शुक्रवार, 16 जनवरी 2015

‘हम सब शार्ली एब्दो है’



अरुण माहेश्वरी
ग्यारह जनवरी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा के लिये पेरिस मार्च को देखकर फैज की इस पूरी नज्म को दोहराने का दिल करता है :
"बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल ज़बाँ अब तक तेरी है
तेरा सुतवाँ जिस्म है तेरा
बोल कि जाँ अब तक् तेरी है
देख के आहंगर की दुकाँ में
तुंद हैं शोले सुर्ख़ है आहन
खुलने लगे क़ुफ़्फ़लों के दहाने
फैला हर एक ज़न्जीर का दामन
बोल ये थोड़ा वक़्त बहोत है
जिस्म-ओ-ज़बाँ की मौत से पहले
बोल कि सच ज़िंदा है अब तक
बोल जो कुछ कहने है कह ले "

पेरिस में जो हुआ वह दूसरे किसी भी सच से कहीं बड़ा सच है । मनुष्यता का शाश्वत सच । तीन दिन पहले दो जनूनी हत्यारों ने दस श्रेष्ठ कार्टूनिस्टों को भुन डाला था । सोचा था कि इस प्रकार उन्होंने विरोध की आवाज़ को सदा के लिये कुचल डाला है । लेकिन 11 जनवरी को पेरिस की सड़कोंपर दुनिया के चालीस देशों के प्रमुख नेताओं के नेतृत्व में लाखों की संख्या में लोगों ने उतर कर सिर्फ एक घोषणा की - अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर आँच नहीं आने देंगे । ख़बरों के अनुसार इस प्रदर्शन में शामिल होने वाले लोगों की संख्या तक़रीबन बीस लाख थी । इस प्रदर्शन का नेतृत्व किया फ़्रांस के राष्ट्रपति फ्रांसवा ओलोंद ने । ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन, इटली के प्रधानमंत्री मैटियो रेंजी, यूक्रेन के राष्ट्रपति पेत्रो पोरशेंको, जार्डन के किंग अब्दुल्ला, बराक ओबामा के प्रतिनिधि अटार्नी जनरल एरिक होल्डर, इज़राइल के प्रधानमंत्री नेतान्याहू, जर्मनी के चांसलर एंजेला मर्केल, माली के राष्ट्रपति इब्राहिम कीटा, फ़िलिस्तीन के राष्ट्र प्रधान आदि इस मार्च की पहली पंक्ति में शामिल थे । यह अभिव्यक्ति की आज़ादी के प्रश्न पर मानव एकजुटता की एक प्रेरणादायी शानदार मिसाल है । इसमें दुनिया के सभी धर्म, भाषा, जाति और क्षेत्र के लोग शामिल थे । अपनी इस आज़ादी की रक्षा के लिये पेरिस की सड़कों पर उतरे लोगों की आँखे दृढ़संकल्प और आत्म-विश्वास से छलछला रही थी ।

पता नहीं क्यों, हम उन लोगों के साथ अपने को जरा भी नहीं जोड़ पारहे है जिन्हें शार्ली एब्दो हत्याकांड के प्रतिवाद में हुए सभी राष्ट्रों के ऐतिहासिक प्रदर्शन में शामिल राजनेताओं की इस सहभागिता में उनका मिथ्याचार दिखाई देता है। हम सिर्फ उस हत्याकांड के प्रतिवाद-प्रतिवाद और प्रतिवाद तक ही सीमित रहना चाहते हैं। इस हत्याकांड के प्रतिवाद में दुनिया के किसी भी अंधेरे या उजले कोने से जो भी आवाज उठे, हम उसके स्वागत के अलावा दूसरी कोई बात सोच ही नहीं पा रहे हैं।
जो लोग यह मांग कर रहे हैं कि ये नेता क्यों नहीं नाईजीरिया के बोकोहरम में गये, या इराक के बच्चों के आंसू पोंछने या श्रीलंका के तमिल विस्थापितों के जख्म भरने गये, क्यों नही असम में आदिवासियों की हत्या के खिलाफ उन्होंने आवाज उठायी वगैरह-वगैरह - हमें उनकी ये बातें जरा भी नहीं छू रही हैं। उल्टे मन में उपहास का यह भाव पैदा होता है कि तब तो सभी राष्ट्राध्यक्षों का काम देश-देश में घूम कर तमाम प्रकार के जुल्मों के खिलाफ प्रदर्शन में शामिल होना ही रह जायेगा !
दरअसल, पेरिस प्रदर्शन एक ठोस, चाक्षुस और लाखों लोगों का प्रत्यक्ष ऐतिहासिक प्रदर्शन था, कोई कल्पना नहीं। दो आतंकवादियों ने दस श्रेष्ठ कार्टूनिस्टों को मार डाला, क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि ये कार्टूनिस्ट जिस प्रकार के कार्टून बनाते थे, वैसे कार्टून बनायें। दुनिया के एक सबसे विकसित राष्ट्र में इस प्रकार के जघन्य हत्याकांड से सारी दुनिया सन्न रह गयी, विश्व भर में लोगों में आक्रोश की लहर दौड़ गयी। पेरिस प्रदर्शन दुनिया के उसी गुस्से का इजहार था। यह जेहाद के नाम पर चल रही मध्ययुगीन राजनीति और गुंडागर्दी के खिलाफ जमा हो रहे व्यापक जन-असंतोष का एक विस्फोट है ।
सवाल है कि क्या दुनिया के लोगों की आगे की दिशा में एक ऐसी सजीव, सक्रिय कार्रवाई को हम महज किसी विचार या सोच में बदल कर उसपर कोई प्रतिक्रिया दे सकते हैं। हम जो यह समझते आए है कि आदमी की मुक्ति एक ऐतिहासिक क्रिया है, मानसिक क्रिया नहीं, वे मनुष्यों की ऐसी व्यवहारिक कार्रवाई को कैसे कल्पना में एक शुद्ध सिद्धांतों की लड़ाई में तब्दील करके उसमें विचारधारात्मक संघर्ष के सूत्र खोजने लगते हैं !
सचमुच, हमें ऐसी बातें कोरी भ्रांतियां लगती है। भ्रांतियां कल्पना से पैदा नहीं होती। उनका भी अपना कोई न कोई ठोस आधार होता है। जब हम अपने प्रत्यक्ष की किसी वस्तु में कोई दूसरी चीज देखने लगते हैं तब निश्चित तौर पर उस दूसरी वस्तु का, भले ही वह वहां न हो, कहीं न कहीं अस्तित्व जरूर होता है। जिन नेताओं ने इस प्रदर्शन में भाग लिया, उनकी अन्यत्र कुछ दूसरी भूमिका हमने देखी है, इसीलिये इस प्रदर्शन में भी हम सिर्फ वही देख रहे हैं। अर्थात जो प्रत्यक्ष है, उसे यथार्थ न मान कर अपने पूर्व ज्ञान और अनुभव को ही यथार्थ मान हम उसे प्रत्यक्ष पर आरोपित करते हैं। जो चीज चेतना या स्मृति में है उसमें और प्रत्यक्ष दिखाई दे रही वस्तु में कोई फर्क न कर पाना ही तो तमाम भ्रांतियों के मूल में होता है।
इसके अलावा, हम हमेशा यह मानते हैं कि राजनीति का अधिक से अधिक सरोकार प्रत्यक्ष से हैं। राजनीति कभी किसी प्रकार की ब्रह्म-चर्चा का रूप नहीं ले सकती। मार्क्स जब कहते हैं कि मनुष्य अपना इतिहास खुद बनाता है लेकिन मनमाने ढंग से नहीं, तो इससे भी उनका तात्पर्य यही था कि जो सच व्यवहारिक और प्रत्यक्ष रूप से सामने हैं, उसकी अवहेलना करके कोई ऐंतिहासिक काम नहीं किया जा सकता है।
इतिहास निर्जीव तथ्यों का संग्रहालय नहीं होता, न ही कोरी कल्पना। यह सक्रिय जीवन प्रक्रिया का वर्णन होता है। पेरिस प्रदर्शन अभिव्यक्ति की आजादी पर हुए हमले का एक सक्रिय प्रतिवाद का मामला है। इसके साथ जुड़ने मतलब ही है, वास्तविक ऐतिहासिक प्रक्रिया से जुड़ना और कई मायनों में इतिहास को निर्जीव तथ्यों के संग्रह से मुक्त करना। जो सक्रिय मनुष्य की कार्रवाइयों की धड़कनों को महसूस नहीं करते, परिस्थितियों के संयोग से पैदा होने वाले ऐतिहासिक क्षणों की आहट नहीं सुन पाते, वे दरअसल कुछ अजीबोगरीब, अपने बंद कमरों में कैद लोग है। अपने खुद के शास्त्रों और परंपराओं के बंदी ये लोग तभी कुछ हलचलों में आते हैं जब उन्हें अपने किसी शास्त्रोक्त कर्मकांड का पालन करना होता है। अन्यथा, जीवन के दूसरे सारे कार्य-व्यापार उनके लिये वृथा होते हैं। मठों-मंदिरों के अंदर के जीवन को देख लीजिये, आपको सारी बात समझ में आजायेगी।
पेरिस प्रदर्शन के प्रति कुछ खास प्रकार की सनक भरी नकारात्मक प्रतिक्रियाओं में हमें ऐसी ही, वास्तविक ऐतिहासिक जीवनी शक्ति गवां रही, अप्रासंगिक हो रही राजनीति की झलक मिलती है। इसीलिये हम उसके साथ जरा सा भी नहीं जुड़ पाते हैं।

फ्रांस में जो हुआ वह दुनिया के किसी भी कोने में कभी भी हो सकता है। भारत में आज जिस प्रकार धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र आदि के नाम पर संगठित रूप से तमाम असहिष्णुताएं पैदा की जा रही है, उसमें ऐसी घटनाएं तो जैसे हमारी नियति जान पड़ती है।
इन हालात में लेखकों, संस्कृतिकर्मियों के एक ऐसे व्यापक मंच की जरूरत है जिसका एक और अकेला मुद्दा होगा - अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा; नि:शर्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला समाज में अन्य सभी स्वतंत्रताओं को एक कोरा भ्रम बना देता है। स्वतंत्रता का एक रूप ठीक वैसे ही दूसरे को शासित करता है जैसे शरीर का एक अंग दूसरे को करता है। जब भी किसी एक स्वतंत्रता पर प्रश्न उठाया जाता है तो स्वतंत्रता के सामान्य रूप पर प्रश्न उठा दिया जाता है। जब स्वतंत्रता के एक रूप को खारिज किया जाता है तो सामान्य तौर पर स्वतंत्रता को ही खारिज कर दिया जाता है।
घोषित रूप से इस मंच की कोई राजनीतिक संबद्धता नहीं हों। यह सरकारी-गैर-सरकारी, सत्तापक्ष और विरोधपक्ष - किसी भी कोने से लेखकों, कलाकारों की अभिव्यक्ति की आजादी पर होने वाले हमलों का विरोध और प्रतिरोध करने के लिये प्रतिबद्ध रहें। इसके अलावा इसकी दूसरी कोई प्रतिश्रुति नहीं हो ।





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