रविवार, 1 नवंबर 2015

जिनके पास कोई भविष्य नहीं, उनका अतीत में भी कोई दखल संभव नहीं !


-अरुण माहेश्वरी

नरेन्द्र मोदी पंडित नेहरू का नामोच्चार तक करने से परहेज करते हैं। उनकी सचेत कोशिश है कि नेहरू की जगह सरदार पटेल को स्थापित करें। वे सेकुलरिज्म के प्रति तिरस्कार का भाव रखते हैं, मुसलमानों से प्रीति के प्रदर्शन से सायास बचते हैं और गोमांस आदि की तरह के सवालों पर समाज की चरम दकियानूसी ताकतों के नजरिये को प्रश्रय देते हैं। प्रधानमंत्री हैं, लेकिन आरएसएस के प्रचारक की भूमिका नहीं छोड़ना चाहते। आरएसएस की अनेक झूठी बातों पर विश्वास करने के कारण ही वे अक्सर इतिहास के तथ्यों के बारे में अक्सर बड़ी-बड़ी भूलें करते हुए पाए जाते हैं।

दरअसल, आरएसएस यह मानता रहा है कि वह भारत के पूरे अतीत का एक नया आख्यान रच देगा। वह अब तक की सारी परंपराओं को खारिज करके पूरे समाज को ‘हिंदुत्व’ के कथित सिद्धांत के आधार पर एक नये रूप में ढाल देगा।

लेकिन वह यह काम किसी दबे हुए सच का अनुसरण करके नहीं, बल्कि शुद्ध रूप से राजसत्ता की पाशविक शक्ति के बल पर करना चाहता है। उसका आदर्श हिटलर है, जिसने आर्य श्रेष्ठता के झूठे सिद्धांत के आधार पर पूरी जर्मन जाति को बरगला कर उससे इतिहास का सबसे बड़ा अपराध करवाया था। संघ के प्रचारक के नाते नरेन्द्र मोदी भी आरएसएस के इस भ्रम के शिकार है। सत्ता की ताकत पर वे समझते हैं कि वे किसी भी झूठ को दुनिया से मान्यता दिलवा सकते हैं। इसीलिए सभी मंचों से बिना किसी दुविधा के अनर्गल, आधारहीन और झूठी बातें कहते रहते हैं।

दुनिया के इतिहास में हिटलर का जो हश्र हुआ, सब जानते हैं। वह मानव इतिहास में एक सबसे बड़ी बुराई और सिर्फ निंदा और तिरस्कार के पात्र के अलावा और कुछ नहीं रह गया है। आरएसएस उसके इस हश्र से कोई शिक्षा लेने के लिये तैयार नहीं है। नरेन्द्र मोदी भी नहीं। यह सभी उग्र, तानाशाही ताकतों की नियति है।

इसमें कोई शक नहीं कि इतिहास में ऐसे क्षण आते हैं जब जो कल तक कुछ भी नहीं दिखाई देता था, यदा-कदा उसके सिर्फ संकेत दिखाई देते थे, वही अचानक जैसे सबकुछ हो जाता है। वहां से सभ्यता के नए चरण की शुरूआत होती है। लेकिन सवाल है कि यह जो दबा हुआ संकेत था, वह अचानक सामने आता कैसे है ? वह सामने आता है भविष्य के जरिये। अर्थात वह किसी अतीत के गह्वर से नहीं, बल्कि उल्टी दिशा से, भविष्य की संभावनाओं के जरिये प्रकट होता है। और वहीं से इतिहास में एक ऐसी दरार पड़ती है जो तमाम परंपराओं, पूरे अतीत की पुनर्रचना संभव बनाती है। अतीत के नये सच का भी साक्षात्कार कराती है। इसे इतिहास का क्रांतिकारी क्षण कहा जा सकता है। इसीलिये माक्‍​र्सवाद को विचारों के इतिहास में कोपरनिकस क्रांति कहते है, सभ्यता के भविष्य का एक नक्शा साफ हुआ तो मानव समाज के विकास के पूरे इतिहास का एक नया आख्यान रचना संभव हुआ। ठीक वैसे ही, जैसे खगोलशास्त्र में कोपरनिकस के सूर्य-केंद्रित सोच के बाद उसके पहले का हजारों वर्ष का खगोल शास्त्र संबंधी धार्मिक चिंतन एक सिरे से खारिज होगया।

अर्थात जिसका कोई भविष्य होता है, वही अतीत में भी किसी प्रकार की दखल का हकदार हो सकता है।

लेकिन भारत में आरएसएस और उसकी विचारधारा का तो कोई भविष्य ही नहीं है। अगर सचमुच उसका कोई भविष्य होता तो उसे अपने अस्तित्व की रक्षा मात्र के लिये ही उन महात्मा गांधी को नहीं अपनाना पड़ता जिनसे उसका नेतृत्व सबसे ज्यादा नफरत करता रहा है और यहां तक कि उनपर उनकी हत्या की साजिश में शामिल होने का आरोप भी लगा है। अगर उसका कोई भविष्य होता तो उसे उन्हीं सरदार पटेल को अपना नायक नहीं बनाना पड़ता जिन्होंने आरएसएस पर पाबंदी लगाने में अहम भूमिका अदा की थी। जिस स्वतंत्रता आंदोलन में भाग न लेना आरएसएस का एक सुचिंतित मत था, उसीके भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद की तरह के नायकों को उसे अपने नायक नहीं बनाना पड़ता।

हमारा दृढ़ विश्वास है कि ठीक इसीप्रकार, पंडित नेहरू को खारिज करने की इनकी जिद भी औंधे मूंह गिरने के लिये अभिशप्त है। उनकी सारी कवायदें पंडित नेहरू की छवि को कभी कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकती।

हम यह बात इसलिये कह रहे हैं क्योंकि भारतीय समाज के लिये आरएसएस की तरह की एक धुर सांप्रदायिक ताकत के पास उज्जवल भविष्य के नाम पर देने के लिये कुछ भी नहीं है। और जिसके पास कोई भविष्य नहीं है, उसका समाज के अतीत पर भी वास्तव में कोई अख्तियार नहीं हो सकता। वे अपने कुछ लगुओं-भगुओं के साथ पचास लाख साल पुरानी किसी सरस्वती नदी और उसके तट पर हड़प्पा-पूर्व की सभ्यता के भव्य संसार की, वेदों से विमानों के निर्माण की तकनीक और प्लास्टिक सर्जरी की पद्धति खोज निकालने की तरह की मृगमरीचिकाओं के पीछे भटकते हुए मर-खप जाने के लिए अभिशप्त है।

देखने की बात सिर्फ यह है कि इसके पहले कि वे अपनी स्वाभाविक मृत्यु को प्राप्त करें, वे हमारे समाज के ताने-बाने और नागरिकों के जीवन को आइसिस और तालिबानियों की तरह ज्यादा नुकसान न पहुंचाने पाएं।  

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें