रविवार, 28 अक्टूबर 2018

यशवंत सिन्हा और जयंत सिन्हा और पिता-पुत्र संबंधों का सवाल

—अरुण माहेश्वरी



कल (27 अक्तूबर 2018 को) ही एनडी टीवी पर यशवंत सिन्हा का एक साक्षात्कार देख रहा था । उसमें उनसे पूछा गया कि उनका अति शिक्षित बेटा जयंत सिन्हा जब गाय के नाम पर हत्या करने वालों की जमानत से रिहाई पर जेल के फाटक पर उन्हें माला पहनाने पहुंचा तो उसे देख कर उन्हें कैसा लगा ?

इसपर यशवंत सिन्हा ने कहा कि उन्हें बुरा लगा, लेकिन इससे हमारा उनसे जो पारिवारिक संबंध है, उस पर कोई फर्क नहीं पड़ता है । उनके विचार मेरे से अलग हो सकते हैं, लेकिन घर में हम पिता-पुत्र ही हैं ।

हमारा सवाल है कि यह पिता-पुत्र का संबंध आखिर क्या चीज है ? क्या यह सिर्फ एक प्रकार का जैविक संबंध होता है, या व्यापक सामाजिक संदर्भ में इसके कुछ दूसरे मायने भी होते हैं ? पुत्र के साथ पिता के संबंध को अगर महज जैविक ही मान लिया जाए, तो आज के आधुनिक जगत में उसे छोटा करते-करते महज पिता के शुक्राणु तक में सीमित किया जा सकता है । टेस्ट ट्यूब बेबी तो वही है ।

हमारे सामने समस्या दूसरी है । पिता के साथ पुत्र के ऐसे संबंध की जिसे सामान्य तौर पर पीढ़ियों के बीच का व्यवधान कहा जाता है । इसमें मान लिया जाता है कि पिता की तुलना में पुत्र नई पीढ़ी का युवा होने के नाते कहीं ज्यादा आगे की सोच का अधिकारी है, और इसीलिये वह परिवार के ढांचे में पिता की स्वामी वाली उपस्थिति को स्वीकारने से इंकार करता है ।

इस मामले में आज के युग में उदार विचारों का पिता एक समय के बाद परिवार की बागडोर वयस्क पुत्र को सौंप कर अपने स्वामित्व वाले स्थान को त्याग दिया करता है । लेकिन यह हमारी समस्या का समाधान नहीं है । सक्षम और चेतना संपन्न पिता मृत्यु-पर्यंत अपने स्वत्व के, अपनी स्वतंत्र अस्मिता के बोध को कभी न छोड़ पाने के कारण ही अक्सर पुत्र के अहम के लिये एक प्रतिद्वंद्विता और डर का विषय बना रहता है । पुत्र उससे टकराते हुए ही अपने स्वातंत्र्य के बोध को पाता है ।

इसीलिये जब यशवंत सिन्हा परिवार में पुत्र के साथ अपने संबंधों को सामान्य कहते हैं तो हमारा मन उसे स्वीकारता भी है और नहीं भी स्वीकारता है । हमें लगता है कि पिता-पुत्र के संबंधों को समझने के लिये पिता को महज एक जैविक सत्ता के बजाय एक समाज की पूरी आत्मिक संरचना के संदर्भ में एक सांस्कृतिक, प्रतीकात्मक सत्ता के रूप में देखने की जरूरत है ।


संरचनामूलक मानवशास्त्री लेवी स्ट्रास ने बताया था कि परिवारों का  स्वरूप किसी एकल परिवार मात्र से नहीं जाना जा सकता है । इसमें पत्नी के जरिये उसके मायके के लोग गुथे होते हैं, एक प्रकार से पूरा कुनबा और गोत्र शामिल हो जाता है । समाजशास्त्री मार्शेल मौस, जो संस्कृत के पंडित भी थे, अपनी पुस्तक 'गिफ्ट' में, जिसमें वे महाभारत और भारतीय नीति शास्त्र के धर्म, अर्थ, काम के पहलू का भी जिक्र करते हैं, कहते हैं कि समाज बनता है और एकजुट रहता है आपस में और अलग-अलग पीढ़ियों के बीच भी उपहारों के आदान-प्रदान के निरंतर चक्र से । ये उपहार संपत्तियों और सामानों के हो सकते हैं और व्यक्तियों के भी । इनसे ही समाज को उसका सांस्कृतिक प्रतीकात्मक स्वरूप मिलता है । इसीलिये मौस ने 'प्रदान' को ही एक प्रतीकात्मक क्रिया के रूप में देखा था, क्या प्रदान किया गया उसे महत्वपूर्ण नहीं माना ।1


शादी में भी एक प्रकार से व्यक्तियों का आदान-प्रदान होता है, जिसके आयोजन में सिर्फ निकट के संबंधी और माता-पिता नहीं, पूरा समुदाय जुड़ जाया करता है । कहना न होगा, इसके जरिये आदमी और औरत एक पूरी समाज की प्रतीकात्मक श्रृंखला से जुड़ जाते हैं । मनोविश्लेषक जॉक लकान कहते हैं कि एक वास्तविक और जैविक पिता को इन प्रतीकात्मक ढांचों से अलग करके देखना चाहिए ।  आदमी और औरत के संबंध को वास्तव में समाज के प्रतीकात्मक ढांचे तय करते हैं । इसीलिये परिवार में पिता महज एक नाम होता है, उसकी भूमिका एक जैविक व्यक्ति की भूमिका के बजाय प्रतीकात्मक नाम की होती है ।

और जब कोई पिता की इस प्रतीकात्मक उपस्थिति से पूरी तरह से इंकार करता हैं, तब उसके लिये पिता के जैविक तौर पर मौजूद रहने के बावजूद क्या उसकी मौजूदगी का कोई विशेष अर्थ रह जाता है ?

यशवंत सिन्हा सच कह रहे थे कि अपने कट्टर संघी पुत्र से परिवार में उनके संबंधों पर कोई फर्क नहीं आया है, लेकिन इतना साफ है कि जयंत सिन्हा के जीवन में उनके पिता की प्रतीकात्मक उपस्थिति, जो जैविक की तुलना में दरअसल कहीं ज्यादा वास्तविक होती है, उसमें जरूर एक दरार पड़ी है । इस विषय ने हमारा ध्यान खास तौर पर इसलिये खींचा क्योंकि पिता-पुत्र के संबंधों की ऐसी मृत परिणति को हमने अपने निकट के अनेक लेखकों के परिवारों में देखा है । लेखकों के आदर्शों से मुक्त हो कर ही अक्सर उनके पुत्र भौतिक-आत्मिक जीवन में अपनी सफलताओं के रास्ते तैयार किया करते हैं ।


1.“We should come out of ourselves and regard the duty of giving as a liberty, for in it lies no risk….Give as much as you receive and all is for the best…It is our fortune that all is not couched in terms of purchase and sale…Our morality is not solely commercial…It is some thing other than utility which makes goods circulate in these multifarious and fairly enlightened societies. Clans, age groups and seces, in view of many relationships ensuing from contacts between them, are in a state of perpetual economic effervescence which has little about it that is materialistic ; it is much less prosaic than our sale and purchase, hire of services and speculations. (MARCEL MAUSS ; THE GIFT : Forms and Functions of Exchangein Archaic Societies ;  COHEN & WEST LTD, 1966 ; Page – 69-70)



शनिवार, 27 अक्टूबर 2018

जनतंत्र का अर्थ है तानाशाही का प्रतिरोध

(सीबीआई मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का संदेश)
—अरुण माहेश्वरी


सीबीआई मामले में सुप्रीम कोर्ट के कल के फैसले के बाद अरुण जेटली ने 'सरकार की जीत हुई' के अपने स्थायी भाव में यह कह दिया कि अब दूध का दूध पानी का पानी हो जायेगा । सुप्रीम कोर्ट के जज की निगरानी में एक निश्चित समय सीमा के अंदर आलोक वर्मा पर लगाये गये अभियोगों की जांच से अब इस मामले में प्रकृत न्याय होगा । लेकिन जेटली को यह नहीं दिखाई दिया कि अदालत में खड़े होकर उनकी सरकार के वकील वेणुगोपाल ने क्या मांग की थी ? वहां उन्होंने साफ कहा था कि इतने कम समय में इन सब अभियोगों की जांच संभव नहीं है । वे सिर्फ तीन हफ्ते की नहीं, एक प्रकार से अनिश्चित काल तक इस जांच को चलाने का अधिकार मांग रहे थे !

बहरहाल, जेटली कुछ भी कहे, अब बहुत जल्द ही उनकी दक्षिणपंथी सोच के लोग इस प्रकार की दलीलों के साथ बाजार में उतरने लगे हैं कि यह पूरा मामला महज प्रशासन से जुड़ा हुआ मामला था । इस प्रकार के मामलों में प्रथमत: तो सुप्रीम कोर्ट को दखल ही नहीं देना चाहिए था और अगर दिया भी है तो सोचना चाहिए था कि इतने कम समय में सारे गवाहों के साक्ष्यों को जुटा कर कैसे इन गंभीर अभियोगों पर आखिरी राय तक पहुंचा जा सकेगा ? वे यह भी दलीलें दे रहे हैं कि इससे तो किसी भी सरकार का काम करना ही असंभव हो जायेगा ।

इसप्रकार, इन दलीलों में बड़ी चालाकी से इस सच्चाई को छिपा लिया जा रहा है कि यह पूरा मामला किसी साधारण सरकारी कर्मचारी का मामला नहीं है । यह एक ऐसे पद से जुड़ा हुआ मामला है जिसकी स्वायत्तता को देश में कानून का शासन बने रहने देने के लिये जरूरी माना गया है और इसीलिये उस पर नियुक्ति के लिये अलग से एक संवैधानिक कॉलेजियम होता है और उसके कार्यकाल आदि विषयों को अलग से कानूनी प्राविधानों से सुरक्षित किया गया है ।

जो लोग सरकारी कर्मचारी को महज सरकार का वेतनभोगी व्यक्ति मानते है वे जनतंत्र में संवैधानिक संस्थाओं की हैसियत के महत्व को तो कभी नहीं समझ सकते हैं । जनतंत्र का दूसरा औपचारिक, तात्विक मायने होता है 'कानून का शासन' । जनता के चुने हुए प्रतिनिधि ही कानून बनाते हैं लेकिन वे उन कानूनों को अपनी मन-मर्जी से तोड़ने-मरोड़ने के लिये स्वतंत्र नहीं होते हैं । शासकों के स्वेच्छाचार का जनतंत्र में कोई स्थान नहीं होता है, बल्कि यह शासकों के स्वेच्छाचार का ही प्रत्युत प्रत्युत्तर है । कार्यपालिका के स्वेच्छाचार पर रोक लगाने का काम जहां न्यायपालिका करती है, तो वहीं दूसरी संवैधानिक संस्थाएं भी अलग-अलग क्षेत्रों में वह काम करती है । उनके गठन का उद्देश्य ही यही होता है कि जिन संवेदनशील क्षेत्रों में किसी भी सत्ताधारी के मनमाने हस्तक्षेप से कानून का शासन व्याहत हो सकता है, जनतंत्र की आत्मा को नुकसान पहुंच सकता है, उन खास क्षेत्रों को इन आशंकाओं से बचाने के लिये उन्हें रक्षा कवच मुहैय्या कराया जाए ।

इसीलिये हर संवैधानिक संस्था या पद एक प्रकार से जनतंत्र में न्यायपालिका के हाथों का ही विस्तार हुआ करती है । इन संस्थाओं का विकास जनतांत्रिक क्रियाशीलता के लगातार अनुभवों के बीच से पैदा होने वाली जरूरतों से होता है । मसलन् सन् '75 के आंतरिक आपातकाल के बाद संविधान के 42वें संशोधन के जरिये नागरिक अधिकारों और मूलभूत अधिकारों की तुलना में संविधान के निदेशक सिद्धांतों को वरीयता देने के नाम पर जो हमले किये गये थे, उन्हें परवर्ती दिनों में खारिज करके संसद के द्वारा पारित कानूनों की संवैधानिकता को तय करने के मानदंडों के तौर पर उन अधिकारों को स्थापित किया गया । संसद के द्वारा पारित कानूनों को भी संविधान-सम्मत, खास तौर पर नागरिकों के मूलभूत अधिकारों से सम्मत होना पड़ेगा ।

इसीप्रकार, लोकपाल, सूचना का अधिकार आदि की तरह ही सीबीआई का मसला भी एक गंभीर मसला है जिसके भारी दुरुपयोग ने भारतीय राजनीति में शासक दल के स्वेच्छाचार को बेहिसाब बल पहुंचाया है । इसी अनुभव के आधार पर लोकपाल कानून की रोशनी में 2013 में सीबीआई प्रमुख की नियुक्ति और उसके कार्यकाल और उसे हटाये जाने के सारे विषयों को आम कर्मचारी की नियुक्तियों से अलग करके प्रधानमंत्री, नेता विपक्ष और मुख्य न्यायाधीश के कॉलेजियम के अधीन लाया गया और निदेशक के इस पद को कानूनी स्वायत्तता प्रदान की गई । इसका मूल मकसद ही यह था कि सीबीआई की जांच संबंधी क्रियाशीलता में सरकार का बेजा हस्तक्षेप न होने पाए ।

कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की तरह ही दूसरी तमाम स्वायत्त संवैधानिक संस्थाएं मिल कर जनतंत्र को एक प्रकार का सांस्थानिक रूप प्रदान करते हैं । इस संस्थान के संचालन के नियमों से इसके सारे घटक अपने-अपने स्तर पर बंधे होते हैं, यह जनतंत्र का अपना शील होता है । इसीलिये हैरोल्ड लास्की ने जनतांत्रिक व्यवस्था में प्रशासन को एक बहुत विशेषज्ञता का काम कहा था जिसमें शासन को उस जनता के हितों की रक्षा का दायित्व दिया जाता है जो अपने अधिकारों और हितों के बारे में पूरी तरह से जागरूक नहीं है ।

जनतंत्र में हमेशा यह संभव है कि जनता किसी भी सामयिक प्रभाव में हिटलर और मुसोलिनी को चुन कर सत्ता पर बैठा दे, जो अतीत में हो चुका है । यही जनतंत्र का अपना एक संकट भी है, जिसके पीछे सामाजिक-आर्थिक कारण मुख्य तौर पर काम करते हैं । अर्थात्, जनतांत्रिक प्रक्रिया से ही जनतंत्र के अंत की कहानी लिखी जा सकती है । इस प्रकार के अघटन को रोकने के लिये ही जनतंत्र का यह सांस्थानिक ढांचा सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है । जनतंत्र की आंतरिक संरचना इन सभी अन्य स्वायत्त संस्थाओं से निर्मित होती है और उसे वह मजबूती प्रदान करती है ताकि वह अपने अंदर से ही किसी भी हिटलर या मुसोलिनी के प्रतिरोध कर सके । इतिहास के अनुभवों को आत्मसात करते हुए इन संस्थाओँ के विकास के जरिये ही जनतंत्र का अपना आत्म-विस्तार होता है ।
 
जो लोग जनतंत्र की आत्मा के इन तत्वों के महत्व को नहीं समझते हैं और सरकारी प्रशासन को ही सबसे अहम मानते हैं, वे कभी भी सुप्रीम कोर्ट के सीबीआई के मामले में लिये जा रहे निर्णय का मर्म नहीं समझ पायेंगे । सुप्रीम कोर्ट के चार जजों ने पिछले दिनों जब अपने ही मुख्य न्यायाधीश से लगभग विद्रोह करते हुए यह चेतावनी दी थी कि जनतंत्र खतरे में है, उस चेतावनी के महत्व को भी ये लोग कभी नहीं समझ पायेंगे क्योंकि उनके लिये हर संस्था को प्रशासन के महज एक मूक-बधिर अंग की भूमिका अदा करना चाहिए । अब भी वे राजशाही और जनतंत्र के बीच के मूलभूत अंतर को आत्मसात नहीं कर पाए हैं । इसीलिये वे यह कहते हुए पाये जाते हैं कि 'इस प्रकार तो कोई सरकार काम ही नहीं कर सकेगी' ।

यह बिल्कुल सही है कि जनतंत्र के ढांचे में ऐसी कोई सरकार काम नहीं कर सकती है जो मूलत: तानाशाही को थोपना चाहती है, राजशाही की तर्ज पर फासीवाद को लाना चाहती है । जनतंत्र का मर्म ही यही है कि ऐसी सरकार देश में न चलने पाए । सीबीआई के निदेशक को जबरन छुट्टी पर भेजने के सरकार के स्वेच्छाचार पर अंकुश की दिशा में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय जनतंत्र की आत्म का निर्णय है ।   
           

मंगलवार, 23 अक्टूबर 2018

आगामी 29 अक्तूबर के झरोखे से दिखता भारतीय जनतंत्र का भविष्य

—अरुण माहेश्वरी 


सुप्रीम कोर्ट ने कल (23 अक्तूबर को) एक और महत्वपूर्ण निर्णय लिया । मुख्य न्यायाधीश की दो जजों की बेंच ने चुनाव आयोग के सदस्यों का चयन अकेले सरकार के द्वारा किये जाने के बजाय उसे पांच प्रतिष्ठित जनों के एक कॉलेजियम के जरिये करने की व्यवस्था की मांग करने वाली याचिका पर सुनवाई के लिये उसे संविधान पीठ को सौंपने का फैसला किया है । जाहिर है कि इससे चुनाव आयोग में अपने कठपुतले बैठाने की केंद्र सरकार की अब तक की तमाम कोशिशों पर अंकुश लगेगा ।

सरकार की ओर से इस याचिका का विरोध करते हुए कहा गया कि भारत का चुनाव आयोग पारदर्शी रहा है, इसके चयन की प्रक्रिया में छेड़-छाड़ की जरूरत नहीं है । लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने सरकार की दलील को स्वीकारने के बजाय इस विषय को विचार के लिये पांच सदस्यों की संविधान पीठ को सौंपना ही सही समझा । सरकारी दलीलें आज के राजनीतिक प्रत्यक्ष को झुठलाने के धोखे से ज्यादा कुछ नहीं थी । आगामी 29 अक्तूबर से इस याचिका पर बाकायदा सुनवाई शुरू होगी । 

भारत में संवैधानिक संस्थाओं के सदस्यों के चयन में कॉलेजियम प्रणाली के प्रयोग की सफलताओं को सभी जानते हैं । इसी के चलते सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्टों में जजों की नियुक्ति के मामले में सरकार की दखल रुक गई है और फलत: न्यायपालिका की स्वायत्तता बनी हुई है । न्यायपालिका में कॉलेजियम को नष्ट करने के लिये मोदी सरकार ने एड़ी-चोटी का पसीना एक कर दिया था ।

यहां तक कि सीबीआई के निदेशक की नियुक्ति में भी प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के कॉलेजियम की भूमिका होने के कारण ही सीबीआई के निदेशक पद पर अभी के निदेशक आलोक वर्मा की नियुक्ति मुमकिन हुई है। अन्यथा मोदी ने तो आर के अस्थाना जैसे घूसखोर और मोदी के इशारे पर नाचने वाले अधिकारी को उस पद पर बैठा देने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी । उसे अतिरिक्त निदेशक के रूप में वहां ला कर उन्होंने आलोक वर्मा को पूरी तरह से निरस्त कर देने की योजना बनाई थी । आज जब सीबीआई में एक नंबर और दो नंबर के बीच खुला जंग चल रहा है और अस्थाना घूस लेता हुआ प्रकृत अर्थ में रंगे हाथों पकड़ा गया है, तब मोदी-शाह जोड़ी ही उसे बचाने की हरचंद कोशिश कर रही है । उल्टे आलोक वर्मा के खिलाफ मामला बनाने के जी जान से कोशिश की जा रही है ।

अस्थाना पर एफआईआर दर्ज कर दी गई है । दिल्ली हाईकोर्ट ने इस घूसखोर अधिकारी की उस याचिका को ठुकरा दिया है जिसमें उसने अपने खिलाफ दायर की गई एफआईआर को खारिज करने की मांग की थी । अस्थाना के लैप टाप और मोबाइल जब्त कर लिये गये हैं । सीबीआई के निदेशक आलोक वर्मा ने उसके पास से सारे मामलों को अपने हाथ में ले कर उसे अधिकारहीन बना दिया है और उसके मातहत डीएसपी देवेन्द्र वर्मा को गिरफ्तार करके अपनी हिरासत में ले लिया है । उसीके जरिये अस्थाना आलोक वर्मा को फंसाने की साजिशें कर रहा था । हाईकोर्ट ने आगामी 29 अक्तूबर को इस मामले की तारीख तय की है, तब तक के लिये अस्थाना को गिरफ्तार न करने का भी आदेश दिया है । लेकिन यह साफ है कि अब अस्थाना की हर गतिविधि पर सीबीआई की कड़ी नजर रहेगी ।

अब एक हफ्ते का समय भी नहीं रहा है । 29 अक्तूबर के पहले फ्रांस से रफाल लड़ाकू विमानों के सौदे में खरीद की प्रक्रिया के बारे में मोदी सरकार को सारे तथ्य सुप्रीम कोर्ट को सौंपने हैं । 31 अक्तूबर से सुप्रीम कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश की बेंच इस मामले की सुनवाई करेगी । इस बीच रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण पेरिस जा कर सारे कागजातों को ठीक-ठाक कर आई है । आने के बाद उन्होंने कोई बयान नहीं दिया है कि वे पेरिस क्यों गई और वहां क्या कर आई है । इस जग-जाहिर सौदे की 'गोपनीयता' की तरह उनका यह आना-जाना भी शायद एक 'गोपनीय' काम ही था ।

इसके अलावा, 29 अक्तूबर से ही सुप्रीम कोर्ट अयोध्या में बाबरी मस्जिद-राम मंदिर विवाद में उस जमीन के मालिकाना हक के बारे में सुनवाई शुरू करेगा । इस मामले के अंजाम के अंदेशे के कारण ही भाजपा-संघ वालों ने अदालत के बजाय कानून बना कर राम मंदिर बनाने की शेखचिल्लियों वाली बात कहनी शुरू कर दी है ।

धर्म के व्यापार के जरिये अपनी राजनीति को चमकाने की मोदी की एक और कोशिश, उनके चार-धाम प्रकल्प को भी सुप्रीम कोर्ट ने रोक दिया है । सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस फैसले से न सिर्फ पर्यावरण बल्कि हिंदू धर्म में तीर्थों से जुड़ी धार्मिक भावना की रक्षा का काम भी किया है ।

हिंदुओं के लिये तीर्थ मौज-मस्ती और सैर-सपाटे के लिये नहीं होते हैं । लगभग एक सदी पहले तक बैल गाड़ी तक से तीर्थ यात्रा को पाप माना जाता था । तीर्थ यात्रा के विधान में सिर्फ पैदल चलने का प्राविधान था । काषाय वेष में तीर्थ पर निकलने के पहले आदमी अपने घर से विदा मांग कर निकलता था । पर्यावरण को इतना भारी नुकसान पहुंचा कर तीर्थ स्थलों तक सुगमता से पहुंचने की व्यवस्था करना कोई धार्मिक काम नहीं, धर्म के जरिये सस्ती राजनीति का नग्न उदाहरण है । यह धर्म के धंधे को फलने-फूलने का अवसर प्रदान करना है । अन्यथा धर्म के नजरिये से देखे तो यह पूरा प्रकल्प तीर्थों के साथ जुड़ी काल का अतिक्रमण करने की मूल सनातनी धार्मिक भावना का खुला अपमान है । इसी प्रकल्प ने प्रोफेसर जी डी अग्रवाल उर्फ स्वामी सानंद के प्राण लिये है,  इसे भी कभी भूला नहीं जा सकता है ।

ऊपर से नवंबर महीने से ही शुरू होने वाले पांच राज्यों के आगामी चुनावों की तलवार तो मोदी सरकार पर लटकी हुई है ही । अब तक के सारे संकेत यही बताते है कि इन चुनावों से मोदी कंपनी को बड़ा झटका लगने वाला है ।

कुल मिला कर वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों का सच यही है कि जैसे 1975 का इंदिरा गांधी का आंतरिक आपातकाल भारतीय जनतंत्र के लिये एक बड़ी अग्नि परीक्षा साबित हुआ था जिससे गुजर कर उसे नई शक्ति और ऊर्जा मिली थी, उसी प्रकार मोदी के शासन के ये पांच साल भी कम बड़ी अग्नि परीक्षा साबित नहीं होंगे । हमारा मानना है कि इससे गुजर कर भारतीय जनतंत्र को अपने अंदर से पैदा होने वाले तुगलकों के शासन से निपटने का नया विवेक और नई शक्ति मिलेगी । यहीं से भारत में संघी मूर्खताओं पर टिकी राजनीति के अंत का भी प्रारंभ होगा । मोहन भागवत की विक्षिप्तावस्था इसका सबसे बड़ा प्रमाण है । 'राजनीति नहीं करते', 'राजनीति नहीं करते' रटते-रटते अब वे सारे आवरणों को उतार कर अपने शुद्ध राजनीतिक स्वरूप को सरे बाजार खोल दे रहे हैं ।

जाहिर है कि दो साल पहले नोटबंदी के समय से मोदी जी ने भारत की जनता की दीवाली पर जिस मायूसी की काली छाया को थोपा था, अब इस साल से वही मायूसी उलट कर मोदी जी पर छाने वाली है । 2019 पांच साल की इस लंबी काली रात के अवसान का साल होगा । आगामी 29 अक्तूबर से सुप्रीम कोर्ट में खुल रहे झरोखे में भविष्य की इस सूरत को बाकायदा देखा जा सकता है ।

रविवार, 21 अक्टूबर 2018

जुनूनी संगठन की विक्षिप्तता


—अरुण माहेश्वरी

मोहन भागवत की राजनीतिक सरगर्मियां अचानक काफी बढ़ गई हैं, इसे कोई भी देख सकता है । ज्यों-ज्यों 2019 नजदीक आ रहा है, वे यह जताने की भरसक कोशिश कर रहे हैं कि संसदीय चुनावी राजनीति से दूर रहने के बावजूद इसे लेकर वे किसी भी दूसरे व्यक्ति या संगठन से कम चिंतित नहीं है और न ही कम सक्रिय है ।

वैसे तो आरएसएस ने औपचारिक तौर पर राजनीति के पटल पर काम करने की पूरी जिम्मेदारी भाजपा, अर्थात आज के समय में मोदी-शाह जुगल-जोड़ी को सौंप रखी है । खुद मोहन भागवत के ही शब्दों में उनके संघ परिवार की यह 'बड़ी विशेषता' है कि उसके समान विचार के लोग जीवन के अलग-अलग क्षेत्रों को अपने काम के क्षेत्र के रूप में चुन कर उस क्षेत्र में 'पूरी स्वतंत्रता और स्वायत्तता से काम किया करते हैं' । उनके कामों में किसी भी जगह से कोई हस्तक्षेप नहीं करता है । इस बात को अपनी हाल की तीन दिवसीय राजनीतिक वक्तृता-श्रृंखला में भी उन्होंने खास जोर दे कर कहा था । इसे राजनीतिक टैक्टिस के रूप में यह भी समझा गया था कि वे इस प्रकार आदतन एक नया विभ्रम तैयार करना चाहते हैं ताकि विचारधारा के स्तर पर वे भारत की विविधता का सम्मान करने का दिखावा भी कर सके और व्यवहारिक राजनीति में मोदी-शाह के जरिये उसके खिलाफ खुले रूप में काम करने का लाइसेंस भी हासिल कर सके !

बहरहाल, भागवत कुछ भी कहे और मोदी-शाह कुछ भी क्यों न करें, हमारे सामने यह एक सीधा सवाल है कि मोहन भागवत आखिर किस वजह से आज ऐसा दिखावा कर रहे हैं, जिससे लोगों को यह लगे कि राजनीतिक तौर पर वे किसी से कम सक्रिय नहीं है ?

अभी पांच राज्यों में विधान सभा के चुनाव होने वाले हैं । मोदी-परस्त गोदी मीडिया ने ही इन सभी राज्यों में भाजपा की खस्ता स्थिति की भविष्यवाणियां कर दी है । उस पर, इसी बीच मीडिया में अक्सर आरएसएस के जमीनी सर्वेक्षण की खबरें भी आती रहती है । मसलन्, मध्यप्रदेश के बारे में उनके एक सर्वेक्षण में कहा गया बताते हैं कि भाजपा के बहुत सारे विधायकों के प्रति आम लोगों में भारी असंतोष है, इसीलिये आरएसएस चाहता है कि पहले के विधायकों में से कइयों को इस बार टिकट नहीं दिया जाना चाहिए । इसके अलावा, मीडिया में मोदी के विकल्प के तौर पर बीच-बीच में नितिन गडकरी की चर्चा भी कराई जाती है और इशारों में बताया जाता है कि मोदी की गिरती हुई साख को लेकर आरएसएस किसी से कम चिंतित नहीं है । उसने उनका एक विकल्प भी तैयार करना शुरू कर दिया है । अर्थात्, एनडीए की जीत की स्थिति में अगला प्रधानमंत्री कौन होगा, इसे तय करने में अब भी निर्णायक भूमिका आरएसएस की ही होगी ! 

जिस संगठन ने अपने को घोषित तौर पर राजनीति से दूर कर रखा है, और मोहन भागवत ने तो मोदी-शाह की योग्यता को इस हद तक प्रमाणपत्र दिया है कि 'भाजपा में जो लोग काम कर रहे हैं वे आरएसएस के नेतृत्व के लोगों से कहीं ज्यादा अनुभवी हैं', तब फिर भागवत अभी किस गरज से अपनी राजनीतिक चिंताओं और सक्रियताओं को इस प्रकार बढ़ा-चढ़ा कर पेश करने का दिखावा कर रहे हैं ?

जब हम इस सवाल के साथ राजनीति के बरक्श आरएसएस की वर्तमान दशा पर सोचते हैं तो हमें इसमें किसी भी जुनूनी व्यक्ति की विडंबनाओं की तरह ही एक जुनूनी सांस्कृतिक (राजनीतिक) संगठन की अपनी खास विडंबनाओं की तस्वीर नजर आने लगती है । यह वास्तव में एक तरफ उसकी प्रच्छन्न आंतरिक कामनाएं और दूसरी तरफ उसकी जद से पूरी तरह बाहर जा चुके यथार्थ से उत्पन्न उसकी विक्षिप्तता और पुंसत्वहीनता की विडंबनाओं की तस्वीर है ।

हर जुनूनी व्यक्ति, जब उसके वश में कुछ नहीं रह जाता है, हमेशा इस सवाल के द्वंद्व में फंसा होता है कि वह अभी जिंदा है या मर चुका है ? वह सारी जिंदगी बिना कुछ किये ही अपने समय की प्रतीक्षा में बिता देता है । बदल चुके समय से उत्पन्न समस्या के सम्मुख वह खुद कभी वास्तव में मैदान में नहीं उतरता है, किसी कोने में शुतुरमुर्ग की तरह सिर गड़ा कर बैठ जाता है । असली काम के समय वह हमेशा दूसरों से उसका काम कर देने की उम्मीद करता रहता है । जैसे, मोहन भागवत राजनीति की कितनी भी लंबी-चौड़ी क्यों न हांक ले, उनका सच यही है कि वे खुद कुछ करने लायक नहीं है, जो कुछ करना है मोदी-शाह को ही करना है ! कहा जा सकता है कि राजनीतिक तौर पर वे अपने से बाहर, मोदी-शाह कंपनी में जी रहे है और संघ परिवार के सब जानते हैं कि इसीलिये वे खुद राजनीतिक तौर पर एक जिंदा लाश की हैसियत ही रखते हैं । भारी महत्वाकांक्षाएं और उसी अनुपात में मैदान से अनुपस्थिति रहने की आंतरिक मजबूरी — इसी से जुनूनी लोगों में जो एक प्रकार की अजीब सी विक्षिप्तता पैदा होती है, आज का आरएसएस बिल्कुल उसी विक्षिप्तता का परिचय देता दिखाई दे रहा है ।

तीव्र राजनीतिक कामनाओं के बावजूद अपनी एक खास प्रकार की जीवन शैली के कर्मकांडों की कैद में जीना और कामना की पूर्ति के लिये वस्तुत: निश्चेष्ट बने रहना, या निष्प्रभावी होना, किसी अन्य से अपनी कामनाओं की पूर्ति की उम्मीदें बांधना जुनूनी आदमी में मृत व्यक्ति की तरह की जड़ता पैदा कर देती है । तब अंत में उसे सिर्फ वास्तविक मौत का भय सताने लगता है । वह उस सैनिक की तरह युद्ध भूमि में मृत पड़े होने का स्वांग करने लगता है जो सोचता है कि शत्रु उसे मृतक जान कर जिंदगी बख्श देगा, उसे वास्तविक मृत्यु का सामना नहीं  करना पड़ेगा । मृत्यु से इस प्रकार बचने की आदमी की कोशिश जिंदा रहते हुए उसके मर जाने की तरह होती है । मनोविश्लेषकों ने ऐसे विक्षिप्त व्यक्ति में अपनी प्रेमिका को अपने किसी प्रिय दोस्त को सौंप कर निश्चिंत हो जाने की हद तक की नपुंसकता को लक्षित किया है ।

'राजनीति नहीं करते, राजनीति नहीं करते' के मंत्र का जाप करते हुए आज वे ऐसी दशा में पहुंच गये है कि सचमुच राजनीति की डोर उनकी हाथ से छूट कर पहले वाजपेयी-आडवाणी के हाथ में चली गई थी और अभी मोदी-शाह के हाथ में आ गई है । ऐसे में आरएसएस की कथित 'राजनीतिक सरगर्मियां', नये नये राजनीतिक विचारधारात्मक सूत्रीकरण एक जुनूनी संगठन की विक्षिप्तता के अलावा और कुछ भी जाहिर नहीं करते हैं । मोदी-शाह इस बात को जानते हैं और इसीलिये भागवत नयी-पुरानी कुछ भी बात क्यों न कहे, उनके लिये उसका शायद ही कोई मूल्य होता होगा । गडकरी या राजनाथ का भूत मोदी-शाह के लिये बच्चों को डराने की बातों से ज्यादा हैसियत नहीं रखता है । सच यह है कि ये अपने इस संघी पिता को मन में मृत मान चुके हैं ।

लेकिन हमारी नजर में, मोदी-शाह किसी से कम जुनूनी नहीं है । वे अपने पिता की असली संतानें हैं । इसीलिये, वे आज सत्ताधारी बन कर अपने पिता की मौत को मान लेने या उसकी प्रतीक्षा करने की मनोदशा मात्र में नहीं है, बल्कि वास्तव में मर चुके अपने इस मालिक को छाती से चिपकाये हुए भी है । जुनून में जड़ता किसी एक की खास दशा नहीं होती है, यह एक आम रोग होता है । हर जुनूनी इसका में इसके लक्षण मिलेंगे ही । ये सब अभी लगभग लाश की तरह पड़े हुए अपने खास सांप्रदायिक नफरत से भरे विचारों और जड़ता में आत्म-तुष्ट है । हमारा दुर्भाग्य है कि इस चक्कर में सरकार ही पूरी तरह से पंगु हो गई है । ये न्यूनतम सरकारी दायित्वों के निर्वाह में अयोग्य साबित हो रहे हैं ।                     
                  

शुक्रवार, 19 अक्टूबर 2018

कानून बना कर राममंदिर बनाने की बात शुद्ध राजनीतिक धोखा है


-अरुण माहेश्वरी

आरएसएस प्रमुख ने फिर एक बार मोदी की गिरती साख के चलते बदहवासी में राममंदिर का मुद्दा उछाला है । अन्य कई विमूढ़ लोगों की तरह ही उन्होंने कानून बना कर राममंदिर बनाने की माँग की है जो भारत के संविधान और कानून के बारे में उनकी खुद की अज्ञता अथवा आम लोगों के बड़े हिस्से की अज्ञानता से राजनीतिक लाभ उठाने की उनकी बदनीयती के अलावा और कुछ नहीं है ।

भारत एक धर्म-निरपेक्ष जनतांत्रिक राष्ट्र है जिसमें राज्य का काम एक समतावादी समाज के निर्माण के लिये जन-कल्याणकारी दिशा में नीतियाँ बना कर उन पर अमल करना निर्धारित है । मंदिर, मस्जिद, गिरजा या गुरुद्वारा बनाना राज्य का काम कत्तई नहीं है । राज्य अगर ऐसा कोई भी काम करता है तो वह संविधान के धर्म-निरपेक्ष चरित्र का खुला उल्लंघन होगा और इसीलिये उसे कानून की अदालत में चुनौती दे कर तत्कालनिरस्त किया जा सकता है, बल्कि किया जायेगा ।

इसके अलावा, अयोध्या में राम मंदिर के मामले में तो कानून बना कर मंदिर बनाने का कोई भी कदम संविधान और कानून को दोहरे उल्लंघन का कदम होगा ।

अभी 28 अक्तूबर से सुप्रीम कोर्ट में इस मसले से जुड़े मामले पर रोज़ाना सुनवाई शुरू होने वाली है । इसके पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने अपने पिछले निर्णय में यह साफ कर दिया था कि वह राममंदिर या बाबरी मस्जिद के बनने या न बनने के सवाल पर विचार नहीं करेगा । अर्जुन की मछली की आँख की तरह उसकी नज़र सिर्फ और सिर्फ बाबरी मस्जिद जिस जगह थी उस ज़मीन के मालिकाना हक़ से जुड़े दीवानी पहलू पर ही टिकी रहेगी ।

सुप्रीम कोर्ट के इस स्पष्टीकरण के बाद से ही वास्तव में राममंदिर की राजनीति में सुप्रीम कोर्ट को घसीट लाने की सारी कोशिशों पर पानी फिर गया था ।

इस बात को सारी दुनिया जानती है कि इस विवादित स्थल पर पिछले लगभग चार सौ साल से एक मस्जिद थी और वहाँ राम लला की मूर्ति तो चोरी-छिपे 1949 में बैठा कर ज़ोर-ज़बर्दस्ती एक मंदिरनुमा तंबू बना दिया गया है । इसीलिये हर कोई यह भी जानता है कि उस ज़मीन पर मालिकाना हक़ के मामले में राममंदिर वालों की जीत असंभव है । वे कानून के ऊपर अपनी आस्था को रखने की ज़िद ठाने हुए हैं जो किसी भी धर्म-निरपेक्ष संविधान से चालित कानून के शासन में संवैधानिक तौर पर मान्य नहीं हो सकता है ।

इस सच्चाई को अच्छी तरह समझने के कारण ही आरएसएस के सारे तत्व इस मुद्दे को राजनीतिक तौर पर ही आगे और जीवित रखने के लिये अब कानून बना कर राम मंदिर बनाने की बात कहने लगे हैं !

वे यह जानते हैं कि उनका यह कानून, वह किसी रूप में, अध्यादेश या बाकायदा संसद के द्वारा पारित कानून के रूप में क्यों न आए, उस समय तक सुप्रीम कोर्ट में टिक नहीं सकेगा जब तक कि भारत के संविधान को ही पूरी तरह से बदल कर भारत को धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र के बजाय हिंदू राष्ट्र घोषित नहीं कर दिया जाता है ।

सारे संघी नेता इस सच को जानते हैं, लेकिन वे यह मान कर चल रहे हैं कि इससे वे संभवत: एक नई और लंबी क़ानूनी लड़ाई का प्रारंभ कर पायेंगे, जिसका हर मौक़े-बेमौके वे राजनीतिक लाभ उठा पायेंगे । अर्थात, कानून बना कर राम मंदिर बनाने की बात राममंदिर बनाने का रास्ता साफ करने का कोई वास्तविक उपाय नहीं, आम लोगों को बरगलाने और सांप्रदायिक जहर फैलाने का एक प्रवंचनाकारी कदम भर होगा । इसे भारत में वर्तमान संविधान के रहते कभी भी स्वीकृति नहीं मिल सकती है ।

इस सच्चाई को सभी नागरिकों को समझ लेने की ज़रूरत है कि भारत सरकार मंदिर बनाने के लिये किसी की भी ज़मीन का अधिग्हण करने लिये स्वतंत्र नहीं है । अगर ऐसी कोई भी कोशिश की गई तो हम समझते हैं कि उस पर अदालत से रोक लगाने में एक क्षण का भी समय नहीं लगेगा । और, अगर कानून भी बनाया गया, तो उसकी नियति उसके पूरी तरह से खारिज हो जाने के अलावा दूसरी कुछ नहीं हो सकती है ।

धार्मिक आस्थावान लोगों के लिये इस पूरे विषय का सही, संविधान-सम्मत और न्यायसंगत एक मात्र समाधान यही है कि बाबरी मस्जिद की ज़मीन बाबरी मस्जिद वालों को सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद सौंप दी जाए और उसके बगल में, यदि राममंदिर वालों को ज़मीन उपलब्ध हो तो उसे खरीद कर उस पर या अग़ल-बगल में कहीं भी भव्य राममंदिर बना दिया जाए । इसके अतिरिक्त इस विषय पर ज़हरीली राजनीति हमारे राष्ट्र को अंदर से तोड़ने की राष्ट्र-विरोधी राजनीति होगी । दुर्भाग्य से राष्ट्रवाद की रट लगाने वाले ही आज सबसे अधिक राष्ट्र-विरोधी कामों में लगे हुए हैं ।

मंगलवार, 9 अक्टूबर 2018

'पटाखा' फिल्म पर एक राजनीतिक चर्चा

—अरुण माहेश्वरी


इसे संयोग नहीं तो क्या कहेंगे !

दो दिन पहले ही सीपीआई(एम) की केंद्रीय कमेटी की बैठक के संदर्भ में अपनी एक टिप्पणी में हमने उसके बहुमतवादी नेताओँ के मनोविश्लेषण की बात कही थी और इस बात पर बल दिया था कि संभवतः उनके अंदर लंबे काल से पल रहे अंध कांग्रेस-विरोध की एक फांस अभी भी अटकी हुई है । इसे अगर न निकाला गया तो उन्हें अपना आगे का रास्ता कभी नहीं सूझेगा । और इसे निकालने के उपाय के तौर पर हमने प्रसिद्ध मनोविश्लेषक जॉक लकान के सुझाये रास्ते का उल्लेख किया था जो उन्होंने ऐसे मनोरोगियों के बारे में सुझाया था जिन्हें बिना किसी वास्तविक शारीरिक कारण के ही शरीर के किसी एक अंग में भीषण दर्द होने लगता है । लकान ने कहा था कि इसके निदान का उपाय यही है कि किसी प्रकार उनकी उस अंग से जुड़ी फांस को निकाल कर उन्हें शरीर की बाकी पूरी सामान्य संरचना के विचार की श्रृंखला से जोड़ देना होगा । इससे रोगी अपने अंगों के बारे में चीजों को नए रूप में पढ़ पायेगा और एक खास जगह पर दर्द के अकारण अहसास से मुक्त हो जायेगा । इसी तर्क पर हमने सीपीएम के कांग्रेस-विरोधी फांस में फंसे हुए बहुमतवादी सिद्धांतकारों को “संसदीय जनतंत्र की परिस्थितियों के पूरे सत्य से जैविक रूप में जोड़ने” की बात कही थी ।

इस विषय में अपनी बात को और भी साफ करने के लिये यहां हम खास तौर पर सीपीआई(एम) के ही इतिहास के ज्योति बसु, ईएमएस, बीटीआर आदि की तरह के अन्य सभी द्क्काक नेताओं का उल्लेख करना चाहेंगे, जिन्होंने आजादी की लड़ाई के काल में राजसत्ता के जितने जुल्म सहे, उनसे कहीं अधिक दमन का सामना कांग्रेस के शासन के दिनों में किया था । इन सबको कांग्रेस के शासन-काल में सालों जेल में गुजारने पड़े थे । लेकिन इतिहास गवाह है कि इनमें से एक ने भी कभी उस प्रकार के अंध कांग्रेस-विरोध के मनोभाव की ग्रंथी नहीं पाली  जैसी सोशलिस्ट पार्टी के राम मनोहर लोहिया और दूसरे सोशलिस्टों में पाई जाती है और जिसके चक्कर में वे सीधे आरएसएस की गोद तक में बैठते रहे हैं । सीपीएम के ये सभी बड़े नेता भारत में संसदीय जनतंत्र के राजनीतिक सत्य को समझते थे और इस पटल पर काम करते हुए कैसे आम जनता के हितों को आगे बढ़ाया जाए, इसके लिये प्रयत्नरत थे । और तो और, उन्होंने सलकिया प्लेनम में क्रांतिकारी पार्टी के बजाय जन-क्रांतिकारी पार्टी बनाने का संकल्प किया । वे अपने इन प्रयत्नों में कितने सफल और कितने विफल हुए, और क्यों हुए, यह विचार का एक अलग विषय है । उसमें 'सोवियत समाजवाद' और बोल्शेविक पार्टी के ढांचे की कथित क्रांतिकारिता की एक और फांस की भी हमेशा एक भूमिका रही है जिससे दुनिया के किसी भी देश का कम्युनिस्ट आंदोलन आज तक मुक्त नहीं हो पाया है । लेकिन उनके मन में लोहिया आदि की तरह के नेताओं की तरह किसी प्रकार की अंध कांग्रेस-विरोध वाली कुंठा की फांस कभी नहीं पनपी । और, न ही वे कभी 'संसदवाद' की तरह के आधारहीन अभियोगों से आतंकित हुए ।

बहरहाल, हमने इस टिप्पणी की शुरूआत एक कटे हुए, 'संयोग' की चर्चा करने वाले वाक्य से की है । लगता है वह बात तो कहीं पीछे ही रह गई है और हम अपने पुराने विषय की गलियों में भटकते जा रहे हैं ! इसे यहीं रोक कर हम पहले अपने असली विषय पर आते है । आज हमारे लिये जो संयोग या अचरज की बात रही, वह थी विशाल भारद्वाज की फिल्म — 'पटाखा' ।

यह फिल्म दो ऐसी मनोरोगी सगी बहनों के मनोविश्लेषण पर बनाई गई फिल्म है जिनमें बिना किसी शारीरिक कारण के ही एक में अंधता और दूसरे में गूंगेपन के लक्षण पैदा हो गये हैं । डाक्टर जांच करके उनमें सब कुछ सही पाते हैं । वे जान जाते हैं कि अंधी बहन देख सकती है और गूंगी बहन बोल सकती है, फिर भी एक देख नहीं रही है, दूसरी बोल नहीं रही है । यह पूरी तरह से मनोरोग की दशा है । मगर मनोविश्लेषण के सामने सवाल यह आया कि आखिर उनके जीवन में वह कौन सी फांस है जिनके कारण उनके साथ ऐसा हुआ है ?

इस फिल्म में बापू, छुटकी और बड़की के तीन सदस्यों के परिवार में ही बीच-बीच में एक बाहर व्यक्ति दखल देता है — डिप्पर । डिप्पर वास्तव में इस पूरे मामले का मनोविश्लेषक है जो दोनों मनोरोगी बेटियों के रोग को उसकी जड़ में जाकर खोलने और उसका निदान करने की भूमिका अदा करता है । वह पाता है कि ये ऐसी दोनों बहनें हैं जो बचपन से ही आपस में बुरी तरह से लड़ते झगड़ते, एक दूसरे से तीव्र ईर्ष्या करती हुई बड़ी हुई है । जैसे एक दूसरे के खून की प्यासी हो, ऐसा था उनका आपसी व्यवहार । फिल्म में कई जगहों पर उनके संदर्भ में भारत-पाकिस्तान का उल्लेख आता है जिनके लड़ते-झगड़ते रहने पर भी साथ रहने की मजबूरी के संदर्भ में अटल बिहारी वाजपेयी का यह कथन भी आता है कि हम पड़ौसी से लड़ जरूर सकते हैं, लेकिन उन्हें चुन नहीं सकते ।

बहरहाल, डिप्पर उनकी गुत्थी को खोलने के सिलसिले में ही दोनों के बीच के बुनियादी फर्क को उनके अंतर की दमित कामनाओं से जोड़ता  है । छुटकी स्कूल टीचर बनना चाहती है और बड़की अपनी डेयरी खोलना चाहती है । आपस में भारी नफरत की वजह से ही दोनों एक दूसरे की इन अलग-अलग कामनाओं को प्रतिबिंबित करने वाली हर चीज से भी समान रूप से नफरत करने लगती है । बड़की को पढ़ाई से नफरत होती है तो छुटकी को दूध मात्र से । लड़कियों के जीवन में परिवर्तन का एक बड़ा मोड़ तब आता है जब उनकी शादी होती है, वे अपने मायके से अलग अपने-अपने ससुराल के नये परिवेश में बस जाती है । लेकिन इस कहानी में दोनों की शादियां भी संयोगवश एक ही घर में रहने वाले दो सगे भाइयों से हो जाती है । इसीलिये शादी भी उन्हें परस्पर से अलग नहीं करती ।

डिप्पर दोनों को अपनी-अपनी कामनाओं की पूर्ति की दिशा में ध्यान लगाने की सलाह देता है और इसी कारण उनके परिवार का बंटवारा भी हो जाता है । दोनों एक दूसरे से स्वतंत्र हो कर अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति में जी जान से लग जाती हैं । छुटकी शहर में जा कर राष्ट्रीय पुरस्कार पाने वाली शिक्षिका बन जाती है और बड़की गांव में ही राष्ट्रीय पुरस्कार पाने वाली डेयरी की मालकिन । इस प्रकार दोनों अपने-अपने जीवन में बेहद खुश रहती है । लेकिन उनके जीवन की अपनी उपलब्धियां उन दोनों बहनों के परस्पर संबंधों को सामान्य नहीं कर पाती हैं, कहीं न कहीं बहुत गहरे तक उसकी एक फांस रह ही जाती है । इसी वजह से दोनों के जीवन की इन बड़ी उपलब्धियों की सूचना उन दोनों के तीव्र ईर्ष्यालु मन के लिये खुशी के बजाय परस्पर उतना ही बड़ा सदमा भी साबित होती हैं । टेलिविजन पर पुरस्कार लेती छुटकी की तस्वीर देख कर बड़की पूरी गूंगी हो जाती है और बड़की की तस्वीर देख कर छुटकी अंधी ।

कहना न होगा, कहानी का यही वह कठिन मुकाम है जहां से वास्तव में इस कहानी का मनोविश्लेषणात्मक आख्यान शुरू होता है । रोग के दीर्घ विश्लेषण के इसी बिंदु पर डिप्पर उसके निदान के अंतिम चरण की ओर बढ़ता है । उसकी सलाह पर दोनों बेटियों का बापू मरने का एक नाटक करता है । बड़की के आंगन में पड़ी पिता की लाश पर एक लंबे अंतराल के बाद दोनों, अंधी और गूंगी बनी हुई  बहनें मिलती है । उनके संग के बीच इस दौरान जो लंबा व्यवधान पड़ा और उसमें उनके जीवन की जो उपलब्धियां हुई, इन सबने मिल कर बापू की लाश पर दोनों के मिलन के वक्त उन्हें एक ऐसे भावावेग के भंवर में डाल दिया जिसके तल में जाते-जाते उनके अंदर का दबा हुआ गुबार एक धमाके के साथ फूट कर क्रमश: मन को हमेशा के लिये शांत हो जाने की अवस्था में ले आता है । एक दूसरे को देख कर अचानक गूंगी की जुबान खुल जाती है, अंधी देखने लगती है । शुरू में तो दोनों एक दूसरे पर बुरी तरह से गालियां देती हुई ऐसे टूट पड़ती है मानो एक दूसरे को खा जायेंगी, लेकिन धीरे-धीरे वह विस्फोटक तूफान थमने लगता है । उसी समय मरा हुआ बापू उठ कर दोनों के बीच आ जाता है, जो दोनों के लिये गहरे सुकून का कारण बनता है । जीवन में पहली बार ये दोनों बहनें आपस में गले मिल कर फूट-फूट कर रोने लगती है । यह वह क्षण था जब उनके अंदर एक दूसरे के लिये नफरत पैदा करने वाली फांस एक झटके से निकल जाती है । वे दुनिया के सहज जीवन की धारा में वापस लौट आती हैं । डिप्पर और बापू उनको एक सहज और प्रेम भरे जीवन की उनसे छूट चुकी पूरी श्रृंखला से जोड़ने का काम करते हैं । उन्हें समग्र जीवन का अर्थ समझने और अपनाने की एक नई शक्ति मिलती है ।

इस प्रकार एक सामान्य ग्रामीण परिवेश में रची गई मनोविश्लेषणात्मक सत्रों के बीच से निकल कर आने वाले जीवन की कहानी का यह एक अपने प्रकार का फिल्मांकन है, जिस पर निश्चित रूप से विशाल भारद्वाज के फिल्म-निर्माण की अपनी लोकप्रिय शैली का साफ असर है । हमें निजी तौर पर इससे विशेष आनंद इसी बात पर आया कि दो दिन पहले हम राजनीतिक संदर्भ में पार्टियों/लोगों के बीच फंसी हुई पुरानी फांसों को निकालने और लंबे अर्से से वामपंथ की पटरी से उतरी हुई राजनीतिक लाइन को पटरी पर लाने के लिये उसे जिस प्रकार संसदीय जनतंत्र के यथार्थ की कड़ियों की पूरी श्रृंखला से जोड़ कर राजनीति की एक नई जनतांत्रिक भाषा को आत्मसात करने की बात कर रहे थे, वही बात इस कहानी में दो बहनों के बीच लंबे काल से बिगड़े हुए संबंधों से पैदा हुए मनोरोग के निदान की कथा में भी कही गई है । जब आपको एक खास राजनीतिक ढांचे में ही काम करना है तो उस ढांचे के कायदे कानूनों, शीलाचरणों से आपको जुड़ना ही होगा । तभी सीपीएम के इन नेताओं को ज्योति बसु होने, प्रधानमंत्री बनने का मतलब समझ में आने लगेगा, सोमनाथ चटर्जी भी समझ में आने लगेंगे और एक गठबंधन की सरकार में काम करने का धर्म भी । नाहक 'संसदवादी भटकाव' के काल्पनिक भूत से लड़ने की सनक से मुक्ति मिलेगी और इनका जीवन अपेक्षाकृत सहज होगा, उसमें किसी प्रकार की अंधता या गूंग कभी नहीं व्यापेगी, जैसी आज वामपंथी आंदोलन में व्यापी हुई है । हाइडेगर का यह कथन बहुत याद आता है कि जो उपस्थित है, जिसे वे dasein कहते हैं, उससे पूरी तरह इंकार करके किसी सत्य की प्राप्ति संभव नहीं है ।

हो सकता है, दो बिल्कुल अलग क्षेत्रों को साथ में रख कर उनमें इस प्रकार की समानताओं को देखने में वस्तुनिष्ठता कम और हमारा आत्मगत मामला ज्यादा काम कर रहा हो । लेकिन हमें निजी तौर पर यह फिल्म इसीलिये काफी दिलचस्प लगी । विशाल भारद्वाज ने भी इसमें भारत-पाकिस्तान का बार-बार उल्लेख करके इसे वृहत्तर राजनीतिक आयामों से दूर नहीं रखा है ।

सोमवार, 8 अक्टूबर 2018

‘...अंजामे गुलिश्ता क्या होगा !’

(भारत में भी ‘मी टू’ आंदोलन की जोरदार थपेड़ें )
—अरुण माहेश्वरी


‘मी टू' अभियान ने क्रमश: भारत में अपने विस्तार के संकेत देने शुरू कर दिये है । आज के ‘टेलिग्राफ’ में एक पत्रकार प्रिया रमानी के ट्वीट को अखबार की प्रमुख सुर्खी में स्थान दिया है जिसमें उन्होंने वर्तमान केंद्रीय विदेश राज्यमंत्री एम जे अकबर पर सीधा आरोप लगाया है कि किस प्रकार 1994 में  जब अकबर ‘टेलिग्राफ’ पत्रिका के संपादक थे, मुंबई में एक होटल के कमरे में नौकरी के लिये साक्षात्कार लेते वक्त उन पर टूट पड़े थे । अंग्रेजी की लोकप्रिय ‘वोग’ पत्रिका में उन्होंने अपने इस पूरे अनुभव का बयान अकबर को प्रथम पुरुष ‘डीयर बॉस’ से संबोधित करते हुए किया है जिसमें वे लिखती है कि “उस रात तो मैं बच गई । आपने मुझे काम पर लगाया, कई महीनों तक मैंने आपके यहां काम किया लेकिन तभी अपने मन में मैंने यह शपथ ले ली थी कि आपके साथ कभी कमरे में मैं अकेले नहीं रहूंगी ।”

कल (8 अक्तूबर) को ही प्रसिद्ध पत्रकार स्वाति चतुर्वेदी ने भी एक ट्वीट करके काफी विस्तार के साथ ‘फर्स्ट पोस्ट’ में प्रकाशित इसी कहानी का बयान किया है जिसमें एक ख्यात अखबार के ‘संस्थापक संपादक’ और मुंबई के होटल के कमरे का ही जिक्र है । उस संपादक का बिना नाम दिये इतना जरूर कहा गया है कि वह अभी सरकार में एक ऊंचे पद पर है । स्वाति ने भी यही बताया है कि जब पत्रकारिता के क्षेत्र में कोई व्यक्ति कदम रखता है, और किसी अखबार की ख्याति अगर शिखर पर हो तो उसमें काम का मौका पाना किसी भी नौजवान पत्रकार के लिये एक मूल्यवान अवसर होता है। उस समय इन संपादक महोदय ने मौके का लाभ उठा कर इस नौजवान पत्रकार के शरीर पर टूट पड़ने की कोशिश की । स्वाति ने अपनी कहानी में पत्रकार का नाम भी नहीं बताया है, लेकिन आज के टेलिग्राफ में वह नाम खुल कर सामने आ गया है ।
(आज के टेलिग्राफ की खबर और स्वाति चतुर्वेदी के ट्वीट का लिंक, दोनों हम यहां दे रहे हैं ।)
https://www.firstpost.com/india/my-metoo-moment-founding-editor-of-national-newspaper-forced-himself-on-me-planted-shame-fear-almost-broke-me-5337121.html
https://www.telegraphindia.com/india/metoo-finger-at-union-minister/cid/1671370


जाहिर है कि बॉलीवुड में तनुश्री दत्ता ने नाना पाटेकर के संदर्भ अपने अनुभव का जिक्र करके भारत में इस जिस नये 'मी टू' अभियान की शिखा जलाई है, उसकी रोशनी अब क्रमश: हमारे समाज के दूसरे अंधेरे कोनों को भी प्रकाश में लाने लगी है ।

‘इकोनोमिस्ट’ पत्रिका ने अपने इधर के नये अंक (29 सितंबर-5 अक्तूबर 2018) में ‘मी टू’ को अपनी कवर स्टोरी बनाया है और इससे समाज के कथित संभ्रांतों और ताकतवरों के द्वारा अपने पद और अधिकारों का प्रयोग करके औरतों का शोषण करने के निकृष्ट आचारणों के उद्घाटनों की गहनता और व्यापकता को देखते हुए यहां तक लिखा है कि “यह एक ऐसा आंदोलन है जिसका प्रारंभ एक कथित बलात्कारी से हुआ है, लेकिन यह औरतों की समानता के लिये उन्हें मतदान के अधिकार के बाद एक सबसे शक्तिशाली बल साबित हो सकता है ।”
(A movement sparked by an alleged rapist could be the most powerful force for equality since women’s suffrage)

यह आंदोलन साल भर पहले हालीवुड के एक बड़े फिल्म निर्माता हार्वे वींस्टीन की कहानी से शुरू हुआ था जब एक के बाद एक अभिनेत्रियों ने उसकी फिल्म में काम पाने के लिये उसे अपने शरीर को सौंपने के दर्दनाक अनुभवों का बयान करना शुरू किया। वींस्टन एक आदतन बलात्कारी है, इसे कई सालों से हालीवुड के लोग जानते थे, लेकिन वह इतना ताकतवर था कि कोई बोलने का साहस नहीं कर पा रहा था । मान कर चला जा रहा था कि ताकतवर पुरुष अपनी मर्जी का मालिक होता है, वह कुछ भी कर सकता है । लेकिन इस एक साल में ही अब अमेरिका में इस बद्धमूल मान्यता को करारी चोटें लग रही हैं । अब वहां जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में ऐसे निरंकुश ताकतवरों की पशुता के किस्से सामने आने लगे हैं । बल्कि, सिर्फ अमेरिका में ही नहीं, सारी दुनिया में इसका सिलसिला चल पड़ा है।

अभी अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट में ट्रंप ने एक जज की नियुक्ति की - ब्रेट कावनॉ की । उस पर भी यह अभियोग लगा कि कई दशक पहले जब वह छात्र था, उसने एक लड़की पर कामुक हमला किया था । यह अभियोग क्रिस्टीन ब्लासे फोर्ड नामकी महिला ने लगाया । इस उद्घाटन के बाद सारे अमेरिका में एक तहलका मच गया । अमेरिका की सर्वोच्च न्यायपीठ पर एक ऐसे कामुक और हमलावर व्यक्ति की स्थायी नियुक्ति के भविष्य में कितने दुष्परिणाम हो सकते हैं, इसके कयास पर तमाम स्तरों पर पुरजोर चर्चा शुरू हो गई । अमेरिकी सिनेट की न्याय कमेटी के सदस्यों ने कावनॉ से सीधे पूछ-ताछ की और उसकी नियुक्ति पर आशंका के बादल मंडराने लगे थे । अभी दो दिन पहले जब उसकी नियुक्ति पर अंतिम मोहर लगी तो अनेक हलकों से उसे अमेरिका के इतिहास का एक काला दिन बताया गया है ।

यह पूरा घटनाक्रम ‘मी टू’ आंदोलन के तेजी से विस्तार के संकेत दे रहा है । इसका अंतिम हश्र क्या होगा, कोई नहीं कह सकता । लेकिन अमेरिकी समाज के लिये इसे इसलिये एक सबसे बड़ी बात माना जा रहा कै क्योंकि यह दर्शाता है कि उस समाज में सकारात्मक और प्रगतिशील परिवर्तन की भूख आज भी बाकायदा बची हुई है । ‘इकोनोमिस्ट’ ने इसका बुरा पक्ष यह भी बताया है कि कहीं यह ‘मी टू’ आंदोलन भी औरतों के शरीर से जुड़ी कहानियों पर चटखारे लेने वाली उपभोक्तावादी संस्कृति की खुराक न बन जाए !

लेकिन अमेरिका के विभिन्न स्तरों पर इस बारे में औरतों की अपनी गवाहियों को जितनी गंभीरता से लिया जा रहा है, वह इस आंदोलन का सबसे अधिक महत्वपूर्ण आयाम है । अन्यथा अब तक तो इस प्रकार के अभियोग लगाने वाली औरतों को ही समाज में बदचलन घोषित करके दुष्चरित्र पुरुषों के पापों को ढंकने की परिपाटी चलती आ रही है । अदालतों के कठघरों में औरतों को जलील करना वकीलों के लिये एक आम बात रही है । आज अमेरिका में ऐसी गवाहियां देने वाली औरतों को कोई संदेह के दायरे में नहीं ला रहा है । पुरुषों के ऐसे कुकर्मों को पूरी गंभीरता से लिया जा रहा है । यही इस पूरे आंदोलन की सबसे उल्लेखनीय लाक्षणिक विशेषता है, जो इसके बहुत ही दूरगामी सकारात्मक परिणामों के प्रति आश्वस्त करती है ।

वींस्टन ने ऐसे दर्जनों अपराध किये थे जिनमें सीधा बलात्कार तक शामिल था, वहां के फिल्म उद्योग के लोग उसके इस जघन्य चरित्र से पूरी तरह वाकिफ थे, लेकिन फिर भी किसी ने उस शक्तिशाली निर्माता के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत नहीं की । आज जब एक के बाद एक महिलाओं के साक्ष्य से उस कामुक दानव का पूरा स्वरूप सामने आया है, अमेरिका के लोगों का जमीर अंदर से हिल गया है । और, यही वजह है कि इस ‘मी टू’ आंदोलन ने एक बिल्कुल भिन्न और नया आयाम ग्रहण कर लिया है । अब अभियोग लगाने वाली औरत के चरित्र पर सवाल उठाना ही वहां नैतिक अपराध माना जा रहा है । कावनॉ के मामले में भी बात उस व्यक्ति की निजी प्रतिष्ठा की नहीं रह गई ; सुप्रीम कोर्ट में यदि ऐसा व्यक्ति चला गया तो कोर्ट का भविष्य क्या होगा, यह चिंता का प्रमुख विषय बन गया !

बहरहाल, पूरे अमेरिका और पश्चिमी समाज में इस विषय पर जो भारी उत्तेजना पैदा हो गई है, उसके केंद्र में एक ही सवाल है कि शक्तिशाली पुरुष अपने पद और शक्ति के प्रयोग से औरत के साथ कुछ भी कर के गुजर जाएगा और उसे कभी कोई सवाल भी नहीं करेगा, यह कब तक चलेगा ?  ईश्वर की अदालत में नहीं, इसी समाज की अदालत में, इसी जगत में क्यों नहीं उसे कभी न कभी न्याय का सामना करना ही पड़ेगा ?

भारत में भी तनुश्री दत्ता ने अनायास ही सभ्यता विमर्श से जुड़े इस महत्वपूर्ण आंदोलन की एक लौ जला दी है । इसीलिये हमने कल अपनी एक पोस्ट में लिखा था कि हमारे सामाजिक इतिहास में उन्हें इसके लिये हमेशा याद रखा जायेगा ।

अब क्रमश:, इससे हमारे समाज में आगे और कैसा और कितना आलोड़न पैदा होगा, यह तो भविष्य ही बतायेगा । लेकिन आज ‘टेलिग्राफ’ पत्रिका के संस्थापक संपादक और वर्तमान केंद्रीय मंत्री का इस सिलसिले में जिस प्रकार नाम सामने आया है, उससे निश्चित तौर पर इस आंदोलन की गर्मी के बढ़ने के संकेत मिलते हैं । जैसा कि स्वाति चतुर्वेदी की रिपोर्ट में ही बताया गया है कि पत्रकार प्रिया रमानी के पिता ने उन्हें पहले ही उस संपादक के चरित्र के बारे में सावधान कर दिया था, उसी प्रकार, इस क्षेत्र के अन्य लोग भी इस संपादक के चरित्र से अच्छी तरह वाकिफ होंगे। आगे उनके और भी किस्से आ सकते हैं । और राजनीति की दुनिया में उनकी सफलता भी इस रोग की व्यापकता के कुछ संकेत देती है । एम जे अकबर के इस्तीफे की मांग भी तूल पकड़ेगी ।

इसीलिये, यदि हमारे समाज में जनतांत्रिक चेतना और स्त्री-पुरुष समानता के विचारों ने कुछ भी जड़ें पकड़ी हैं तो हमारा मानना है कि यह प्रारंभ पूरी तरह से निष्फल साबित नहीं होगा । यह राजनीति, पत्रकारिता, मीडिया, अध्यापन, न्यायपालिका और अन्य सभी बड़े-बड़े संस्थानों में स्त्रियों के साथ बदसलूकी के सवालों को सामने लाने का एक बड़ा सबब बनेगा ; आगे इसके संदर्भ में कानूनी प्राविधानों के परिणाम भी निकलेंगे । और, इससे पैदा होने वाला आलोड़न समग्र रूप से अंतत: हमारे समाज को अंदर से सबल और स्वस्थ बनायेगा ।

देखियें — “हर शाख पे उल्लू बैठा है, अंजामे गुलिश्ता क्या होगा !”

पांच राज्यों के चुनावों के पहले ही मोदी की अपराजेयता का आतंक टूटने लगा है

—अरुण माहेश्वरी


पांच राज्यों के चुनावों की घोषणा हो चुकी है । आगामी 22 नवंबर से मतदान शुरू होगा और 11 दिसंबर को सभी राज्यों के परिणाम एक साथ आ जायेंगे ।

इसी बीच, इन सभी राज्यों में इस चुनावी शतरंज की बिसात प्राय: बिछ चुकी है । गठबंधन, महागठबंधन से जुड़ी राजनीतिक चर्चाओं ने अंतत: पूरे विपक्ष के सामने एक बात साफ कर दी है कि मोदी-शाह गिरोह को हराना है । वे कैसे हारेंगे, कैसे नहीं — इसका सरे-जमीन आकलन करते हुए अपनी रणनीति तय करनी है । इन पांच राज्यों में से तीन ऐसे है जहां कांग्रेस पार्टी के पास अकेले मोदी को सीधी टक्कर देने की पूरी ताकत है । बाकी दोनों राज्यों में यदि भाजपा कोई खास मायने नहीं रखती है तो मोदी-विरोधी रणनीति का भी कोई अर्थ नहीं है ।

जब यह साफ है कि तीन राज्यों में मोदी के खिलाफ अकेले कांग्रेस की ही टक्कर होने की है, तब हाशिये पर खड़े दूसरे दल अपने होने भर का अहसास दिलाने जितनी कवायद ही कर सकते हैं, इस लड़ाई में उनकी स्वतंत्र कोई खास भूमिका नहीं है । वे भले मायावती की निजी हैसियत के लिये काम कर रही बसपा की तरह की पार्टियां हो या वामपंथी पार्टियां । इसी बीच जो चुनाव-पूर्व सर्वेक्षण आए हैं, वे भी यही बता रहे हैं कि इन तीनों राज्यों में कांग्रेस जीत रही है । मोदी कंपनी पराजय की कगार पर है ।

2019 के लिये भी, मोदी गिरोह को शिकस्त देने के लिये कांग्रेस का पुनरुज्जीवित होना पूरे जनतांत्रिक और धर्म-निरपेक्ष विपक्ष के लिये एक प्राथमिक जरूरत है । अपने कुछ तात्कालिक दबावों में भले आज अखिलेश यादव या मायावती या कोई अन्य कांग्रेस को अहंकारी कह लें, लेकिन 2019 की लड़ाई में सभी जानते हैं कि देश में जनतंत्र की पताका को ऊंचा उठाये रखने की उस लड़ाई में सेनापति की भूमिका कांग्रेस को ही अदा करनी पड़ेगी । इसीलिये, उसका मजबूत और उत्साहित होना उस लड़ाई में मोदी खेमे के तंबू को उखाड़ फेंकने के लिये सबसे जरूरी है । बाकी, जिसकी जिस राज्य में जितनी ताकत है, उसी के अनुसार वह 2019 की लड़ाई में अपना योगदान करेगा । किसके सहयोग से इस लड़ाई में फायदा होगा और किसे छोड़ देने से, इसका ठोस आकलन राज्यवर गठबंधन-महागठबंधन के स्वरूपों को निर्धारित करेगा । गुजरात, पंजाब और हरियाणा में भी इस लड़ाई में कांग्रेस के अलावा दूसरे किसी दल की कोई अलग से विशेष भूमिका नहीं होगी । जिन राज्यों में बीजेपी का अभी कोई अस्तित्व ही नहीं है, जैसे केरल, आंध्र, तमिलनाडु, उड़ीसा, बंगाल, पंजाब, उत्तर-पूर्व के कुछ राज्य — वहां धर्म-निरपेक्ष जनतांत्रिक दलों की प्रतिद्वंद्विता का बने रहना ही शुभ है । अन्यथा वहां विपक्ष के शून्य में भाजपा जैसे अवांछित तत्वों के प्रवेश की संभावना बनेगी । यहां तक कि असम और त्रिपुरा में भी भाजपा कांग्रेस को हड़प कर ऊपर आई है । वह जैसे आई है, वैसे ही विलीन भी हो जायेगी ।

बहरहाल, इन पांच राज्यों के चुनावों से जो सबसे बड़ी बात होने जा रही है, वह है जनता के एक हिस्से पर मोदी-शाह-आरएसएस की अपराजेयता की मानसिक जकड़बंदी का टूटना । यह अब दिन के उजाले की तरह साफ हो जायेगा कि वे अपने को जिस प्रकार अपराजेय और सर्व-व्यापी दिखाना चाहते हैं, वह सच्चाई से कोसो दूर है । तानाशाहों की अपराजेयता की छवि ही उनकी असली शक्ति होती है । उसका आतंक बना रहे, कोई उसका विरोध करने की हिम्मत नहीं कर सकता — यह धाक बनी रहे, इसके बाद तो पूरा परिवेश उसी की गूंज-अनुगूंज से भर जाता है !

मोदी ने पिछले साढ़े चार साल कुछ इसी प्रकार का तुमार बांधने में व्यतीत किये हैं । प्रदर्शनप्रिय मोदी मानते रहे हैं कि दृष्ट के बाहर कोई सत्य नहीं होता है । इसीलिये लोगों को नजर आने वाले सारे माध्यमों पर, जैसे टेलिविजन, अखबार, इंटरनेट और सभी माध्यमों पर अपना एकाधिकार कर लो, जीवन भर के लिये तुम ही तुम बने रहोगे । इस चक्कर में नोटबंदी की तरह का घनचक्करों वाला काम कर दिया तो जीएसटी को विकृत करने का आधी रात का भुतहा जश्न मनाया । सेना को भी अपने इस धंधे में शामिल करके झूठो सर्जिकल स्ट्राइक का त्यौहार मनाना शुरू कर दिया । यहां तक कि उन्होंने राजनय को भी अपने खुद के प्रदर्शन का, सेल्फियां लेने का क्षेत्र बना दिया । और कुल मिला कर अंत में हालत यह है कि न महंगाई पर कोई अंकुश लग पा रहा है और न उद्योग धंधों में गिरावट का, रुपये की तबाही का सिलसिला थम रहा है । दैनंदिन खर्च चलाने के लिये पेट्रोल डीजल पर अधिक से अधिक कर जुटाने का जुगत करना पड़ रहा है ।

बहरहाल, अभी भी मोदी अपनी सारी दमनकारी एजेंशियों के प्रयोग से अपने आतंक को बनाने के लिये दिन-रात एक किये हुए हैं। मायावती, मुलायम जैसों को एक बार के लिये दबा कर रखने में उन्हें इससे मदद भी मिली है । यहां तक कि सोशल मीडिया में भी विरोधियों की बातों को रोकने की कोशिश की जा रही है ।

लेकिन इन राज्यों के चुनाव परिणाम तो जब आयेंगे, तब आयेंगे — आज ही राहुल गांधी ने मोदी के राफेल के महाघोटाले, नोटबंदी की तरह के निर्बुद्धिपूर्ण कदम और राज्य के संचालन में उनकी चरम अयोग्यता को पूरे साहस के साथ जिस प्रकार बेपर्द करना शुरू कर दिया है, उसकी छाप गोदी मीडिया कहे जाने वाले परजीवियों पर भी पड़ने लगी है । मोदी-शाह की अपराजेयता का समूचा आडंबर इन चुनावों में उनकी हार के पहले ही टूट कर गिर चुका है । 2019 में तो संबित पात्रा की तरह के गालियां बकने वालों के कंधों पर टिकी यह कंपनी वास्तव में धूल में मिलती दिखाई देगी ।
 





शनिवार, 6 अक्टूबर 2018

सीपीएम के ‘बहुमतवादी’ नेताओं को पूरा संतुलन खोने से बचना चाहिए !


-अरुण माहेश्वरी


'द वायर’ ने दिल्ली स्थित एक पत्रकार के. बेनडेक्त का दो दिन पहले एक लेख जारी किया था - ‘केरल में कांग्रेस का भूत प्रकाश करात को भगवा-अंधता का शिकार बना रहा है’ । (लिंक नीचे दिया हुआ है)

इस लेख से लगता है कि सीपीआई(एम) में पिछली हैदराबाद कांग्रेस में मुंह की खाने के बाद भी पार्टी की सर्वोच्च कमेटी में अपने बहुमत के अहंकारवश कुछ लोग राजनीतिक परिस्थितियों के बारे में कोई नई शिक्षा लेने के लिये तैयार नहीं है । उनकी यह जिद एक पुराने लाइलाज मर्ज की तरह लगती है । लगने लगता है कि क्या यह विषय अब उनके संदर्भ में मनोवैज्ञानिक ज्यादा है, राजनीतिक नहीं !

प्रसिद्ध मनोविश्लेषक जॉक लकान जिसे ‘शब्दों का लक्षण’ (symptom of words) कहते थे, वह रोग कुछ ‘सिद्धांतकारों’ की अपनी पहचान बन जाता है । इनका सिद्धांत-विमर्श इनकी काया की सीमा में ही पूरी तरह से फंस कर वास्तविकता के आधार से पूरी तरह कट जाता है । यह किसी वस्तु सत्य पर नहीं, अन्य सिद्धांत से सिर्फ विभेद मात्र पर टिक जाता है । यह एक प्रकार से सिद्धांत से सिद्धात की, शुद्ध सैद्धांतिक निर्मिति ही होती है ।

मसलन्, भाषाशास्त्र के दायरे में फंस कर आदमी किसी शब्द को इसलिए एक शब्द मानने लगता है क्योंकि वह दूसरे शब्द से अलग होता है । बिल्ली बिल्ली है क्योंकि वह दिल्ली नहीं है । जैसे व्यवहार में रेलवे की संचालन व्यवस्था में 10.30 की ट्रेन भले 11 बजे पहुंचे, लेकिन कहलाती 10.30 की ट्रेन ही है क्योंकि वह 10 बजे वाली या 11बजे वाली से अलग है । अर्थात यहां सार का कोई महत्व नहीं होता, उसका अन्य से भाषिक विभेद ही महत्वपूर्ण हो जाता है ।

लकान कहते हैं कि बच्चे अपने अंदुरूनी अंगों के बारे में उतना ही जानते हैं जितना उनके मां बाप उन्हें बताते हैं । इस प्रकार, उनके लिये उनके शरीर का अंदुरूनी भाग शब्दों से बना होता है ।


यही हाल इन बचकाने सिद्धांतकारों का होता है । उनकी किसी भी विषय में आपत्ति के कारण कभी वस्तुनिष्ठ नहीं होते हैं । यह एक प्रकार का मनोरोग है । बहुत से डाक्टर ऐसे रोगियों को जानते हैं जो बिना किसी शारीरिक कारण के ही शरीर में तेज दर्द की शिकायत किया करते हैं । इसका मतलब यह नहीं है कि उनका यह दर्द झूठा है । यह वैसा ही, बल्कि उससे भी तेज दर्द हो सकता है जैसा शरीर पर चोट लगने से होता है । यह अपने किसी खास अंग पर अतिरिक्त जोर से भी हो सकता है ।

लकान ने ऐसे मनोरोगियों का इलाज यह बताया है कि किसी भी प्रकार से उनके अंदर की फांस को, उनके दमित विचारों को उनके बाहर के विचारों की पूरी श्रृंखला की बाकी कड़ियों से जोड़ा जाए । उन्हें पूरे संदर्भों को नये प्रकार से पढ़ना सीखाया जाए ।

इसमें फिर से भाषा शास्त्र का उदाहरण लिया जा सकता है । भाषा शास्त्र में शब्दों के लक्षणों को दूर करने में किसी रूपक की भूमिका क्या होती है ? रूपक उसमें एक तत्व की जगह दूसरे तत्व को ले आते हैं । मसलन, शेर की जगह बहादुर आदमी को रख दिया जाए। इससे उस पद के अंदर का दबा हुआ अर्थ बाहर निकल आता है । उसी प्रकार हमें लगता है कि वामपंथ के इन अपने में फंसे हुए सिद्धांतकारों को अपने अंदर की फांसों से मुक्त कराने की जरूरत है । इन्हें संसदीय जनतंत्र की परिस्थितियों से जुड़ी पूरी विचार श्रृंखला से जोड़ने की जरूरत है ।

अन्यथा, ये इसी प्रकार हमारे देश में अंध-कांग्रेस-विरोध की फांस में फंस कर भगवा-अंधता के रोग से कभी मुक्त नहीं हो पायेंगे और फासीवाद के रास्ते को साफ करने के सबब बनते रहेंगे । खुद तो विक्षिप्त होकर खत्म होंगे ही ।

https://thewire.in/politics/congress-phobia-in-kerala-is-making-prakash-karat-saffron-blind

शनिवार, 29 सितंबर 2018

प्रभुत्व’ पद की जड़ समझ से उत्पन्न एक ऊबाऊ सैद्धांतिक बकवास

-अरुण माहेश्वरी

अंतोनियो ग्राम्शी का दिया हुआ वामपंथी विचारधारात्मक विमर्श में सबसे अधिक दुरुपयुक्त पद है - ‘प्रभुत्व’ hegemony 

यह किसी भी वक्त के पूरे सामाजिक जीवन पर किसी एक खास विश्व दृष्टि के पूर्ण वर्चस्व की स्थिति का द्योतक है इसमें किसी भिन्न विश्व दृष्टि के वर्चस्व की परिस्थिति की द्वंद्वात्मकता में एक नयी विश्व दृष्टि के प्रभुत्व के उदय को समाज के क्रांतिकारी रूपांतरण की प्रक्रिया के रूप में व्याख्यायित किया जाता है अर्थात एक ही काल में दो विरोधी विश्व दृष्टियों के बीच वर्चस्व का द्वंद्व जारी रहता है  

लेकिन गौर करने की बात यह है कि इस द्वंद्वमूलक प्रक्रिया में दो सर्वथा भिन्न और विरोधी विश्व दृष्टियों की भूमिका होती है कि समान विश्वदृष्टियों के अलग-अलग समूहों की परस्पर अन्तरक्रियाओं की प्रभुत्व के लिये संघर्षशील विश्व दृष्टियां अपने साथ जीवन के तमाम पक्षों को अपने प्रकार से ढालती जाती है  

यही वजह है कि एक ही विश्व दृष्टि के अपने दायरे में प्रतिद्वंद्वितामूलक शक्तियों की भूमिका को ऐसी प्रभुत्वशाली शक्ति या समूह के रूप में व्याख्यायित नहीं किया जा सकता है जो अपने साथ सभी सामाजिक मूल्यों को भी रूपांतरित करती है  

ऐसे में भारत के संसदीय जनतंत्र में प्रतिद्वंद्विता कर रही कांग्रेस और भाजपा को या तो आप एक ही विश्वदृष्टि के अलग-अलग प्रभुत्वकारी समूह नहीं बता सकते हैं या आपको दोनों के विश्वदृष्टिकोण में मूलभत अलगाव के तत्वों को पहचान कर उन्हें दो अलग-अलग विश्वदृष्टि वाले प्रभुत्वकारी समूहों के रूप में स्वीकारना होगा  

कांग्रेस और भाजपा में कोई फर्क नहीं है लेकिन दोनों दो अलग-अलग वर्चस्वकारी समूह (hegemonic blocks) है - इस प्रकार की बात में तत्वत: दोष है दोनों की विश्व दृष्टि अगर आप एक ही मानते हैं तो उनके अलग-अलग वर्चस्व का सामाजिक स्वरूप तो एक ही होगा ऐसे में उन्हें अलग-अलग hegemonic block क्यों कहा जाएगा ! जब आप ऐसी किसी गलत समझ की चपेट में रहेंगे तो इस मूलभूत तात्विक दोष के कारण ही भारतीय राजनीति की आपकी पूरी समझ पटरी से उतर जायेगी , जैसे कि अचिन विनायक की समझ उतर गई है तब समसामयिक संसदीय राजनीति में सक्रिय प्रतिद्वंद्वितामूलक शक्तियों में कभी कोई विभेद मुमकिन नहीं होगा, जैसा कि संकीर्णतावादीक्रांतिकारीअक्सर सभी दक्षिणपंथी, वामपंथी और मध्यपंथी दलों कोसंसदवादी दलकी एक ही कूची से रंग कर पेश किया करते हैं इससे सिवाय एक विभ्रम के और कुछ हासिल नहीं होता और हम समकालीन राजनीति के प्रत्यक्ष यथार्थ से ही इंकार करके उसके अंदर के द्वंद्वात्मक स्वरूप को पकड़ने के दरवाजे को ही बंद कर देते है यह विभ्रम तब और भी हास्यास्पद हो जीता है जब कोई इन्हींसंसदीय दलोंको तथाकथित अलग-अलग वर्चस्वकारी समूह ( hegemonic blocks) बताने लगता है  

न्यू लेफ्ट रिव्यूकेजुलाई-अगस्त 2018’के ताजा अंक में अचिन वनायक का लंबा लेखभारत की दो वर्चस्वशाली ताकतें’ (India’s two hegemonies) इसी हास्यास्पद सैद्धांतिक कसरत का एक उदाहरण है उनका अंध कांग्रेस-विरोध उन्हें कांग्रेस दल को भाजपा से किसी मायने में अलग नहीं देखने देता है, लेकिन फिर भी वे कांग्रेस और भाजपा के उदय-अस्त की कहानी को दो अलग-अलग वर्चस्वकारी समूहों की टकराहट की कहानी किस आधार पर बताते हैं, इसे वे ही समझ सकते हैं इसीलिये उन्हें भारतीय राजनीति के अपने इतने दीर्घ विश्लेषणात्मक आख्यान में भारत के राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन से जुड़े मूल्य दिखाई देते हैं और आरएसएस का सांप्रदायिक फासीवाद ऐसे में गरीब और उत्पीड़ित जनों के संघर्ष का उनका परिप्रेक्ष्य भी राजनीति-शून्य हो जाता है इन्हीं दोषों के कारण कुल मिला कर पूरा लेख भाजपा की अपराजेयता की एक मनगढ़ंत कहानी रचता है जिसमें यदि 2019 में मोदी पराजित होता है तो वह भी उनकी नजर में एक अवसरवादी लेकिन फिर भी भिन्नप्रभुत्वशालीसमूह की ही जीत होगी  


वामपंथी खेमे के एक हिस्से की समझ में इस प्रकार के तात्विक दोष अक्सर नाना कार्यनीतिक सवालों पर वामपंथ को भ्रमित करते दिखाई देते हैं अचिन वनायक के बोध में ही यह मूलभूत सत्य नहीं है कि आखिरकार भारत में यह वर्चस्व की पूरी लड़ाई भारत के संविधान पर आधारित संसदीय जनतंत्र के ढांचे के अन्तर्गत लड़ी जा रही है इसे इस संसदीय जनतंत्र का शील, इस भुवन की अपनी संहिताएं भी संचालित करती है ऐसे में भाजपा की तरह की सांप्रदायिक फासीवादी शक्ति की अपराजेयता या चुनौती-विहीन वर्चस्व का कोई आख्यान तब तक नहीं लिखा जा सकता है जब तक इस उदार जनतांत्रिक संविधान पर टिके संसदीय जनतांत्रिक भुवन को पूरी तरह से ढहा नहीं दिया जाता है इसके लिये सचमुच हिटलर जैसे की विश्व विजय की वैश्विकता की तरह की परिस्थितियों की जरूरत होगी अचिन वनायक किसी भी विषय की गति के साथ जुड़ी उसकी वैश्विकता के पहलू से तो पूरी तरह से अनभिज्ञ है और भारत में फासीवाद की अपराजेय स्थिति की कहानी कह रहे हैं !