शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2015

न्यायपालिका और कार्यपालिका

संसदीय जनतंत्र में संसद की सार्वभौमिकता सिद्धांततः स्वीकृत होने पर भी शासक दलों में तानाशाही की ओर बढ़ते रुझानों के मद्दे-नज़र यह सार्वभौमिकता जनतंत्र के विपरीत खड़ी दिखाई देने लगती है । ऐसे में न्यायपालिका की अधिकतम स्वतंत्रतता जनतंत्र के हितों के ज़्यादा क़रीब है । मौजूदा सरकार जिस प्रकार सभी संवैधानिक संस्थाओं पर अपना शिकंजा कस रही है, स्वायत्त संस्थाओं की स्वायत्तता का नग्न हरण कर रही है, उसे देखते हुए न्यायपालिका से इसे कोसों दूर रखने में ही नागरिक समाज के हित है । संविधान की मूलभूत प्रतिज्ञाओं की रक्षा में अब न्यायपालिका की बड़ी भूमिका हो गई है, क्योंकि कार्यपालिका ऐसे तत्वों की गिरफ़्त में है जो भारत के वर्तमान संविधान को वस्तुत: नहीं मानते हैं । भ्रष्ट और संविधान-विरोधी शक्तियों की सरकार की न्यायपालिका में दख़लंदाज़ी राष्ट्र के लिये बेहद नुक़सानदेह साबित होगी ।
इसीलिये जजों की नियुक्ति के लिए राष्ट्रीय आयोग के गठन के प्रस्ताव को ठुकराने के सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का हम स्वागत करते हैं । यह एक ऐतिहासिक फ़ैसला है । इसके दूरगामी परिणाम है ।

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