शुक्रवार, 16 जनवरी 2015

अशोक वाजपेयी की 74वीं सालगिरह के मौके पर :


अशोक जी की ‘साहित्य की नागरिकता’ पर सोचते हुए :
अरुण माहेश्वरी
एक ओर है वैश्वीकरण। दुनिया को एक ही ढांचे में ढालने की जिद। एक से शहर, एक से गांव, खान-पान-पहनावा, जीवन का ऊपरी रूप सर्वत्र एक सा। और अंदर - एक सी विषमता, एक सी लाचारी, एक सा ही आतंक। सारी दुनिया पर एक सर्वशक्तिमान ईश्वर का राज्य। ‘विश्व ग्राम’ और सर्वमान्य, सर्वपूज्य, गांव का सामंत अमेरिका - अकेला पंच। संयुक्त परिवार का एक कर्ता और बाकी सब भर्ता। सारे संसाधनों पर उसकी मिल्कियत, सारी खोजों पर उसका कॉपीराइट। हरीश भादानी के एक संकलन का शीर्षक है - ‘एक अकेला सूरज खेले’। सबको रोशनी और अंधेरा बांटने वाला। फुकुयामा जैसे कुछ की नजरों में - ‘सबका राजा राम’। अर्थात ‘रामराज्य’। सभ्यता का अंतिम पायदान। अब सबको और कुछ नहीं करना है सिवाय इसके कि - ‘राम का गुनगान करिये, सभ्यता का मान करिये’।
और दूसरी ओर है, आदमी-आदमी की असंख्य स्वायत्त-स्वतंत्र नागरिकताओं का गान। राष्ट्र की नागरिकता, धर्म की नागरिकता, जाति की नागरिकता, राजनीति की नागरिकता, अर्थशास्त्र की नागरिकता, साहित्य की नागरिकता, संस्कृति की नागरिकता, पर्यावरण की नागरिकता, नारीवाद की नागरिकता, दलितवाद की नागरिकता, बस्ती, मोहल्ला और कुटुंब से लेकर अकेले आदमी तक की नागरिकता। कुल मिला कर ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’, कहीं भी धूनी रमा कर, आसन बिछा कर बैठ जाओ। नागरिकता न हो जैसे आत्मलीनता (ऑटिज्म) का ही एक और नया नाम हो! आधा-अधूरा, लुंज-पुंज जीवन - चमकदार पैकेजिंग में!
अमेरिकी प्रभुत्व का विश्वग्राम और ‘आत्मलीन’ नागरिक। एक की मुट्ठी में सब कुछ और बाकी अपनी धुनों में लीन, जिनके पास समग्र बोल कर कुछ भी नहीं। कितने पूरक लगते हैं ये एक दूसरे के!
समानता, न्याय, स्वतंत्रता और भाईचारे पर टिका विश्व-समाज अगर कोरे वागाडम्बरों और लफ्फाजियों से तैयार नहीं होगा तो अपनी-अपनी नागरिकताओं से बंधे आत्मलीनों से भी कत्तई नहीं बनेगा। समकालीन सार्वजनिक जीवन के प्रश्नों और राजनीतिक संघर्षों के प्रति तटस्थता खुद को हेय बनाने के उपक्रम जैसा है। जीवन के तमाम पक्षों पर यथार्थमूलक और पैनी नजर की जरूरत है, अध्ययन और सजगता की जरूरत है, समग्रता की, एक समग्र विश्वदृष्टिकोण की जरूरत है। यह सब मनुष्यता की जरूरत है।
आज भी यह सोच कर रोमांच होता है कि सारी दुनिया को सोचने-विचारने का एक नया ढंग देने वाला कार्ल माक्‍र्स ‘पूंजी’ जैसी अमरकृति की रचना करने के बाद भी अपने जीवन के अंतिम दिनों में एक असंतुष्ट प्राणी ही था। वह इस अभिलाषा के साथ ही इस संसार से विदा हुआ था कि काश बाल्जाक के उपन्यासों पर वह अच्छी तरह से काम कर पाता!
कहने का तात्पर्य यही है कि बहुविध अध्ययन और सोच मनुष्य की एक प्रमुख जरूरत है। लेकिन विचार का यह संस्कार जहां विश्वविद्यालयों के आत्मलीन विभागों की कक्षाओं से पाना बिल्कुल असंभव है। वैसे ही, छोटी-छोटी नागरिकताओं के स्वायत्त संसारों के मुखियाओं के विचारों से भी मुमकिन नहीं है।
अशोक जी को उनकी 74वीं सालगिरह पर बधाई

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