आरएसएस और भाजपा ने देश के सम्मानित लेखकों और बुद्धिजीवियों के खिलाफ वस्तुत: एक युद्ध की घोषणा कर दी है । आज वित्तमंत्री अरुण जेटली का बयान इसका सबसे ताज़ा उदाहरण है । उनके पास लेखकों की पीड़ा को समझने की न्यूनतम संवेदना भी नहीं बची है । लिखने के वक़्त लेखक हमेशा एक अकेला प्राणी होता है । वह स्वच्छंद भाव से लिख सके इसके लिये ज़रूरी है कि वह किसी भी प्रकार के दंड और दमन के डर से मुक्त रहे । आतंक के साये में श्रेष्ठ साहित्य की रचना संभव नहीं है । इसीलिये किसी भी प्रकार का असहिष्णुता का माहौल लेखक को बुरी तरह उद्वेलित कर देता है ।
ऊपर से, अब तो संघ और भाजपा के प्रवक्ताओं ने प्रतिवाद की आवाज़ उठाने वालों पर व्यक्तिगत रूप में भी हमले करना शुरू कर दिया है । टेलिविज़न के चैनलों पर संघ प्रवक्ता राकेश सिन्हा जिस प्रकार ख़ास तौर पर उदय प्रकाश के खिलाफ झूठ के आधार पर आक्रमण कर रहे हैं, उससे इनकी मंशा और भी साफ हो जाती है । उन्होंने उदय प्रकाश को बदनाम करने के लिये उसी पुराने झूठ का सहारा लिया है, जिसका बहुत पहले ही खंडन हो चुका है । उन्होंने जान-बूझ कर योगी आदित्यनाथ द्वारा उदय प्रकाश को सम्मानित करने की बात को उछाला है ।
इस बारे में हम काफ़ी पहले ही जारी किये गये उदय प्रकाश के खंडन को यहाँ दोस्तों से फिर से शेयर करना चाहते है क्योंकि जब किसी झूठ को बार-बार दोहराया जाता है तो उसके प्रतिकार के लिये ही उसके खंडन को भी बार-बार दोहराने के अलावा दूसरा कोई चारा नहीं रह जाता है । उदय प्रकाश का खंडन इस प्रकार था -
''मेरे सगे फुफेरे भाई का नाम कुंवर नरेंद्र प्रताप सिंह था. वे संस्कृत के विद्वान थे और महंत दिग्विजय नाथ डिग्री कॉलेज, गोरखपुर, में पहले संस्कृत के प्राध्यापक और बाद में प्रिंसिपल बने. वे वी एच पी के थे और महंत अवैध्य नाथ और योगी आदित्य नाथ के बहुत करीबी थे.मेरा उनसे लगभग 32-35 वर्षों से कोई संपर्क नहीं था. हमारे परिवार और उनके बीच कोई वैचारिक सहमति भी भी नहीं थी. ना मेरे पिता के समय और ना मेरे समय. वे बड़े सामंत थे और उनका गाँव/स्टेट नौलखा के नाम से प्रसिद्ध था. उनका 60-70 के दशक में इलाहबाद के निकट फूलपुर constituency में आता था. जहाँ से विजयलक्ष्मी पंडित चुनाव लडती थीं. वे लोग कांग्रेस और विजयलक्ष्मी पंडित के विरोधी थे तथा स्वामी करपात्री और प्रभु दत्त ब्रह्मचारी के अनुयायी थे. लेकिन मेरे माता पिता उनके सगे मामा मामी थे.
इन्ही फुफेरे भाई की मृत्यु हुई और उनकी बरखी में पारिवारिक सम्बन्धियों के साथ मुझे मेरी भाभी, भतीजा, भतीजी ने आग्रहपूर्वक बुलाया. वह बिलकुल शुद्ध पारिवारिक कार्यक्रम था. गोरखपुर का सांसद होने के नाते तथा महंत दिग्विजय नाथ डिग्री कॉलेज की गवर्निंग बॉडी का चेयरमैन होने के नाते तथा इस परिवार के निकट होने के नाते वहां योगी आदित्यनाथ भी उपस्थित थे. उन्ही के हाथों मेरे भाई के परिवार के लोगों ने एक स्मृति चिन्ह मुझे दिलवाया.जो कि शीशे में जड़ा मेरे भाई का चित्र था. जो कि अब भी मेरे पास है. वह कोई पुरस्कार नहीं एक स्मृति सम्मान था. वह भी अपने भाई का. वह ‘पुरस्कार’ नहीं था, वहां शाल और श्रीफल की कोइ गुंजायश नहीं थी क्योंकि वह बरखी (पुण्यतिथि/ डेथ एनिवर्सरी) थी. मैंने सोचा भी नहीं था कि इस नितांत पारिवारिक आयोजन का कोइ राजनीतिक अर्थ निकालकर विवाद पैदा किया जाएगा. लेकिन यह किया गया. मैंने इसका खंडन किया. तथ्य सामने रक्खे. सच्चाई बतलाई. लेकिन विडंबना यह है कि अपने आपको वामपंथी/क्रांतिकारी लेखक कहने वाले और दूसरी तरफ आर एस एस के नेता दोनों एक हैं ।''
क्या उदय प्रकाश के इस स्पष्ट बयान के बाद भी इस विषय में कहने के लिये कुछ शेष रह जाता है ?
15 अक्तूबर 2015
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें