शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2015

साहित्य अकादमी के कार्यकारी मंडल का प्रस्ताव उसकी प्रतिष्ठा को फिर से कायम करने के लिए यथेष्ट नहीं है




अरुण माहेश्वरी

साहित्य अकादमी के कार्यकारी मंडल की बैठक के प्रस्ताव को हमने बहुत ध्यान से पढ़ा । अकादमी की स्वायत्तता, भारत के संविधान के निदेशक सिद्धांतों के प्रति उसकी निष्ठा, कलबुर्गी की हत्या की निंदा आदि उन सब बातों को इसमें कहा गया है, जिनकी अकादमी से माँग की जा रही थी । इन अपेक्षित बातों के साथ, अंत में, अकादमी की प्रेस-विज्ञप्ति में लेखकों से यह निवेदन किया गया है कि वे अकादमी की मर्यादा की रक्षा करें और जिन्होंने अकादमी के सम्मान को लौटाया है, वे उन्हें वापस ले लें ।

एक प्रस्ताव के ज़रिये अकादमी के कर्त्तव्य-पालन के इस उपक्रम को देख कर मन में सबसे पहला यह सवाल उठता है कि कार्यकारी मंडल को अकादमी के सम्मान की तो चिंता है, और जो शायद जायज़ भी है, लेकिन इस पूरे प्रसंग में लेखक समाज को जिस प्रकार सुनियोजित ढंग से अपमानित किया गया, उनके मान-सम्मान की चिंता कौन करेगा ?

दरअसल, यह पूरा विषय सिर्फ अकादमी का विषय नहीं है । इसको काफ़ी व्यापक संदर्भ में देखने की ज़रूरत है । अकादमी और उसके सम्मान तो निमित्त है । इसके मूल में वर्तमान सामाजिक-राजनीतिक सच्चाई है, वह सच्चाई जिसने विवेकवान लोगों, खास तौर पर लेखकों का जीना दूभर कर दिया है । यह धार्मिक कट्टरपंथ से जुड़ा मामला है ।

पिछले चुनाव के समय से ही इन कट्टरपंथी ताक़तों की गालियों, धमकियों और हमलों का सिलसिला शुरू हो गया था, जो अब हत्याओं तक पहुंच गया है । इनके चलते हर लेखक अपनी क़लम पर एक अवांछित दबाव महसूस करता है । मुख्यधारा के अख़बार और मीडिया वैसे ही बिकाऊ हैं । ऊपर से, सोशल मीडिया पर गालियों के संगठित अभियानों ने स्वतंत्र अभिव्यक्ति के क्षेत्र को बेहद संकुचित कर दिया है ।

इन दमघोंटू परिस्थितियों में दो विवेकवान विचारकों की हत्या की श्रृंखला में कलबुर्गी की हत्या ने सबको स्तब्ध कर दिया । इसके पहले तक लेखक घुट रहे थे, फिर भी चुप थे । साहित्य अकादमी स्वाभाविक रूप से ख़ामोश रही क्योंकि लेखकों की परेशानियों के ऐसे विषय सदा से उसकी 'स्वायत्तता' के दायरे के बाहर की चीज़ रहे हैं ! लेकिन जब कलबुर्गी की हत्या पर भी अकादमी की चुप्पी नहीं टूटी और वह लेखकों के रोष की थाह लेते हुए सरकार की मुखापेक्षी बनी रही, उसके बाद अकादमी की स्वायत्तता, संवैधानिक प्रतिज्ञाओं और मान-मर्यादा का इंद्रजाल पूरी तरह बिखर गया । किसी भी सच्चे लेखक के लिये अकादमी को लेकर कोई भ्रम नहीं रहा, भले ही इस पर सबकी प्रतिक्रिया एक सी न रही हो !

सरकार की भूमिका का उल्लेख तो पहले ही किया जा चुका है । समाज में असहिष्णुता के जो तमाम लक्षण दिखाई दे रहे हैं, उन सबके साथ वर्तमान सत्ताधारियों की राजनीति का सीधा संबंध है । इसे दादरी की घटना ने दिन के उजाले की तरह साफ कर दिया है ।
यही वह पृष्ठभूमि है, जब उदय प्रकाश से शुरू हुआ सिलसिला आज दुनिया के इतिहास में लेखकों के प्रतिवाद आंदोलन की एक सबसे बड़ी घटना बन चुका है । राजनीति के न्यूनतम मानदंडों पर भी अब कोई भी राजनीतिक शक्ति इसकी अवहेलना नहीं कर सकती है ।
साहित्य अकादमी के कार्यकारी मंडल की बैठक, उसका बयान और लेखकों से अकादमी के सम्मान की रक्षा की अपील को इस पूरी सामाजिक-राजनीतिक पृष्ठभूमि से काट कर नहीं देखा जा सकता है ।

इसीलिये यह सवाल शेष रह जाता है कि अकादमी लेखकों से किसके सम्मान की रक्षा की माँग कर रही है ? अकादमी के सम्मान की या सरकार के सम्मान की ? इस प्रस्ताव में बहुलतावाद का ज़िक्र होने पर भी सांप्रदायिक असहिष्णुता के विरुद्ध साफ तौर पर कुछ नहीं कहा गया है, जो लेखकों की चिंता का एक प्रमुख विषय है ।

यही वजह है कि इतनी देर बाद, परिस्थितियों के इतना बिगड़ जाने के बाद पारित किया गया यह प्रस्ताव अकादमी की स्वायत्तता और इससे जुड़ी उसकी अन्य निष्ठाओं के बारे में शायद ही किसी को आश्वस्त करेगा । क्योंकि सवाल सिर्फ प्रस्ताव पारित करने का नहीं है, अकादमी, सरकार और लेखकों के बीच रिश्तों को ठोस रूप में बदलने का है । ऐसे में लेखकों से अकादमी के सम्मान की रक्षा की गुज़ारिश करने के बजाय अकादमी को लेखकों को आश्वस्त करने, भयमुक्त करने और उनको बदनाम करने वाले अभियानों का विरोध करने की ठोस पहलकदमी करनी चाहिए ।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संदर्भ में अभी की चिंताजनक परिस्थिति साहित्य अकादमी की तरह की संस्थाओं की स्वायत्तता के लिये परीक्षा की घड़ी है। उसमें लेखकों के पक्ष में खुल कर खड़ा होने में जरा भी हिचक नहीं होनी चाहिए थी। इस परीक्षा में अकादमी विफल रही है। इस प्रस्ताव में भी सांप्रदायिक असहिष्णुता पर नियंत्रण में सरकार की विफलता के विरोध में एक शब्द भी नहीं कहा गया है।

इसीलिये हम कहेंगे कि अकादमी का सम्मान उसकी स्वायत्तता को एक सचाई में बदलने की ठोस कार्रवाइयों से लौटेगा, न कि एक प्रस्ताव के ज़रिये कोई भ्रम पैदा करने से । यह काम लेखकों को नहीं, सिर्फ और सिर्फ अकादमी को करना है ।

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