जब हम यह समझेंगे कि इन भाषाओं ने भारतीय आधुनिकता की नींव रखी थी और यह जान लेंगे कि अन्य भाषा के पर्यावरण में आगे बढ़ना एक बौद्धिक मृग मरीचिका है । (All that formal patronage can do to multiply mediocrity. Revitalization of the partially paralysed bhashas will be possible when we understand that the bhashas laid the foundationof Indian modernity, and that ‘progress‘ in another language-ecology is an intellectual mirage.)

'अन्य भाषा के पर्यावरण में प्रगति' — देवी के लेख के इस रूपक पर हम जरा सा ठहर गये । सवाल है कि भाषा आखिर मनुष्य के जीवन में क्या स्थान रखती है ? यह हमारी भौतिक जरूरतों के इजहार का माध्यम भर नहीं है, इसे तो हम आज के भाषा-विहीन संकेतों से भरी दुनिया में बड़ी आसानी से देख सकते हैं । मनुष्य के चित्त का ही एक अंश होने पर भी आखिरकार भाषा की उससे एक स्वतंत्र अपनी संरचना होती है । इसीलिये इसे विभेदों की एक औपचारिक व्यवस्था (a formal system of differences) भी कहा जाता है । एक ऐसी संरचना जो नैसर्गिक तौर पर मनुष्य के बाहर की होती है और मनुष्य उसमें अपने लिये एक स्थान बनाता है ।

कहते हैं कि शब्द भले किसी व्यक्ति का प्रतिनिधित्व करें, लेकिन वे सिर्फ उसके लिये ही नहीं बने होते हैं । वे हर किसी को उपलब्ध होते हैं । इसीलिये भाषा और मनुष्य के संबंधों की समस्या जिंदा  रहने के लिये भाषा के जगत में अपना स्थान बनाने की मनुष्य की अपनी एक जद्दोजहद भी है । इसीलिये भाषा की संरचना में आदमी बाहरी होता है । भाषा आदमी को उसकी भौतिक जरूरतों के परे, कहीं बड़ी दुनिया में गुम हो जाने का रास्ता खोलती है और इस प्रकार उसके निजी अस्तित्व के लोप के साधन की भूमिका भी अदा करती है । हेगेल कहते हैं कि 'शब्द वस्तु की हत्या के सबब होते हैं' ।

ऐसे में यदि भाषा को जीवन में अवसरों, अर्थात जीविका के सवालों से ही सिर्फ जोड़ कर देखा जायेगा तब हमारा प्रश्न है कि किसी भी खास भाषाई संरचना के होने, न होने से किसी भी आदमी को क्या फर्क पड़ता है ? शायद इसी वजह से देवी कहते है कि भाषा को सरकारी संरक्षण सिर्फ अधकचरेपन को बढ़ावा देता है ; वह भाषा को 'व्यवहारिक भाषा' के तंग दायरे तक सीमित करता है । वह उसके मानविकी, गतिशील और विस्तारवान पक्षों की संभावनाओं को नष्ट करता है ।

यहीं यह सवाल भी उठता है कि आखिर किसी भाषा को 'ज्ञान की भाषा' कहने से क्या तात्पर्य है ? क्या जब तक किसी भाषा में गणित, रसायनशास्त्र, भौतिकी, आदि विज्ञान की खास शाखाओँ की चर्चा न हो या दर्शनशास्त्र, मनोविज्ञान आदि की तरह के विषयों पर अध्यापकीय किस्म की गतिविधियां न हो, तब तक यह मान लेना होगा कि वह भाषा 'ज्ञान की भाषा' नहीं है ?

हमारे अनुसार भाषा का संसार हर हाल में मनुष्यों के चित्त का, उनके अंतर के प्रतीकात्मक (symbolic) जगत का संसार है । चित्त के विस्तार का ही अर्थ ही है भाषा के दायरे का विस्तार । मनुष्य की भौतिक जरूरतों के साथ ही उसकी बहुविध आत्मिक जरूरतें संबद्ध होती हैं । अधुनातन जीवन ही अधुनातन ज्ञान की जरूरत और 'ज्ञान की भाषा' के आधार का निर्माण कर सकता है । इसीलिये, भाषा का विकास जीवन के विकास और मानविकी के क्षेत्र में निरंतर कामों से जुड़ा हुआ है । रामजन्म भूमि के लिये मरने-मारने वालों को भक्ति और धार्मिक उन्माद की भाषा से अधिक किसी चीज की जरूरत नहीं होती है ।

और, अगर कोई अध्यापकीय कर्म के लिये भाषा के प्रयोग को ही 'ज्ञान की भाषा' मानता हो, तो कहना होगा, हर प्रकार की अध्यापकीय चर्चा अपने शीर्ष पर एक ढांचे में कैद, जीवन की गतिशीलता से असंबद्ध अमूर्त चर्चा होती है । असली ज्ञान चर्चा उसे उसके इसी सर्वाधिक अमूर्त बिंदु से मुक्त करके ही संभव है ; अर्थात, जीवन से आने वाली चुनौतियों को स्वीकार कर ही संभव है । इसीलिये, जरूरत इस बात की है कि ज्ञान चर्चा के मान्य अध्यापकीय स्वरूपों को चुनौती दी जाए, आप देखेंगे कि भाषाओं का रूप बदलने लगेगा । विज्ञान और दर्शन की सभी शाखाएं स्वत: उनमें प्रवेश करने लगेगी ।

इसके बाद भी हम नहीं समझते कि विश्व में भाषाओं के स्वरूप और अस्तित्व संबंधी चिंताओं का कहीं कोई अंत होगा, क्योंकि आज गणित का बढ़ता हुआ दायरा उसकी जद में मानविकी के तमाम रूपों को शामिल करता हुआ दिखाई दे रहा है । यह पूरी प्रक्रिया मनुष्य मात्र की तात्विक एकसूत्रता से भी कहीं न कहीं जरूर चालित है ।

बहरहाल, अपनी इस बहकी हुई टिप्पणी के साथ हम यहां जी एन देवी के इस विचारोत्तेजक लेख को साझा कर रहे हैं :
https://epaper.telegraphindia.com/imageview_229959_153848581_4_71_02-11-2018_22_i_1_sf.html
     


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