शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2015

असहिष्णुता और उन्माद का वातावरण लेखन को असंभव बनाने वाला वातावरण है


अरुण माहेश्वरी

(17 अक्तूबर 2015 के राष्ट्रीय सहारा के 'हस्तक्षेप' में प्रकाशित हमारी टिप्पणी)

भारत भर में लेखक समुदाय ने सरकारी सम्मानों को लौटा कर अपने प्रतिवाद का एक अनूठा अभियान शुरू किया है । इस मामले में हिंदी के लेखकों ने पहल की है । उनके साथ ही अब दूसरी भाषाओं के लेखक भी इस अभियान में शामिल हो रहे हैं । ख़ास तौर पर कन्नड़ भाषा के लेखक बड़े रूप में इसमें शामिल हुए हैं । कश्मीर के और उर्दू तथा पंजाबी भाषा के भी लेखकों ने इसी बीच साहित्य अकादमी के सम्मान को लौटाया है । पद्मश्री की तरह के सम्मानों को भी वापस करने का सिलसिला शुरू हो गया है । अपने आप में यह कोई साधारण बात नहीं है ।
भाजपा के नेताओं में मामूली संवेदनशीलता भी नहीं है कि वे लेखकों के इस स्वत:स्फूर्त प्रतिवाद के मर्म को जानने की कोशिश करें । वे पूरी उद्दंडता से लेखकों की इस मुहिम को राजनीतिक रंग देने में लगे हुए हैं । वे समझते हैं कि चूँकि लेखकों का बड़ा समुदाय शुरू से मोदी का विरोधी रहा है, इसीलिये वे आज मोदी सरकार के खिलाफ अभियान में उतरे गये हैं ।

इसमें कोई शक नहीं है कि देश के लेखकों और बुद्धिजीवियों का बड़ा हिस्सा सत्ता पर नरेंद्र मोदी की तरह के एक व्यक्ति के बैठने से बुरी तरह सशंकित था । ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त कन्नड़ के यू आर अनंतमूर्ति ने पिछली लोक सभा चुनाव के वक़्त साफ कहा था कि यदि नरेन्द्र मोदी देश का प्रधानमंत्री बनता है तो वे इस देश को छोड़ देंगे । इसकी वजह थी 2002 के गुज़रात के जन-संहार में उनकी भूमिका और बाद में भी गुजरात में न्याय-व्यवस्था को पूरी तरह से ख़त्म करके गुजरात में झूठ और फ़रेब पर टिके एक नग्न तानाशाही शासन की स्थापना । ऐसा दमनमूलक और दमघोंटू वातावरण लेखक की अभिव्यक्ति की आज़ादी पर एक सीधा हमला हैं जिसमें कोई भी सच्चा लेखक अपनी लेखनी के साथ ज़िंदा नहीं रह सकता है । इसीलिये अनंतमूर्ति ने तमाम लेखकों के अंदर के डर को अभिव्यक्ति देते हुए तब देश छोड़ देने की तरह की एक चरम बात भी कही थी ।

अनंतमूर्ति का यह डर ज़रा भी निराधार नहीं था । दुनिया के अनुभव इस बात के गवाह हैं कि जब भी किसी देश की सत्ता पर कोई फ़ासिस्ट सरकार आई है, वह सरकार लेखकों के लिये ही नहीं, लेखन मात्र के लिये भयावह रूप में घातक साबित हुई है । हिटलर के जर्मनी से अनेक अन्तरराष्ट्रीय ख्याति के लेखक, कलाकार जर्मनी छोड़ कर चले गये थे । इनमें थॉमस मान, एरिक मारिया रिमार्क जैसे लेखक भी शामिल थें । ३० जनवरी १९३३ के दिन हिटलर सत्ता पर आया और छ: महीने के अंदर उसने अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमले शुरू कर दिये । हालत यह हो गई कि १९३९ तक लगभग २५०० लेखक जर्मनी छोड़ कर चले गये थे । १० मई १९३३ के दिन जर्मनी में बाक़ायदा पुस्तकों की होली जलायी गई थी । जिन किताबों को जलाया गया उनमें थामस मान, एरिक मारिया रिमार्क, अल्बर्ट आइंस्टाइन की किताबों के साथ ही ग़ैर- जर्मन लेखक एमिल जोला, एच जी वेल्स की तरह के लेखकों की किताबें भी थी । उस समय हिटलर के प्रचार मंत्री गोयेबल्स ने बर्लिन विश्वविद्यालय में उन जलती हुई पुस्तकों के सामने भाषण देते हुए कहा था कि ये लपटें न सिर्फ पुराने युग के अंत को दर्शाती है बल्कि नये युग को प्रकाशित करेगी । इस घटना के बाद ही बर्तोल्त ब्रेख्त भी जर्मनी छोड़ कर चले गये । हिटलर ने अपने समय में बिल्कुल घटिया दर्जे के लेखकों को बढ़ावा दिया । हिटलर के शासन का गुणगान करने वाले लेखकों को थोक के भाव पुरस्कृत भी किया, जिन लेखकों का बाद में कोई नामलेवा भी नहीं था । हिटलर की आत्म जीवनी 'माईन कैम्फ', जो एक बहुत ही अपठनीय और बोर किताब थी, उसे उन दिनों साहित्य के श्रेष्ठतम मानदंड के रूप में पेश किया जाता था । यह तथ्य है कि ग्यारह साल के हिटलर के जर्मनी में एक भी ऐसी रचना नहीं लिखी गई जो साहित्य के मानदंड पर उल्लेखनीय रही हो । हिटलर के पूरे काल को जर्मनी में साहित्य के चरम अकाल का काल माना जाता है ।

बहुत दूर जाने की ज़रूरत नहीं है । पड़ौस के पाकिस्तान में बड़े-बड़े लेखकों को सालों तक निर्वासित जीवन जीने के लिये मजबूर होना पड़ा हैं । आज भी पाकिस्तान श्रेष्ठ साहित्य की रचना के लिये बंजर भूमि बना हुआ है । पूरब में बांग्लादेश की तसलीमा नसरीन अपने देश के बाहर दर-दर भटक रही है । वहाँ आज खुल कर ब्लाग लेखन भी असंभव होता जा रहा है ।

इसीलिये हिटलर के पद-चिन्हों पर चलने वाले मोदी के शासन को लेकर अनंतमूर्ति बिल्कुल सही चिंतित थे और उन्होंने अपने डर को बेबाक़ ढंग से व्यक्त भी किया था ।
लेकिन इसके विपरीत भाजपा वालों ने क्या किया ? देश के एक इतने बड़े लेखक की चिंता को समझने की मामूली सी भी कोशिश करने के बजाय उन्होंने अनंतमूर्ति को पाकिस्तान जाने का टिकट भेज दिया । एक कार्यक्रम में उन पर पत्थर भी फेंके गये ।

मोदी के जीत कर अाने के बाद, अनंतमूर्ति ने जिस बात की आशंका ज़ाहिर की थी, भाजपा और आरएसएस के लोगों की तमाम करतूतों ने उसे अक्षरश: सही साबित करना शुरू कर दिया । अब तो ऐसा लगता है कि आरएसएस ने सनातन संस्थान की तरह के अपने हत्यारे दस्ते तैयार कर लिये हैं जिन्हें विवेकशील लेखकों और संस्कृतिकर्मियों की हत्याओं का, उन्हें डराने-धमकाने का दायित्व सौंपा गया है । इन्होंने पहले नरेंद्र डाभोलकर की हत्या की, फिर गोविंद पानसारे की और बाद में साहित्य अकादमी का सम्मान प्राप्त लेखक एम एम कलबुर्गी को मरवा दिया । और सबसे बड़ी चिंता की बात है कि इन हत्याकांडों के एक भी अपराधी को आज तक पकड़ा नहीं गया । यह उसी प्रकार है जैसे मालेगांव और समझौता एक्सप्रेस बम विस्फोट से जुड़े संघ परिवार के लोगों को, और गुजरात के जनसंहार में शामिल बाबू बजरंगी, माया कोडनानी आदि को जेल से छुड़वाने में केंद्र सरकार सबसे ज़्यादा सक्रिय दिखाई दे रही है, अपराधियों को दंडित करने के मामले में नहीं । आरएसएस के ही एक सनकी व्यक्ति दीनानाथ बत्रा ने पेंग्यून जैसी प्रकाशन संस्था को धमका कर वेंडी डोनिगर की किताब ' हिन्दूज : ऐन अल्टरनेटिव हिस्ट्री' की लुब्दी बनवा दी ।

लेखकों को सीधे हमलों का निशाना बनाने के साथ ही इस सरकार के काल में कभी लव जिहाद तो कभी गोमांस आदि की तरह के मुद्दों पर जिस प्रकार का सामाजिक उन्माद पैदा किया जा रहा है, वह किसी भी लेखक में गहरे तक ख़ौफ़ पैदा करने के लिये काफ़ी है । इसमें भी ग़ौर करने की बात है कि संघ परिवार के ऐसे सारे उत्तेजक अभियान सबसे अधिक हिंदी क्षेत्रों में चलाये जा रहे हैं । पिछले चुनाव के वक़्त ही सोशल मीडिया पर हिंदी के लेखकों और बुद्धिजीवियों के खिलाफ संगठित रूप से जिस प्रकार की गाली-गलौज का भाषा का प्रयोग किया जाता रहा, इसने भी हिंदी के लेखकों में सबसे अधिक ख़ौफ़ की अनुभूति पैदा की है । हाल में दिल्ली से लगे हुए दादरी में सिर्फ अफवाह के बल पर एक गरीब मुसलमान को भीड़ के ज़रिये मरवा दिया गया । उसके बाद तो किसी भी विवेकवान व्यक्ति का दहल जाना लाज़िमी है । लेखक जो अकसर अकेला होता है और स्वतंत्र भाव से लिखता है, उसके लिये तो यह एक असंभव सी परिस्थिति है ।

यही वजह रही कि जब कलबुर्गी की हत्या के बाद साहित्य अकादमी की तरह की संस्था ने, जिसने कलबुर्गी को सम्मानित किया था, हत्यारों की कड़ी भर्त्सना करते हुए एक शब्द नहीं कहा और न ही हत्यारों को पकड़ कर सज़ा देने की माँग की, तब सबसे पहले हिंदी के कथाकार उदय प्रकाश ने साहित्य अकादमी के सम्मान को यह कह कर लौटा दिया कि इस सम्मान का क्या मूल्य है जब इसे देने वाली संस्था उन्हीं तत्वों के हाथ का खिलौना बन गई है जो इस देश में लेखन मात्र को एक असंभव काम बना दे रहे हैं ।

उदय प्रकाश के इस फैसले ने जैसे पहले से घुटन महसूस कर रहे और भी सम्मानित लेखकों की भावनाओं को वाणी दे दी । और, इसके बाद सम्मानों को ठुकराने का जो सिलसिला शुरू हुआ है, आज उसकी अनुगूँज अन्तरराष्ट्रीय पैमाने पर सुनाई देने लगी है ।

मजे की बात यह है कि लेखकों के इस इतने बड़े प्रतिवाद के बावजूद भाजपा के लोगों की संवेदनहीनता अभी चरम पर है । वे लेखकों की चिंताओं को कहीं से भी समझ नहीं पा रहे हैं और पूरे मसले पर उसी प्रकार चल रहे हैं जैसे वे राजनीति के अखाड़े में चला करते हैं । आज की सभ्य दुनिया में शायद यह अकेली मोदी सरकार है जिसने अपने देश के लेखकों और कलाकारों के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी है ।

हिटलर कहा करता था तर्क, विवेक, संस्कृति या सच नहीं, सिर्फ हमारा घूँसा बोलेगा। आज भारत की मोदी सरकार के प्रवक्ता लगभग उसी भाषा में बोल रहे हैं । वे लेखकों को दिये जाने वाले सम्मानों को उनका अर्जित अधिकार नहीं, बल्कि सरकारी अनुदान समझते हैं । इसीलिये वे इस प्रकार की शर्मनाक दलील देने से भी बाज़ नहीं आते कि जो लेखक पुरस्कारों को लौटा रहे हैं उन्हें कांग्रेस सरकारों ने पुरस्कृत किया था ।

प्रधानमंत्री यह सफ़ाई दे रहे है कि दादरी में जो हुआ उसके लिये केंद्र सरकार कैसे ज़िम्मेदार है ? उनके दिमाग़ में एक क्षण के लिये भी यह सवाल क्यों नहीं आता कि गोमांस आदि की तरह के तमाम मुद्दों को लेकर जो जन-उन्माद पैदा किया जा रहा है उसके लिये क्या उनकी और आरएसएस की राजनीति ज़िम्मेदार नहीं है ? न उनके पास इस सवाल का कोई जवाब है कि उनके जैसा हर छोटी-बड़ी बात पर बयान देने वाला आदमी दादरी की तरह की पाशविक हत्या पर इतने दिनों तक चुप्पी क्यों साधे रहा ?

ज़ाहिर है कि ऐसा एक ज़हरीला, उन्मादपूर्ण वातावरण लेखन के लिये सर्वथा प्रतिकूल वातावरण है । इसीलिये लेखकों ने सरकारी सम्मानों और ख़िताबों को लौटाने का निर्णय लिया है क्योंकि जब वे लिख ही नहीं पायेंगे तो इन सम्मानों को रख कर क्या करें

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