गुरुवार, 26 अप्रैल 2018

‘चीनम् शरणम् गच्छामि’


-अरुण माहेश्वरी

अभी पूरी मोदी सरकार चीन की ओर रुख किये हुए है। मोदी खुद आगामी पांच हफ्तों में दो बार चीन जा रहे हैं शी जिन से इस महीने अनौपचारिक मुलाकात करेंगे और फिर जून के महीने में औपचारिक राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार डोभाल ने तो चीन को अपना दूसरा घर ही बना रखा है यहां तक कि चीन के चक्कर में सुषमा स्वराज का लगभग विस्मृत हो रहा विदेश मंत्री पद भी फिर से दृष्टि के दायरे में गया है प्रधानमंत्री के जाने के पहले ही वे चीन पहुंच चुकी है  

चीन ने साल भर पहले जब दुनिया के तकरीबन सत्तर से ज्यादा राष्ट्रों को साथ लेकर अपनी वन बेल्ट वन रोड (ओबोर) परियोजना के प्रारंभ का ऐलान किया था, तब मोदी पर ट्रंप सवार थे वे उनमें अपनी छवि देख रहे थे अपने राष्ट्रवाद की जीत ट्रंप के माध्यम से वे अपने दक्षिणपंथ के भविष्य का रास्ता खोज रहे थे इसके अलावा, डोकलाम का संकट भी गया कुल मिला कर, मोदी जी ने अपनी क्षेत्रीय श्रेष्ठता के चक्कर में चीन के उस प्रकल्प में शामिल होने के प्रस्ताव का कोई दाम नहीं लगाया उल्टे उसे भारत-विरोधी लामबंदी तक बताने की कोशिश की गई  

किसी महाशक्ति के डर से नहीं, शुद्ध रूप से परस्पर आर्थिक हितों के आधार पर राष्ट्रों के बीच वैश्विक सहयोग के ओबोर के उस प्रस्ताव से अलग रहने का वास्तविक अर्थ तो यह था कि आज की दुनिया के राष्ट्रों के बीच के गैर-बराबरी और अन्यायपूर्ण संबंधों से भारत का चिपके रहना यह हमारी आजादी की लड़ाई के मूल्यों के विपरीत आरएसएस के विचारों के अनुकूल होने के साथ ही हमारे समग्र हितों के विरुद्ध था एक प्रकार से प्रत्यक्ष तौर पर साम्राज्यवादियों के सहयोगी की भूमिका अदा करना था

हर कोई जानता है कि दुनिया में राष्ट्रों के बीच संबंधों का यदि  बराबरी और न्याय के आधार पर पुनर्विन्यास करना चाहते हैं तो किसी को भी इस विश्व के ढांचे और इसके लिये काम कर रही विचारधारा की संरचना के बाहर जाकर विचार करना होगा चीन ने अपने ओबोर प्रकल्प के जरिये तकरीबन सात ट्रीलियन डालर की लागत से दुनिया के राष्ट्रों को जोड़ कर आज से एक अलग दुनिया के विकल्प की दिशा में, भले छोटा ही क्यों हो, कदम उठाने की पेशकश की थी जो है उसी से बंधे रहना प्रभुत्वशालियों की अधीनता को स्वीकारने से भिन्न कुछ नहीं होता है उसे तोड़ने में कमजोरों की मुक्ति होती है कमजोरों के अपने शील का भी यही तकाजा है  

आगामी 2019 में ओबोर के विषय पर ही चीन में जो अनेक राष्ट्रों की सभा होने वाली है, अभी लगता है कि उस सभा में शिरकत करने का मोदी सरकार मन बना रही है तमाम ओहदाधारियों का चीन की दिशा में प्रस्थान उसके संकेत भी देता है लेकिन मोदी के बारे में सबसे बड़ी परेशानी का सबब यह है कि इनका कोई भी काम सुविचारित नहीं होता है संघ की पाठशाला में अज्ञान की उपासना के इन्हें जो संस्कार मिले हैं, वही इनके स्वतंत्र सोच के रास्ते की सबसे बड़ी बाधा है इसीलिये एक प्रकार का तदर्थवाद उनके सोच का स्थायी और लगभग असाध्य सा रोग बन चुका है इनके पास  विश्व के समग्र ताने-बाने में अपने देश के कल्याण की निर्विकल्प दृष्टि और दिशा का सर्वथा अभाव है  

जैसे आंतरिक नीतियों के मामले में भी इन्हें सांप्रदायिक और जातिवादी विद्वेष फैलाने से जरा भी परहेज नहीं होता, जबकि कसमें खाते हैं राष्ट्रीय एकता और अखंडता की ! उसी प्रकार, हमेशा नितांत क्षणिक और तात्कालिक लाभ उठाने के दांव-पेंचों के बाहर ये कुछ भी नहीं सोच पाते हैं हरेक चुनाव के साथ, वे भले किसी पंचायत के चुनाव हो, या नगरपालिका या विधान सभा या लोक सभा की एकाध सीट के चुनाव हो, ये तमाम नीतिगत मसलों पर भी गिरगिट की तरह रंग बदलते रहते हैं  

आंतरिक राजनीति के क्षेत्र में तो मुमकिन है कि इस प्रकार के प्रति क्षण रूप बदलने वाले  अवसरवाद से यदा-कदा कुछ तात्कालिक राजनीतिक लाभ मिल जाते हैं, लेकिन कूटनीति का क्षेत्र ऐसा है जिसमें आपको पूरी तरह से स्वतंत्र और सार्वभौम राज्यों से व्यवहार करना पड़ता है इसमें आपके चरित्र की इस प्रकार की अविश्वसनीयता आपकी पूर्ण विफलता को ही सुनिश्चित करती है मोदी की विदेश नीति इसीलिये अब तक एक पूरी तरह से विफल विदेश नीति रही है जिसमें आज पड़ौसी मुल्क हो या दुनिया के दूसरे हिस्सों के मुल्क, भारत को कोई भी अपना विश्वासयोग्य सहयोगी नहीं मानता है  

चीन के प्रस्ताव के प्रति भारत की अब तक की उदासीनता को चीन ने भारत सरकार की एक विसंगति समझ कर कोई तीखी प्रतिक्रिया नहीं दी थी। इसके विपरीत उसने भारत के सभी पड़ौसी देशों को धीरे-धीरे अपने विश्वास के दायरे में ले लिया यहां तक कि भारत ने जिस भूटान की सार्वभौमिकता की रक्षा के नाम पर डोकलाम में भैरव नृत्य किया था, उसने भी भारतीय दम-खम की असलियत को देख लिया अभी तो डोकलाम भारत सरकार के एजेंडे से ही बाहर हो गया है  


कहने का तात्पर्य सिर्फ यह है कि भारत का चीन के साथ संबंधों का बढ़ना निश्चित तौर पर इस दुनिया, और खास तौर पर एशिया के राजनीतिक नक्शे को काफी प्रभावित करेगा साम्राज्यवादियों की जकड़ को थोड़ा ढीला करेगा लेकिन इन संबंधों के सुफल किसी भी प्रकार के तदर्थवाद के बजाय एक सुचिंतित नीति को अपनाये जाने पर टिके हुए हैं अन्यथा, यदि इनके पीछे आंतरिक राजनीति में अपनी दुर्दशा से निकलने के लिये कोई नई और अल्पजीवी चमक पैदा करने की मंशा काम कर रही हो तो मोदी सरकार का चीन की ओर चल रहा यह अभियान एक नाटक भर साबित होगा चीन के प्रस्तावित एक नये विश्व में भी आपकी उपस्थिति को कोई भी एक भरोसेमंद उपस्थिति के रूप में नहीं देख पायेगा और कुल जमा यह होगा कि इस विश्व में आपका अलग-थलगपन और ज्यादा बढ़ जायेगा। मोदी की नाटकीयताओं में इस बात का पूरा खतरा है  

मंगलवार, 24 अप्रैल 2018

न्यायपालिका और उसकी स्वतंत्रता का सत्य

—अरुण माहेश्वरी


राजनीति में जिस प्रकार लोगों के नित नये रंग दिखाई देते हैं उनसे शायद गिरगिट को भी रंग बदलने की अपनी क्षमता की श्रेष्ठता पर संदेह होने लगेगा । एक दिन पहले तक जो लोग न्यायपालिका को पंगु कर देने में पूरी ताकत से लगे हुए थे, आज अचानक ही न्यायपालिका की स्वतंत्रता और पवित्रता के झंडा-बरदार बन के पूरे विपक्ष पर संविधान से विश्वासघात का शोर मचा रहे हैं । जजों की नियुक्तियों के बारे में सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम की सिफारिशों पर कुंडली मार कर पूरी न्याय-प्रणाली से उसकी प्राणशक्ति को सोख लेने वाले लोगों में अचानक न्यायपालिका के प्रति भारी प्रेम उमड़ने लगा है ! सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की बेंच ने उनके अध्यक्ष अमित शाह को जज लोया के मामले से चिंता-मुक्त क्या किया, न्यायपालिका के प्रति उनकी नफरत को भारी प्रीति में बदलने में एक क्षण भी नहीं लगा !

बहरहाल, हमारे लोकतंत्र के स्तंभ माने जाने वाले विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका अथवा प्रेस का ही अपना  खुद का सत्य क्या होता है ? क्या हमारे लोकतंत्र की दुनिया की सचाई के बाहर भी इनके जगत का अपना-अपना कोई स्वतंत्र, स्वाधीन सत्य भी होता है ?

जब भी हम किसी चीज की विशिष्टता की चर्चा करते हैं, वह विशिष्टता आखिरकार इस दुनिया के बाहर की कोई चीज नहीं होती । वह इस दुनिया के तत्वों से ही निर्मित होती है । वह अन्य चीजों से कितनी ही अलग या पृथक क्यों न हो, उनमें एक प्रकार की सार्वलौकिकता का तत्व हमेशा मौजूद रहता है । उनकी विशिष्टता या पृथकता कभी भी सिर्फ अपने बल पर कायम नहीं रह सकती है । इसीलिये कोई भी अपवाद-स्वरूप विशिष्टता उतनी भी स्वयंभू नहीं है कि उसे बाकी दुनिया से अलग करके देखा-समझा जा सके ।

यही वजह है कि जब कोई समग्र रूप से हमारे लोकतंत्र के सार्वलौकिक सत्य से काट कर उसके किसी भी अंग के अपने जगत के सत्य की पवित्रता पर ज्यादा बल देता है तो वह कोरी प्रवंचना के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता है । इनकी अपवाद-स्वरूपता में भी हमेशा लोकतंत्र के सत्य की सार्वलौकिकता ही किसी न किसी रूप में व्यक्त होती है । इसीलिये जब एक ओर तो लोकतंत्र मात्र का ही दम घोट देने की राजनीति चल रही हो और दूसरी ओर उसके संघटक तत्वों के अपने जगत की स्वतंत्रता और पवित्रता का जाप किया जाता हो — यह मिथ्याचार नहीं तो और क्या है !

न्यायपालिका हो या इस दुनिया के और क्षेत्रों के अपने जगत का सत्य, वह उसी हद तक सनातन सत्य होता है जिस हद तक वह उसके बाहर के अन्य क्षेत्रों में भी प्रगट होता है । अर्थात जो तथ्य एक जगत को विशिष्ट या अपवाद-स्वरूप बनाता है, उसे बाकी दुनिया के तथ्यों की श्रृंखला में ही पहचाना और समझा जा सकता है। इनमें अदृश्य, परम-ब्रह्मनुमा कुछ भी नहीं होता, सब इस व्यापक जगत के के तत्वों को लिये होता है ।

यह बात दीगर है कि हर क्षेत्र के अपने-अपने जगत के सत्य अपनी अलग-अलग भाषा में सामने आते हैं । साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र के अपने भाषाई रूप होते हैं तो कानून के क्षेत्र के अपने, राजनीति के क्षेत्र के अपने । अर्थात, अपने को अन्यों से अलगाने के लिये वे अपनी खास भाषा पर निर्भर करते हैं, जिसका उन जगत में प्रयोग किया जाता है और निरंतर विकास और संवर्द्धन भी किया जाता है । लेकिन जिसे जीवन का सत्य कहते हैं — यथार्थ — वह तो सर्व-भाषिक होता है । वह एक प्रकार का जरिया है जिससे आप प्रत्येक विशिष्ट माने जाने वाले क्षेत्र में प्रवेश करते हैं । वही सबको आपस में जोड़ता है । अन्यथा सच यह है कि किसी भी क्षेत्र की अपनी खुद की खास भौतिक लाक्षणिकताएँ बाकी दुनिया के लिये किसी काम की नहीं होती है । उनसे उस क्षेत्र की अपनी तार्किकता, उनके होने की संगति भी प्रमाणित नहीं होती । इन लाक्षणिकताओं से सिर्फ यह जाना जा सकता है कि बाहर की दुनिया के सत्य ने उस जगत विशेष को किस हद तक प्रभावित किया है । इनसे उस जगत की अपनी क्रियाशीलता या कार्य-पद्धति का अनुमान भर मिल सकता है । इस दुनिया में जिस काम को पूरा करने के लिये उन्हें नियोजित किया गया है, उसे हम इन लक्षणों से देख सकते हैं । लेकिन इनका कुछ भी अपना नैसर्गिक या प्रदत्त नहीं होता । इनका सत्य अपने संघटक तत्वों को एक क्रम में, अपनी क्रियाशीलता की एक श्रृंखला में जाहिर करता है । न्यायपालिका के आचरणों की श्रृंखला दुनिया में उसकी भूमिका को जाहिर करती है । इस प्रकार एक लोकतांत्रिक दुनिया के अखिल सत्य के एक अखंड राग में ये सारी संस्थाएं महज बीच-बीच के खास पड़ावों की तरह है, अपनी एक खास रंगत के बावजूद उसी राग का अखंड हिस्सा । इन्हीं तमाम कारणों से हमने साहित्य के अपने स्वायत्त नगर का झंडा उठा कर उसकी स्वयं-संपूर्णता के तत्व का विरोध किया है ।

इकबाल का शेर है — 'मौज है दरिया में / वरु ने दरिया कुछ भी नहीं ।'

सत्य को असीम और खास प्रजातिगत, दोनों माना जाता है । उसकी खास क्षेत्र की विशिष्टता उसके अपवाद-स्वरूप पहलू को औचित्य प्रदान करती है, और बहुधा उस क्षेत्र के कारोबारियों के विपरीत एक नई समकालीन आस्था और विश्वास की जमीन तैयार करने का काम भी करती है । लेकिन हर हाल में वह इस व्यापक दुनिया के सच को ही प्रतिबिंबित करती है ।

यही वजह है कि मार्क्स अपने दर्शनशास्त्रीय विश्लेषण में समाज में संस्कृति, न्याय, कानून और विचार के तत्वों के ऊपरी ढांचे को उसके आर्थिक आधार से द्वंद्वात्मक रूप में जुड़ा हुआ देखने पर भी अंतिम तौर पर आर्थिक आधार को ही समाज-व्यवस्था का निर्णायक तत्व कहने में जरा सा भी संकोच नहीं करते । इसे दुनिया के इतिहास ने बार-बार प्रमाणित किया है ।


हमारे यहां न्यायपालिका के सच को हमारी राजनीति के सच से काट कर दिखाने की कोशिश को इसीलिये हम मूलतः अपने लोकतंत्र के सत्य को झुठलाने की कोशिश ही कहेंगे । आरएसएस की तरह की एक जन्मजात वर्तमान संविधान-विरोधी शक्ति के शासन में सरकार के द्वारा संविधान की रक्षा की बातें मिथ्याचार के सिवाय और कुछ नहीं हो सकती हैं !   

शनिवार, 21 अप्रैल 2018

गुटबाजी और 'क्रांतिकारिता'

लेनिन को याद करते हुए :
—अरुण माहेश्वरी

आज लेनिन का जन्मदिन है ।

1917 की नवंबर क्रांति के बाद पार्टी के अंदर की जिन प्रवृत्तियों से लेनिन को लगातार लड़ना पड़ा था उसमें प्रमुख थी वामपंथी उग्रतावाद की अराजक प्रवृत्ति । 1920 में इसके नाना आयामों पर उनकी पूरी किताब आई — 'वामपंथी' कम्युनिज्म - एक बचकाना मर्ज ।

लेनिन ने बोल्शेविक पार्टी को बार-बार यह याद दिलाया था कि वर्षों तक इस “निम्न-पूंजीवादी क्रांतिवाद के खिलाफ लड़ कर ही बोल्शेविज्म बढ़ा, पनपा और मजबूत हुआ है ।”

उन्होंने इस प्रकार के निम्न-पूंजीवादी क्रांतिकारीपन के बारे में साफ कहा था कि “यह कितना क्षणिक, कितना बंजर होता है और कितनी जल्दी वह आत्म-समर्पण, उदासीनता, मृग-मरीचिका और यहां तक कि किसी न किसी “फैशनी” पूंजीवादी प्रवृत्ति के प्रति “घोर” आकर्षण में भी बदल सकता है इसे सभी जानते हैं ।”

रूसी कम्युनिस्ट पार्टी की दसवीं कांग्रेस में इसी 'क्रांतिकारिता' को उन्होंने पार्टी में हर प्रकार की गुटबाजी का कारण बताया और कहा कि “गुटबाजी सबसे आसानी से वामपंथी कम्युनिस्टों के भेस में की जाती है ।”
गुटबाजी की लाक्षणिकताओं की व्याख्या करते हुए उन्होंने इसे 'एक दूसरे से अलग रहने और खुद के दल के अनुशासन को स्थापित करने की प्रवृत्ति' बताते हुए कहा था कि 'यह मिल-जुल कर काम करने में विघ्न डालती है ।'

अभी भारत की प्रमुख वामपंथी पार्टी सीपीआई(एम) की पार्टी कांग्रेस चल रही है । पिछले लंबे काल से इसी निम्न-पूंजीवादी क्रांतिकारिता के कारण इसमें गुटबाजी का असाध्य रोग लगा हुआ है । चार साल से तो पार्टी के महासचिव को ही पंगु बना कर रख दिया गया है । पार्टी की लगातार अवनति को उसकी क्रांतिकारी शुद्धता का प्रमाण बताया जाता रहा है । संसदीय जनतंत्र में काम करना है, फिर भी संसद में पार्टी की आवाज का लगभग खत्म हो जाना मंजूर था, लेकिन संसद के मंच पर सबसे प्रभावशाली समझे जाने वाले अपने नेता को कांग्रेस दल के बिना- शर्त समर्थन से संसद में भेजना मंजूर नहीं था । बहाना यह कि इससे किसी को भी दो अवधि से ज्यादा बार राज्य सभा में न भेजने का पार्टी का क्रांतिकारी शील भंग हो जाता और सर्वोपरि, कांग्रेस की तरह की पूंजीवादी पार्टी के संपर्क से पार्टी को 'नव-उदारवादी' छूत की बीमारी लग जाती !

बहरहाल, लेनिन के जन्म दिन के अवसर पर उनके लेखन के अध्ययन से हर किसी को राजनीति में यथार्थ-बोध की प्राथमिक शिक्षा जरूर ग्रहण करनी चाहिए । इस अवसर पर हम उन्हें गहरी श्रद्धा के साथ याद करते हैं ।



शुक्रवार, 20 अप्रैल 2018

तदनुरूप आगे एकजुट पार्टी के लिये सांगठनिक परिवर्तन भी चाहिए !

सीपीआई(एम) का सर्वसम्मत राजनीतिक संकल्प :
भाजपा/आरएसएस को हराना ही अभी सीपीआई(एम) का मुख्य कर्तव्य है ।

- अरुण माहेश्वरी


सीपीआई(एम) की बाईसवीं कांग्रेस में 20 अप्रैल को अंतत: सर्वसम्मति से राजनीतिक प्रस्ताव पारित हुआ । इस बात को मानते हुए कि भाजपा/आरएसएस और उनकी सरकार को पराजित करना ही पार्टी का आगे सबसे प्रमुख लक्ष्य होगा, राजनीतिक प्रस्ताव के मसौदे से उस वाक्य को हटा दिया गया जहां कहा गया था कि कांग्रेस दल के साथ किसी प्रकार का कोई ‘तालमेल’ नहीं होगा ।

पार्टी कांग्रेस के पहले पार्टी की केंद्रीय कमेटी की अंतिम कोलकाता बैठक में जिस एक शब्द ‘कांग्रेस दल के साथ ‘तालमेल’ (understanding) पर तीन दिन तक जो लोग शुतुरमुर्ग की तरह सिर गड़ाए बैठे थे, कांग्रेस के प्रतिनिधियों की कड़ी आलोचना ने उनकी इस शुतुरमुर्गी तंद्रा को तोड़ दिया है। अब इस बात को बाकायदा स्वीकार लिया गया है कि संसद के पटल पर पार्टी का कांग्रेस सहित अन्य धर्म-निरपेक्ष दलों के साथ प्रमुख विषयों पर तालमेल तो होगा ही । इसके साथ ही संसद के बाहर भी भाजपा को हराने के लिये कांग्रेस के साथ मिल कर और सब कुछ होगा, सिवाय राजनीतिक गठजोड़ के । सीपीएम के चौवन साल के इतिहास में पहली बार उसके आधिकारिक राजनीतिक प्रस्ताव के मसौदे में इतने बड़े राजनीतिक संशोधन किये गये है । ‘तालमेल’ नहीं होगा, इसे हटा कर उसकी जगह ‘राजनीतिक गठजोड़’ नहीं होगा, इसे सव्याख्या जोड़ा गया है । कहा गया है कि “भारत के शासक वर्गों की एक प्रमुख पार्टी के साथ राजनीतिक गठजोड़ कायम करने से वैकल्पिक नीतियों के आधार पर जनता को लामबंद करने का काम व्याहत होगा ।”

यद्यपि आज तक किसी ने भी सीपीआई(एम) की कांग्रेस पार्टी में विलय की मांग नहीं उठाई थी, इसलिये यह व्याख्या अनावश्यक अथवा महज आत्म-सांत्वनाकारी कही जा सकती है ।

बहरहाल, पार्टी के राजनीतिक प्रस्ताव के मसौदे में इन संशोधनों की व्याख्या करते हुए प्रकाश करात ने साफ शब्दों में कहा कि आरएसएस/भाजपा की हार को पूरी तरह से सुनिश्चित करने के बारे में पार्टी एकजुट है । महासचिव सीताराम येचुरी ने भी संशोधनों की व्याख्या करते हुए कहा कि हम सब इस बात पर एकमत है कि हमारी मुख्य लड़ाई भाजपा/आरएसएस के खिलाफ है और इस सरकार को पराजित करना है । इस प्रकार सीपीआई(एम) की इस कांग्रेस पार्टी की एकता की कांग्रेस कहा जा सकेगा।

लेकिन कोई भी राजनीतिक पार्टी महज एक प्रस्ताव या सैद्धांतिक समझ नहीं होती है । पार्टी चरितार्थ होती है उसके संगठन के जरिये । किसी भी पार्टी की उन्नति या अवनति में विचारधारा से कम उसकी सांगठनिक संरचना की भूमिका नहीं होती है । राजनीति का सबसे स्वाभाविक तर्क कहता है कि विचार अथवा सिद्धांत के अनुरूप ही राजनीतिक दल का संगठनात्मक स्वरूप भी होना चाहिए तभी वह अपने सैद्धांतिक संकल्प पर पूरी निष्ठा, ईमानदारी और एकजुटता से अमल कर पायेगा । अन्यथा पार्टी सिर्फ एक डिबेटिंग क्लब का रूप लेकर एक सही समझ तक पहुंच कर भी उसी स्थिति में पड़ी रहेगी जिस दशा में वह अपनी भूल समझ के साथ पहले थी । अंदर की जो खींच-तान पिछले तीन साल से पार्टी के महासचिव को पंगु बना रखी थी, वही खींच-तान, अर्थात गुटबाजी आगे भी पार्टी को अचल रखेगी !

इसीलिये आने वाले दो दिन सीपीआई(एम) के जीवन के बेहद महत्वपूर्ण दिन साबित होने वाले हैं । इसमें नई केंद्रीय कमेटी, पोलिट ब्यूरो का गठन होगा और महासचिव का भी चुनाव होगा । राजनीतिक नैतिकता का तकाजा तो यह है कि अब तक के जिन बहुमतवादी लोगों की राजनीति को पार्टी कांग्रेस ने कल ठुकरा दिया है, उन्हें खुद ही अपने को आगे के लिये पार्टी के प्रमुख पदों से अलग रखना चाहिए । इससे वे पार्टी का अपनी नई राजनीतिक समझ के आधार पर एकजुट होकर काम करने का रास्ता साफ करेंगे । लेकिन अपनी राजनीतिक समझ की पराजय के बावजूद वे यदि अपनी पुरानी तरकीबों से संगठन पर वर्चस्व बनाये रखने की कोशिश करते हैं तो वह दुर्भाग्यपूर्ण होगा और फिर मजबूरन पार्टी कांग्रेस को मतदान के जरिये सांगठनिक निर्णय लेने का रास्ता अपनाना पड़ सकता है ।

जो भी हो, सीपीआई(एम) में जिस नई प्रक्रिया का प्रारंभ हुआ है, उसे उसके तार्किक अंत तक ले जाने से ही पार्टी में वास्तव अर्थों में उसकी काम्य एकता कायम हो पायेगी । अपने वर्चस्व को बनाये रखने की शक्ति से वंचित होने पर ही इन्हें, अब तक पार्टी को भटकाये रखने वालों को, सुधरने के लिये मजबूर किया जा सकेगा ।

राजनीतिक प्रस्ताव की संगति में सीपीआई(एम) का सांगठनिक ढांचा भी बने, तभी वह अपनी अब तक की गलत समझ की बेड़ियों से मुक्त हो कर भारत के मेहनतकशों को सांप्रदायिक फासीवाद के खिलाफ देश की पूरी जनता की एकजुट लड़ाई से जोड़ने का एक कारगर औजार बन पायेगी ।

गुरुवार, 19 अप्रैल 2018

असली संकट अपनी बढ़ती हुई राजनीतिक-अदृश्यता से मुक्ति का है !

संदर्भ सीपीआई(एम) की बाईसवीं कांग्रेस :
—अरुण माहेश्वरी


भारत में वामपंथ के बारे में राजनीतिक चर्चा का पिछले कुछ सालों से हमारा एक अजीब सा अनुभव है। वामपंथ न सिर्फ मुख्यधारा के मीडिया से ही अदृश्य है, बल्कि सोशल मीडिया पर भी उसके बारे में कहीं कोई ज्यादा चर्चा करता दिखाई नहीं देता है । हम खुद लंबे काल से सोशल मीडिया के अलावा अखबारों में भी नियमित लिखते रहे हैं । भारत में वामपंथ हमारी चिंता का हमेशा से एक प्रमुख विषय रहा है, सिर्फ अकादमिक प्रकार की चिंताओं की वजह से नहीं, अपने जीवन और संस्कारों की वजह से भी । इसकी झलक हमारे साहित्यिक, राजनीतिक और सभी सामाजिक विषयों पर लेखन में मिल सकती है । अपनी पुस्तक 'सिरहाने ग्राम्शी' में वामपंथी राजनीति के प्रति एक चरम निराशा के क्षण में भी हमें गालिब साहब याद आये थे — 'फिर उसी बेवफा पे मरते हैं, फिर वही जिंदगी हमारी है ।'

लेकिन जो हमारी आत्मिक मजबूरी है, वह अन्यों की भी हो, जरूरी नहीं होता । राजनीति के किसी रूप के प्रति लोगों में कितनी दिलचस्पी है, और कितनी उदासीनता है, यह उस राजनीति के सामाजिक प्रभाव का एक मानदंड है । जो लोग भी राजनीति के विषयों में दिलचस्पी रखते हैं, और मीडिया के विभिन्न मंचों पर उन पर चर्चा करते हैं, उनका सिर्फ पंद्रह साल पहले भारत की केंद्रीय सरकार के संचालन में शामिल यूपीए के एक प्रमुख घटक के प्रति कोई आग्रह ही न रहे, तो यह उस राजनीति की दिशा और दशा के बारे में गंभीरता से सोचने की बात जरूर है । अखबारों में लेखन का हमारा अनुभव है कि वहां बैठे हमारे मित्र साफ शब्दों में कहते हैं कि देखिये, वामपंथ को लेकर पाठकों में कोई रुचि नहीं बची है । इसीलिये आप राजनीति के अन्य विषयों पर लिखें तो वह हमारे लिये ज्यादा उपयोगी होगा !

बहरहाल, अपने ढंग से हम सीपीएम की राजनीतिक परिदृश्य से बढ़ती हुई अदृश्यता पर भी एक अर्से से लिखते रहे हैं । 1996 से शुरू करके आज तक, हम इसे एक पूरी परिघटना में देख कर और भी ज्यादा चिंतित होते रहे हैं ।  इसी 20 फरवरी को हमने अपने ब्लाग 'चतुर्दिक' में एक टिप्पणी लिखी थी — 'यहां गुलाब यहीं नाचो' । कार्ल मार्क्स की ऐतिहासिक कृति 'लुई बोनापार्ट की अठारहवीं ब्रुमेर' के संदर्भ को उठाते हुए । उसमें फ्रांस की 1848-1852 के समय की परिस्थिति के विश्लेषण में मार्क्स फ्रांस के दूसरे राजनीतिक दलों के साथ ही 'सर्वहारा क्रांतिकारियों' की स्थिति का विश्लेषण करते हुए लिखते हैं —

“दूसरी ओर, उन्नीसवीं शताब्दी की क्रांतियों जैसी सर्वहारा क्रांतियां निरंतर अपनी आलोचना करती हैं, आगे बढ़ते-बढ़ते स्वयं ही बार-बार रुक जाती हैं, अब तक तै किये हुए रास्ते से फिर वापस लौट आती है ताकि अपनी यात्रा दोबारा शुरू करे, अपने प्रथम प्रयासों की अपर्याप्तताओं, कमजोरियों और तुच्छताओं की निर्मम अद्यत भर्त्सना करती हैं, शत्रु को मानो इस लिए पटकती हैं कि वह धरती से नवीन बल प्राप्त कर और अधिक विराट हो कर फिर उनके सामने आये ; स्वयं अपने लक्ष्यों के अस्पष्ट से विराट आकार से बारंबार झिझककर पीछे हट जाती हैं — तब तक, जब तक कि ऐसी परिस्थिति तैयार नहीं हो जाती जिसमें पीछे हटना बिल्कुल असंभव होता है और अवस्थाएं स्वयं पुकार कर कहती है :
Hic Rhodus, hic salta !
यहां गुलाब, नाचो यहां !”

इस संदर्भ में ही अंत में हमने भारत के वामपंथ के लिये लिखा था —  “भारतीय वामपंथ को जो भी वास्तविक स्थिति उपलब्ध है, जो भी राजनीतिक परिदृश्य है, उससे अपने को किसी भी बहाने अलग हटाने के बजाय उसमें अपनी भूमिका और उपस्थिति को बनाये रखना चाहिए । उसे अपने कथित लक्ष्यों के 'अस्पष्ट और विराट आकार' से बारंबार झिझक कर पीछे हटने की दशा से निकलना चाहिए !” (देखे : https://chaturdik.blogspot.in/2018/02/blog-post_20.html)

जर्मन दर्शनशास्त्री मार्टिन हाइडेगर की सबसे प्रमुख किताब है — Being and time (प्राणीसत्ता और काल) । किसी भी प्राणी को, जीवित सत्ता को समय के संदर्भ के साथ देखने के तमाम ज्ञानमीमांसक और तत्वमीमांसक पक्षों पर विचार की हेगेल के बाद की यह एक सर्वकालिक महत्वपूर्ण दार्शनिक कृति है । इसकी विवेचना में एक सबसे प्रमुख पद आता है Dasein (प्राणी सत्ता का प्रत्यक्ष, being there) । हाइडेगर लिखते हैं कि “यदि हमें प्राणी-सत्ता के अर्थ की व्याख्या करना है, तो Dasein न सिर्फ वह प्राथमिक चीज है जिसकी जांच करनी होगी ; यह वह चीज भी है जो पहले से ही उसकी प्राणीसत्ता में, जिसके बारे में सवाल करते वक्त हम जानना चाहते हैं, समाहित है । लेकिन तब प्राणीसत्ता का सवाल प्राणीसत्ता की एक तात्विक प्रवृत्ति के उग्र रूप को सामने लाने के अलावा कुछ नहीं होता है जो उसके प्रत्यक्ष में ही निहित है — यह प्राणी सत्ता की पूर्व-तत्वमीमांसक समझ है।”

(If to Interpret the meaning of Being becomes our task, Dasein is not only the primary entity to be interrogated ; it is also that entity which already comports itself, in its Being, towards what we are asking about when we ask this question. But in that case the question of Being is nothing other than the radicalization of an essential tendency-of-Being which belongs to Dasein itsel — the pre-ontological understanding of Being. — Martin Heidegger, Being and Time, Harperperennial, Paperback, page – 35)

अर्थात, हमारे विवेचन का विषय जो दिखाई देता है, वही होता है, और उसमें भी एक हद तक विषय की कोई तात्विक प्रवृत्ति निहित होती है ।

हाइडेगर ने इस पुस्तक में यथार्थ क्या होता है और वह किसी भी प्राणी सत्ता के लिये उसके 'बाहर की दुनिया' (External world) के तौर पर कैसे एक समस्या है, की तरह के सवालों पर विचार करते हुए लिखते हैं कि यथार्थ का अस्तित्व जितना प्राणी की सत्ता से स्वतंत्र, स्वमेव है, वह उतना ही एक लोकोत्तर, विचार रूप में भी उसकी प्राणी सत्ता से जुड़ा हुआ है । हर प्राणी सत्ता का जो रूप लोकोत्तर, अर्थात अन्य के लिये विचार का विषय बन पाता है, उसी हद तक कोई उसे ग्रहण कर सकता है, समझ सकता है और उसके यथार्थ का हिस्सा बन सकता है । और, इसमें भी वही सूत्र लागू होता है — Dasein का, प्रत्यक्षता अर्थात दृश्य में मौजूदगी का । जो दृश्य में ही नहीं होगा, वह विचार के विषय में भी नहीं आ पायेगा । किसी भी चीज के बारे में सिर्फ ज्ञान तो उसे जानने की एक आधारशिला है, वह हमारे यथार्थ का हिस्सा बने इसके लिये जरूरी है कि वह इस दुनिया के दायरे में मौजूद चीजों में शामिल हो । (देखे, हाइडेगर, पूर्वोक्त, पृष्ठ – 246)

इसीलिये मार्क्स फ्रांस की सर्वहारा क्रांति के बारे में 'नाचो यही, यही गुलाब' की बात कहते हैं । किसी भी कारण से, अपने लक्ष्यों के 'अस्पष्ट और विराट आकार' से दुविधा में फंस कर अलग रहने का कोई तुक नहीं है !
दो दिन पहले (16 अप्रैल 2018) हमने फेसबुक पर एक पोस्ट लगाई थी —

“सीपीआई(एम) की कार्यनीतिक लाइन मूर्खतापूर्ण (absurd) है । - प्रो. इरफान हबीब
“इरफान साहब की इस बात से हम सौ फीसदी सहमत है ।”

सीपीआई(एम) के मसलों पर लोगों में जितनी दिलचस्पी या उत्साह बचे हुए हैं, उसी अनुपात में इसपर ज्यादा नहीं, थोड़ी सी, प्रतिक्रियाएं आई जिनमें वे लोग भी शामिल थे जो हर क्षण अपनी निष्ठा का परिचय देने के लिये ज्यादा आतुर रहते हैं । लेकिन, उनके लिये नहीं, अपनी समझ को ही निरूपित करने के उद्देश्य से हमने उनकी कुछ निर्रथक सी बातों का भी जवाब दिया । हमारा इशारा सिर्फ राजनीति के जगत से वामपंथ की बढ़ती हुई अदृश्यता की ओर था । हमने एक साधारण सा सवाल किया कि “आज की इतनी तेज़ी से बदलती परिस्थिति में वह (सीपीएम) बढ़ नहीं, अदृश्य हो रही है । क्या कार्यनीतिक लाईन की यही सफलता है ?”

हमारा कहना था कि आज की समग्र राजनीतिक परिस्थिति के भी “मूल में वामपंथ की विफलता है और इस विफलता के मूल में सीपीएम के बहुमतवादियों की कूढ़मगजी है, जिन्होंने वामपंथ को विकल्प के रास्ते के रूप में उभरने ही नहीं दिया और वे आज भी सांप्रदायिक फासीवाद से लड़ाई से उसे विरत रख रहे हैं ।”

इसी सिलसिले में एक जगह हमने विषय को और साफ करते हुए लिखा कि “वामपंथ की कई धाराएं हैं, सीपीएम, सीपीआई के अलावा भी । लेकिन हम जैसों की यह निजी सीमा भी हो सकती है और हमारे समय के समग्र राजनीतिक परिदृश्य का सच भी कि हम माओवादी, नक्सलवादी और यहां तक कि सीपीआई(एम-एल) के बारे में भी विचार नहीं कर पाते हैं । और इसीलिये वे हमारे लिये राजनीतिक यथार्थ का विषय नहीं बन पाते हैं ।

“आज के सीपीएम के नेतृत्व को लेकर हमारी यही चिंता है कि वे भी सीपीएम की तरह की एक महत्वपूर्ण वामपंथी पार्टी को बदलते हुए राजनीतिक परिदृश्य से पूरी तरह बाहर करके उसे आम लोगों के राजनीतिक सोच से बाहर कर दे रहे हैं । इस प्रकार पार्टी को जनता के यथार्थ-बोध से अलग कर दिया जा रहा है । बीच-बीच में एकाध प्रदर्शन, जुलूस और आंदोलन से वह कौतुक का विषय तो बन जाती है, लेकिन जनता के समग्र राजनीतिक यथार्थ-बोध में शामिल नहीं हो पाती है । इसे ही हम पार्टी को अदृश्य कर देने का दोष कहते हैं । लेकिन सीपीएम के बहुमतवादी इसे अपनी 'क्रांतिकारी विशिष्टता' मान कर क्रमश: एक प्रकार के आत्म-निर्वासन में जा रहे हैं । यह आत्मलीनता की प्रवृत्ति 1996 से ही, ज्योति बसु प्रकरण के बाद से ही, बार-बार प्रकाश करात कंपनी जाहिर करती रही है और क्रांतिकारिता की एक अजीब सी आत्म-मुग्धता में पार्टी को डुबो रहे हैं ।”

आज की स्थिति यह है कि सीपीएम की अभी चल रही बाईसवीं कांग्रेस में प्रकाश करात ने बहुमतवादियों का अपना आधिकारिक दस्तावेज पेश किया है और सीताराम येचुरी ने अल्पमतवादियों का । और एक लंबे काल से, जब से सीताराम येचुरी पार्टी के महासचिव बने हैं, प्रकाश करात कंपनी ने अपने बहुमत के प्रयोग से उन्हें पंगु बना रखा है और पार्टी में विचार-विनिमय की जगह अपने पुराने आजमाए हुए मतदान के जरिये निर्णय कराने की एक लंबी परिपाटी डाल दी है । साफ है कि पार्टी की इस कांग्रेस में भी यही होने जा रहा है ।”

इसीपर, हमने फेसबुक पर बहस के नाम पर कुछ खास प्रकार के आपत्तिजनक विशेषणों से हमें नवाज रहे मित्र को लिखा — “सोचिये आप । एक पार्टी जो राजनीतिक तौर पर लगातार अवनति की ओर है और उसमें नेतृत्व का शीर्ष ऐसा तैयार हो गया है जिसने हर छोटे-बड़े मसले पर मतदान के जरिये निर्णय लेने की एक लंबी परिपाटी डाल दी है ! पार्टी के जीवन के सबसे अहम सवालों पर मतदान के जरिये अन्य मत वाले को बार-बार पटखनी देने की परिपाटी । यह सिद्धांतों की लड़ाई है या पार्टी में बहुमत-अल्प-संख्यक का खेल ! इसीका दूसरा नाम होता है गुटबाजी ।

“इस बार भी यही होने की ज्यादा आशंका है ! सारी सैद्धांतिक लड़ाई धरी रह जायेगी और प्रतिनिधियों के संख्या-तत्व का सच आखिरी बात बोलेगा । हिसाब-किताब बैठा कर तैयार किया गया संख्या-तत्व !”

उन्होंने इसे पार्टी के अंदर का वंदनीय 'जनवाद' बताने की कोशिश की तो हमने लिखा कि “हम आपकी तरह इस छोटे से तंत्र के गुलाम नहीं है और उसे परम पवित्र नहीं मानते हैं । अगर वह सब इतना ही पवित्र और अनुलंघनीय होता तो दुनिया में कम्युनिस्ट पार्टियों का आज की तरह का हाल नहीं होता । किसी भी तंत्र की सचाई उसकी राजनीति से प्रमाणित होती है । इसीलिये मतदान का होना न होना कुछ भी प्रमाणित नहीं करता । सीपीएम का वर्तमान बहुमतवादी गुट इसकी अवनति के हर मोड़ पर नेतृत्वकारी रहा है । इसलिये पार्टी में जनतंत्र के नाम पर गुटबाज़ी का झंडा मत लहराइये ।”

अब देखना यह है कि आज मोदी के फासीवाद के खिलाफ उभर रहे देशव्यापी व्यापक संघर्ष में मौजूद रह कर सीपीआई(एम) इस राजनीतिक जगत में अपनी उपस्थिति को बनाते हुए आगे के विकास का रास्ता चुनती है या फिर 'अपनी ढपली अपना राग' की क्रांतिकारी आत्मलीनता में फंस कर जनता के यथार्थ बोध से पूरी तरह से विस्मृत हो जाने के सामूहिक आत्म-हनन का ।




गुरुवार, 12 अप्रैल 2018

वामपंथ को अपनी असली ताकत को पहचानना होगा

कम्युनिस्ट पार्टियों की कांग्रेस के अवसर पर एक नोट :
-अरुण माहेश्वरी


सब जानते हैं यह समय भारतीय राजनीति में वामपंथ के लिये अस्तित्वीय संकट का समय है । जिस काल में भारतीय राष्ट्र के सारे अर्जित प्रगतिशील मूल्य दाव पर लगे हुए दिखाई देते हैं, चारो ओर एक प्रकार की आदिम विवेकहीनता का बोलबाला है, एक केंद्रीय सरकार संगठित रूप में प्राकृतिक विज्ञान के क्षेत्र पर भी अंध-विश्वासों और कुसंस्कारों को थोपने की कोशिश कर रही है, वैज्ञानिकों को विमानों और प्लास्टिक सर्जरी की वैदिक विधियों पर शोध की तरह की बेतुकी हिदायतें दी जा रही है और डार्विन के विकासवाद के सिद्धांतों का अनपढ़ राजनीतिज्ञों के द्वारा खुले आम मजाक उड़ाया जा रहा है — ऐसे समय में जब विज्ञान-मनस्कता के प्रसार की हमारी संवैधानिक निष्ठा को पूरी ताकत से उठाने वाली प्रगतिशील शक्तियों की हमारी राजनीति को सबसे अधिक जरूरत है, उस समय वामपंथ का अजीब किस्म की अपनी दुविधाओं के पाशों में फंस कर जड़ सा हो जाना बेहद चिंताजनक है । वामपंथ के इस अजीब से आत्म-निर्वासन ने राजनीति के वर्तमान परिदृश्य से ही उसे जैसे अदृश्य कर दिया है । 

वैसे वामपंथ की ओर से किसी भी प्रकार की चुनौती के न होने ने आज की राजनीति में इतना योगदान जरूर किया है कि मोदी-आरएसएस पर सत्ता का नशा पूरी तरह से छा चुका है । फासीवाद के उदय के व्याख्याताओं ने सत्ता के लिये मजदूर वर्ग की चुनौती को फासीवाद के उदय की एक शर्त बताया था । लेकिन सचमुच आज के भारत में लगता है जैसे ऐसी किसी चुनौती की पूरी तरह से अनुपस्थिति की भी फासीवाद के बरक्स एक बड़ी भूमिका है ! ऐसी स्थिति में, जनतंत्र के जिंदा रहते ये ताकतें जल्द ही सत्ता के मद में उन्मत्त होकर सरे बाजार निपट नंगे, सीना फुलाये घूमने लगती हैं । आज पूरा देश इनकी उद्दंडताओं को देख रहा है । और इसीलिये, एक स्वेच्छाचारी शासन के खिलाफ जनता के तमाम हिस्से स्वतःस्फूर्त ढंग से लामबंद भी हो रहे हैं ।


बहरहाल, एक ऐसे समय में वामपंथ की दो प्रमुख पार्टियों, सीपीआई(एम) (18-22 अप्रैल) और सीपीआई (25-29 अप्रैल) की क्रमशः हैदराबाद और कोल्लम में पार्टी कांग्रेस हो रही है । एक तेजी से बदल रहे समय और राजनीति के नये परिदृश्य में कम्युनिस्ट पार्टियों के सांगठनिक ढांचों में पार्टी कांग्रेस ही उनके लिये बचा हुआ एक प्रमुख अवसर है जब वे कोरी गुटबाजी पर टिकी झूठी सैद्धांतिक बहसों के रोग से मुक्त हो कर, भारतीय संविधान और जनतंत्र के परिप्रेक्ष्य में अपनी आगे की राजनीति के पथ को नये सिरे से निर्धारित कर सकती हैं ।

आजादी के इन सत्तर सालों में कम्युनिस्ट पार्टियों को एकाधिक राज्यों में सरकारें बनाने का मौका मिला हैं । केरल, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा की सरकारों ने खास तौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में भूमि सुधार और पंचायती राज के कामों के जरिये गांव के गरीबों के जीवन को जिस प्रकार एक हद तक शोषण के जुएं से मुक्त किया, वह स्वयं में भारतीय राजनीति के इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय रहा है । इसने केंद्र की नीतियों पर भी बड़ा असर डाला ; पश्चिम बंगाल में रेकर्ड 34 सालों तक लगातार वाम मोर्चा सरकार का शासन कायम रहा । लेकिन भूमि सुधार के कामों के अलावा शहरी और औद्योगिक क्षेत्र में वामपंथी सरकारें अपनी भूमिका को दूसरी पार्टियों से अलगाने में असमर्थ रही । उल्टे, नौकरशाही पर उनकी निर्भरशीलता ने मौके-बेमौके उन्हें जनता की ही आकांक्षाओं के विरूद्ध खड़ा कर दिया । शहरी विकास के लिये जमीन के अधिग्रहण के मामले में इनका नजरिया गरीब जनता के हित में होने के बजाय उनके खिलाफ चला गया, और भारतीय वामपंथ को इसका एक भारी राजनीतिक खामियाजा चुकाना पड़ा । वह सीधे तौर पर वामपंथ के जन-मुक्तिकारी चरित्र के साथ समझौता था ।


यह वक्त है जब सत्ता के विकेंद्रीकरण, पंचायती राज और भारत के संघीय ढांचे की रक्षा के सवाल पर वाम की उल्लेखनीय सफलता और शहरी तथा औद्योगिक विकास के क्षेत्र में उसकी विफलताओं को सही ढंग से निरूपित करते हुए उनसे उचित शिक्षा ली जाए । जिस वस्तु तत्व का निरूपण नहीं किया जाता, उससे किसी भी प्रकार के अज्ञान का निराकरण संभव नहीं है ।

पश्चिम बंगाल में नंदीग्राम और सिंगुर के बाद हाल में केरल के कन्नूर जिले के एक छोटे से गांव में एक बाईपास बनाने के लिये जमीन के अधिग्रहण के मामले में विवाद ने जो रूप लिया, वह भी कुछ ऐसा ही मामला था । यह विवाद इतना बढ़ गया कि राष्ट्रीय ख़बरों तक में शामिल हो गया । एलडीएफ़ सरकार और पार्टी गाँव के अंदर से ही सड़क को ले जाने पर तुले हुए थे, और किसान अपनी ज़मीन को न देने पर आमादा थे । यह अनायास ही बंगाल की नंदीग्राम और सिंगुर की घटनाओं की याद दिलाने वाली घटना थी । सत्ता पर आकर राजनीति को भूल सिर्फ अर्थनीतिक ‘विकास’ के प्रति मोहांधता सचमुच एक कथित क्रांतिकारी पार्टी के द्वारा जनता के अराजनीतिकरण का काम करने की तरह है । समाज में कोई भी परिवर्तन सर्व-मान्य चालू धारणाओं से चिपके रह कर संभव नहीं है, बल्कि नया कुछ करने के लिये प्रचलित सोच से अपने को काटना पड़ता है । उसी से राज्य की अपनी जड़ता भी टूटती है । राज्य को जनता की आकांक्षाओं, उसके विश्वास, समानता और उसके डर से चालित होना होगा । इसमें जनता के साथ वैर की कोई जगह नहीं हो सकती है । पार्टी का नौकरशाही ढाँचा अक्सर अपने को जनता की आंतरिक सक्रियता, उसके आंदोलन के खिलाफ खड़ा कर लेता है ।

बहरहाल, अंत में केरल के वामपंथी नेतृत्व में शुभ बुद्धि का उदय हुआ और उन्होंने समस्या के समाधान का वैकल्पिक रास्ता खोज लिया - जमीन के अधिग्रहण के बजाय फ़्लाईओवर के जरिये काम को आगे बढ़ाने का रास्ता ।


कम्युनिस्ट विचारों और राजनीति का मूल तत्व है मुक्ति, जनता के जीवन को तमाम बंधनों से अधिक से अधिक मुक्त करते हुए उसकी सर्जनात्मक शक्ति को उन्मोचित करना । उसका लक्ष्य कभी भी किसी दमनकारी राजसत्ता का निर्माण नहीं हो सकता है । समाजवादी व्यवस्था भी वास्तव में सभी प्रकार की राजसत्ता को खत्म करने में ही पूरी तरह से चरितार्थ हो सकती है, जो उसके साम्यवाद में उत्तरण की दिशा है । जब समाजवादी राज्य भी जनता पर अनंत काल तक शासन करने के महज एक और तंत्र के रूप में काम करने लगता है, उसमें वे सारी विकृतियां उत्पन्न होने लगती है, जो समाजवाद के मुक्तिदायी तत्व को क्षीण करती है । तत्वतः, सोवियत संघ और दुनिया में समाजवाद के पराभव का मूल कारण यही था, जब देश-दुनिया की परिस्थितियों की किसी भी वजह से क्यों न हो, समाजवादी व्यवस्था ने एक दमनकारी नौकरशाही जड़ीभूत व्यवस्था का रूप ले लिया था । समाजवाद के मुक्तिकामी चरित्र और अन्य शोषणकारी व्यवस्थाओं के चरित्र के बीच का फर्क ओझल होने लगा था ।

इसीलिये देश और दुनिया की आज की बिल्कुल नई प्रकार की चुनौतियों के वक्त कम्युनिस्ट पार्टियों की कांग्रेस के ये आयोजन बहुत ही अर्थपूर्ण साबित हो सकते हैं । इसीलिये देश और दुनिया की आज की बिल्कुल नई प्रकार की चुनौतियों के वक्त कम्युनिस्ट पार्टियों की कांग्रेस के ये आयोजन बहुत ही अर्थपूर्ण साबित हो सकते हैं । जनता के जो भी हिस्से अपने जीवन की समस्याओं के लिये आंदोलनों में उतरे हुए हैं, वामपंथी ताकतों को उन आंदोलन में अपनी मौजूदगी और उनके साथ अपनी एकजुटता के लिये हमेशा तत्पर रहना चाहिए । यह समस्या आम लोगों की अपनी जातीय पहचान से जुड़ी हुई भी हो सकती है, वर्ण-वैषम्य से मुक्ति की भी हो सकती है, गांव के किसानों के उत्पाद के वाजिब मूल्य की मांग की हो सकती है या संगठित-असंगठित क्षेत्र के मजदूरों, कर्मचारियों और विभिन्न पेशेवरों की जीविका के सवालों से भी जुड़ी हो सकती है । क्रांतिकारी राजनीति का दायित्व शासन की समस्याओं का समाधान नहीं है, जनता की समस्याओं का समाधान है ।

आज भारतीय गणतंत्र की रक्षा का सवाल एक सबसे प्रमुख सवाल है । मोदी-आरएसएस सरकार के रूप में एक ऐसी शक्ति ने आज राजसत्ता पर अपना कब्जा कर रखा है जो इस देश के धर्म-निरपेक्ष और जनतांत्रिक संविधान पर, नागरिकों के मूलभूत अधिकारों पर विश्वास नहीं करती है । हिटलर की प्रेरणा से निर्मित इस संगठन का एक मात्र लक्ष्य है सारी सत्ता को केंद्रीभूत करके एक अधिनायकवादी शासन-व्यवस्था कायम करना । नागरिकों की हैसियत इनकी नजर में गुलामों से बेहतर नहीं है । पिछले चार सालों में अपने अनेक कदमों से इसने अपने इन इरादों को पूरी नंगई के साथ प्रकट किया है । नोटबंदी और जीएसटी की तरह के कदम एक वही स्वेच्छाचारी सरकार उठा सकती है जो जनता को अपना गुलाम मानती है । इसीप्रकार, जिस धृष्टता के साथ ये न्यायपालिका के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं, जज की हत्या तक के मसलों को दबाने की कोशिशों से बाज नहीं आ रहे हैं, उसने जनतांत्रिक राजनीति के सभी रूपों के सामने संकट पैदा कर दिया है । पूरी अर्थ-व्यवस्था ठप है ।

आज भारत के कम्युनिस्टों को अपनी मुक्तिकामी राजनीति को नये सिरे से अर्जित करना है । अभी के फासिस्ट रूझान के शासन में यह काम सभी जनतंत्र-प्रेमी और धर्म-निरपेक्ष ताकतों को लामबंद करने की एक व्यापक राजनीतिक दृष्टि के जरिये ही मुमकिन है ।

मंगलवार, 10 अप्रैल 2018

2019 के बाद के भारत की एक सकारात्मक परिकल्पना

—अरुण माहेश्वरी


लगता है अब पिछले साढ़े तीन दशक से भी ज्यादा समय से चल रहे भारत के संसदीय जनतंत्र के क्लासिक के एक दीर्घ अंक का पटाक्षेप होने वाला है । सन् '91 से शुरू हुए उदारतावाद के चक्र की त्रासदियां मोदी शासन में अपनी चरम परिहासमूलक गति को पाकर इस वृत्त को पूरा करने जा रही हैं । आज राजनीति का पर्याय बनी हुई मोदी की नित नई पोशाकों, बनने-ठनने, हांकने, विदेशी नेताओं से खिलखिला कर गले मिलने, बड़े लोगों की सोहबत में चमकने और आम लोगों तथा संवैधानिक संस्थाओं के प्रति हिकारत में बौखलाए रहने ने अब उन्हें और उनके साथ ही विकास के पूरे उदारवादी मॉडल को जन समाज में उपहास और तिरस्कार का पात्र बना दिया है । अब आगे यह और घिसटने लायक भी नहीं रह गया है ।

आजाद भारत की राजनीति पहला चक्र था सन् '47 से '77 तक का । वाजिब कारणों से ही वह भी इस क्लासिक का एक दीर्ध अंक ही था । देश की सार्वभौमिकता, जनतांत्रिक और नागरिक स्वतंत्रताओं, राज्य के संघीय ढांचे, सामाजिक न्याय, जमींदारी उन्मूलन को इस दौरान सांस्थानिक स्वरूप दिया गया । एक वैविध्यपूर्ण समाज के अनुरूप राजनीतिक व्यवस्थाएं बनीं । मिश्र अर्थ-व्यवस्था का दौर था । सार्वजनिक क्षेत्र की प्रमुखता के साथ ही निजी क्षेत्र को भी बढ़ाने का दौर ; पंचवर्षीय योजना और खुला बाजार साथ-साथ का दौर ; लाइसेंस राज और फिर बैंकों का राष्ट्रीयकरण भी साथ-साथ ; हरित क्रांति और सामंतवाद साथ-साथ ; समाजवाद और पूंजीवाद-सामंतवाद साथ-साथ । और अंत में सन् '75 और फिर सन् '77 में देखा गया — तानाशाही और जनतंत्र भी साथ-साथ । कुल मिला कर जनतंत्र की रक्षा और विस्तार की प्रतिश्रुतियों के साथ राजनीति के उस वृत्त के अंत के साथ ही एक नये वृत्त का उदय हुआ ।

यह नया चक्र संसदीय क्लासिक का अपेक्षाकृत एक संक्षिप्त अंक था। सन् '80 से '91 तक के महज एक युग का अंक । सत्ता का विकेंद्रीकरण, पंचायती राज, भूमि-सुधार, और सामाजिक न्याय के साथ ही कम्प्यूटरीकरण, विश्व बैंक-आईएमएफ के जरिये नये प्रकार के विदेशी वाणिज्यिक बैंकों के निवेश से विश्व-अर्थ-व्यवस्था से संपर्कों का दौर । इसने एक अभूतपूर्व आर्थिक गतिरोध के साथ ही जातिवाद की प्रतिद्वंद्वी सांप्रदायिक राजनीति को भी फर्स से अर्स की ओर जाने का एक नया वेग दिया ।

उधर सन् '89 में सोवियत संघ में समाजवाद का पतन क्या हुआ, समाजवाद शब्द सिर्फ हमारे संविधान की पोथी में ही रह गया और भारत एकध्रुवीय विश्व के अमेरिकी जहाज पर चढ़ने के लिये मचल उठा । चीन को अमेरिकी पूंजी पर फलता-फूलता देख सन् '91 के वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ने आर्थिक विकास का जो नव-उदारवादी रास्ता तय कर दिया, वह, कहना न होगा, साढ़े तीन दशकों का अब तक का दीर्घतम अंक साबित होने जा रहा है । इसमें एक नये मध्य वर्ग का उदय हुआ, बाजार चमकने लगे, आर्थिक अखंडता में भी अभूतपूर्व शक्ति आई । देखते-देखते क्षेत्रीय जातीयतावाद कमजोर पड़ता दिखाई दिया तो शासन के खेल के लिये हिंदी प्रदेशों में कुछ और नये राज्य भी बन गये । लेकिन वैश्वीकरण के लाभ लेंगे तो वैश्विक बीमारियों को भी उनके साथ ही लेना होगा । सारी दुनिया की रोजगार-विहीन(jobless), निष्ठुर (ruthless), जड़-विहीन (rootless), वाणीहीन (voiceless) विकास की लाइलाज बीमारी ने भी इसी दौर में भारत को भी धीरे-धीरे अपने पाश में जकड़ लिया । और आज स्थिति यह है कि आखिर के इन चार सालों में दुनिया की इस कथित 'सबसे तेजी से बढ़ती हुई' अर्थ-व्यवस्था में दुनिया दुरबीन ले कर अपने बाजार के लिये भारत में मध्य-वर्ग की खोज कर रही है । कल तक जो अपने धनी होने पर इतरा रहे थे, आज सड़कों पर कटोरा लेकर प्रदर्शन करते देखे जा रहे हैं । चार साल से लगातार हैपिनेस इंडेक्स में भारत नीचे, नीचे, और नीचे जाता जा रहा है । बाजार में मुर्दानगी छाई हुई है । चारों ओर से भूख का क्रंदन सुनाई देने लगा है । तमाम संस्थाएं मुरझाती सी लग रही है । योजना आयोग का तो अंतिम संस्कार ही कर दिया गया । नौजवान आबादी वाला देश तेजी से बेरोजगार नौजवानों की एक सबसे बड़ी और खतरनाक कट्टरवादी फौज वाला देश बन रहा है । 'इकोनोमिस्ट' पत्रिका के अनुसार, भारत की आधी से अधिक आबादी दुनिया के सबसे गरीब सब-सहारन अफ्रीकी देशों के सबसे गरीब लोगों के स्तर का जीवन-यापन कर रही है । 40 प्रतिशत से ज्यादा आबादी बांग्लादेश, नेपाल, और पाकिस्तान के गरीबों का जीवन जीती है । और भारत का वाचाल प्रधानमंत्री अपने नोटबंदी और जीएसटी के पागलपन के साथ तुगलक के एक नये अवतार की तरह दिखाई देने लगा है ।


यह नव-उदारवाद का पूरा दौर, भारत के ग्रामीण क्षेत्र के साथ अजीब प्रकार के औपनिवेशिक व्यवहार का दौर रहा है । ग्रामीण क्षेत्रों में सरकारी निवेश कम होता गया और सरकारी बैंकों का संजाल गांवों से बड़े पैमाने पर धन की निकासी के साधन की तरह काम करने लगा । सरकारी बैंकों का देहाती क्षेत्रों में जमा और कर्ज की राशि का अनुपात इस पूरे काल में बैंकों के इस औसत अनुपात से काफी कम रहा । भारतीय समाज में शासन के इस नये चक्र को किसान जनता की लूट और उसके साथ खुली धोखाधड़ी के चक्र की संज्ञा देना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी । सुनियोजित तरीके से कृषि उत्पादों की कीमतों को अलाभकारी बना कर हरित क्रांति के सारे लाभों पर पानी फेर दिया गया । एक वाक्य में — 'यह किसानों की आत्म-हत्या का दौर है' ।

कहना न होगा, मोदी शासन में सन् '91 के बाद के चक्र का अंत जनता के जीवन-स्तर के लिहाज से स्वयं में एक सबसे कारुणिक अंत होगा । इसके बाद, जो अब तक चल रहा है, उसे सुचिंतित ढंग से मूलभूत रूप में अगर नहीं बदला गया और उसे ही चलाने की कोशिश जारी रही, तो यह तय है कि बहुत जल्द ही भारत से संसदीय जनतंत्र के इस क्लासिक का अंतिम रूप में पटाक्षेप हो जायेगा । यह दौर अपने अंत के साथ संसदीय जनतंत्र की अंतिम विदाई का दौर साबित होगा । भारतीय वामपंथ की प्रकट राजनीतिक विफलताओं को देखते हुए भारत को साम्राज्यवादियों की मध्यपूर्व वाली साजिशों का एक नया क्षेत्र बनते देर नहीं लगेगी । फासिवादी और विभाजनकारी ताकतें खुल कर खेलेंगी । राष्ट्रीय एकता और अखंडता के धुर्रे उड़ने लगेंगे ।

यह सच है कि आज जनता का हर हिस्सा असंतोष और आक्रोश से भरा हुआ सड़कों पर उतरा हुआ है । गांव और शहर के बीच का तनाव यदि अपने चरम पर है तो संप्रदायों और जातियों के बीच की तनातनी का कोई अंत नहीं दिखाई देता है । जिस दौर में राष्ट्र की आर्थिक अखंडता में हमने एक अभूतपूर्व वृद्धि देखी, उसी दौर के अंत तक आते-आते, 15वें वित्त आयोग के स्वेच्छाचार और मोदी सरकार के मनमानेपन के चलते दक्षिण और उत्तर भारत में ही नहीं, राज्यों-राज्यों के बीच जीएसटी से बटोरे गये धन के बटवारे के नाम पर आपसी विवाद के बीजों को बोया जा चुका है । संघीय ढांचे की जड़ों में मट्ठा डाला जा चुका है ।

भारत में संसदीय जनतंत्र की संभावनाओं का कोई ऐसा बिखरावकारी दुखांत न हो, सन् 2019 के चुनाव से इसके आगे विकास का एक नया संभावनापूर्ण चक्र शुरू हो सके, इसके लिये ही सबसे बड़ी जरूरत है कि अभी से शासन की नीतियों के बारे में नये सिरे से बिल्कुल मूलभूत ढंग से विचार और क्रियाशीलता की शुरूआत होनी चाहिए ।

जनतांत्रिक व्यवस्था की सबसे बड़ी विडंबना है कि इसमें आम तौर पर राज्य की जिम्मेदारी उस जनता के हितों में काम करने की होती है जो अक्सर अपने हितों के प्रति सचेत नहीं होती है । सभ्यता की ओर  समाज की अग्रगति में राज्य का अर्थ है कि वह जनता की आकांक्षाओं, उसके विश्वास, समाज में समानता और जनता के डर से चले, क्योंकि उसके जरिये जनता का सामूहिक प्रतिनिधित्व व्यक्त होता है । राज्य की प्रत्येक नीति पर विचार के वक्त इस मानदंड का जरूर प्रयोग किया जाना चाहिए । राज्य का अर्थ सिर्फ नौकरशाही, सेना, पुलिस, न्यायपालिका और कोरी तकनीक नहीं है । जनता को छोड़ कर राज्य को चलाने का मतलब है राज्य को सिर्फ दमन के यंत्र के रूप में एक पैर पर चलाना । जनता की आकांक्षाओं, उसके विश्वास, सामाजिक समानता और जनता के डर से संचालित राज्य ही वास्तव में दो पैरों पर खड़ा राज्य कहला सकता है । गांधी जी के इस कथन का कि राज्य की किसी भी नीति को तय करते वक्त समाज के सबसे नीचे के पायदान पर खड़े आदमी को विचार के केंद्र में रखा जाए का भी तात्विक अर्थ यही है ।

जहां तक सांप्रदायिकता और जातिवाद के आधार पर किये जा रहे भेद-भाव का सवाल है, निर्द्वंद्व भाव से यह मान कर चला जाना चाहिए कि यह सब समाज के सबसे गरीब लोगों के खिलाफ की जाने वाली साजिशों के अलावा कुछ नहीं है और राज्य को इनका पूरी ताकत के साथ बेझिझक दमन करना चाहिए । सांप्रदायिकता के एजेंडे को हमेशा के लिये भारतीय राजनीति से विदा करने का समय आ गया है । सांप्रदायिकता से जुड़ी राष्ट्रवाद की तमाम बातें कोरी प्रवंचना के सिवाय और कुछ नहीं है ।

2019 के बाद का भारत सांप्रदायिकता-मुक्त, जातिवादी उत्पीड़न से मुक्त एक समतापूर्ण भारत होगा, इस प्रण के साथ यदि राजनीतिक शक्तियों का नया गठजोड़ कायम किया जाता है, तभी वहां से संसदीय जनतंत्र के एक नये और विकासमान चक्र का उदय हो सकता है । खास तौर पर कृषि क्षेत्र के बारे में स्पष्ट तौर पर यह ऐलान करना होगा कि यह भारत के शासन की सबसे पहली और बड़ी प्राथमिकता का क्षेत्र होगा । इस क्षेत्र से धन की निकासी करके शहरी और औद्योगिक विकास के कामों में फूटी कौड़ी भी नहीं लगाई जायेगी ।

आज भी भारत की आबादी का लगभग सत्तर फीसदी हिस्सा गांवों में रहता है और वही हमारी जनता का सबसे गरीब तबका भी है । हम जनता से तो उम्मीद करते हैं कि वह राष्ट्र के निर्माण में अपनी उत्पादक ऊर्जा का योगदान करें और इसके साथ ही उन्हें भूखों रहने के लिये मजबूर भी करते हैं ! यह कैसे चल सकता है ?

2019 के बाद के भारत की सारी नीतियां कृषि क्षेत्र को समृद्ध करने के उपायों पर केंद्रित होनी चाहिए । सरकार शहरी और औद्योगिक क्षेत्र के लिये बैंकों के जरिये देहातों से धन जुटा कर देने की नीति से अपने को पूरी तरह से अलग करके सन् '91 के बाद से इसमें जो असंतुलन पैदा हो गया है, उसे दूर करेगी । औद्योगीकरण और कृषि क्षेत्र के विकास को कभी भी अलग-अलग करके नहीं देखा जाएगा । यह पूरे राष्ट्र के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक एकीकरण की एक मूलभूत शर्त है । यह साफ ऐलान करना चाहिए कि 2019 के बाद का भारत ऐसी किसी भी नीति को नहीं अपनायेगा जिसकी कीमत किसान जनता को चुकानी पड़े । इसके अलावा ऐसी हर योजना को स्थगित कर देना होगा जो पहले से मौजूद सामाजिक और क्षेत्रीय विषमताओं को बढ़ाती है । 2019 के बाद के भारत को जातियों, संप्रदायों, क्षेत्रों और केंद्र तथा राज्यों के बीच सभी राजनीतिक और सामाजिक असंतुलनों को खत्म करने पर ध्यान देना होगा ।

भारत के संसदीय जनतंत्र को यदि फिर से पटरी पर लाना है तो 2019 के बाद की प्रतिश्रुतियों में यह साफ तौर पर कहना होगा कि भारत के मजदूरों, किसानों, उत्पीड़ित जनों, अल्पसंख्यकों, नौजवानों, छोटे-छोटे उद्योगों और छोटे कारोबारों के हितों को प्राथमिकता दे कर ही सरकार की सारी नीतियां तय होगी । सरकारी खजाने से पूंजीपतियों को किसी भी प्रकार की कोई रियायत नहीं दी जायेगी । लघु और मंझोले उद्योग ही शहरों और गांवों के बीच के असंतुलन को खत्म करने के सबसे कारगर औजार होते हैं । सरकार हर प्रकार की इजारेदारी को सक्रिय रूप में हतोत्साहित करेगी । तकनीक का विकास और इजारेदारी को परस्पर पूरक मानने की भ्रांत धारणा से नई सरकार को मुक्त रहना होगा ।

मोटे तौर पर इन वैकल्पिक नीतियों के आधार पर सभी धर्म-निरपेक्ष ताकतों का संयुक्त मोर्चा बना कर मोदी शासन के अंत से ही भारतीय जनतंत्र के एक नये सकारात्मक चक्र के प्रारंभ की ओर बढ़ा जा सकता है ।