मंगलवार, 28 मई 2019

बहुलता के हुड़दंगी परिदृश्य में से तानाशाही के सही प्रत्युत्तर की तलाश


—अरुण माहेश्वरी


फेसबुक पर लखनऊ के हिंदी के आलोचक वीरेन्द्र यादव की वाल पर 22 मई को श्री लक्ष्मण यादव की एक पोस्ट पर हमारी नजर पड़ी जिसमें उन्होंने लिखा था — “ Virendra Yadav ने एक पोस्ट में रामचरितमानस को गीता, मनुस्मृति, बंच ऑफ थाट के साथ रखकर इन्हें देशद्रोही सामग्री से बाहर माना, तो हिन्दी के कुछ विद्वान आहत हो गए। कहने लगे कि मानस व गीता को मनुस्मृति व बंच ऑफ थाट के साथ रखना पाप है। ये हमारी साहित्यिक धरोहर हैं, इन्हें बचाना हमारी जिम्मेदारी है। इसके जवाब में वीरेन्द्र यादव ने एक लाइन में शानदार बात कही कि "जिन पुस्तकों में हिन्दू वर्णाश्रम धर्म की सिद्धि है, उन्हें एक कतार में रखने से परेशानी कौन सी है?"

“आपका क्या कहना है? मैं भी यही मानता हूँ कि भारत जैसे मुल्क में अगर कोई भी विचारक या साहित्य किसी भी स्तर पर वर्णाश्रम व्यवस्था व जाति को स्वीकार करता है, तो उन सभी को एक ही कतार में रखकर उनकी कायदे से लानत मलानत करनी चाहिए। क्योंकि अगर आपके ख़्वाबों की दुनिया में तमाम प्रगतिशीलता व प्रतिरोध के साथ वर्णाश्रम व्यवस्था व जाति का स्वीकार है तो यह सबसे खतरनाक़ है। ऐसी रचनाएं व विचार सबसे घातक हैं। गीता और मानस दोनों में यही साम्य है।

“आप भी इस बहस को आगे बढ़ाएँ।”

इस पर अनेक लोगों ने अपने-अपने प्रकार से टिप्पणियां कीं । हमने लिखा कि “दरअसल सभ्यता का इतिहास एक अर्थ में झूठे विश्वासों का भी इतिहास होता है क्योंकि प्रगति का मतलब ही है किसी प्रचलित व्यवस्था और मान्यता को खारिज करना । जो खारिज होता है, वह झूठ ही होता है । जैसे पृथ्वी का चपटी होना या शेषनाग के फन पर टिके होने की तरह का ही विश्वास ले सकते हैं । परम सत्य तो अनादि अनंत अपौरुषेय होता है। लेकिन जो झूठ को लिये हुए हैं, उसी में कहीं उस सच का भी वास होता है जो प्रगति का वाहक होता है । यही इतिहास की द्वंद्वात्मकता है । इसीलिये साहित्य और इतिहास को पूरी तरह से ठुकराने का मतलब है अपने अस्तित्व मात्र से इंकार करना । मानस में जीवन है, सिर्फ वर्ण-व्यवस्था का प्रचार नहीं । और गीता भी महाभारत के पूरे आख्यान का वह हिस्सा है जिसमें भारतीय दार्शनिक चिंतन की एक धारा के उत्कृष्ट रूप को देखा जा सकता है । ऐसी श्रेष्ठ शास्त्रीय कृतियों को बंच आफ़ थाट्स के स्तर के घटिया भाषणों के संकलन के समकक्ष रख कर विचार करना घूंसे से संस्कृति के विषयों को तय करने वाली धृष्टता कहलायेगा ।”

हमारी नजर में वर्ण-व्यवस्था महाभारत में गीता के संवाद से या रामचरित मानस में तुलसी के नजरिये से जुड़ा हुआ वह झूठा सच है जो किसी समय के ठोस तत्वों, अर्थात् खास परिस्थितियों से निर्मित होने के बावजूद वे खुद अपने बूते अनंत काल तक, सनातन सत्य के रूप में बने नहीं रह सकते हैं ।

बहरहाल, हमारे इस कथन पर वीरेन्द्र यादव ने तीखी प्रतिक्रिया देते हुए हमें डी डी कोसांबी के गीता पर लिखे लेख को देखने की सलाह दी और उसका लिंक भी भेजा ।

“Arun Maheshwari ji, संस्कृति पर यह 'घूसे की धृष्टता' डी डी कोसांबी सरीखे विद्वान आजमा चुके हैं। एक बार फिर से उनकी पुस्तक झाड़ पोछ लीजिए। फिलहाल इसे गौर फरमाइए।” http://ddkosambi.blogspot.com/2011/07/agenda-of-gita.html...

इसके साथ ही चौथीराम यादव जी ने लिखा कि “आपका कहना सही है कि मानस और गीता में जीवन है, दर्शन है। लेकिन मेरी समझ से जो सवाल उठाया गया है, वह यह कि क्या किसी व्यक्ति, विचारधारा या साहित्य को धड़ल्ले से देशद्रोही घोषित करने वाले इन पुस्तकों को देशद्रोही घोषित कर सकते हैं ? इन्हें तो वे हिन्दुत्व का प्रतीक और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का गौरव समझते हैं।”

वीरेन्द्र यादव को हमने लिखा — “क्लासिक्स के प्रति दृष्टिकोण के विषय को किसी की व्याख्या के हवाले से खारिज करने से बात बनती नहीं है । गीता महाभारत क्लासिक का एक अभिन्न अंग है जिसकी स्वतंत्र महत्ता विल्किन्स के अलग से अंग्रेज़ी अनुवाद के पहले उतनी नहीं थी । और क्लासिक्स क्या होते हैं ? वे स्वयंसंपूर्ण विश्व हैं । उन पर आंशिक रूप में विचार नहीं किया जा सकता है । एक संपूर्ण जीवन संदर्भ में गीता व्यक्ति के धर्मसंकट का समाधान है । लेकिन वह उस महाभारत का एक अंशभर है जिसे सत्ता विमर्श की दुनिया की सर्वश्रेष्ठ गाथा कहा जा सकता है । गीता के संवाद में तत्कालीन सामाजिक नैतिकता और विश्वासों को आधार बनाया गया है जो नयी दुनिया के लिये मान्य नहीं हैं । लेकिन गीता को खारिज करने के लिये उसे आज के काल के 'बंच आफ़ थाट्स' जैसे घटिया विचारों के संकलन के समकक्ष रखना कहीं से भी उचित नहीं है । यह सिर्फ महाभारत जैसे क्लासिक के प्रणेता को लांछित करता है । कौशांबी को हम लंबे काल से पढ़ते रहे हैं । गीता के कर्म सिद्धांत पर विवाद के उनके अपने वाजिब कारण हो सकते हैं । लेकिन उन्होंने या देवीप्रसाद चटर्जी या उनके गुरु एस एन दासगुप्ता ने भी भारतीय दर्शन के इतिहास पर कोई अंतिम बात कह दी हो, ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है । वृहत्तर स्वार्थ के लिये व्यक्ति की बलि चाहने वाले हर विचारधारात्मक आग्रह में आपको तत्वत: समानता मिलेगी । बौद्ध दर्शन का शून्यवाद जहां व्यक्ति गौण कर दिया जाता है, क्या है ? इसीलिये, पुनः, किसी के हवाले मात्र से कोई बात नहीं बनती है ।”

चौथीराम जी के इस सवाल का कि आज की हिंदुत्ववादी ताकतें जो अन्यों के साहित्य को राष्ट्र-विरोधी घोषित कर देते हैं, क्या इन ग्रंथों को राष्ट्रद्रोही बताने का साहस कर सकती है, हमारे पास इसीलिये कोई जवाब नहीं था क्योंकि चौथीराम जी नितांत आज के साहित्य और प्राचीन क्लासिक्स के बीच कोई फर्क नहीं कर रहे थे । उनके सवाल का सीधा जवाब देने के बजाय हमने इसे लोगों की चेतना और विश्वास के निकस पर देखते हुए लिखा कि इन प्राचीन ग्रंथों के प्रति ऐसी आस्था “समाज में मौजूद तमाम अंधविश्वासों की श्रेणी में आती है । दरअसल हर समाज की समग्र तस्वीर भेदमूलक होती है जिसे तमाम प्राणियों का, उनके विचारों और विश्वासों से जुड़ी अस्मिताओं का डेरा कहा जा सकता है । ये सब काफ़ी हद तक परस्पर से उदासीन होती हैं, लेकिन साथ ही इनमें एक निश्चित सम्बद्धता भी होती है । इस सामाजिक सम्बद्धता की स्थिर तस्वीर में गति के सूत्र समग्रता पर क्रियाशील होते हैं और सर्वांग रूप से प्रभावशाली होते हैं । वे किसी अंश तक सीमित नहीं होते हैं । इसीलिये आंशिक पहचान से जुड़ी हलचल भी इनके संबंधों को झकझोरती है, जड़ता को तोड़ती है, स्थिति में तरलता लाती हैं । लेकिन इसे ‘अन्य’ को खारिज करके, अर्थात् उससे इंकार करके, उसे काट कर नहीं समझा जा सकता है, उसके साथ एक आलोचनात्मक संबंध की डोर बाँध कर ही यह संभव है । अन्य की अस्मिता से अस्वीकार स्वयं की प्राणीसत्ता की क्रियात्मकता से भी इंकार है । अतीत के सारे रूपों के साथ संबंध पर हमारे अनुसार यह बात लागू होती है ।”

वीरेन्द्र यादव ने लिखा —“Arun Maheshwari दरअसल हमें अपने 'गौरव' ग्रंथों का पुनर्पाठ करते रहना चाहिए। डॉ आंबेडकर ने यूं ही नहीं इसे 'counter revolutionary' टेक्स्ट कहा था। एक बार उनका लिखा भी पढ़ें। बिना decaste मानस के गीता या रामचरित मानस की वैचारिकता को नहीं समझा जा सकता।”

वीरेन्द्र यादव की बात में फिर एक बार अन्य अधिकारी के हवाले से, पहले कोशंबी और अब अंबेडकर के हवाले से, बात कही गई । इस पर हमारी पहली प्रतिक्रिया तो यह थी कि “डाक्टर अंबेडकर के नज़रिये के अपने कारण हो सकते हैं । साहित्य के विद्यार्थी के नाते हमारा अपना नज़रिया होता है ।”

गौरव ग्रंथों के पुनर्पाठ पर हमारी बहुत साफ राय थी — “साहित्य ही तो ऐसा पाठ है जिसका पुनर्पाठ नहीं होता है । इसमें वर्णित चरित्र बदले नहीं जा सकते है । उनके मूल्याँकन का पुनर्संदर्भीकरण (re-contextualisation) हो सकता है । इसी के ज़रिये साहित्य एक प्रकार की अमरता पाता है । क्लासिक्स इसीलिये मरा नहीं करते क्योंकि वे जीवन के नये संदर्भों में नये अर्थों के साथ सामने आते रहते हैं । साहित्य के पाठों को बदलने ( पुनर्पाठ) की कल्पना दुष्कर नहीं, असंभव है ।”

फिर आई डीकास्ट होने की बात । हमने लिखा —“ डीकास्ट या डीक्लास का पहलू आदमी के चित्त की संरचना से जुड़ा हुआ पहलू है । यह किसी कैप्सूल के गटक जाने से हासिल शक्ति की तरह की कोई यांत्रिक परिघटना नहीं है । चित्त का विन्यास सिर्फ प्रत्यक्ष भौतिक यथार्थ का मोहताज नहीं होता । इसमें स्मृतियों से लेकर भविष्य के सपनों तक की भूमिका होती है । इसमें किसी भी समाज के सांस्कृतिक इतिहास का अहम स्थान होता है । भविष्य ही अतीत को पुनर्परिभाषित कर सकता है । यह वर्तमान की जड़ता की ज़मीन से संभव नहीं है । किसी भी परिस्थिति के पूर्ण प्रत्यावर्त्तन, अर्थात खोल को उलट देने का काम नई भविष्यदृष्टि से संपन्न होता है । इसीलिये न क्लास की किसी भी खास पहचान के साथ डीक्लास होना मुमकिन है और न कास्ट की किसी खास पहचान के साथ डीकास्ट । इसीलिये किसी से भी डीक्लास और डीकास्ट होने की माँग का वास्तविक अर्थ हमारे अनुसार मानवतावादी होने की माँग के सिवाय कुछ नहीं है ।”

वीरेन्द्र यादव ने जैसे थोड़ा खीजते हुए ही लिखा, — “डॉ आंबेडकर के कोई व्यक्तिगत कारण नहीं थे। हर लिटरेरी टेक्स्ट अनिवार्यतः सोशल टेक्स्ट भी होता है। डॉ आंबेडकर का विश्लेषण यही सोशल रीडिंग है। उनकी रीडिंग प्लेजर सीकिंग या आस्वादपरक निश्चित रूप से नहीं थी। यदि आपका नजरिया वैल्यू फ्री और महज लिटरेरी है तो फिर हमारे आपके रास्ते भिन्न हैं।”

हमारा जवाब भी उतना ही साफ था — “दया करके साहित्यिक पाठों की महत्ता को कमतर मत समझिये । भाषाएं साहित्य के पाठों से बनती है और वही आदमी के symbolic order का प्रमुख घटक है । सोशल टेक्स्ट से आपके तात्पर्य को मैं समझ नहीं पाया हूँ । यह समाजशास्त्रीय तो कत्तई नहीं है । साहित्य समाजशास्त्रीय लेखन नहीं होता है । और शायद ही कोई संवेदनशील पाठक ऐसा होगा जो पहले पाठ के प्रभाव से अपने को सुरक्षित करके उसे पढ़ता होगा । हम नहीं जानते कि पठन की भी अपनी कोई खास मूल्यपरकता होती है । पाठ के प्रति सजग आलोचनात्मक नज़रिया पाठक के अपने विवेक पर निर्भर करता है ।”

वीरेन्द्र यादव ने यही पर इस विमर्श के सूत्र को काटते हुए लिखा — “Arun Maheshwari दरअसल हमारी आपकी साहित्यिक समझ के बीच एक अंतराल है। इसलिए अब आगे यह संवाद निष्प्रयोज्य है। इसे यहीं विराम देना उचित है। धन्यवाद।”

इसी में एक प्रसंग तुलसीदास की वट वृक्ष की स्थिति का भी आया जिनकी छाया तले कुछ भी नया पनप नहीं सकता है, तो हमें बंगाल के रवीन्द्रनाथ याद आ गये । हमने लिखा —“ बंगाल में रवीन्द्रनाथ के वटवृक्ष से मुक्ति के नारे के साथ शुरू हुए भूखी पीढ़ी आंदोलन के सभी श्रेष्ठ कवि अन्त में रवीन्द्रनाथ के चरणों पर माथा टेके हुए पाये गये । साहित्य के किसी भी महान पाठ के जीवन की तरह ही असंख्य आयाम होते हैं । उसके स्वीकार और अस्वीकार के बीच में कुछ नहीं होता । अस्वीकार का मतलब होता है उसे विचार में ही न लाना । अब यह हमें तय करना है कि उसे अपनी विरासत में शामिल करें या पूरी तरह से काट कर फेंक दें ! क्लासिक्स के प्रति किसी भी उच्छेदकारी दृष्टि की सीमाओं का पता चल जायेगा ।”

इन सब में लक्ष्मण यादव भी कुछ लोगों से अलग चर्चा कर रहे थे । विरेन्द्र यादव के साथ हमारे विमर्श के बीच कुछ और लोग भी छिट-पुट टिप्पणियां कर रहे थे । जैसे प्रवीण यदुवंशी ने पूछा — “सीधा सवाल यह है कि मानस और गीता पवित्र है तो मनुस्मृति अपवित्र कैसे हो गई ?” इसपर जब हमने कहा कि “पवित्रता अपवित्रता का सवाल ही कहाँ पैदा होता है ? जो इन्हें महज़ धर्मग्रंथों की तरह देखते हैं, हम उनसे बात नहीं कर रहे हैं ।” इस पर उनका प्रति-प्रश्न था — “सवाल धर्मग्रन्थ का नहीं है आप चाहे जो समझे। सवाल त्याज्य और ग्रहणशीलता का मामला है। मनुस्मृति, गीता और मानस की श्रेणी से बाहर कैसे है?”

हमने उन्हें एक साधारण सा जवाब दिया — “मनुस्मृति एक काल की सामाजिक संहिता है । गीता महाभारत क्लासिक का एक अंश । मानस रामकथा का पुनर्सृजन है । इन तीनों के बीच यदि आपको कोई फ़र्क़ लगता है तो वह है । और नहीं तो यह आपकी समझ है ।”

यदुवंशी ने ही रवीन्द्रनाथ के प्रसंग में सवाल किया था कि “माने रवीन्द्र नाथ तुलसी की तरह वर्णाश्रमी व्यवस्था के पोषक थे?” इसके जवाब में हमने लिखा — “रवीन्द्रनाथ आधुनिक काल के व्यक्ति है। लेकिन उनके साहित्य में भक्ति की रहस्यमयता है तो एक प्रगतिशील लेखक चिंतक का यथार्थवाद भी है । इसीलिये बंगाली समाज का कोई अंश ऐसा नहीं है जो उनसे अपने को जोड़ता नहीं है । उनका साहित्य एक संपूर्ण जातीय संस्कृति के सारे उपादानों से भरपूर क्लासिक साहित्य के स्तर का है ।”

गौर करने की बात है कि हम यह बहस 22 मई के दिन कर रहे थे, लोकसभा चुनावों के परिणाम (23 मई) के ठीक पहले दिन । हम सबको यह विश्वास था कि इस चुनाव में मोदी निश्चित तौर पर पराजित होंगे । दक्षिण भारत के अलावा उत्तर भारत में खास तौर पर उत्तर प्रदेश और बिहार का जातिवादी गणित इतना साफ था कि लगता था मोदी इस अस्मिता से जुड़ी बहुलताओं की आधी-अधूरी ही सही, संयुक्त शक्ति का मुकाबला नहीं कर पायेंगे, वे पराजित होंगे । खास तौर पर जिस दिन उत्तर प्रदेश में मायावती और अखिलेश का कथित 'महागठबंधन' बना, उसी दिन से यह विश्वास हो गया था कि इस बार जातिगत संबंधों की संरचनाओं का सच उत्तर प्रदेश 2014 के परिणामों को पूरी तरह से उलट देगा । और, मोदी को समग्र रूप से संसद में अल्पमत में लाने के लिये इतना ही काफी होगा ।

लेकिन 23 मई को जब चुनाव परिणाम सामने आए, हमारा कल्पित परिदृश्य पूरी तरह से उलट-पुलट चुका था, वे सारे जागतिक सच बिखरे हुए दिखाई देने लगे थे जिनकी अकाट्यता और सनातनता को हमने कम से कम इन चुनावों के जगत के परम सत्य की श्रेणी का मान लिया था ।

और यहीं से हमारे अंदर विचार की एक भिन्न प्रक्रिया का प्रारंभ हुआ ।

फासीवाद के सर्वाधिकारवादी शासन के जन्म की सामाजिक-सांस्कृतिक जमीन, और उससे पैदा होने वाली प्रगतिशील रचनाकर्मियों के सामने नई चुनौतियों पर विचार की प्रक्रिया । एक दिन पहले ही, महाभारत, मानस की तरह के क्लासिक्स के बारे में हम जिस प्रकार की बहस में लगे हुए थे, वह पूरी बहस अब हमें और भी नये गभितार्थों के संकेत देने लगी ।

ऐसा लगने लगा जैसे क्रमश: हम चिंतन की एक ऐसी अंधेरी सुरंग में प्रवेश कर चुके हैं जिसके अंत का कहीं से कोई संकेत नजर नहीं आता है । आज की दुनिया में एक ओर जनतांत्रिक बहुलता का एक अनोखा हुड़दंगी परिदृश्य उभरने लगा जिसमें मनुष्यता से लेकर पशुता तक की अस्मिता से जुड़े भाषा, जाति, धर्म, लिंग, रीति-रिवाजों, पूजा-अर्चना की विधियों, समलैंगिकता, शरीर और प्रेम के खुले प्रदर्शन, उन्मत्त कामुकता, आदि आदि सबकी स्वतंत्रता को न्यायिक संरक्षण प्रदान करने की नीति-नैतिकता का बोलबाला है । उत्तर-आधुनिक जगत । इसमें मानव अधिकार और जीने का अधिकार, दोनों एक समान है । सभी जीवित शरीरों को मानवीय सुरक्षा ही प्रमुख है, जिसे एक वैज्ञानिक नाम भी दिया जा चुका है - bio ethics ( जैव नैतिकता) । इसे ही मिशेल फुको ने अपने प्रकार से bio-politics (जैव राजनीति) कहा था । जातिवादी, सांप्रदायिक, लैंगिक नफरत और हिंसा में किसी इंसान का नहीं, दलित, मुसलमान और स्त्री के मारे जाने का ठोस सच ही अपने अंतिम सत्य के रूप में दिखाई देता है । मनुष्यता का सत्य, वर्गीय सच पूरी तरह से अदृश्य हो जाता है ।

कहना न होगा, आदमी की अस्मिता के इन खंड खंड पाखंड रूपों को स्वीकृति और सुरक्षा देने की यह खास वैविध्यमय सहिष्णुता ही मनुष्य की सार्विकता के संदर्भ में इस विखंडन के कहीं न कहीं थमने की ज़रूरत का भी तर्क पैदा करती है । अर्थात्, 'अल्पसंख्यकवाद बहुसंख्यकवाद को औचित्य प्रदान करता है' । यहीं से एक ऐसी वैश्विक ज़रूरत के औचित्य का भी जन्म होता है जो भाषाओं और अस्मिताओं के बीच समानता की किसी भाषा को नहीं जानती । उसे ऐसी किसी बहुरूपी एकता और समानता से कोई मतलब नहीं होता है । वह चाहती है एक ऐसी भाषा जो अन्य सभी भाषाओं को नियंत्रित कर सके, ऐसी सत्ता जो तमाम शरीरों को शासित कर सके । तानाशाही या सर्वाधिकारवाद की सत्ता और भाषा । उसे किसी प्रकार की सहिष्णुता का नहीं, हस्तक्षेप करने का अधिकार चाहिए - क़ानूनी हस्तक्षेप और ज़रूरी हो तो दमनकारी, सामरिक हस्तक्षेप का अधिकार । वैश्विक इस्लामी आतंकवाद के खिलाफ अमेरिका को दुनिया के किसी भी कोने में जाकर बमबारी करने के हस्तक्षेप का अधिकार ।

ऐलेन बाद्यू के शब्दों में 'यह मनुष्यों के सभी भाषाई अतिरेकों की एक प्रकार की क़ीमत अदायगी है ।' बाद्यू से क्षमा प्रार्थना के साथ ही कहना चाहूंगा कि उनके इस पद 'भाषाई अतिरेकों' को सरल सामाजिक रूप में आप 'अस्मिताई अतिरेक' भी कह सकते हैं ।

वीरेन्द्र यादव जब डीकास्ट होने की बात कह रहे थे, उसके प्रत्युत्तर में हमने कहा कि “डीक्लास और डीकास्ट होने की माँग का वास्तविक अर्थ हमारे अनुसार मानवतावादी होने की माँग के सिवाय कुछ नहीं है” । दुनिया का इतिहास देखे तो पायेंगे कि सामाजिक अराजकता और राजसत्ता की तानाशाही के विरुद्ध संस्कृति के जगत की मुख्यधारा मानवतावाद की धारा रही है, जिसे अक्सर कुलीनों का आदर्शवाद, aristocratic idealism भी कहते हैं । समाज के पढ़े-लिखे भले लोगों की संस्कृति की धारा । समाज की सभी श्रेष्ठ साहित्यिक सांस्कृतिक धरोहरों को सहेजने और उनसे सीखते हुए मनुष्य को मनुष्य मानने की धारा । मनुष्य को मनुष्य मानने और उनमें मनुष्यता का बोध जगाने की धारा । शास्त्रीय साहित्यों के अंदर के व्यापक विश्व को उनकी समग्रता में देखने और उनसे निरंतर संस्कारित होने की धारा । वर्गों की चर्चा के साथ ही हमेशा वर्गों के अंत की धारणा को साथ लेकर चलने की धारा । सर्वहारा की तानाशाही को समान अधिकारों के मनुष्यों के समाजवादी जनतंत्र के रूप में देखने की धारा । खंडित अस्मिताओं के बजाय बुद्धि, विवेक और वैज्ञानिक मानसिकता से जुड़े नवजागरण और प्रबोधन की धारा ।

मानवतावाद की इस कुलीन धारा के साहित्य और संस्कृति के जगत में अनंत रूप मिलते हैं। यहाँ तक कि सर्वनकारवाद में भी इन्हीं सरोकारों को पाया जा सकता है । लेखक अपने एकांत में जहाँ तमाम सवालों से घिरा होता है, अतीत की बौद्धिक और अस्तित्व से जुड़ी भव्यताओं की अक्षुण्णता पर उसका अटूट विश्वास ही उस अकेलेपन को उसके लिये सहनीय बनाता है । यद्यपि लेखक का यह विश्वास मात्र रचनाओं के प्रति सामाजिक नज़रिये में बदलावों को प्रभावित नहीं करता । लेकिन अतीत के प्रति, अपनी श्रेष्ठ साहित्यिक धरोहरों के प्रति यह मोह भी समग्र रूप से सामाजिक पतनशीलता के विरुद्ध संघर्ष का एक रूप होता है । नित्शे जैसों में यही एक भिन्न युयुत्सु भाव के साथ नजर आता है । इसमें हम समाज को हेय नजर से देखने की एक प्रकार की आनंददायी कटुता भी देख सकते हैं । रवीन्द्रनाथ 'बंग माता' कविता में जब लिखते हैं — “पुण्ये पापे दुःखे सुखे पतने उत्थाने / मानुष होइते दाओ तोमार सन्ताने” (पुण्य पाप, दुख सुख, पतन और उत्थान में अपनी संतान को मनुष्य होने दो), तो इसके अंत में यहां तक कह देते हैं — “सात कोटि सन्तानेर, हे मुग्ध जननी, रेखेछो बांगाली कोरे, मानुष कोरो नी ।”( सात करोड़ संतानों की हे मुग्ध माता, तुमने इन्हें बंगाली बना के रखा है, मनुष्य नहीं बनाया ) । रवीन्द्रनाथ राष्ट्रीय स्वतंत्रता संघर्ष के काल में राष्ट्रवाद पर कटाक्ष करने से, कुछ विषयों पर गांधी जी के अवैज्ञानिक नजरिये पर तीखा प्रहार करने से नहीं चूकते, जैसे नहीं चूकते उग्र सांप्रदायिक विचारों वाले क्रांतिकारियों के मिथ्याचार को भी बेनकाब करने से । यह मान्य सामाजिक व्यवहारों को नकारने के अकेले लेखक के अंतर को बल देने वाले मानवतावादी विश्वासों का पहलू है ।

यही कुलीनों का आदर्शवाद कम्युनिस्ट विचारों और पदावली से प्रभावित पाब्लो नेरुदा और गैब्रियल गार्सिया मार्केस की तरह के जादूई यथार्थवादियों, पाब्लो पिकासो, आंद्रे ब्रेतां और सल्वाडोर डाली की तरह के अतियथार्थवादियों (surrealists), साहित्य और संस्कृति के जगत के लाक्षणिकतावादी आलोचक रोलाँ बार्थ, मनुष्य के ज्ञान और सत्ता के इतिहासकार मिशैल फुको, भाषा के विखंडनवादी दार्शनिक जॉक दरीदा,  संरचनावादी मानवशास्त्री लेवी स्ट्रास मार्क्सवादी दार्शनिक आल्थुसर से लेकर आज के स्लावोय जिजेक और ऐलेन बाद्यू तक के जीवन में झांकने से आपको समान रूप में मिल जायेगा । यही विश्व युद्ध और शीत युद्ध के काल के यूरोप और एक के बाद एक तानाशाहियों से पीड़ित लैटिन अमेरिका के रचनाकर्मियों की आत्मरक्षा का कवच और अपने प्रकार के प्रतिरोध को तैयार करने का वह उपक्रम भी है जो उन्हें अपने प्रति ही आश्वस्त करता है । कह सकते हैं कि यह एक प्रकार से दीक्षितों के अपने संसार की कहानी है ।

बाद्यू एक जगह लिखते हैं — “पराजय का एक काव्यशास्त्र तो है, लेकिन पराजय का दर्शनशास्त्र नहीं होता है ।” दर्शनशास्त्र ज्ञान मीमांसा का वह रूप है जो अब तक के उन अज्ञात विचारों के प्रति स्वीकृति के साधन जुटाता है जो सत्य होने पर भी सत्य के रूप में सामने आने से हिचक रहे होते हैं ।

यही वजह है कि जब हम मार्क्सवादी होने के नाते बहुलतावाद के (अस्मिताओं के) हुड़दंग से कुलीनों के आदर्शवाद की तरह अपने लिये एक सुरक्षा कवच नहीं तैयार कर पाते हैं, हम उसके दायरे में सिमट कर अपनी मानवीय अस्मिता भर को बचाने से संतुष्ट नहीं होते हैं, उस अज्ञात, सामने आने से झिझकते सत्य की तलाश का रास्ता पकड़ते हैं तब इस कोशिश में हम अक्सर एक प्रकार के ऐसे अधर में लटक जाते हैं, ऐसे द्वंद्व में फंस जाते हैं जिसमें हमारी तात्विक जिज्ञासाएँ सचमुच सबसे भारी तनाव से घिर जाती है । सचमुच, किसी मृत जगत से कैसे कोई एक उक्ति निकालने का चमत्कार कर सकता है !

दरअसल, यही आज सब जगह मार्क्सवादी प्रगतिशीलों के संकट, तनाव और उनकी वैचारिक विक्षिप्तता की तरह की स्थिति के मूल में है । वे दुनिया की वर्तमान गति से आतंकित होकर अपने खुद के विश्लेषण के औजारों को, द्वंद्वात्मक भौतिकवाद और ऐतिहासिक भौतिकवाद के औजारों को त्याग दे रहे हैं । भारत में जिन कम्युनिस्ट नेताओं ने वर्ग और जाति संबंधी अंबेडकरपंथियों, लोहियावादियों और अन्य जाति, क्षेत्र, संप्रदाय से जुड़ी अस्मिताओं का झंडा उठा कर चलने वालों से निरंतर बहस करते हुए यहां कम्युनिस्ट आंदोलन की नींव रखी और उसका एक व्यापक आधार बनाया, साहित्य में प्रगतिशीलता एक अखिल भारतीय साहित्यिक परिघटना के रूप में सामने आई, आज मार्क्सवाद की उस मूलभूत ऐतिहासिक भौतिकावादी समझ को ही पार्टियों के राजनीतिक नेतृत्व की विफलताओं, सांगठनिक दुर्बलताओं के चलते होने वाली पराजयों का बुनियादी कारण बता कर उसे त्याग देने पर बल दिया जा रहा है । ब्राह्मण और तीन ठग वाली कहावत पूरी तरह से चरितार्थ हो रही है कि तीन ठगों ने ब्राह्मण को इस कदर भ्रमित कर दिया कि उसने अपने कंधे की बकरी को कुत्ता समझ कर रास्ते में फेंक कर उसे ठगों को सौंप दिया ।

कम्युनिस्ट आंदोलन के अंदर के ऐसे और भी अनेक व्यवहारिक अनुभवों को लिया जा सकता है । बंगाल के रैनेसांस और उसके साथ ही औद्योगीकरण की एक सबसे बड़ी देन थी कि बंगाली समाज में जातिवादी दीवारें लगभग खत्म हो गई थी । कम्युनिस्ट पार्टियों के नेतृत्व पर किस जाति का वर्चस्व है, किसका नहीं, यह कभी विचार का विषय ही नहीं था । वाम मोर्चा के शासन में शिक्षा और भूमि सुधार के कामों के नब्बे फीसदी लाभ अनुसूचित जातियों, जनजातियों और अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को ही मिले थे । प्रेम विवाह बंगाल में अनेक सालों से एक आम बात हैं जो जातियों की सामाजिक बाधाओँ को खत्म करने के लिये काफी है । इसीलिये यहां 'अन्य पिछड़ी जातियों' (OBC) का तो कोई अस्तित्व ही नहीं था । लेकिन जब मंडल कमीशन आया, बंगाल में भी दुरबीन लेकर 'अन्य पिछड़ी जातियों' की तलाश शुरू हो गई ।

बंगाली समाज में हिंदू-मुस्लिम पूर्वाग्रह बंगाल के बटवारे की वजह से बने हुए हैं । लेकिन जब से वामपंथियों का राजनीतिक वर्चस्व कायम हुआ, इसकी उग्रता समाप्त होती चली गई । फिर भी मुसलमानों के साथ पूरा न्याय नहीं हो सका, जिसकी ओर सच्चर आयोग ने इशारा भी किया । वाम मोर्चा सरकार ने उसे स्वीकारा और प्रशासनिक तौर पर जरूरी कदम उठाने शुरू किये । इस विषय को सामाजिक तनाव का कारण नहीं बनने दिया । लेकिन दूसरी ओर ममता बनर्जी ने इसी विषय का वाम मोर्चा के खिलाफ जिस उग्रता के साथ राजनीतिक रूप से प्रयोग करना शुरू किया, बंगाल में उस अल्पसंख्यकवाद की जमीन तैयार हुई जिसकी फसल आज भाजपा का बहुसंख्यकवाद काट रहा है । वाम मोर्चा ने कभी भी यहां के मुस्लिम सांप्रदायिक नेताओं से समझौता नहीं किया था ।

इसी प्रकार, केरल का उदाहरण है जहां चुनावी लाभ के लिये मुस्लिम लीग से समझौता किया जाए या नहीं, वाम राजनीति के लिये हमेशा एक सरदर्द का विषय बना रहता है । चुनावी नेताओं के इस मामले में ढुलमुल रवैये से कम्युनिस्ट आंदोलन को दूरगामी नुकसान के अलावा और कुछ नहीं हुआ है । इसके विपरीत, उत्तर भारत के हिंदी भाषी प्रदेशों में कम्युनिस्ट आंदोलन किसिम किसिम के जातिवादियों से समझौतों की भेंट चढ़ गया । तमिलनाडू में क्षेत्रीयतावादियों की भेंट चढ़ा । पुराने कम्युनिस्ट नेताओं ने भारत में अलग-अलग राष्ट्रीयताओं को मानने पर भी कांग्रेस के शासन में उन्हें आत्म-निर्णय का अधिकार देने की बात से साफ तौर पर इंकार किया था जो एक भारतीय राष्ट्र के निर्माण की व्यापक प्रक्रिया के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का द्योतक था । लेकिन परवर्ती दिनों में अलगाववादी मांगों में भी जनता की जनवादी आकांक्षाओं को देखने और मानने की प्रवृत्ति बढ़ी, जिसका लाभ पंजाब में वामपंथ को नहीं, अकाली दल को मिला ।

भारतीय राजनीति के इन ठोस उदाहरणों से हम नहीं चाहते कि हम यहां जिस दर्शनशास्त्रीय समस्या को उठाना चाहते हैं, उससे ध्यान बट जाए और विषय पर हम सिर्फ दैनंदिन राजनीति के संदर्भों में बात करके पूरे मामले को कुत्सित बना दें । छः साल पहले, 'मार्क्सिस्ट' में अपने एक लेख 'Communalism : Changing Forms and Fortunes' में प्रो. ऐजाज अहमद जब भारत में सांप्रदायिक फासीवाद के उदय के पीछे आरएसएस के अनेक मोर्चों पर लगातार कामों का ब्यौरा देते हुए उसे ग्राम्शी के द्वारा प्रयुक्त पदावली 'War of Position' से व्याख्यायित कर रहे थे, तभी उस पर तीव्र आपत्ति करते हुए इस लेखक ने अपने लेख 'एजाज अहमद का सांस्कृतिक मार्क्सवाद' में कहा था कि सीपीआई(एम) के राजनीतिक नेतृत्व के इधर के गलत राजनीतिक निर्णयों को भारतीय समाज की कथित सांस्कृतिक संरचना से जोड़ कर देखने का कोई तुक नहीं है । इस सांस्कृतिक मार्क्सवाद ने अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर मार्क्सवाद के सार्वदेशिक सत्य की शक्ति को सबसे अधिक व्याहत किया है । आरएसएस के 'war of position' से कम गतिविधियां कम्युनिस्ट पार्टियों के वर्गीय और जनसंगठनों की नहीं रही है, इसे बताते हुए अपने उसी लेख में लिखा था —

“कभी ऐसा जमाना रहा होगा, जब भारतवर्ष या अखंड भारत महज एक विचार, concept, अवधारणा था । लेकिन आज के भारत का एक सच है, कोरा विचार नहीं । आजादी के बाद के इन तमाम वर्षों में प्रादेशिकता, जातिवाद, संप्रदायवाद आदि से जुड़े तनावों के कई-कई दौर को देखने के बाद इस सच को आज और भी ज्यादा निश्चय के साथ कहा जा सकता है । भारतीय राष्ट्रीयता के सच के तले नाना राष्ट्रीयताओं (जातियताओं), उप-राष्ट्रीयताओं के सच यथार्थ के बजाय महज विचार में तब्दील होते दिखाई दे रहे हैं । किसी समय अखंड भारत का विचार नाना जातियताओं-उपजातियताओं के ठोस खंभों पर टिका दिखाई देता था । देखते-देखते नजारा उलट सा गया है । आज तो भारतीय राष्ट्रीयता के विशाल और ठोस आधार पर तमाम जातियों-उपजातियों के वैचारिक-सांस्कृतिक महल खड़े दिखाई देते हैं ।” ( देखें- अरुण माहेश्वरी; धर्म, संस्कृति और राजनीति; 'एजाज अहमद का सांस्कृतिक मार्क्सवाद',पृष्ठ-83-97)

दरअसल पूरे विषय को भिन्न स्तर पर देखने की जरूरत है । आज के समय में मार्क्स के विचारों की तो चर्चा होती है, लेकिन कम्युनिस्ट आंदोलन ने उनके द्वंद्वात्मक भौतिकवाद और ऐतिहासिक भौतिकवाद को जीवन के यथार्थ में रूपायित करने के जिन विचारधारात्मक औजारों को तैयार किया है, आज उन पर कितनी चर्चा होती है ? लेनिन, स्तालिन और माओ के कठोर वैचारिक परिश्रम की कितनी छान-बीन होती है ? स्तालिन की वह शानदार किताब 'द्वंद्वात्मक और ऐतिहासिक भौतिकवाद' जैसे स्तालिन के व्यक्तित्व पर चढ़ी कालिमा की भेंट चढ़ गई, वैसे ही कम्युनिस्ट आंदोलन के अन्य सभी वैचारिक औजारों को भी समाजवाद की दुर्गति को देखते हुए पूरी तरह से त्याग दिया जा रहा है । उनकी समीक्षा, उनका पुनर्संदर्भीकरण, उनके अंदर के सामने न आ पा रहे सत्य को सामने लाने की कोशिश की तनावपूर्ण चुनौतियों को स्वीकारने के बजाय नाना भ्रमवश उन्हें कंधे से फेंक दिया जा रहा है । लेनिन, स्तालिन, माओ के लेखन की चमक के स्रोत तो जैसे हमारे जेहन से ही निकल गये हैं ।

अभी भारत में कम्युनिस्ट पार्टियों का सर्वोच्च नेतृत्व तक बड़े गर्व से 'जय भीम और लाल सलाम' के नारे लगा कर मार्क्सवाद का एक कथित देशी संस्करण तैयार करने की कोशिश करता दिखाई पड़ता है । पिछले दिनों बांदा में कम्युनिस्टों के द्वारा अंबेडकर को अपनाने के विषय में बाकायदा तीन दिनों का सेमिनार हुआ था । इस बात पर भी गौर नहीं किया गया कि डा. अंबेडकर मूलतः पूंजीवादी जनतांत्रिक व्यक्ति थे और पूंजीवादी जनतंत्र भी पूरी तरह से बहुलतावादी नहीं होता है । वह अगर एक ओर बहुलता का रक्षक बनता है तो वही दूसरी ओर उसमें वे सारी प्रक्रियाएं भी जारी रहती है जो इन बहुलताओं का अंत करती है । यही पूंजीवादी व्यवस्था की प्रक्रियाओं का सत्य है । इसीलिये जातिवादी अस्मिताएँ पूंजीवाद के विरुद्ध कभी संघर्ष के मजबूत आधार नहीं बन सकती है । इनका प्रतिरोध दिन प्रति दिन कमजोर से कमजोर होने के लिये अभिशप्त होता है ।

भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों के पास राजनीति की द्वंद्वात्मकता की समझ इतनी कमजोर है कि वह कभी भी दो खेमों के बीच के द्वंद्व की दरारों में निहित सत्य को सामने लाने के उपक्रमों से अपने को जोड़ ही नहीं पाती है । दो प्रमुख प्रतिद्वंद्वी पक्षों में एक को पराजित करो, एक को कमजोर करो और हमें विजयी बनाओ की तरह के तर्क कोरी पहेली बन जाते हैं ।

हेगेलियन द्वंद्ववाद, जिसे मार्क्स ने भौतिक आधार पर खड़ा करके द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का महल तैयार किया, उसकी समझ बताती है कि हमेशा दो के द्वंद्व के बीच ही कहीं सत्य छिपा होता है । एलेन बाद्यू के शब्दों में — सिर्फ शरीर हैं और भाषाएं हैं, तथापि सत्य हैं । (There are only bodies and languages, except that there are truths.) समूह है, उनकी अस्मिताएं हैं, लेकिन पूंजीवाद का सच भी है, जैसे समाजवाद का भी सच है । पूंजीवादी जनतंत्र की द्वंद्वात्मकता के बीच भी मनुष्यत्व का सत्य निहित होता है । द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की भूमिका शोषणविहीन समानता और स्वतंत्रता के इसी मानवीय सत्य को देखने की होती है । वह ऐसी बहुलता का पक्षधर नहीं है जिसमें हमारे कवि धूमिल के शब्दों में घोड़े और घास को समान स्वतंत्रता होती है ।

यही वह परिप्रेक्ष्य है जिसमें हमें लेनिन की याद आती है । 'मार्क्सवाद के झंडे तले'('पोद ज्नामेनेम मार्क्सिज्मा') सामाजिक-आर्थिक पत्रिका में जुझारू भौतिकवाद के महत्व को रेखांकित करते हुए वे लिखते हैं — “यह समझने की जरूरत है कि ठोस दार्शनिक आधार के बिना कोई भी प्रकृतिविज्ञान, कोई भी भौतिकवाद पूंजीवादी विचारों के हमले और पूंजीवादी विश्व दृष्टिकोण की बहाली के खिलाफ इस संघर्ष में टिक नहीं सकता । इस संघर्ष में टिकने और उसे सफलतापूर्वक संपन्न करने के लिए प्रकृतिविज्ञानी का आधुनिक भौतिकवादी होना, उस भौतिकवाद का चेतन पक्षधर होना, जिसका प्रतिनिधित्व मार्क्स करते थे, यानी द्वंद्वात्मक भौतिकवादी होना जरूरी है । (व्ला. ई. लेनिन, जुझारू भौतिकवाद का महत्व, 12 मार्च 1922)

इसके पहले 1920 में, सोवियत संघ में रूस की सर्वहारा संस्कृति (Proletarian Culture) पर पहली कांग्रेस के लिये लेनिन ने जिस प्रस्ताव का मसौदा तैयार किया था उसमें लिखा गया था कि “मार्क्सवाद ने क्रांतिकारी सर्वहारा की विचारधारा का ऐतिहासिक महत्व इसलिये हासिल किया है क्योंकि पूंजीवादी युग की मूल्यवान उपलब्धियों को खारिज करना तो दूर की बात, उल्टे उसने मानव चिंतन और संस्कृति के दो हजार सालों से ज्यादा की हर मूल्यवान चीज को आत्मसात करके नये रूप में अपनाया है । इसी आधार पर और इस दिशा में आगे और काम करके, शोषण के प्रत्येक रूप के खिलाफ संघर्ष के अंतिम चरण सर्वहारा की तानाशाही के व्यवहारिक अनुभवों से अनुप्रेरित हो कर ही सच्ची सर्वहारा संस्कृति के विकास का काम किया जा सकता है ।
(4.Marxism has won its historic significance as the ideology of the revolutionary proletariat because, far from rejecting the most valuable achievements of the bourgeois epoch, it has, on the contrary, assimilated and refashioned everything of value in the more than two thousand years of the development of human thought and culture. Only further work on this basis and in this direction, inspired by the practical experience of the proletarian dictatorship as the final stage in the struggle against every form of exploitation, can be recognised as the development of a genuine proletarian culture.)( On Proletarian Culture)

अब तक की मानव इतिहास की सारी मूल्यवान उपलब्धियों को आत्मसात करना और उसे नये रूप में अपनाना, यह किसी भी प्रकार के उच्छेदवादी नजरिये से सर्वथा अलग है । इसीलिये भौतिकवाद को कोरे विशेषणों में तब्दील करके प्राचीनतावाद के जुर्म से बचने का कोई तुक नहीं है । कहने की जरूरत नहीं कि भारत के कई मार्क्सवादी इतिहासकार भी इतिहास की अपनी सरल 'वर्गीय' व्याख्याओं से इस रोग के लिये काफी जिम्मेदार पाये जाते हैं ।

दरअसल, बहुलता के उस प्रतीकात्मक या न्यायिक स्वरूप में भटकने की जरूरत नहीं है जनतांत्रिक व्यवस्था जिसे बनाये रखने के साथ ही उसकी समाप्ति को मान कर चलती है । जरूरत उसके द्वंद्वात्मक सच को, जो नजर आता है और जो नजर नहीं आता, उसके बीच के सत्य को पकड़ कर चलने की है । वह शोषण की व्यवस्था का सच है । जनतंत्र का सर्वाधिकारवाद के खिलाफ शीत युद्ध समाजवाद के अंत के लिये था । आतंकवाद के विरुद्ध स्वतंत्र दुनिया का शीत युद्ध में भी साम्राज्यवादियों के विश्वप्रभुत्व के सच को ओझल नहीं किया जा सकता है । पूंजीवादी दलों की सोशल इंजीनियरिंग क्या है ? वामपंथ खत्म हो रहा है, वह दिखाई देता है । लेकिन जो दिखाई नहीं दे रहा है, और जो व्यतीत हो कर दिखाई दे रहा है, उनके बीच कौन सी बात इस अंत को रूप दे रही है, उसे जानने की जरूरत है । 

अन्त में, हेगेल के द्वंद्ववाद का मतलब है कि सभी विरोधों का सार तत्व एक तीसरा सत्य है जो दो अन्यों के बीच निहित होता है । हर विरोध इस तीसरे की उपस्थिति का सूचक होता है । द्वंद्वात्मक भौतिकवाद उसी का पता देता है । भारत की राजनीति की निर्मिति अभी फासीवाद और जनतंत्र के बीच के विरोध से है । इसीमें भारत की जनता की आर्थिक-सामाजिक मुक्ति की लड़ाई छिपी हुई है । इसी विरोध के मध्य से उसे सामने लाना है । 













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