-अरुण माहेश्वरी
चालू वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में जीडीपी में 23.9 प्रतिशत के संकुचन के बाद दूसरी तिमाही में उसमें और 7.5 प्रतिशत का संकुचन हो गया ; अर्थात् अर्थव्यवस्था का सिकुड़ना लगातार जारी है ।
पर मोदी के अर्थशास्त्री इस पर भी ख़ुश है कि यह संकुचन पहले की 23.5 प्रतिशत की समान गति से नहीं हो रहा है, बल्कि इस तिमाही में उससे एक तिहाई से भी कम गति से संकुचन हुआ है ।
कोई भी समझ सकता है कि अगर पहले की गति से ही आर्थिक संकुचन जारी रहता तो उसका अर्थ होता कि साल भर के अंदर भारत में सारी आर्थिक गतिविधियाँ ही समाप्त हो जाती । इसीलिये दूसरी तिमाही में भी संकुचन का जारी रहना किसी भी मायने में कम बुरा नहीं है । संकुचन का यह आँकड़ा 23.9 प्रतिशत संकुचन से आगे और संकुचन का आँकड़ा है ।हिसाब लगाने से पता चलता है कि और 7.5 प्रतिशत का संकुचन का अर्थ है अब तक इस वित्तीय वर्ष में अर्थ-व्यवस्था कुल 29.6 प्रतिशत सिकुड़ चुकी है । आगे की दो तिमाही में भी अगर यही सिलसिला जारी रहा तो 2020-21 में अर्थ-व्यवस्था कुल मिला कर कम से कम 40 प्रतिशत सिकुड़ जाएगी ।
ग़ौर करने की बात है कि इस तिमाही में त्यौहारों के मौसम की अतिरिक्त ख़रीद-बिक्री का हिसाब शामिल हो गया है । अर्थात् आगे अर्थ-व्यवस्था में सुधार का ऐसा कोई अन्य विशेष कारण भी नहीं आने वाला है ।
अर्थ-व्यवस्था में लगातार संकुचन ही मंदी कहलाता है, जिसमें भारत फँसा हुआ है , पर मोदी और उनके पंडितगण इस पर भी तालियाँ बजा रहे हैं । लगातार दो तिमाही में संकुचन का मतलब है अर्थ-व्यवस्था बर्बादी की ओर क़दम बढ़ा चुकी है, जिसे बाकायदा मंदी कहते हैं । मोदी भारतीय अर्थ-व्यवस्था में मंदी के लिए ताली पिटवा रहे हैं !
कैसे कोई इनके सत्ता में रहते आर्थिक विकास की ज़रा भी उम्मीद कर सकता है ? इनका ‘आत्म-निर्भर’ भारत आत्म-विनाश की ओर बढ़ते भारत के अलावा कोई दूसरा अर्थ नहीं रखता है ।
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