शुक्रवार, 17 मई 2019

चुनावी परिदृश्य पर एक शुद्ध दार्शनिक चर्चा ; परिस्थिति के जीवंत भेदाभेदमूलक स्वरूप में मोदी का कोई स्थान संभव नहीं है

-अरुण माहेश्वरी


जब से 2019 के चुनाव की प्रक्रिया शुरू हुई, जीत के लक्ष्य को पाने के लिये सभी प्रतिद्वंद्वी शक्तियों के बीच परिदृश्य में व्याप्त भेदों में प्रवेश कर अपने प्रकार से उन्हें साधने की एक प्रक्रिया शुरू हो गई । इसे आजकल की चालू शब्दावली में कुछ हद तक सोशल इंजीनियरिंग भी कहते हैं, क्योंकि भारतीय परिदृश्य की संरचना में जातियाँ एक महत्वपूर्ण उपस्थिति मानी जाती है । हेगेल-मार्क्स की पदावली में परिस्थिति के द्वंद्वात्मकता और भारतीय तंत्रशास्त्र में भेद में एक अभेद का प्रवेश ;  भेदों को एक दिशा में साधने के लिये ही उसमें जीत के एक परम लक्ष्य की भूमिका ।

मगर सच्चाई यह है कि कोई भी परम, अर्थात इतिहास में एक खास वक़्त की ऐतिहासिक परिणति या अभेद इस प्रक्रिया में कभी भी पूरी तरह से ठोस रूप में मौजूद नहीं होता है, वह एक दिशा या लक्ष्य ही होता है । इस प्रक्रिया में उसका अस्तित्व सिर्फ क्रियात्मक (operational) होता है । और अंत तक भी, चूँकि इतिहास की प्रक्रिया का कोई अंत नहीं होता, यह परम सत्य द्वंद्वात्मकता के, भेद में प्रविष्ट अभेद से भेदाभेद के तरल सत्य में ही निहित होता है, अलग से इसकी कोई ठोस सत्ता नहीं होती ।

इस प्रक्रिया के बारे में आज के काल के प्रमुख दार्शनिक एलेन बाद्यू अपनी भाषा में प्राणीसत्ता के संदर्भ में One (अभेद) और Multiplicity (भेद) की व्याख्या करते हुए लिबनिज के एक सूत्र - ‘What is not a being is not a being’ की तर्ज़ पर कहते हैं कि “ For if being is one, then one must posit that what is not one, the multiple, is not.” ( क्योंकि यदि कोई प्राणीसत्ता अभेद है तो जो अभेद नहीं है, अर्थात् भेद, वह वह नहीं है) ।

इसी संदर्भ में वे कहते है कि हर चीज को उसके प्रस्तुतीकरण से जाना जाता है । और जब एक ही चीज को अनेक प्रकार से प्रस्तुत किया जा सकता है, तब सवाल उठता है कि क्या किसी एक प्रस्तुतीकरण को वस्तु की प्राणी सत्ता मानने का कोई तुक है ? बल्कि यदि वस्तु का कोई प्रस्तुतीकरण होता है तो यह मान कर चलना होगा कि उसके एक नहीं, अनेक स्वरूप हैं । इसके अलावा जो कुछ सामने है, उसके बाहर भी तो उसमें बहुत कुछ ऐसा होता है जो तब तक सामने नहीं आया है ।

इस प्रकार बाद्यू के शब्दों में हम एक ऐसी जगह पहुँच जाते हैं जहाँ किसी को भी एक और अनेक, अभेद और भेद की वे सारी बातें जिनमें दर्शनशास्त्र का जन्म होता है और जिनमें वह मुब्तिला रहता है, कोरी बकवास लगने लगेगी ।

इसी चर्चा में बाद्यु कहते हैं कि इससे हम इसके अलावा किसी दूसरे नतीजे पर नहीं पहुँच सकते हैं कि - एक (अभेद) कुछ नहीं होता है । ( The decision can take no other form than following : the one is not.)

फिर भी वे मानते हैं कि इसका तात्पर्य यह नहीं है कि (अभिनवगुप्त से लेकर ) मनोविश्लेषक लकान जब चित्त (symbolic) के संदर्भ में कहते हैं कि उसकी एकात्मकता (Oneness) होती है अर्थात् उसमें अभेद होता है, वह गलत है । इसमें सारा मुद्दा एक प्राणी सत्ता के बारे में पूर्व-धारणाओं (जिनसे मुक्त होना होता है) के एक निश्चित रूप (one) और ‘उसके मौजूदा रूप’ ( there is) की धारणा के बीच के फ़र्क़ को पकड़ने पर टिक जाती है । जो अभी नहीं है, वह क्या हो सकता था ? सही कहा जाए तो किसी मौजूदा रूप की बात में ही उसके एक निश्चित रूप की, एकात्मता को मानने की बात भी शामिल है ।

इसी बिंदु पर बाद्यु यह ऐलान करते हैं कि एकात्मता (one) (अभेद), जो नहीं है, पूरी तरह से क्रियाशीलता के रूप में मौजूद रहती है । (solely exists as operation) । दूसरे शब्दों में, जिसे एक कहते है वह कुछ नहीं है, एक सिर्फ एक गिनती है । तब सवाल है कि क्या भेद या अनेकता भी कुछ नहीं है ? इस पर बाद्यू कहते हैं कि हाँ, कोई भी प्राणीसत्ता उसके प्रस्तुतीकरण से ही भेदमूलक होती है ।

इसीलिये, निष्कर्षत: वे कहते हैं कि भेदमूलकता प्रस्तुतीकरण से जुड़ा विषय है ; एक अथवा अभेद, इस प्रस्तुतीकरण के संदर्भ में, क्रियात्मकता है ; प्राणीसत्ता (आत्म) की प्रस्तुति है । वह न एक है (क्योंकि खुद प्रस्तुति का ही एक की गिनती में होना मुनासिब नहीं है) , न अनेक ( क्योंकि अनेकता अर्थात् भेद पूरी तरह से प्रस्तुति का विषय है ) ।

इस प्रकार जो सामने हैं उसे परिस्थिति कहा जा सकता है, भेद की प्रस्तुति । हर परिस्थिति अपने में एक अभेदमूलक क्रियात्मक तत्व को ग्रहण करती है । यही किसी भी परिस्थिति के विन्यास की सबसे साधारण परिभाषा है ; इसी से एक अभेद के तहत भेदमूलकता का स्वरूप बनता है ।

परिस्थिति के विन्यास के इसी स्वरूप को व्यक्त करने के लिये सार्वलौकिक सटीक पद के तौर पर बाद्यू one/ multiple के युग्म का प्रस्ताव देते हैं, जो हमारे अभिनवगुप्त के पद ‘भेदाभेद’ से ज़रा भी अलग नहीं है । आगे वे भेद को inconsistent multiplicity कहते हैं और अभेद को consistent multiplicity बताते हैं । (देखें - Alain Badiou ; Being and Event; Bloomsbury; The One and the Multiple : A priori conditions of any possible Ontology; page -25-27)

बहरहाल, हम यहाँ अपने बिल्कुल तात्कालिक चुनावी परिदृश्य को इसी दार्शनिक सूत्रीकरण की रोशनी में देखना चाहते हैं ।

जैसा कि हमने शुरू में ही कहा, यह परिदृश्य तैयार होता है, सोशल इंजीनियरिंग और चुनावी गठबंधनों से । राजनीतिक यथार्थ की भेदमूलक संरचना की मूलभूत स्वीकृति से । क़ायदे से इसमें चुनावी प्रक्रिया की अपनी क्रियात्मकता के अभेद तत्व के ज़रिये इसके अंतिम स्वरूप के लिये जगह छोड़ी जानी चाहिए थी । जनतांत्रिक चुनाव प्रक्रिया की भेदाभेदमूलक परिणति का वही आदर्श रूप हो सकता है । यह संसदीय जनतंत्र की वेस्टमिनिस्टर प्रणाली की अपनी विशेषता है । राष्ट्रपति प्रणाली में जनतंत्र के इस भेदाभेदमूलक स्वरूप को उस पद पर बने रहने की अवधि की सीमा से सुनिश्चित किया जाता है ।

मगर, भाजपा ने इसमें खास तौर पर शुरू से ही प्रधानमंत्री के रूप में मोदी को रख कर उसके भेदाभेदमूलक विन्यास को पहले ही एक तयशुदा ‘मोदी नेतृत्व’ की अभेद अनिवार्यता, जनतांत्रिक प्रक्रिया से तानाशाही के उदय से बाँध दिया है । उसने चुनावी प्रक्रिया की क्रियात्मकता के लिये कोई विशेष जगह नहीं छोड़ी है, क्योंकि भाजपा में मोदी के अलावा किसी के लिये कोई जगह नहीं बची है । यह चुनाव के अभेद की क्रियात्मकता का भी एक प्रकार का अस्वीकार है । और इसके चलते भाजपा में एक प्रकार की पंगुता को निमंत्रण भी है । 

दूसरी ओर, विपक्ष की ताक़तों ने भेदमूलक परिस्थिति में मोदी-विरोधी गठजोड़ क़ायम करके आगे के परिणाम को चुनावी प्रक्रिया के अभेद की क्रियात्मकता पर छोड़ा है । वहाँ मोदी को पराजित करने के बाद की भेदाभेद की संरचना के लिये पूरी गुंजाइश बनी हुई है ।

और कहना न होगा, यही वह बिंदु है जहाँ विपक्ष मोदी से भारी हो जाता है जिसने अपने विन्यास में अभेद की क्रियात्मकता को खुल कर खेलने की अनुमति दी है । चुनाव की प्रक्रिया की क्रियात्मकता का अर्थ है मतदाताओं की स्वतंत्र क्रियाशीलता । और सभी जानते हैं कि मोदी चुनावी प्रक्रिया में ही मतदाताओं की स्वतंत्रता को कोई मौक़ा देना नहीं चाहते ; वे चुनाव के अभेद को खारिज करना चाहते हैं । यह जनतंत्र की परिस्थिति में हर प्रकार की तानाशाही की ताकतों की एक सामान्य समस्या है ।

मोदी अपने संपूर्ण प्रभुत्व के लक्ष्य को हासिल कर पाए,  इसके लिये ज़रूरी है कि उन्हें किसी भी वजह से जनता का असाधारण अतिरिक्त समर्थन हासिल हो जाए । लेकिन सवाल उठता है कि क्या विगत पाँच साल में परिस्थिति में ऐसी कोई भी वजह तैयार हुई है कि जिसे मोदी को असाधारण जन-समर्थन का कारण माना जा सके ?

मोदी का अपना आकलन था कि वे अपने पैसों की अपार शक्ति और झूठे प्रचार के ज़रिये ऐसी परिस्थिति तैयार कर लेंगे जिसमें चुनाव की प्रक्रिया की स्वाभाविक क्रियाशीलता को वे अवरुद्ध करके खुद को उस पर थोप पायेंगे । इसमें उन्होंने चुनाव आयोग सहित कई संवैधानिक संस्थाओं पर अपनी जकड़बंदी को भी अपनी शक्ति में शामिल कर रखा था ।

लेकिन मोदी के ये मंसूबे क्या कहीं से भी पूरे होते दिखाई दिये हैं ?

मीडिया पर मोदी की इजारेदारी का कारगर विकल्प साबित हुआ है सोशल मीडिया । उसी ने मोदी की ट्रौल सेना का भी भरपूर प्रत्युत्तर दिया है। और जहाँ तक आर्थिक संसाधनों का सवाल है, विपक्ष की सभी पार्टियों की अपने-अपने दायरों में स्वतंत्र गतिविधियों के चलते इस मामले में विपक्ष कभी भाजपा से बहुत ज्यादा विपन्न नहीं दिखाई दिया है । उल्टे मोदी के धन का केंद्रीय भंडार अनेक क्षेत्रों में फ़िज़ूलख़र्ची का शिकार हुआ है । संघी कार्यकर्ता के पास वैसे ही मोदी-मोदी रटने अलावा राजनीतिक लिहाज़ से कहने के लिये कुछ नहीं है । वह चुनाव में प्रचार के काम के बजाय पार्टी के द्वारा लुटाये जा रहे धन को बटोरने में ज़्यादा दिलचस्पी रख रहा है ।

ऊपर से, मोदी ने इसी बीच यह भी साफ़ कर दिया है कि उन्होंने चुनाव के पहले जो भी सोशलइंजीनियरिंग की थी, वह कोरे छल के अलावा कुछ नहीं था । एनडीए नामक गठजोड़ में किसी भी भेद की कोई जगह नहीं है, यह मोदी नामक एक अभेद की महज़ एक लाश है, अर्थात् जिसमें कोई गतिशीलता नहीं है । यह भी किसी परम सत्य के ठोस रूप में न होने की सच्चाई का ही एक दूसरा रूप है । इसीलिये चुनावोत्तर परिस्थिति में एनडीए के बाहर की छोड़ियें, एनडीए के अंदर की ताक़तें भी उसमें मोदी की संरचना में प्रवेश करने से परहेज़ करेगी । मोदी का संग ग़ुलामी के पर्याय के अलावा कुछ नहीं होगा, यह सब जानते है । और सबका यह जानना ही मोदी के इस चुनाव से ग़ायब हो जाने को भी साबित करता है ।

इन सभी संदर्भों में हमारी दृष्टि में इस बार के चुनाव का सत्य पूरी तरह से मोदी विरुद्ध खड़ा है । यह एक जनतांत्रिक प्रक्रिया में हिटलर की विडंबना के समान है । उनकी पराजय का स्वरूप कितना बड़ा और गहरा होगा, इसका चुनाव परिणाम के पहले कोई सटीक अनुमान नहीं लगा सकता है । लेकिन उनकी बुरी हार सुनिश्चित है ।


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