अर्चना वर्मा जी ने अभी विज्ञान कांग्रेस को लेकर चल रही बातों के सिलसिले में अपनी वाल पर लिखा हैं - ‘‘दो बिल्कुल विपरीत अतिवादी सिरे हैँ अपने अतीत को लेकर। दोनो को ही अपनी अपनी तरह से भारत-व्याकुल कहा जा सकता है। एक भारत-मोह और महिमा-व्याकुल है तो दूसरा भारत-विद्वेष और निन्दा-व्याकुल। दोनो के बीच में एक बहुत क्षीण सा तीसरा सिरा है जो तथ्यों की छानबीन और यथार्थ की समझ के लिये उत्सुक दिखायी देता है। व्यक्तिगत रूप से मैँ इस क्षीण से तीसरे वाले सिरे को लेकर ज़्यादा उत्सुक रहती हूँ। अभी शायक आलोक के स्टेटस पर भी कुछ ऐसी ही उत्सुकता का आभास दिखा। अच्छा लगा। आगे इस बारे में समान चित्त लोगों से संवाद की संभावना तलाशना चाहती हूँ। वैज्ञानिक अनुशासनों के लोगों के साथ विशेषकर। फ़िलहाल एक जानकारी शेयर करना चाहती हूँ। गूगल पर टाइप करें - Five Thousand Year Old AirCraft In An Afghan Cave . नतीजे देखें । और बतायें इसके बारे में क्या ख़याल है “
हमारा उनसे कहना है कि अर्चना जी, क्या आप सचमुच यह मानती है कि यह सब जो चल रहा है, वह कुछ ऐसा नया है जिस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है ?1926 में जब से गीता प्रेस की ‘कल्याण’ पत्रिका निकलनी शुरू हुई तभी से इस प्रकार की सारी बकवासें निरंतर चल रही हैं, अर्थात हिंदी में इस प्रकार की बकवासों का लगभग 90 साल का तो एक लिखित इतिहास मौजूद है। इन कोरे अंधविश्वासों पर टिकी बातों की पहले ही काफी आलोचना की जा चुकी हैं और यह भी कहा जा सकता है कि, भले कल्पना में ही क्यों न हो, उन्हें उड़ाया भी जा चुका है। इसलिये आज जो सामने आरहा है उसमें अंतर्वस्तु की दृष्टि से नवीनता का लेश मात्र भी नहीं है। पहले से फर्क सिर्फ इतना है कि उन बेतुकी, पिटी-पिटाई बातों को अब भारी ढिठाई के साथ, और सरकारी मंचों से कहा जा रहा है। यह सचमुच एक युगांतकारी बात मानी जा सकती है। लेकिन यह सब, जिसे बांग्ला में ‘गायेर जोरे’ कहते हैं, अर्थात शुद्ध मांसपेशियों के बल पर किया जा रहा है। इस अभियान में अगर कुछ नया है तो बस यही है। पुरानी, पिटी-पिटाई बातों को कुछ इस प्रकार से, विज्ञान कांग्रेस जैसे मंचों से कहा जा रहा हैं मानो उन्होंने कोई नयी खोज की हो। वे सबको ललकारते हुए, विज्ञान की सबसे ‘पवित्र’ वैदिक-औपनिषदिक उपलब्धियों का दम भरते हुए, दरअसल आधुनिक विज्ञान की खिल्ली उड़ा रहे हैं। उनके इस काम के पीछे की ढीठाई, विज्ञान के प्रति उनका तिरस्कार, एक प्रकार का व्यंग्य सबको चौंका रहा है। और इसी ‘चकाचौंध’ में शायद वे अपनी जीत समझते हैं। आपसे अनुरोध है कि दया करके किसी भी विवेक के नाम पर इसप्रकार की उत्तेजक करतूतों पर गंभीरता से विचार करने की सलाह न दें। सचाई तो यह है कि विज्ञान की दुनिया में यह सब चर्चा के योग्य भी नहीं है। इन सनसनीखेज बातों की विज्ञान में उतनी ही भूमिका है जितनी ललित साहित्य में हो सकती हैं।
हमारा उनसे कहना है कि अर्चना जी, क्या आप सचमुच यह मानती है कि यह सब जो चल रहा है, वह कुछ ऐसा नया है जिस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है ?1926 में जब से गीता प्रेस की ‘कल्याण’ पत्रिका निकलनी शुरू हुई तभी से इस प्रकार की सारी बकवासें निरंतर चल रही हैं, अर्थात हिंदी में इस प्रकार की बकवासों का लगभग 90 साल का तो एक लिखित इतिहास मौजूद है। इन कोरे अंधविश्वासों पर टिकी बातों की पहले ही काफी आलोचना की जा चुकी हैं और यह भी कहा जा सकता है कि, भले कल्पना में ही क्यों न हो, उन्हें उड़ाया भी जा चुका है। इसलिये आज जो सामने आरहा है उसमें अंतर्वस्तु की दृष्टि से नवीनता का लेश मात्र भी नहीं है। पहले से फर्क सिर्फ इतना है कि उन बेतुकी, पिटी-पिटाई बातों को अब भारी ढिठाई के साथ, और सरकारी मंचों से कहा जा रहा है। यह सचमुच एक युगांतकारी बात मानी जा सकती है। लेकिन यह सब, जिसे बांग्ला में ‘गायेर जोरे’ कहते हैं, अर्थात शुद्ध मांसपेशियों के बल पर किया जा रहा है। इस अभियान में अगर कुछ नया है तो बस यही है। पुरानी, पिटी-पिटाई बातों को कुछ इस प्रकार से, विज्ञान कांग्रेस जैसे मंचों से कहा जा रहा हैं मानो उन्होंने कोई नयी खोज की हो। वे सबको ललकारते हुए, विज्ञान की सबसे ‘पवित्र’ वैदिक-औपनिषदिक उपलब्धियों का दम भरते हुए, दरअसल आधुनिक विज्ञान की खिल्ली उड़ा रहे हैं। उनके इस काम के पीछे की ढीठाई, विज्ञान के प्रति उनका तिरस्कार, एक प्रकार का व्यंग्य सबको चौंका रहा है। और इसी ‘चकाचौंध’ में शायद वे अपनी जीत समझते हैं। आपसे अनुरोध है कि दया करके किसी भी विवेक के नाम पर इसप्रकार की उत्तेजक करतूतों पर गंभीरता से विचार करने की सलाह न दें। सचाई तो यह है कि विज्ञान की दुनिया में यह सब चर्चा के योग्य भी नहीं है। इन सनसनीखेज बातों की विज्ञान में उतनी ही भूमिका है जितनी ललित साहित्य में हो सकती हैं।
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