सोमवार, 20 मई 2019

पिइरो ज्राफा और हरेकृष्ण कोनार

 —अरुण माहेश्वरी

आज (8 मई 2019) के ‘ टेलिग्राफ़’ में प्रभात पटनायक का एक लेख है - पहले के प्रतीक पुरुषों ( आइकॉन्स) का विस्मरण ( Forgetting earlier icons) ।

प्रभात ने अपने लेख में दो व्यक्तियों का ज़िक्र किया है - इटली के पिइरो ज्रा़फा (Piero Sraffa) और बंगाल के हरेकृष्ण कोनार ।

प्रभात ने बताया है कि ज्रा़फा इटली के महान कम्युनिस्ट अंतोनिओ ग्राम्शी के उन कम्युनिस्ट मित्रों में एक थे जो फासिस्टों की जेल में ग्राम्शी से हमेशा मिला करते थे और उनके ‘प्रिजन नोटबुक’ के लिये सामग्री जुटा कर देने वालों में एक थे । प्रभात ने कुछ लोगों की बातों के हवाले से इस बात के भी संकेत दिये हैं कि शायद प्रिजन नोटबुक की पांडुलिपि को जेल से बाहर लाने में भी उनकी भूमिका थी । प्रभात ने उन्हें इटली में कम्युनिस्ट पार्टी के जन्म के साथ भी जुड़ा बताया है ।

बहरहाल, पिइरो ज्रा़फा मूलत: एक अर्थशास्त्री थे । 1898 में इटली के तुरिन शहर में उनका जन्म हुआ था, अर्थात वे ग्राम्शी से सात साल छोटे थे । उनके पिता भी एक प्रोफेसर थे । स्थानीय विश्वविद्यालय से स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद 1921 में वे लंदन स्कूल आफ इकोनोमिक्स में आगे की पढ़ाई के लिये चले गये जहाँ वे दो साल रहे । वहीं पर उनका पहली बार जॉन मेनर्ड केन्स से संपर्क हुआ । केन्स ने उनसे ‘मैन्चेस्टर गार्डियन’ पत्रिका के लिये इटली की बैंकिंग प्रणाली पर एक लेख लिखवाया था । ज्रा़फा ने इस लेख में इटली के फासिस्टों पर प्रहार किया था जिस पर मुसोलिनी सरकार ने तीव्र प्रतिक्रिया की थी । लेकिन इसके बावजूद नवंबर 1923 में इटली की पेरूजा विश्वविद्यालय में राजनीतिक अर्थशास्त्र और सार्वजनिक वित्त विषय पर उन्हें लेक्चररशिप की नियुक्ति मिल गई ।

पेरूजा विश्वविद्यालय में इन लेक्चर के आधार पर ही उनका प्रबंध तैयार हुआ - ‘Sulle relazioni fra costo e quantita prodotta’ (On the relations between cost and quantity produced)। अपने इस प्रबंध में ज्रा़फा ने आल्फ्रेड मार्शल के सिद्धांत में उत्पादन में मुनाफ़े में गिरावट, स्थिरता, और वृद्धि के आधार का एक विश्लेषण किया था । इसी के आधार पर वे कैलियरी विश्वविद्यालय में राजनीतिक अर्थशास्त्र विभाग में पूर्ण प्रोफ़ेसर के पद पर आ गये । इस पद पर वे जीवन की अंतिम घड़ी तक बने रहे । यहाँ तक कि जब वे देश छोड़ कर चले गये, उन्हें प्रोफ़ेसर पद से नहीं हटाया गया और उन्होंने उससे अपनी सारी आमदनी को विश्वविद्यालय के पुस्तकालय को दान कर दिया । उनके इस लेखन की इतनी प्रशंसा हुई कि इसके एक अंश का अंग्रेज़ी में अनुवाद करके 1926 के लंदन के रॉयल इकोनोमिक सोसाइटी के ‘The Economic journal’ में प्रकाशन किया गया ।

ज्रा़फा ने अपने इस लेख के प्रारंभ में ही लिखा था : “ अर्थनीतिशास्त्र की आज की परिस्थिति की अचरज भरी बात यह है कि इसमें सारे अर्थशास्त्री माल के प्रतियोगितामूलक मूल्य के विषय में एकमत है जिसे वे माँग और आपूर्ति की ताक़तों के बीच मूलभूत समरूपता पर आधारित मानते हैं और यह मान कर चलते हैं कि किसी भी माल विशेष के मूल्य को तय करने वाले मूल कारणों को बहुत सरलता से समझा जा सकता है और उन्हें एक साथ रख कर सामूहिक माँग और आपूर्ति के आपस में मिलने वाले वक्रों (curves) के युग्म से व्यक्त किया जा सकता है । पिछली सदी में राजनीतिक अर्थशास्त्र में माल के मूल्य के सिद्धांत पर चले तीव्र विवादों की तुलना में यह बिल्कुल अन्य स्थिति है जिससे लग सकता है मानो विचारों के उन संघातों के बीच से किसी परम सत्य के प्रकाश को ही हासिल कर लिया गया है । “ (ज्रा़फा, 1926, पृष्ठ - 535)
(A striking feature of the present position of economic science is the almost unanimous agreement at which economists have arrived regarding the theory of competitive value, which is inspired by the fundamental symmetry existing between the forces of demand and those of supply, and is based upon the assumption that the essential causes determining the price of particular commodities may be simplified and grouped together so as to be represented by a pair of intersecting curves of collective demand and supply. This state of things is in such marked contrast with the controversies on the theory of value by which political economy was characterised during the past century that it might almost be thought that from these clashes of thought the spark of an ultimate truth had at length been struck. )

इससे जाहिर है कि ज्रा़फा ने अपने समय की मुख्यधारा के सर्वमान्य विचार से खुद को अलग किया था । उन्होंने इस प्रकार की सर्व-सम्मत मूल्य संबंधी मोडम थ्योरी में एक ऐसे काले धब्बे को देखा था जो इस थ्योरी के पूरे ‘संगतिपूर्ण’ ढाँचे को ढहा देने के लिये काफ़ी था ।

हमें यह देख कर कम्युनिस्ट दार्शनिक एलेन बाद्यू की बात याद आई - “सत्य हमेशा वह होता है जो ज्ञान में छिद्र पैदा करता है । सत्य/ ज्ञान के युग्म के विचार में हर चीज़ दाव पर लगी होती है ।”
( A truth is always that which makes a hole in a knowledge. Everything is at stake in the thought of the truth/knowledge couple.) सत्य किसी स्थिर संतुलन में नहीं, संतुलन को प्राप्त करने की तरल प्रक्रिया में, संतुलन में दिखाई देने वाली दरारों, छिद्रों में निहित होता है ।

और, कहना न होगा, प्रभात के लेख के अलावा ज्रा़फा के बारे में हमारी जिज्ञासा को आगे और बढ़ाने के लिये यही काफ़ी था ।

ज्रा़फा मूल्य के बारे में माँग और आपूर्ति के संबंधों के सिद्धांत की आम राय में कैसे एक काला धब्बा देख रहे थे ?

जिसे आपूर्ति का वक्र (curve) कहते हैं, वह मुनाफ़े में वृद्धि और गिरावट (increasing and diminishing returns) के योग पर आधारित होता है। ज्रा़फा का कहना था कि इस वक्र के स्तंभ इतने कमजोर हैं कि वे मूल्य संबंधी इसके सारे बोझ का वहन नहीं कर सकते हैं ।

मांग और आपूर्ति के बीच का पाठ्य पुस्तकों वाला यह संतुलन क्या है ? इस विषय पर वे उदाहरण के आधार पर अपनी चर्चा को आगे बढ़ाते है । किसी भी एक बाज़ार में (मसलन् वाइन की माँग के वक्र में ) बदलाव को पहले उस बाज़ार के संतुलन को बिगाड़ने वाले प्रभाव के रूप में लिया जाता है (वाइन की क़ीमत और उसके उत्पादन की मात्रा में बदलाव के तौर पर ), और फिर उसके कारण अन्य बाज़ारों पर असर को इसमें शामिल किया जाता है । उस बाज़ार में जहाँ सबसे पहला परिवर्तन होता है, क़ीमत और मात्रा में बदलाव में वाइन बनाने के लिये अंगूर की माँग पर और वाइन के वैकल्पिक बीयर की माँग पर असर शामिल है । अब यदि इसके अन्य बाज़ारों पर प्रभाव को बाजार के संतुलन पर परवर्ती प्रभाव के रूप में लिया जाए, न कि उसके मूल स्थान पर प्रभाव की तरह, और यदि इन प्रारंभिक प्रभाव को इतना मामूली मान ले कि उन्हें पहले चरण में ही नज़रंदाज़ किया जा सकता है, तभी मामूली फ़र्क़ के संदर्भ में किसी अन्य बाजार के आपूर्ति और माँग के पूरी तरह से स्वतंत्र वक्रों पर विचार किया जा सकता है ।

इसी बिंदु पर ज्रा़फा मुनाफ़े के अलग-अलग स्वरूपों पर विचार करने की बात कहते हैं । पहला,  वह जो कंपनी विशेष का अपना मुनाफ़ा होता है । दूसरा, कंपनी विशेष का नहीं बल्कि उस पूरे उद्योग से संबद्ध होता है । और तीसरे प्रकार का मुनाफ़ा इन दोनों, अर्थात् कंपनी विशेष, उद्योग विशेष, दोनों से ही बाहर की स्थिति से जुड़ा होता है । ज्रा़फा बताते हैं कि पहले प्रकार के मुनाफ़े का प्रतियोगिता से कोई पूर्ण संगतिपूर्ण संबंध नहीं होता है । जबकि मुनाफ़े के तीसरे स्वरूप का भी इस आंशिक संतुलन से कोई संपर्क नहीं होता क्योंकि वह इन सबसे स्वतंत्र होता है । एकमात्र मुनाफ़े का दूसरा स्वरूप, जो कंपनी और उद्योग से जुड़ा होता है, ज्रा़फा कहते हैं कि मार्शल की थ्योरी के विश्लेषण से प्रतियोगिता की बिल्कुल आदर्श परिस्थिति (perfect competition ) में आपूर्ति के वक्र के विश्लेषण से इसका कोई मेल बैठाया जा सकता है । लेकिन इसे बिल्कुल ठोस रूप में देख पाना हमेशा संदेहास्पद होता है, क्योंकि इसके तरल बने रहने के दूसरे तमाम कारण होते है । प्रभात ने अपने लेख में perfect  और imperfect प्रतियोगिता की श्रेणियों की चर्चा की है, लेकिन इन दोनों के बीच फ़र्क़ की इसीलिये कोई साफ़ समझ नहीं बन पाती है क्योंकि यथार्थ में कभी भी perfect की तरह की ठोस धारणा का कोई अस्तित्व नहीं होता है ।  perfect हमेशा किसी भी परिस्थिति की क्रियात्मकता का पहलू होता है, परिस्थिति की तस्वीर हमेशा perfect/imperfect होगी, दार्शनिक बाद्यू की शब्दावली में one/multiple, और हमारे अभिनवगुप्त की पदावली में भेदाभेद । अथवा मुनाफे के संदर्भ में इसे consistent returns या inconsistent returns से व्याख्यायित किया जा सकता है ।

बहरहाल, तीसरे प्रकार के मुनाफ़े का आंशिक संतुलन के मामले से कोई मेल नहीं बैठता है क्योंकि इसे उद्योगों के उत्पादन में अलग-अलग खर्चों (लागतों) से होने वाले बदलाव से अलग नहीं किया जा सकता है, जो बाकी सभी उद्योगों पर भी लागू होते हैं, उनसे संबद्ध होते हैं ।

जैसे यदि जमीन की समान मात्रा में अंगूर उगाया जाए और बीयर के उत्पादन में लगने वाली हाप्स उगाई जाए, तो अंगूर से होने वाले लाभ की बदौलत जमीन के दाम बढ़ जाते हैं और वह दाम हाप्स की फसल पर भी लागू होते हैं । इस प्रकार दोनों उद्योगों में समान परिवर्तन होता है । इसीलिये उद्योग के बाहर होने वाले परिवर्तनों से उद्योग के अंदर के मुनाफे पर भी असर पड़ता है । यही वजह है कि उत्पादन के साधनों के मामलों में दूसरे उद्योगों में आने वाले बदलाव को यूं ही दरकिनार नहीं किया जा सकता है । जब किसी उद्योग में लागत में आने वाले बदलाव का दूसरे उद्योगों पर असर नहीं पड़ता है तब वह मामला उस उद्योग का अपना अंदुरूनी मामला होता है । जमीन सीमित है और इसीलिये जमीन पर लागत बढ़ने पर उसका प्रभाव प्रत्येक चीज पर पड़ेगा । यही वजह है कि कंपनी के बाहर और उद्योग के अंदर की लागत के बढ़ने पर एक उद्योग पर पड़ने वाला असर अन्य उद्योग को भी प्रभावित कर सकता है, उनका भी संतुलन ( मूल्य और मात्रा का संतुलन ) बिगाड़ सकता है । यदि दूसरी बातें पूर्ववत् रहे तो माना जा सकता है कि यह परवर्ती प्रकार का अर्थात् उद्योग के बाहर के बदलावों का प्रभाव होगा ।

इसी के आधार पर ज्राफा ने 1925 में यह निष्कर्ष निकाला कि उत्पादन की मात्रा में मामूली बदलाव के संदर्भ में प्रतियोगिता की आदर्श स्थिति में मुनाफ़े को स्थिर रखा जा सकता है और आपूर्ति के वक्र का विश्लेषण आसान हो जाता है ।

ज्रा़फा ने इसी विचार को 1926 के अपने आलेख के पहले हिस्से में दोहराया था और कहा था कि इससे मूल्य और मुनाफ़े के बारे में शास्त्रीय सिद्धांत की पुष्टि होती है । 'पुराना और अब बेकार हो चुका सिद्धांत जो प्रतियोगिता मूल्य को उत्पादन की लागत पर आधारित करता है, वही सही साबित हो रहा है ।' फिर भी ज्राफा अपने इस नतीजे से संतुष्ट नहीं थे । वे यह स्वीकार नहीं कर पा रहे थे कि क्या लागत की मात्रा मात्र से ही चीजों के मूल्य निर्धारित होते हैं ? उनके सामने दो विकल्प थे । बिल्कुल आदर्श प्रतिद्वंद्विता ( जिसमें मांग और आपूर्ति के संतुलन का कोई मायने नहीं हो)  अथवा मांग और आपूर्ति का आंशिक संतुलन ( जिसमें खुली प्रतिद्वंद्विता की प्रमुखता न हो ) । इनमें से उनको किसी एक को त्यागना जरूरी था । ज्राफा के अध्येताओं ने यह लक्षित किया है कि वे शुरू में आदर्श प्रतिद्वंद्विता की बात को मानते थे, लेकिन बाद में आंशिक संतुलन को मानने लगे थे । ज्राफा के इस 'आंशिक ढांचे' को मान कर चलने के प्रस्ताव का तब अन्य लोगों पर काफी असर पड़ा था । इस विषय पर तीस के दशक में आगे हुई बहस में खास तौर पर जौन रौबिन्सन आदि इसे ही ले उड़े थे । लेकिन ज्राफा ने उस वक़्त की बहस में भाग नहीं लिया ।

बहरहाल, इस पूरे विषय को विस्तार से यहां रखने का एक ही मकसद है कि ज्राफा के अध्येताओं ने यह भी लक्षित किया था कि बाद की इस पूरी बहस में ज्राफा के हस्तक्षेप को केन्स ने अपने संपादकीय नोट में नकारात्मक और विध्वंसकारी आलोचना कहा । देखें — (1. Critical essays on Piero Sraffa's legacy in economics / edited by Heinz D. Kurz ;
Piero Sraffa's contributions to economics: a brief survey ; Heinz D. Kurz and Neri Salvadori , page – 6)

ज्राफा ने भी इसे राबर्टसन को दिये जवाब में माना था कि “मैं मार्शल की थ्योरी की मान्यताओं को देखने की कोशिश कर रहा हूं ; यदि राबर्टसन इसे अत्यंत गैर-यथार्थवादी मानते हैं तो मेरी उनके प्रति सहानुभूति है । लगता है कि हम इस बात पर सहमत है कि किसी थ्योरी की व्याख्या इस प्रकार से नहीं की जा सकती है जो उसे तार्किक लिहाज से पूरी तरह आत्म-संपूर्ण बना दे, और साथ ही जिन तथ्यों की उसे व्याख्या करनी है उनसे भी मेल बैठाती चले । श्रीमान राबर्टसन का निदान गणित को खारिज करने का निदान है और उनके अनुसार मेरा निदान तथ्यों को खारिज करने में हैं ; इस परिस्थिति में मेरा कहना है कि शायद मार्शल थ्योरी को ही खारिज कर दिया जाना चाहिए ।”
(I am trying to find what are the assumptions implicit in Marshall's theory; if MrRobertson regards them as extremely unreal, I sympathise with him. We seem tobe agreed that the theory cannot be interpreted in a way which makes it logically self-consistent and, at the same time, reconciles it with the facts it sets out toexplain. Mr Robertson's remedy is to discard mathematics, and he suggests that my remedy is to discard the facts; perhaps I ought to have explained that, in thecircumstances, I think it is Marshall's theory that should be discarded. ”) (वही, पृष्ठ – 8)

दरअसल एक राजनीतिक अर्थशास्त्री के तौर पर 1926 के अपने आलेख में ज्रा़फा के विश्लेषण का उद्देश्य “उत्पादन के विभिन्न चरणों में मुनाफ़े के बटवारे की प्रक्रिया और एक देश में सभी उद्योगों में मुनाफ़ों के सामान्य स्तर के क़ायम होने प्रक्रिया को समझना था ।” (देखें -1926, page -550 और Eatwell and Patrick 1987)

ज्रा़फा 1920 के दशक में (1927 में ) कैम्ब्रिज में लैक्चरर बने । यहाँ मूल्य के बारे में विकसित सिद्धांत पर उन्होंने जब अपने व्याख्यान दिये, तभी इस विषय पर मार्शल के निदान पर उनमें संदेह पैदा हो गया था । 1930 में वे मार्शल पुस्तकालय के लाइब्रेरियन बने और कैम्ब्रिज में उन्हें अर्थशास्त्र के स्नातक स्तर तक के पाठन का दायित्व दिया गया ।

कैम्ब्रिज में आने के बाद ही उन्होंने केन्स को अपनी उन प्रस्थापनाओं के बारे में बताया था जिनके आधार पर बाद में उनकी किताब ‘पण्यों के ज़रिये पण्यों का उत्पादन’ ( Production of Commodities by means of Commodities) आई थी । उन दिनों केन्स की पुस्तक ‘Treatise on Money’ और ‘General Theory of employees Interest and Money’ पर एक विवाद के छिड़ जाने से उनकी इस पांडुलिपि के प्रकाशन में विलंब हो गया । ज्रा़फा 1930 में Royal Economic Society के प्रकल्प के रूप में डेविड रेकार्डो के लेखन और पत्रों के एक संकलन, 'The works and correspondence of David Ricardo' के संपादन का काम संभाला, जिसकी चर्चा प्रभात पटनायक ने भी की है और जिसके लिये उन्हें 1961 में स्वीडिश रॉयल अकादमी का गोल्डेन मेडल मिला ।

बहरहाल, जब अक्तूबर 1930 में केन्स की ‘Treatise on Money’ पर अकादमिक दुनिया में विवाद पैदा हुआ तब ज्राफा ने कैम्ब्रिज में केन्स का जम कर समर्थन किया था और उस विवाद में ज्राफा के ज्ञान और पुख्ता तर्कों से उनकी अपनी एक अलग पहचान बनी थी । कैम्ब्रिज में तब केन्स के समर्थन में किये गये अर्थशास्त्रियों के सेमिनार को केन्स सर्कश के नाम से जाना जाता था जिसमें ज्राफा ने काफी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था । यद्यपि यह भी कहा जाता है कि तुनकमिजाज माने जाने वाले ज्राफा के मन में किताब लिखने के केन्स के तरीके के बारे में अच्छे विचार नहीं थे । खास तौर पर केन्स की ‘General Theory’ को लेकर उन्होंने अपने को उस सर्कश से अलग कर लिया ।

1931 में ‘Treatise’ की समीक्षा करते हुए फ्रेडरिख अगस्त वान हायेक की एक किताब आई — ‘Prices and Production’ (कीमतें और उत्पादन) । अपनी इस समीक्षा में हायेक ने औसत मांग की कमी के आधार पर आर्थिक संकट की व्याख्या करने से इंकार किया था । आर्थिक संकट को उन्होंने उत्पादन की गलत दिशा को दोषी बताया । बैंकें ब्याज की दरों को संतुलन की दर से कम रखती हैं । केन्स ने हायेक का जवाब देने की कोशिश की लेकिन कहीं न कहीं वे हायेक की बात के पीछे के तर्क को पकड़ने से चूक रहे थे । हायेक के तर्क जिन संतुलनकारी सिद्धांतों पर टिके हुए थे, उन Paretian general equilibrium theory और Bawerkian theory of capital and interest से वे परिचित नहीं थे । चूंकि ज्राफा अर्थशास्त्रीय चिंतन की उत्पादन में दक्षता (efficiency in production) से जुड़ी इन धाराओं से वाकिफ थे इसीलिये केन्स ने हायेक को उत्तर देने के लिये ज्राफा की मदद ली ।

इसी उपक्रम में सन् 1932 में ज्राफा की पुस्तक आई — Dr. Hayek on Money and Capital । हायेक ने भी इस प्रबंध का जवाब दिया था ।

इसी में यह बात सामने आई कि मुद्रा सिर्फ विनिमय का साधन नहीं होती, उसका अपना भी एक मूल्य होता है । जिस अर्थ-व्यवस्था में मुद्रा का गला घोटा जाता है, वह अर्थ-व्यवस्था मुद्राविहीन अर्थ-व्यवस्था की तरह का आचरण करने लगेगी, अर्थात वस्तुओं के आदान-प्रदान की बार्टर प्रणाली वाली व्यवस्था जैसी बन जायेगी । इसीलिये ज्राफा को लगा कि इसमें हायेक जरूर किसी न किसी एक चीज को देखने से चूक रहे हैं । ज्राफा ने  इसे हायेक के स्वैच्छिक संचय (voluntary savings) और जबरिया संचय (forced savings) के संदर्भ में देखने की कोशिश की । स्वैच्छिक संचय अर्थात भविष्य के लिये वर्तमान से समझौता । श्रम की स्थिर परिस्थिति और तकनीक में लगातार विकास से जिसमें पूंजीवादी उत्पादन का चक्का तेजी से घूमता है, प्रति व्यक्ति खपत का बढ़ना अनिवार्य है । इससे उसी अनुपात में सकल आमदनी खपत और मशीनों में लगेगी । अर्थात् सकल बचत प्रभावित होगी । ऐसे में जब तक नया और स्थायी संतुलन (equilibrium) कायम नहीं हो जाता तब तक के संक्रमण के काल में ही सिर्फ शुद्ध बचत में वृद्धि होगी ।

हेंस द क्रुज और नेरी सल्वाडोरी ने अपने उपरोक्त लेख में यह बताया है कि ज्राफा हायेक की जिस बात की ओर इशारा कर रहे थे, हायेक के लिये वह विचार का विषय ही नहीं था । उनकी समझ थी कि संतुलनकारी दर से नीचे ब्याज की दरों को तय करने पर उत्पादकों अथवा उपभोक्ताओं पर कर्ज बढ़ता है और इससे उत्पादन के औसत काल लंबा खिंचने में उत्पादक को लाभ होता है । इसमें किसी भी प्रकार से श्रमिक की खपत को नियंत्रित करने, अर्थात् जबरिया बचत की भूमिका होती है । उपभोक्ता के कर्ज में वृद्धि की मुद्रास्फीति से पूंजी का संकुचन होता है और प्रति व्यक्ति खपत में गिरावट आती है । इसमें अन्ततः आमदनियां बढ़ेगी और चूंकि उपभोक्ता की पसंद में कोई बदलाव नहीं आता है तो खपत की मांग बढ़ेगी, उपभोक्ता सामग्रियों की कीमतें बढ़ेगी, अर्थात् पूंजी के चक्र का कम घूमना लाभदायी हो जाता है । इससे पूंजी की प्रक्रिया में घट-बढ़ की प्रक्रिया से एक आर्थिक संकट का रूप सामने आता है । बैंकें अन्ततः अपनी भूल को सुधार लेती है, इस अनुमान पर एक महंगी यात्रा करके व्यवस्था फिर अपने मूल संतुलन पर लौट आता है ।
इस प्रकार एक नया संतुलन कायम होता है । दिलचस्प है कि हायेक के मत में उत्पादक को कर्ज के रूप में मुद्रास्फीति के 'कृत्रिम उत्प्रेरक' से जहां कोई लाभ नहीं होगा वहीं उपभोक्ता के कर्ज के रूप में इस उत्प्रेरक से नुकसान होगा क्योंकि उससे बचत के प्रभाव को रोका जाता है । उपभोक्ताओं के कर्ज के रूप में मुद्रास्फीति वस्तुतः पूंजी को कम करेगी और पूरी व्यवस्था के एक ऐसे नये संतुलन की ओर ठेल देगी जिसमें प्रति व्यक्ति खपत कमतर होगी ।

ज्राफा हायेक के इस सिद्धांत में नियंत्रित मुद्रा की अर्थ-व्यवस्था की गति-प्रकृति को तय करने में एक भूमिका को देखते हैं । इसके विपरीत ज्राफा ब्याज की दर और संतुलनकारी दर की जगह मुद्रा अर्थव्यवस्था की विशेषता के तौर पर एक नई अवधारणा पेश करते हैं — ब्याज की अपनी दर (own rate of interest) की अवधारणा ।

बहरहाल, ज्राफा की इस भूमिका से केन्स उन पर बहुत खुश हुए थे । इससे कहते हैं कि उनकी General Theory के प्रकाशन के रास्ते की बाधा खत्म हो गई । केन्स ने ज्राफा की 'ब्याज की अपनी दर' की अवधारणा की यह कह कर तरफदारी की कि यह अपने पास नगदी रखने न रखने की इच्छा (liquidity preference) पर निर्भर है । ज्राफा केन्स की इस दलील से खुश नहीं थे ।(वही, पृ : 10) उनकी नजर में किसी चीज को अपने पास रखने से मिलने वाले लाभ का 'own particular rate of interest' से कोई संबंध नहीं है । यदि कीमत में कोई बदलाव न हो तो प्रत्येक पण्य पर ब्याज की दर समान ही लागू होगी ।

1940 के दशक में रॉयल इकोनोमिक सोसाइटी के तत्वावधान में रेकार्डों के लेखन और पत्रों का संकलन प्रकाशित हुआ जिसे 1961 में स्वीडिश रॉयल अकादमी के गोल्ड मेडल सोडरस्ट्रौम मिला जिसका प्रभात ने भी अपने लेख में उल्लेख किया है । इस संकलन की भूमिका में ज्राफा ने आल्फ्रेड मार्शल की मूल्य की क्लासिकल थ्योरी से रेकार्डो के आधार पर अपने मतभेद जाहिर किये थे ।

ज्राफा के बारे में इन तमाम बातों को रखने का एक ही मतलब है कि उनसे पता चलता है कि वे मूलतः एक अर्थशास्त्री थे । उन्होंने पूरा जीवन एक अध्यापक के रूप में काटा । उनके सार्वजनिक राजनीतिक जीवन की कोई विशेष जानकारी नहीं मिलती है । इसीलिये यदि वे ग्राम्शी से अपने संपर्कों के नाते कम्युनिस्ट राजनीति के आइकन हो सकते है तो उन नींव के पत्थरों की तरह काम करने वाले लोगों को पेश करने वाले आइकन, जिनके राजनीतिक योगदान का प्रकट रूप से कभी मूल्यांकन नहीं किया जाता है ।

अब हम आते है, पश्चिम बंगाल के कामरेड हरेकृष्ण कोनार के बारे में । कोनार हमारी अपनी निजी स्मितियों के जीवंत हिस्से है । 1964 में सीपीआई से टूट कर सीपीआई(एम) के गठन के बाद जिन तीन नेताओं के नाम से सीपीएम को जाना जाता था उनमें ज्योति बसु, प्रमोद दाशगुप्त के अलावा तीसरा नाम हरेकृष्ण कोनार का ही था । जनता के बीच उनकी लोकप्रियता ज्योति बसु से कम नहीं थी । आम सभाओं में हमेशा एक घंटा से ज्यादा बोलने वाले कामरेड कोनार के भाषणों की ख्याति ऐसी थी कि बंगाल के प्रसिद्ध उपन्यासकार समरेश बसु ने एक जगह लिखा है कि घरों की औरतें अपनी रसोई का काम उस दिन शाम के पहले ही पूरा कर लिया करती थी जिस दिन उनके इलाके में हरेकृष्ण कोनार का भाषण होने वाला होता था ।

पश्चिम बंगाल में 1967 में जब पहली संयुक्त मोर्चा सरकार बनी थी तभी कोनार उसमें भूमि और भूमि राजस्व मंत्री हुए थे और 1969 की दूसरी संयुक्त मोर्चा सरकार में भी वे उसी विभाग के मंत्री रहे । अपने मंत्रित्व के छोटे से काल में उन्होंने बंगाल के कृषि क्षेत्र पर कितनी गहरी छाप छोड़ी थी इसे हम यहां तत्कालीन सरकारी अधिकारी देवव्रत बंदोपाध्याय के उस लेख के जरिये देना चाहेंगे जो उन्होंने पश्चिम बंगाल के भूमिसुधार के संदर्भ में ‘इकानामिक एंड पॉलिटिकल वीकली’ के 27 मई 2000 के अंक में लिखा था और जिसमें मूलतः हरेकृष्ण कोनार और विनय चौधुरी का स्मरण किया गया था। देवव्रत बंदोपाध्याय को हरेकृष्ण कोनार ने लैंड रेकर्ड एंड सर्वेज का निदेशक नियुक्त किया था। बाद में पहली वाम मोर्चा सरकार के समय जब विनयकृष्ण चैधरी भूमि और भूमि सुधार मंत्री बनें तब उन्होंने देवव्रत बंदोपाध्याय को केंद्र सरकार से बुला कर भूमि सुधार आयुक्त बनाया और राज्य में भूमि सुधार के कामों की मुख्य जिम्मेदारी प्रशासनिक स्तर पर उन्हें सौंपी गयी। श्री बंदोपाध्याय ने अपने इस लेख का प्रारंभ ही इन पंक्तियों से किया हैः
”इतिहास का यह एक अनूठा व्यंग्य ही है कि पश्चिम बंगाल के भूमिसुधार के दो चरणों के प्रत्येक चरण में एक-एक दृढ़प्रतिज्ञ नेता उसे दिषा देने और उसका नेतृत्व करने के लिये उपस्थित था। एक थे हरेकृष्ण कोनार और दूसरे थे विनय चौधुरी। कोई भी दूसरे दो व्यक्ति कुछ मायनों में इतने एक जैसे नहीं हो सकते है और कुछ मायनों में एक दूसरे से इतने भिन्न जितने   हरेकृष्ण कोनार और विनय चौधुरी थे। दोनों अपने लक्ष्य के प्रति पूरी तरह से प्रतिबद्ध, ‘वैज्ञानिक’ समाजवाद के सिद्धांतों के प्रति गहरी आस्था रखने वाले, निजी जीवन में निस्पृह और काम के प्रति निष्ठावान व्यक्ति थे। व्यक्तित्व के लिहाज से कोनार जैसे किसी अंधड़ की तरह - चक्रावात की तरह - थे, जो अपने रास्ते की किसी भी बाधा को न स्वीकारते हुए समूचे विरोध के बीच से अपना रास्ता बना लेते थे। वे एक दृढ़ क्रांतिकारी थे जिसने कार्यनीतिगत कारणों से अस्थायी रूप में संसदीय रास्ते को अपनाया था। ... कोनार का आतंकित करने वाला तेवर साठ के दशक के अंतिम वर्षों में पश्चिम बंगाल के समाज और राजनीति पर भूपतियों की जकड़बंदी को तोड़ने तथा प्रशासन की जड़ता को खत्म करने के लिये जरूरी था।

23 जुलाई 1974 के दिन कामरेड कोनार की मृत्यु होगयी।
का. कोनार की कार्य-पद्धति के बारे में टिप्पणी करते हुए देवव्रत बंदोपाध्याय ने लिखा है: “ यद्यपि संयुक्त मोर्चा मतदाताओं के भारी समर्थन के साथ सत्ता में आया था, तथापि उसे भारतीय संविधान, स्थापित मूलभूत कानूनों, सरकारी कार्रवाई के बारे में न्यायपालिका की राय तथा चली आरही कानूनी और प्रशासनिक विधियों और व्यवहारों के कड़े मानदंडों की सीमा में सख्ती के साथ काम करना था। किसी भी स्थापित मानदंड पर खतरे का अर्थ था ऐसी केंद्रीय सरकार द्वारा तत्काल भंग कर दिया जाना जो दोस्ताना कत्तई नहीं थी।”

श्री बंदोपाध्याय लिखते हैं कि हरेकृष्ण कोनार ने दूसरों के खिलाफ तय किये गये नियमों के प्रयोग से ही उन्हें परास्त करने की कुसाग्रता का परिचय दिया। भारत के संविधान में संगठन बनाने और शांतिपूर्ण सभा-समावेश करने का मूलभूत अधिकार दिया हुआ था। इसके अलावा भारत के साक्ष्य कानून के अनुसार किसी भी दस्तावेजी प्रमाण को भारी मात्रा में मौखिक सबूत की ताकत के आधार पर खारिज किया जा सकता है ; भारत के फौजदारी कानून की धारा 110 में यह व्यवस्था है कि किसी भी व्यक्ति को जो बुरा आचरण करता है, उसे सही रास्ते पर लाने के लिये उस पर जनता का दबाव पैदा किया जा सकता है। इसमें ऐसा कही भी नहीं कहा गया है कि फौजदारी कानून की धाराओं का प्रयोग सिर्फ किसानों और मजदूरों के खिलाफ ही किया जा सकता है। यदि किसी भी स्थान पर खेतिहर मजदूर और बंटाईदार किसी भी उद्देश्य से शांतिपूर्ण तरीके से इकट्ठे होते हैं और जमींदारों द्वारा शांति में खलल पैदा की जाती है तो वैसी स्थिति में शांति को बनाये रखने के लिये फौजदारी कानून जमींदारों पर लागू होगा। कानून के इन सभी प्राविधानों को मिला कर ही व्यापक जनता की हिस्सेदारी के जरिये  कानूनी भूमि सुधार का का.कोनार का वह फार्मूला तैयार हुआ था जिस पर पहली संयुक्त मोर्चा सरकार के काल से शुरू हुए अमल ने पश्चिम बंगाल के गांवों में एक तूफान ला दिया। श्री बंदोपाध्याय ने कोनार के इस नुस्खे को ”एक साधारण, सख्त और उतना ही अभिनव“ बताया है।

श्री बंदोपाध्याय लिखते हैं कि कोनार ने किसानों द्वारा किसी की भी निजी संपत्ति पर जबरिया कब्जे की किसी भी नीति को कभी स्वीकृति नहीं दी, जबकि हर जगह जमींदार ‘बेनामी जमीन’ रखे हुए थे। वे जानते थे कि किसान प्रकृति से ही संरक्षणवादी होता है। उसकी मानसिकता में किसी की निजी संपत्ति को छूना पाप था। शोषण की प्रक्रिया में अपनी जमीन गंवा देने पर भी वे उस जमीन को अपनी निजी संपत्ति नहीं मानते थे। गैर-कानूनी तरीके से हथियाई गयी जमीन पर भी गैर-कानूनी ढंग से कब्जा करने को वे पाप और अनैतिक मानते थे। इसीलिये बदली हुई राजनीतिक परिस्थिति में यदि कोई उन्हें बेदखल करेगा तो उनमें अपने अधिकारों के लिये लड़ने का साहस और संकल्प नहीं होगा। इसे समझते हुए ही कोनार ने अतिरिक्त जमीन को सरकार के कब्जे में लेने का कानूनी तरीका अपनाया। जमीन जब सरकारी होगयी तो फिर उसका क्या होगा, यह सरकार की नीति से जुड़ा मसला है, इसमें किसी की निजी संपत्ति के अधिकार का मामला नहीं आता है। इसप्रकार एक क्रांतिकारी किंतु प्रकृत यथार्थवादी कोनार ने पश्चिम बंगाल में मूलभूत भूमि सुधार का अपना रास्ता तैयार किया।

अब रहा मामला तथ्यों को जानने का कि कितनी जमीन बेनामी और किस प्रकार से रखी हुई है और उसे किस प्रकार कब्जे में लेकर भूमिहीनों के बीच बांटा जाए। इसके लिये का. कोनार ने अपने विभाग को कुछ ठोस मामलों के अध्ययन के काम में लगाया। उनसे इस बारे में गहराई से जांच करने के लिये कहा गया कि गुप्त ढंग से किस प्रकार हदबंदी से अधिक जमीन को रखा गया है और कैसे जमींदारों से यह जमीन कानूनी ढंग से हासिल की जा सकती है। मंत्री के इस निर्देश पर 1967 में ही एक पुस्तिका प्रकाशित की गयी जिसका शीर्षक था: ” पश्चिम बंगाल में भू हदबंदी के उल्लंघन पर एक प्रतिवेदन“। इस पुस्तिका में किये गये विश्लेषण से समूची अतिरिक्त जमीन को सरकार के हाथ में लेने का आगे का जो तरीका उभर का सामने आया, वह श्री बंदोपाध्याय के अनुसार इस प्रकार था:
1. भू-हदबंदी से अतिरिक्त जमीन रखने वाले परिवारों या संदिग्ध परिवारों की सिनाख्त करना;
2. इन प्रत्येक परिवार के पास वास्तव अर्थ में जो जमीन है उसकी सिनाख्त करना और वे किस प्रकार के फर्जी कागजातों के जरिये उन्हें बेनामी करके रखे हैं, इसे खोजना;
3. उपयुक्त सबूतों को जुटा कर सभी अतिरिक्त जमीन पर सरकार का कब्जा करने के लिये अर्ध-न्यायिक प्रक्रिया को शुरू करना ताकि वे सबूत ऊंचे स्तर के प्रशासनिक पंचाटों अथवा कानूनी अदालतों में टिक सके;
4. अर्ध-न्यायिक प्रक्रिया के उपरांत सरकार द्वारा ले ली गयी जमीन पर कब्जा करना;
5. इस जमीन को कानून के अनुसार अथवा निर्धारित प्राथमिकता के अनुसार भूमिहीनों या गरीब किसानों के बीच बांटना;
6. पट्टे पर दी गयी ऐसी जमीन पर से गैर-कानूनी बेदखली को रोकने के लिये एक तरीका अपनाना;
7. पट्टे पर जमीन पाने वाले साधनविहीन किसानों को महाजनों के फंदे से बचाने के लिये कुछ ऋण वगैरह मुहैय्या करवाना।

उपरोक्त समूचे विवरण से जाहिर है कि बेनामी और अतिरिक्त जमीन के बारे में सही जानकारी के सबसे प्रामाणिक श्रोत स्थानीय खेत मजदूरों, बंटाईदारों और रैयतों के अलावा और कोई नहीं हो सकते थे, जो उन जमीनों की जुताई का काम किया करते थे। यही पर पश्चिम बंगाल में किसानों के सबसे बड़े संगठन किसान सभा की भूमिका प्रमुख होगयी। अतिरिक्त और बेनामी जमीन के बारे में सारे तथ्यों को जुटाने के काम में कामरेड कोनार ने किसान सभा को उतार दिया। सरकारी तंत्र द्वारा जमींदारों के फर्जी कागजातों की तुलना में खेत मजदूरों के मौखिक सबूतों को तरजीह दी जाने लगी। यह पूरी तरह से कानूनी था। यह देख कर जमींदारों के हौसले पस्त होने लगे। वे यह विश्वास ही नहीं कर सकते थे कि पुश्त दर पुश्त उनकी हाजिरी बजाने वाले खेत मजदूर और बंटाईदार इतना साहस जुटा लेंगे कि अदालत में खड़े हो कर उन्हीं के खिलाफ गवाही देने लगेंगे। इस दौर में किसान सभा के आंदोलन ने सदियों से दबे-कुचले लोगों को सिर उठा कर खड़े होने और सच पर अडिग रहने का अनोखा साहस प्रदान किया। इसप्रकार जो चीज एक चिंगारी के रूप में शुरू हुई थी, उसने देखते ही देखते पूरे पश्चिम बंगाल में जैसे एक दावानल का रूप ले लिया। हर रोज संगठित किसान आंदोलन की ओर से और स्वतःस्फूर्त ढंग से किसानों की ओर से भारी मात्रा में बेनामी जमीन के साक्ष्य पेश किये जाने लगे और देखते ही देखते, तीन साल से भी कम अवधि में पूरी तरह से कानूनी पद्धति का पालन करते हुए 10 लाख एकड़ अतिरिक्त जमीन सरकार के हाथ में आगयी जिसे बाद में कानून की अदालत में भी चुनौती नहीं दी जा सकी। अकेली इस प्रक्रिया ने पश्चिम बंगाल में सामंती शक्तियों के आर्थिक और सामाजिक प्रभुत्व की रीढ़ को तोड़ दिया।

गांवों के शक्ति-संतुलन को बदलने के एक और चरण में किसान सभा ने ऐतिहासिक भूमिका अदा की और वह थी, सरकार द्वारा जमींदारों से हथियाई गयी जमीन को भूमिहीनों के बीच वितरण के मामले में। किसान सभा के झंडे तले भूमिहीनों को भूमि दिये जाने से अन्य राजनीतिक ताकतों के साथ ही एक सबसे करारा झटका नक्सलवादियों की तरह के अराजकतावादियों को लगा जो किसानों के संगठित आंदोलन के बजाय उन्हें अराजकतावाद की दिशा में ढकेल देना चाहते थे। संयुक्त मोर्चा सरकार द्वारा जमीन दिये जाने की इस पहलकदमी ने गांवों में वामपंथी आंदोलन और किसान सभा की जड़ों को बेहद मजबूत कर दिया । जो नक्सलपंथी उन दिनों इस भूमि सुधार को एक छल और धोखा बताया करते थे, उनके ही नेता चारु मजुमदार की लगभग 12 एकड़ अतिरिक्त जमीन को सरकार ने कब्जे में ले लिया था । तब चारु मजुमदार की पत्नी ने सरकार को पत्र लिखा था कि किस प्रकार भ्रष्ट नौकरशाही उनसे उनकी आमदनी के इस अकेले साधन को भी छीन ले रही है।

कहना न होगा इसके साथ ही बंगाल के गांवों में नक्सलियों का आधार समाप्त होगया और वे शहरी आतंकवादियों के अलावा और कुछ नहीं रह गये।

यह थी कामरेड हरेकृष्ण कोनार की पश्चिम बंगाल में हुए भूमि सुधार में भूमिका की एक अनोखी कहानी । कोनार सचमुच अपने जीवित काल में ही बंगाल में कींवदंती का रूप ले चुके थे । बंगाल में वामपंथी आंदोलन का कोई अध्येता हरेकृष्ण कोनार को न जाने, यह हमारे लिये एक अचरज की बात है । यह सच है कि कोनार की मृत्यु 1974 में ही हो गई थी । इसके तीन साल बाद 1977 में पश्चिम बंगाल में पहली वाम मोर्चा सरकार का गठन हुआ ।

उपरोक्त इन विस्तृत ब्यौरों से कम से कम इतना तो साफ है कि प्रभात पटनायक ने विस्मृत आइकन के उदाहरण के तौर पर जिन दो व्यक्तित्वों का जिक्र किया है, उनमें वास्तव में आपस में कोई समानता नहीं रही है । एक शुद्ध रूप से अध्यापक थे और दूसरा अत्यंत लोकप्रिय जन-नेता । वैसे आइकन्स का दायरा उतना ही विस्तृत होता है जितना विस्तृत है जीवन के असंख्य रूप । इसीलिये उनके विस्मरण के विषय पर किसी भी क्षेत्र के आइकन की बात को लेकर चर्चा की जा सकती है । लेकिन जहां तक ज्राफा का संबंध है, वे अर्थशास्त्र के अध्यापक थे और अर्थशास्त्र की दुनिया में अगर उनकी कोई ख्याति है तो 'केन्स सर्कश' के एक सक्रिय और बुद्धिमान सदस्य के रूप में ही ज्यादा है । रेकार्डों के लेखन के संकलन के उनके संपादन का भी बेहद सम्मान किया जाता है । निश्चित तौर पर एक श्रेष्ठ अध्यापक और शोधकर्ता के रूप में वे अपने समय में अर्थशास्त्र के विद्यार्थियों के लिये एक आइकन रहे हैं । अर्थशास्त्र के विद्यार्थी उनके कामों का आज भी काफी गंभीरता से अध्ययन करते हैं । जहां तक हरेकृष्ण कोनार का सवाल है, बंगाल में कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास में उनका विशेष स्थान हमेशा सुरक्षित रहेगा । उनका व्यक्तित्व उनके समय के आगे भी बेहद प्रासंगिक रहा है । 1977 में वाममोर्चा सरकार के बनने के बाद 34 सालों के शासन में भूमि-सुधार, और पंचायती राज का जो सबसे महत्वपूर्ण काम हुआ, उस पूरे काम के साथ कोनार का नाम अभिन्न रूप से जुड़ा रहा है । जहां तक नये युग के नये आइकन का सवाल है, यह सच है कि हर युग के द्वंद्व उसके अपने ही आइकन्स के जरिये मूर्त होते हैं ।


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