सोमवार, 6 मई 2019

यह भारतीय राजनीति से मोदी की अंतिम विदाई का चुनाव होगा


-अरुण माहेश्वरी


पेशेवर राजनीतिक विश्लेषणों की समस्या है कि वे समग्र राजनीतिक परिदृश्य में अलग-अलग ताक़तों की पृथक उपस्थिति को देखने पर इतना अधिक बल देने लगते हैं कि उन्हें इन सबके एक समग्र परिदृश्य में उपस्थिति के कारणों पर विचार करना बेकार लगने लगता है । दरअसल इस परिदृश्य का यदि कोई एक सच है तो उसका इसके संघटकों के पृथक-पृथक स्वरूप से कोई संपर्क नहीं है । राजनीतिक सापेक्षतावाद इस पृथकता के बयान से आगे नहीं जा सकता है । इन पृथकताओं के बावजूद इनके लिये किस एक चीज़ का मायने हैं, जो उन्हें एक जगह पर बनाए रखती है, उसके बारे में वह कुछ नहीं कहता है ।

सभी पृथक-पृथक दलों को साथ रखने वाला यह बाहरी सत्य है संसदीय जनतंत्र ।

ध्यान देने लायक़ बात यह है कि मोदी और आरएसएस सत्ता पर इस संसदीय जनतंत्र की प्रक्रिया से ही आए हैं, लेकिन इसके अंदर होते हुए भी वे इस सत्य के प्रति ज़रा भी निष्ठावान नहीं है । इनकी हरचंद कोशिश इस अलग-अलग शक्तियों के बीच के प्रतियोगितामूलक संपर्क की जगह अपने संपूर्ण वर्चस्व को क़ायम करने और अन्य ताक़तों के समूल नाश पर केंद्रित होती है ।

मोदी एनडीए के नेता के रूप में सत्ता पर आए लेकिन पाँच साल के अपने शासन की अवधि में एक बार भी एनडीए की औपचारिक बैठक तक करने की नहीं सोची । उनकी सारी शक्ति आने वाले पचासों साल के लिये देश की अन्य सभी राजनीतिक ताक़तों को समाप्त कर देने और समाज के सभी स्तरों को पूरी तरह से अकेले अपनी जकड़ में लेने की योजनाओं और साज़िशों पर केंद्रित रही ।

इसीलिये न कहा जाता है, मोदी जनतांत्रिक नहीं फासीवादी है ।

लेकिन संसदीय जनतंत्र में मोदी का पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता पर आना ही यह बताता है कि संसदीय जनतंत्र के ताने-बाने के बखान मात्र से इसका संपूर्ण सत्य जाहिर नहीं होता है । सिर्फ वस्तु-स्थिति के बखान से उसके अन्दर के अन्य चालक नियमों का कोई अंदाज नहीं मिलता है ।

मसलन्, बाज़ार अर्थ-व्यवस्था की योजनाबद्ध अर्थ-व्यवस्था पर जीत से एक का पक्ष मज़बूत और दूसरे का पक्ष कमजोर नहीं हो जाता है । कोई भी सत्य साबित होता है पूरी व्यवस्था से पृथक रूप में, न कि व्यवस्था के परिणाम के रूप में, अर्थात् स्वयं के तर्कों से ।

जब किसी भी व्यवस्था के अंदर पल रहा कोई सत्य अपने को उसकी चालू प्रक्रिया से अलग करके स्थापित करता है, इसी पृथ्कीकरण को इतिहास में संक्रमण का बिंदु कहते हैं । इसीलिये कोई भी सच्चा विश्लेषण कोरे ढाँचागत तथ्यों में नहीं, बल्कि अनोखे ढंग से घटित होने वाली स्थितियों में निहित होता है, जो किसी परिघटना के एक प्रकार के अभावनीय अवशेष के रूप में सामने आता है ।

मोदी का आना-जाना कोई मायने नहीं रखता, लेकिन मायने रखता है, उसका यही अवशिष्ट रूप । विगत पाँच साल के अनुभव बताते हैं कि मोदी फासीवाद के एक मुजाहिद है, बल्कि उनकी उत्कटता को देखते हुए कहा जा सकता है - मरजीवड़ा मुजाहिद । वह संसदीय जनतंत्र को अपसारित कर फासीवाद के, आज के आधुनिक युग में एक व्यक्ति की तानाशाही वाली राजशाही व्यवस्था के सत्य की स्थापना के लक्ष्य के लिये नियोजित व्यक्ति है ।

मोदी का यही सत्य उन्हें संसदीय जनतंत्र के बाक़ी सभी खिलाड़ियों से अलग करता है । और यह, मोदी को बाक़ी सबसे आगे अलग-थलग रखने वाला एक मूलभूत सत्य भी साबित होगा । प्रतिद्वंद्विता में सामयिक लाभ के लिये कुछ ताक़तें इसके साथ जा सकती है, लेकिन पिछले पाँच साल के अनुभव के बाद भी यदि कोई मोदी से किसी प्रकार का समझौता करता है, तो यह मान कर चलना होगा कि वह भी सांप्रदायिक फासीवाद की मोदी की मुहिम का एक सचेत हिस्सा है । अन्यथा, आज न्यूनतम जनतांत्रिक निष्ठा की विपक्षी शक्ति भी मोदी की अधीनता को स्वीकारने के पहले सौ बार विचार करेगी ।

इस बार मोदी की पराजय के बाद के चुनावोत्तर परिदृश्य को अंतिम रूप देने में संसदीय जनतंत्र के इस सत्य की भूमिका को समझे बिना जो लोग मायावती, केसीआर, वाईएसआर या नवीन आदि की भूमिका को संदेह की नजर से देख रहे हैं, बल्कि यहाँ तक कि नीतीश, पासवान और एआईएडीएमके की तरह के घटकों के भी मोदी के साथ ही रहने को अंतिम सत्य मान रहे हैं, वे ग़लत साबित होने के लिये अभिशप्त हैं ।

इसीलिये, इस बार के चुनाव में हम मोदी की भारतीय राजनीति से अंतिम विदाई को ही इस चुनाव के अंतिम सत्य के रूप में साफ़ देख पा रहे हैं । मोदी की बुरी हार की ख़बरों से इसकी ज़मीन बिल्कुल पुख़्ता होने के समाचार आने लगे हैं ।

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