रविवार, 1 नवंबर 2020

आरएसएस-मोदी की राजनीति और चीन

 —अरुण माहेश्वरी



मोदी और आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत, दोनों ही पिछले दिनों अपने तमाम बयानों में चीन के साथ सुलह करने की बात पर अस्वाभाविक रूप में अतिरिक्त बल देते दिखाई पड़ रहे हैं । सारी दुनिया जानती है कि चीन की भारत की सीमाओं में घुस कर निर्माण की गतिविधियां पुरजोर जारी है । सेना के स्तर पर अब तक चली उच्चस्तरीय सात राउंड की निष्फल वार्ता के बाद आठवें राउंड के लिये भारत सरकार चीन की ओर से उसकी तारीख की सूचना की आतुर प्रतीक्षा कर रही है, लेकिन चीन न सिर्फ वार्ता की तारीख देने में टाल-मटोल का रुख अपनाता दिखाई दे रहा है, बल्कि सीमा पर उसके निर्माण के काम में और तेजी आ गई है । ये दोनों ही भारत की सुरक्षा व्यवस्था के लिए एक खासा सिरदर्द बन गए हैं  ।

 गौर करने की बात है कि चीन के इस रुख के बावजूद आज तक मोदी ने चीन के अनुप्रवेश पर एक शब्द नहीं कहा है । उल्टे बीच-बीच में जब भारत सरकार के किसी भी विभाग से, किसी मंत्री, बल्कि राष्ट्रपति तक से चीन के अनुप्रवेश का संकेत देते हुए कोई बयान जारी हो जाता है, तो उसे तत्काल सुधारने में सरकार की तत्परता देखने लायक होती है ! चीन के खिलाफ अमेरिका, जापान, आस्ट्रेलिया के साथ मिल कर तैयार किए जाने वाले सैनिक गठजोड़ और सीमा पर भारत की सैनिक तैयारियों में बढ़ोतरी की तमाम कोशिशों से कुछ शक्ति प्रदर्शन के बावजूद मोदी सरकार की भरसक कोशिश चीन को नरम रखने की ही ज्यादा दिखाई देती है । 

मोदी की तरह ही चीन के प्रति यही रवैया अभी हाल में मोहन भागवत ने भी अपने विजया दशमी के भाषण के दौरान जाहिर किया । मोदी सरकार को उनकी सलाह थी कि वह चीन से किसी भी प्रकार से बना कर चलने की कोशिश करें ।

सवाल उठता है कि मोदी और भागवत की चीन की गलत करतूतों से आंख मूंद कर चलने और उसके प्रति यथासंभव नरमी बनाए बनाए रखने की नीति के मूल में क्या है ? किसी भी फासीवादी शक्ति की एक मूलभूत पहचान है अपनी सामरिक शक्ति का भरपूर प्रदर्शन करना और सीमा के बहाने राष्ट्र में हमेशा एक ऐसे संकट की परिस्थिति बनाए रखना ताकि उसके नाम पर वह घरेलू स्तर पर नागरिकों के तमाम अधिकारों के नग्न हनन का अधिकार पा सके । क्या संघ-मोदी ने फासिस्टों के नैसर्गिक अंध राष्ट्रवाद के अपने मूलभूत चरित्र को छोड़ दिया हैं ? सवाल यह भी है कि क्या आरएसएस और उसकी सरकार फासीवाद के इस अति-परिचित रास्ते से हट चुकी है और उसने पड़ौसी मुल्कों के साथ शांतिपूर्ण भाईचारे के संबंध की नीति अपना कर देश के शांतिपूर्ण विकास का रास्ता पकड़ लिया है ? 

इन सवालों के साथ जब हम पड़ौसी देशों से संबंध की मोदी सरकार की नीतियों की जांच करते हैं तो यह देखने में हमें जरा भी देर नहीं लगती है कि चीन के अलावा भारत के बाकी जितने भी पड़ोसी देश हैं — पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका — इनमें से किसी के भी साथ भारत सरकार के संबंधों में मोदी के काल में कोई सुधार नहीं हुआ है, बल्कि लगातार गिरावट ही आई है । इन संबंधों को बिगाड़ने में मोदी की खुद की कई हरकतों की भी सिनाख्त की जा सकती है । नेपाल की राजनीति में मोदी ने सीधे हस्तक्षेप की जो कोशिश की थी उसे वहाँ जरा भी पसंद नहीं किया गया । इसीप्रकार भारत में नागरिकता कानून पर चलाया गया अभियान तो सीधे तौर पर बांग्लादेश के विरुद्ध केंद्रित था । पाकिस्तान का मामला तो बिल्कुल अलग है । दोनों देशों के बीच संबंधों में कटुता लगता है जैसे दोनों की आंतरिक राजनीति की अभिन्न जरूरत बन चुकी है । मोहन भागवत ने भी चीन के साथ तो सुलह करके चलने की बात कही, पर पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश आदि के बारे में एक शब्द नहीं कहा ।

जाहिर है कि चीन के अलावा भारत के दूसरे सभी पड़ोसी देश सैनिक शक्ति के मानदंड पर भारत से काफी कमजोर हैं । इसीलिये इनके प्रति एक प्रकार की धौंस का रवैया अपना कर, मौके बे मौके छोटी-बड़ी सैनिक कार्रवाई भी करके आरएसएस और मोदी ऐसे तनाव और उन्माद का वातावरण तैयार कर सकते हैं, जो देश के अंदर सारी सत्ता को अपने हाथ में केंद्रीभूत कर लेने के उनके फासिस्ट इरादों के लिए सबसे अधिक मुफीद हो सकता है और इस प्रकार की संभावनाओं से वे किसी भी कीमत पर हाथ धोना नहीं चाहते हैं । 

पर यह संघ और मोदी का दुर्भाग्य ही कहलायेगा भारत के पड़ौस में अन्य छोटे-छोटे कमजोर देशों के अलावा आज के समय की दुनिया की उभरती हुई एक महाशक्ति चीन भी है । चीन की भारत की सीमाओं पर उपस्थिति ही जैसे मोदी के फासीवादी चरित्र के खुल कर खेलने के रास्ते में आज पहाड़ समान बाधा के तौर पर आ खड़ी हुई है । चीन ने भी लगता है, मोदी की इस कमजोरी को अच्छी तरह से पकड़ लिया है, इसीलिए वह सीमा पर तमाम प्रकार की अनीतियों से जरा सा भी बाज नहीं आ रहा है । उल्टे उसने पाकिस्तान और नेपाल  के साथ भी अपने सैनिक सहयोग को बढ़ा कर इन देशों से लगी सीमाओं पर भी भारत की स्थिति को नुकसान पहुंचाया है । आज श्री लंका और बांग्लादेश में भी चीन की पूंजी का बड़े पैमाने पर प्रवेश हो चुका है ।

कहने की जरूरत नहीं है कि यदि कभी भी एक फासिस्ट शक्ति की सामरिक ताकत पर कोई गंभीर सवाल उठ खड़ा हो जाए तो फिर वह शक्ति सत्ता पर बने रहने के ही अपने औचित्य को ही जैसे गंवाने लगती है । ऊपर से यदि लड़ाई के मैदान में उसे कोई बड़ा झटका लग जाए तो उसका भविष्य ही जैसे हमेशा के लिए ही समाप्त हो जाता है । यही वजह है कि मोदी चीन के साथ हर हालत में किसी भी सीधे संघर्ष से बचना चाहते हैं ।

 शायद यह भी एक बड़ी वजह है जिसके चलते आज मोदी की लाख कोशिश के बावजूद बिहार में रोजगार की तरह के जनता के जीवन से जुड़े सबसे बुनियादी प्रश्न को चुनाव का एक प्रमुख मुद्दा बन पाने से रोक नहीं पाए हैं । इसके मूल में कहीं न कहीं यह सच्चाई जरूर काम कर रही है कि मोदी की अंध-राष्ट्रवाद की आंधी पैदा करने की ताकत इस बीच सीमा की परिस्थितियों की वजह से ही काफी कमजोर हुई है । पुलवामा के बारे में पाकिस्तान के मंत्री की उनकी राष्ट्रीय सभा में बेशर्म स्वीकृति भी इसीलिए शायद मोदी के लिए उतनी सहायक नहीं बन पा रही है, क्योंकि आज के हालात में पुलवामा के बाद हुई बालाकोट स्ट्राइक की तरह की कार्रवाई करने पर भारत को सौ बार विचार करना पड़ रहा है । 

इसमें सबसे चिंताजनक है चीन का रवैया । उसने मोदी की सबसे कमजोर नस को पकड़ कर भारत के साथ अपनी सीमाओं को मनमाने ढंग से स्थायी रूप में बदल देने का निर्णय ले लिया है । सीमा पर उसकी दुस्साहसिक गतिविधियां इस क्षेत्र को दुनिया के साम्राज्यवादी ताकतों की खुली साजिशों और गतिविधियों के क्षेत्र में बदल सकती है । 

कुल मिला कर देखा जाए तो आज मोदी सरकार राष्ट्रीय विकास की तरह ही हमारी सीमा की रक्षा के मामले में भी देश के लिए एक काल सी बन गई है । यही उसकी फासिस्ट राजनीति की सबसे बड़ी कमजोरी है जो कोई सैनिक दुस्साहस न कर पाने की दशा में हर लिहाज से पंगु हो जाती है । 


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