19 अक्टूबर 2015 को शायक आलोक की वाल पर एक पोस्ट पर टिप्पणी करते हुए एक प्रवाह में हमने कई बातें लिख दीं । हमारी टिप्पणी लंबी हो गई थी , फिर भी वापस देखने पर लगा कि इसमें कुछ ऐसी बातें आगई हैं, जिन्हें अपने सभी मित्रों से साझा करना अनुचित नहीं होगा । इसीलिये हम उसे यहाँ दे रहे हैं -
Shayak Alok जी, भारत में लेखकों द्वारा अकादमी के सम्मानों को लौटाने का यह जो सिलसिला चला है, इसकी सारी दुनिया में आज तक दूसरी कोई नज़ीर नहीं मिलती है । उदय प्रकाश का अकेले का निर्णय इन थोड़े से दिनों में ही अकल्पनीय सामूहिक आंदोलन का रूप ले चुका है । इसकी प्रतिध्वनि सिर्फ हिंदी में नहीं, लगभग सभी भारतीय भाषाओं में सुनाई देने लगी है । अब आगे यह और क्या-क्या रूप लेगा, इस पर निश्चय के साथ कुछ भी कहना मुमकिन नहीं है । यह सिर्फ लेखकों का विषय नहीं, बल्कि उसकी परिधि से बाहर बहुत व्यापक पैमाने पर एक सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन के रूप में फैल जाने की संभावनाओं के संकेत दे रहा है ।
दुनिया का अनुभव यह बताता है कि जब भी किसी समाज को कोरी सत्ता की ताक़त पर उसके मूलचरित्र के विपरीत दिशा में ठेला जाता है, उसे रोकने में परंपरागत राजनीतिक शक्तियाँ निहायत कमज़ोर और असहाय सी दिखाई देने लगती है, तब अंदर ही अंदर जमा हो रहा रोष एक झटके के साथ कब किस कोने से ज्वालामुखी के लावे की तरह बहने लगता है, इसकी कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है । अरब वसंत का अनुभव इसका सबसे बड़ा उदाहरण है ।
इसके अलावा, आम तौर पर कोई भी समाज अपनी स्वाभाविक गति पर ही चलता रहता है । समय-समय पर कुछ संकट आने पर भी वह अपनी स्वाभाविक लय से हटना नहीं चाहता । इसमें जब किसी भी वजह से कोई बड़ा भटकाव आता है, तो यह तय है कि तमाम जटिलताओं के बावजूद समाज ऐसे सामयिक भटकाव से निकल कर अपनी लय को पाने के लिये मचल उठता है ।
भारत में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के साथ ही आरएसएस और हिंदू उग्रवादी ताक़तों ने यह समझ लिया कि मोदी को सिर्फ कांग्रेस दल के खिलाफ तैंतीस प्रतिशत के क़रीब लोगों का समर्थन नहीं मिला है, बल्कि भारत के उस विविधतापूर्ण स्वरूप को ही बदल देने के लिये समर्थन मिला है जिसे मान्यता देकर ही आज़ादी की लड़ाई के बीच से आज के स्वतंत्र और अखंड भारत का निर्माण संभव हुआ है । मोदी और उनसे जुड़े संघ परिवार की इसी विकृत समझ के कारण मोदी के सत्ता पर आने के बाद ही जीवन के तमाम क्षेत्रों में पोंगापंथी, रूढ़िवादी, उग्र सांप्रदायिक विचारों के नग्न हमले शुरू हो गये ।
सत्ता की नीतियों में यह परिवर्तन भारतीय समाज की स्वाभाविक गति से एक बड़ा भटकाव है । यह चल नहीं सकता । इस दिशा में बढ़ने पर इस समाज का पुर्ज़ा-पुर्ज़ा बिखर जायेगा । एक जनतांत्रिक सभ्य समाज ग़ैर-जनतांत्रिक असभ्य और जंगली समाज में बदल जायेगा । इस भटकाव का अंत सुनिश्चित है ।
प्रश्न सिर्फ यही है कि यह अंत कैसे और किनके द्वारा होगा ? लेखकों के प्रतिवाद की चिंगारी जिस प्रकार दावानल की तरह फैलती दिखाई दे रही है, समाज के सारे ज्वलंत सवाल जिस प्रकार इसके साथ जुड़ जा रहे है, उसमें इस पूरे विषय को सिर्फ लेखकों, और वह भी हिंदी के लेखकीय जगत की कुछ लाक्षणिकताओं से जोड़ कर देखना, सारे विषय को बहुत संकुचित रूप में देखना है । विष्णु खरे या सुधीश पचौरी तो इस पूरे नाटक के अति छुद्र विदूषक भर हैं । आज जिस प्रकार समाज के सभी प्रतिष्ठित क्षेत्रों के, साहित्य, कला, संस्कृति, इतिहास आदि के प्रतिष्ठित लोग मुखर होकर लेखकों के साथ अपने स्वरों को मिला रहे है, हमारा प्रश्न है कि क्या यह सिर्फ विशिष्ट वर्गों तक ही सीमित कोई मामला रहेगा ? आज जिस स्वर में सभी भाषाओं के लेखकों के अलावा शर्मीली टैगोर या रामचंद्र गुहा अपनी आवाज मिला रहे हैं, क्यों नहीं प्रतिवाद के इन स्वरों के साथ ही आने वाले समय में भारत के किसान, मज़दूर, बेरोज़गार नौजवान, दलित, स्त्रियाँ, और तमाम शोषित-उत्पीड़ित जन भी अपनी आवाज को नहीं मिलायेंगे ? ऐसा न होने की क्या कोई वजह है ? यह जनतांत्रिक और धर्म-निरपेक्ष भारत के पुनरुत्थान के व्यापक आलोड़न का हेतु क्यों नहीं बन सकता ?
आज समाज में जो दरारें पैदा हुई है, उनकी निष्पत्ति के सारे लक्षण हमें तो इस लेखकीय प्रतिवाद आंदोलन में दिखाई दे रहे हैं । अभी से देश की सीमाओं के बाहर तक भी इसकी अनुगूँज सुनाई देने लगी है । हमें तो यह जनतांत्रिक और धर्म-निरपेक्ष शक्तियों को लड़ाई के मैदान में उतर जाने के बिगुल की तरह सुनाई पड़ रही है ।
एक रौ में काफी कुछ लिख गया हूँ ।
Shayak Alok जी, भारत में लेखकों द्वारा अकादमी के सम्मानों को लौटाने का यह जो सिलसिला चला है, इसकी सारी दुनिया में आज तक दूसरी कोई नज़ीर नहीं मिलती है । उदय प्रकाश का अकेले का निर्णय इन थोड़े से दिनों में ही अकल्पनीय सामूहिक आंदोलन का रूप ले चुका है । इसकी प्रतिध्वनि सिर्फ हिंदी में नहीं, लगभग सभी भारतीय भाषाओं में सुनाई देने लगी है । अब आगे यह और क्या-क्या रूप लेगा, इस पर निश्चय के साथ कुछ भी कहना मुमकिन नहीं है । यह सिर्फ लेखकों का विषय नहीं, बल्कि उसकी परिधि से बाहर बहुत व्यापक पैमाने पर एक सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन के रूप में फैल जाने की संभावनाओं के संकेत दे रहा है ।
दुनिया का अनुभव यह बताता है कि जब भी किसी समाज को कोरी सत्ता की ताक़त पर उसके मूलचरित्र के विपरीत दिशा में ठेला जाता है, उसे रोकने में परंपरागत राजनीतिक शक्तियाँ निहायत कमज़ोर और असहाय सी दिखाई देने लगती है, तब अंदर ही अंदर जमा हो रहा रोष एक झटके के साथ कब किस कोने से ज्वालामुखी के लावे की तरह बहने लगता है, इसकी कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है । अरब वसंत का अनुभव इसका सबसे बड़ा उदाहरण है ।
इसके अलावा, आम तौर पर कोई भी समाज अपनी स्वाभाविक गति पर ही चलता रहता है । समय-समय पर कुछ संकट आने पर भी वह अपनी स्वाभाविक लय से हटना नहीं चाहता । इसमें जब किसी भी वजह से कोई बड़ा भटकाव आता है, तो यह तय है कि तमाम जटिलताओं के बावजूद समाज ऐसे सामयिक भटकाव से निकल कर अपनी लय को पाने के लिये मचल उठता है ।
भारत में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के साथ ही आरएसएस और हिंदू उग्रवादी ताक़तों ने यह समझ लिया कि मोदी को सिर्फ कांग्रेस दल के खिलाफ तैंतीस प्रतिशत के क़रीब लोगों का समर्थन नहीं मिला है, बल्कि भारत के उस विविधतापूर्ण स्वरूप को ही बदल देने के लिये समर्थन मिला है जिसे मान्यता देकर ही आज़ादी की लड़ाई के बीच से आज के स्वतंत्र और अखंड भारत का निर्माण संभव हुआ है । मोदी और उनसे जुड़े संघ परिवार की इसी विकृत समझ के कारण मोदी के सत्ता पर आने के बाद ही जीवन के तमाम क्षेत्रों में पोंगापंथी, रूढ़िवादी, उग्र सांप्रदायिक विचारों के नग्न हमले शुरू हो गये ।
सत्ता की नीतियों में यह परिवर्तन भारतीय समाज की स्वाभाविक गति से एक बड़ा भटकाव है । यह चल नहीं सकता । इस दिशा में बढ़ने पर इस समाज का पुर्ज़ा-पुर्ज़ा बिखर जायेगा । एक जनतांत्रिक सभ्य समाज ग़ैर-जनतांत्रिक असभ्य और जंगली समाज में बदल जायेगा । इस भटकाव का अंत सुनिश्चित है ।
प्रश्न सिर्फ यही है कि यह अंत कैसे और किनके द्वारा होगा ? लेखकों के प्रतिवाद की चिंगारी जिस प्रकार दावानल की तरह फैलती दिखाई दे रही है, समाज के सारे ज्वलंत सवाल जिस प्रकार इसके साथ जुड़ जा रहे है, उसमें इस पूरे विषय को सिर्फ लेखकों, और वह भी हिंदी के लेखकीय जगत की कुछ लाक्षणिकताओं से जोड़ कर देखना, सारे विषय को बहुत संकुचित रूप में देखना है । विष्णु खरे या सुधीश पचौरी तो इस पूरे नाटक के अति छुद्र विदूषक भर हैं । आज जिस प्रकार समाज के सभी प्रतिष्ठित क्षेत्रों के, साहित्य, कला, संस्कृति, इतिहास आदि के प्रतिष्ठित लोग मुखर होकर लेखकों के साथ अपने स्वरों को मिला रहे है, हमारा प्रश्न है कि क्या यह सिर्फ विशिष्ट वर्गों तक ही सीमित कोई मामला रहेगा ? आज जिस स्वर में सभी भाषाओं के लेखकों के अलावा शर्मीली टैगोर या रामचंद्र गुहा अपनी आवाज मिला रहे हैं, क्यों नहीं प्रतिवाद के इन स्वरों के साथ ही आने वाले समय में भारत के किसान, मज़दूर, बेरोज़गार नौजवान, दलित, स्त्रियाँ, और तमाम शोषित-उत्पीड़ित जन भी अपनी आवाज को नहीं मिलायेंगे ? ऐसा न होने की क्या कोई वजह है ? यह जनतांत्रिक और धर्म-निरपेक्ष भारत के पुनरुत्थान के व्यापक आलोड़न का हेतु क्यों नहीं बन सकता ?
आज समाज में जो दरारें पैदा हुई है, उनकी निष्पत्ति के सारे लक्षण हमें तो इस लेखकीय प्रतिवाद आंदोलन में दिखाई दे रहे हैं । अभी से देश की सीमाओं के बाहर तक भी इसकी अनुगूँज सुनाई देने लगी है । हमें तो यह जनतांत्रिक और धर्म-निरपेक्ष शक्तियों को लड़ाई के मैदान में उतर जाने के बिगुल की तरह सुनाई पड़ रही है ।
एक रौ में काफी कुछ लिख गया हूँ ।
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