शुक्रवार, 6 नवंबर 2015

मिथ्या चेतना का घटाटोप और आलोचना

अरुण माहेश्वरी


‘लहक’ के पिछले (अगस्त-सितंबर 2015 के) अंक में विनोद शाही ने अपनी टिप्पणी  ‘साहित्य की स्वायत्तता और मार्क्सवाद’ के जरिये हमसे साहित्य की स्वायत्तता के बारे में जवाब मांगा है। मोटे तौर पर उनका मानना है कि एक तो भौतिक जगत है जिसके अपने नियम, कायदे-कानून, इतिहास और भूगोल है, जिनके दायरे में वह चलता है। इसके समानान्तर साहित्य का एक अपना अन्तर्जगत, अपना प्रभामंडल है। ‘‘साहित्य के पास जो इतिहास-बोध होता है - वह समकालीन सामाजार्थिक रिश्तों का उत्पाद भर नहीं होता। इसके साथ-साथ वह एक तरह के ‘जीवन’ के अब तक के इतिहास की हमारी चेतना में मौजूदगी का उत्पाद भी होता है। आप इस क्षण को नहीं जीते हैं, आप अपने भीतर इतिहास के उस अपार समृति-कोष को भी जीते हैं - जो वंश दर वंश हमें नैसर्गिक तौर पर ‘अचेत’ रूप में उपलब्ध कराया जाता है। साहित्य की ‘आंतरिक स्वायत्तता’ का एक स्रोत यह ‘नैसर्गिक इतिहास बोध’ होता है।’’

विनोद शाही ने अपने लेख में साहित्य की इस ‘आंतरिक’ या ‘बाह्य’ स्वायत्तता के लिये बड़ी मासूमियत से मार्क्स का अनुमोदन लेते हुए मार्क्स की ‘ईश्वर के प्रतीकार्थों’ वाली कथित व्याख्याओं की याद दिलाई है। कहते हैं - ‘‘मनुष्य के सुख-दुख मूलक संघर्षों का मुकाबला करने के लिए ईश्वर के रूप में ‘स्वायत्त’ चेतना का प्रतीक गढ़ा गया था।’’

चूंकि विनोद जी ने अपने इस ‘स्वायत्तता-तत्व’ के लिये कार्ल मार्क्स का अनुमोदन लेने की कोशिश की है, इसलिए उनके जवाब का सबसे आसान तरीका तो यह है कि इस प्रसंग में मार्क्स की कुछ बहुचर्चित उक्तियों को उद्धृत करके ही हम अपने काम की इतिश्री कर लें। मसलन, मार्क्स, एंगेल्स के ‘कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र’ के इस अंश को ही लिया जा सकता है जिसमें वे कहते हैं :

‘‘क्या यह समझने के लिए गहरी अन्तर्दृष्टि की जरूरत है कि मनुष्य के विचार, मत और उसकी धारणाएं - संक्षेप में, उसकी चेतना उसके भौतिक अस्तित्व की अवस्थाओं, उसके सामाजिक संबंधों और उसके सामाजिक जीवन के प्रत्येक परिवर्तन के साथ बदलती जाती है।
‘‘विचारों का इतिहास इसके सिवा और क्या साबित करता है कि जिस अनुपात में भौतिक उत्पादन में परिवर्तन होता है, उसी अनुपात में बौद्धिक उत्पादन का स्वरूप परिवर्तित होता है ? हर युग के प्रभुत्वशाली विचार सदा उसके शासक वर्ग के ही विचार रहे हैं।
‘‘जब लोग समाज में क्रांति लाने वाले विचारों की बात करते हैं तब वे केवल इस तथ्य को व्यक्त करते हैं कि पुराने समाज के अंदर एक नए समाज के तत्व पैदा हो होगए हैं और पुराने विचारों का विघटन अस्तित्व की पुरानी अवस्थाओं के विघटन के साथ कदम मिला कर चलता है।
‘‘प्राचीन दुनिया जिस समय अपनी अंतिम सांसें गिन रही थी, उस समय प्राचीन धर्मों को ईसाई धर्म ने पराभूत किया था। जब अठारहवीं शताब्दी में ईसाई मत बुद्धिवादी विचारों के सामने धराशायी हुआ, उस समय सामंती समाज ने तत्कालीन क्रांतिकारी बुर्जुआ वर्ग से अपनी मौत की लड़ाई लड़ी थी। धर्म-स्वातंत्र्य और अंत:करण की स्वतंत्रता की बातें ज्ञान जगत में मुक्त होड़ के प्रभुत्व को ही व्यक्त करती थीं।
‘‘कहा जायेगा कि ‘‘यह ठीक है कि इतिहास के विकासक्रम में धार्मिक, नैतिक, दार्शनिक, राजनीतिक और कानून संबंधी विचार बदलते आए हैं; लेकिन धर्म, नैतिकता, दर्शन, राजनीति और कानून तो सदा इस परिवर्तन से बचे रहे हैं।
‘‘इसके अलावा स्वाधीनता, न्याय, आदि ऐसे शाश्वत सत्य भी है , जो हर सामाजिक अवस्था में समान रूप से लागू होते हैं। लेकिन कम्युनिज्म उन्हें नए आधार पर प्रतिष्ठित करने के बजाय सभी शाश्वत सत्यों को खत्म कर देता है, वह समस्त धर्म और समस्त नैतिकता को मिटा देता है; इसलिए कम्युनिज्म विगत इतिहास के समस्त अनुभवों के विपरीत आचरण करता है।’’
‘‘इस आरोप का सार-तत्व क्या है? पिछले प्रत्येक समाज का इतिहास वर्ग विरोधों के विकास का इतिहास है, उन वर्ग विरोधों का, जिन्होंने भिन्न युगों में भिन्न रूप धारण किया था।
‘‘पर उन्होंने चाहे जो भी रूप धारण किया हो, पिछले सभी युगों में एक चीज हर अवस्था में मौजूद थी - समाज में एक हिस्से द्वारा दूसरे हिस्से का शोषण। अत: यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि विगत युगों की सामाजिक चेतना, अनेकानेक विविधताएं और विभिन्नताएं प्रदर्शित करने के बावजूद , किन्हीं सामान्य रूपों या सामान्य विचारों के दायरे में गतिशील रही है, जो वर्ग विरोध के पूर्ण रूप से विलुप्त होने के पहले पूरी तरह नहीं मिट सकते।
‘‘कम्युनिस्ट क्रांति समाज के परंपरागत संपत्ति संबंधों से आमूल संबंध-विच्छेद है ; फिर इसमें आश्चर्य क्या कि इस क्रांति के विकास का अर्थ है समाज के परंपरागत विचारों से आमूल संबंध-विच्छेद।’’

इसीप्रकार, मार्क्स की कृति ‘जर्मन विचारधारा’ तथा मार्क्स, एंगेल्स के अनगिनत पाठों से ऐसे तमाम उद्धरण निकाल कर रखे जा सकते है जहां वे यह साफ तौर पर कहते हैं कि विचारों का वास्तव में अपना कोई इतिहास नहीं होता। हमने अपने लेख ‘आलोचना के कब्रिस्तान से’ में ‘जर्मन विचारधारा’ से मार्क्स के एक कथन को उद्धृत किया था :

‘‘आदमी के दिमाग में बनने वाले काल्पनिक बिंब भी अनिवार्यत: उस भौतिक जीवन प्रक्रिया के संस्करण है, जिन्हें अनुभव द्वारा परखा जा सकता है और जो भौतिक पूर्वाधारों से संबद्ध है। नैतिकता, धर्म, तत्व मीमांसा, विचारधारा तथा चेतना के तदनुरूपी बाकी सभी रूप अब स्वतंत्रता का नकाब ओढ़े नहीं रह सकते। उनका कोई इतिहास, कोई विकास नहीं है; परंतु मनुष्य अपने भौतिक उत्पादन तथा अपने भौतिक संसर्ग के विकास से अपने इस वास्तविक अस्तित्व को और साथ ही अपने चिंतन और चिंतन के परिणामों को भी बदलता है। जीवन चेतना द्वारा निर्धारित नहीं होता बल्कि चेतना जीवन द्वारा निर्धारित होती है। निरीक्षण की पहली विधि के प्रस्थान बिंदु में चेतना को सजीव व्यक्ति मान कर चला जाता है; दूसरी विधि में स्वयं वास्तविक सजीव मनुष्य, जो वास्तविक जीवन के अनुरूप है, वही प्रस्थान बिंदु है तथा चेतना को पूरी तरह से उसकी चेतना मात्र माना जाता है।’’

एंगेल्स फ्रांज मेहरिंग के नाम अपने प्रसिद्ध पत्र में कहते हैं -‘‘विचारधारा एक प्रक्रिया है, जिसे यह सही है कि तथाकथित चिंतक चेतन रूप से संपन्न करता है पर मिथ्या चेतना के साथ। उसे प्रेरित करने वाली असल प्रेरक शक्तियां उसे अज्ञात रहती है। अन्यथा वह विचारधारात्मक प्रक्रिया ही न होगी। इसलिए वह झूठी या प्रतीयमान प्रेरक शक्तियों की कल्पना कर लेता है। चूंकि यह चिंतन की प्रक्रिया है, इसलिए इसका रूप एवं विषय वस्तु भी वह अपने या अपने पूर्ववर्तियों के विशुद्ध चिंतन से प्राप्त करता है। वह केवल चिंतन सामग्रियों को लेकर काम करता है, जिसे बिना जांच-परख के ही वह चिंतन-फल के रूप में स्वीकार कर लेता है और चिंतन से स्वतंत्र किसी अधिक दूरवर्ती स्रोत की छानबीन नहीं करता। वस्तुत: यही उसके लिए सहज मार्ग है, क्योंकि सारे कार्य में चिंतन की मध्यस्थता होने के कारण उसे वह अंतत: चिंतन पर आधारित ज्ञात होता है। ’’

उम्मीद है, विनोद शाही ने जिस ‘नैसर्गिक इतिहास बोध’ से उत्पन्न ‘स्वायत्त साहित्य’ की बात की है, उसमें ‘साहित्य’ से उनका तात्पर्य वैचारिक उत्पादों की श्रेणी की ऐसी ही एक चीज है। और, मार्क्स-एंगेल्स के उपरोक्त इतने लंबे उद्धरणों को कोई भी यदि ध्यान से पढ़ेगा तो इनमें ऐसे, ‘जीवन के अब तक के इतिहास की हमारी चेतना में मौजूदगी के उत्पाद’ को लेकर विनोद शाही की उन सभी शंकाओं का भरपूर उत्तर मिल जायेगा, जो उन्होंने मार्क्स के ही हवाले से हमारे सामने रखी है।

इसके बावजूद, हम विषय को मार्क्स-एंगेल्स के इस प्रकार के कथनों के उद्धरण पर ही खत्म नहीं करना चाहेंगे, क्योंकि ऐसा करने पर हमारे गूढ़-रहस्य संधानी विद्वान को लग सकता है कि यह तो मार्क्सवाद के सामान्य ज्ञान मात्र से निकाले गये सरल निष्कर्ष हैं। अर्थात एक प्रकार का निगमनात्मक तर्कदोष (deductive fallacy)!

कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र कहता है - ‘‘विगत युगों की सामाजिक चेतना, अनेकानेक विविधताएं और विभिन्नताएं प्रदर्शित करने के बावजूद , किन्हीं सामान्य रूपों या सामान्य विचारों के दायरे में गतिशील रही है’’ ; ‘जर्मन विचारधारा में मार्क्स कहते हैं -‘‘ नैतिकता, धर्म, तत्व मीमांसा, विचारधारा तथा चेतना के तदनुरूपी बाकी सभी रूप अब स्वतंत्रता का नकाब ओढ़े नहीं रह सकते।“ फ्रांज मेहरिंग को एंगेल्स लिखते हैं -‘‘ विचारधारा एक प्रक्रिया है, जिसे यह सही है कि तथाकथित चिंतक चेतन रूप से संपन्न करता है, पर मिथ्या चेतना के साथ।’’ (जोर हमारा)

हम अपनी बात को इस प्रश्न पर केंद्रित करना चाहते हैं कि जिस चीज को ऊपर के उद्धरणों में ‘सामान्य रूपों या सामान्य विचारों के दायरे’, ‘नकाब’ या ‘मिथ्या चेतना’ आदि कहा गया हैं, वे आखिर है क्या ? क्योंकि यही तो है जिनकी वजह से मार्क्स-एंगेल्स का कहना है कि ऐसे भ्रम पैदा होते हैं जिसमें विचारधारा के सारे कार्य अंतत: चिंतन पर आधारित ज्ञात होने लगते हैं! जीवन के ठोस यथार्थ से स्वतंत्र, ‘आंतरिक तौर पर स्वायत्त’! और यही वह आधार है जिसपर हमारे विनोद शाही जी का ‘साहित्य की स्वायत्तता’ का पूरा महल खड़ा होता है।

इस विषय की गहराई से जांच करने के लिये यदि हम मार्क्स की चिंतन प्रक्रिया के सिर्फ एक विषय पर अपने को केंद्रित करें तो हमारा मानना है कि हम यह जान पायेंगे कि जिसे मार्क्स-एंगेल्स चिंतन का एक ‘दायरा’, ‘नकाब’ या ‘मिथ्या चेतना’ बता रहे हैं, वह मूलत: क्या है ? यह विषय है - ‘पण्यों की जड़पूजा’ (commodity fetishism) का विषय, जिसे हम, भले अपनी सुविधा के लिये ही कहीं- कहीं, ‘पण्यों की जड़पूजा’ के बजाय ‘मालांधता’ कहना ज्यादा पसंद करेंगे।

मार्क्स की ‘पूंजी’ का पहला अध्याय है -पण्य और द्रव्य (Commodities and Money)। और इसमें सबसे पहले पण्य को अपने विचार का विषय बनाते हुए उन्होंने जो पहला वाक्य लिखा है, वह है -‘‘जिन समाजों में उत्पादन की पूंजीवादी प्रणाली व्याप्त है, उनमें धन ‘पण्यों के विशाल संचय’ के रूप में सामने आता है और उसकी इकाई होती है एक पण्य।’’

पण्य आदमी के बाहर की एक ऐसी वस्तु जो अपने गुणों के कारण उसकी किसी न किसी आवश्यकता की पूर्ति करती है, वह आवश्यकता भले ‘पेट से पैदा हुई हो या कल्पना से’। कोई वस्तु सीधे हमारे काम में आ सकती है या हमारे काम में आने वाली दूसरी वस्तु के उत्पादन में भी काम में आ सकती है। हर उपयोगी वस्तु में नाना गुण होते हैं और इसीलिए वह नाना प्रकार से हमारे उपयोग में आ सकती है।

मार्क्स कहते हैं कि ‘‘वस्तुओं के विभिन्न उपयोगों का पता लगाना इतिहास का काम है। इसीप्रकार इन उपयोगी वस्तुओं के परिमाणों के सामाजिक दृष्टि से मान्य पैमानों की स्थापना करना भी इतिहास का ही काम है। इन पैमानों की विविधता का मूल आंशिक रूप से तो इस बात में हैं कि मापी जाने वाली वस्तु नाना प्रकार की होती है और आंशिक रूप से प्रचलित ढर्रों (मान्यताओं) में निहित है।’’
‘‘किसी वस्तु की उपयोगिता उसे उपयोग मूल्य प्रदान करती है। लेकिन यह उपयोगिता कोई हवाई चीज नहीं है। वह चूंकि पण्य के भौतिक गुणों तक सीमित है, इसलिए पण्य से अलग उसका कोई अस्तित्व नहीं होता। इसीलिए पण्य जहां तक भौतिक है, उसका उपयोग मूल्य है।’’

इसी क्रम में मार्क्स आगे लिखते हैं कि किसी भी पण्य का गुण इस बात से स्वतंत्र होता है कि उसके उपयोगी गुणों का इस्तेमाल करने के लिए कितने श्रम की आवश्यकता होती है। लेकिन उपयोग मूल्य का हमेशा एक माप होता है, वह निश्चित परिमाणात्मक होता है। यह उपयोग मूल्य चरितार्थ होता है केवल उपयोग या उपभोग के जरिये। और उसके इसी भौतिक आधार से हम जिस समाज पर विचार करने जा रहे है उसमें उसका विनिमय मूल्य उत्पन्न होता है।

गौर करने की बात यह है कि पण्य का विनिमय मूल्य कोई स्थाई मूल्य नहीं होता। यह समय और स्थान के अनुसार हमेशा बदलता रहता है। इसीलिये विनिमय मूल्य अपने आप में एक सांयोगिक तथा पूरी तरह से सापेक्ष चीज प्रतीत होती है। इसप्रकार, ऐसा विनिमय मूल्य जो पण्य के अपने मूल्य से अभिन्न रूप में जुड़ा हुआ है, - यह खुद में एक अन्तर्विरोधी बात लगने लगती है। जो सांयोगिक है, समय और स्थान के सापेक्ष है, वह किसी पण्य के अपने स्थायी मूल्य से कैसे जुड़ा हो सकता है !

और यहीं से मार्क्स कदम-ब-कदम पूंजी के एक अबूझ से, अमूर्तनताओं, संयोगों और सापेक्षताओं के एक प्रकार के प्रेत-संसार की ओर अपनी यात्रा शुरू कर देते हैं। वे पाते हैं कि विभिन्न पण्यों के उपयोग मूल्य को यदि दरकिनार कर दिया जाएं तो जो एक चीज सभी पण्यों में समान रूप से पाई जाती है वह यह कि वे सभी श्रम के उत्पाद है। ‘‘मूल्यों के रूप में तमाम पण्य घनीभूत श्रम-काल की निश्चित राशियां मात्र है।’’

मार्क्स मजे की बात यह देखते हैं कि इस समाज में यह श्रम भी कोई अपने आप में इकहरी चीज नहीं है। श्रम को उसके उपयोग मूल्य से अलग कर लेने पर वह अपने उत्पादों के भौतिक रूपों से भी अलग हो जाता है। अलग-अलग वस्तुओं में लगे श्रम की अलग-अलग सूरत होती है, लेकिन भौतिक वस्तु से अपने को अलग कर लेने पर हर श्रम की एक ही सूरत होती है - अमूर्त मानव-श्रम। पण्य के उपयोग मूल्य और विनिमय मूल्य की तरह ही, जहां तक वह मूल्य के रूप में अपने को व्यक्त करता है, वहां तक उसमें वे गुण नहीं होते जो उपयोगमूल्य के सृजनकर्ताओं, कारीगरों आदि के नाते उसमें होते हैं।

ये अलग-अलग उत्पादक स्वतंत्र रूप से तथा निजी तौर पर जो विभिन्न प्रकार का उपयोगी श्रम करते हैं, उनके बीच का यह गुणात्मक अंतर विकसित होकर एक जटिल व्यवस्था - यानी सामाजिक श्रम-विभाजन बन जाता है। मार्क्स बताते हैं कि यदि हम उत्पादक क्रिया के विशेष रूप की ओर ध्यान न दें तो उत्पादक क्रिया मानव की श्रम शक्ति को खर्च करने के सिवा और कुछ नहीं है। उपयोग मूल्यों के परिमाण में वृद्धि होने का मतलब है भौतिक धन में वृद्धि।

इसप्रकार, जिसे हम पण्य कहते हैं वह वस्तु का भौतिक अथवा प्राकृतिक रूप और उसका मूल्य रूप, इन दो रूपों को धारण किये होता है। मूल्य की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं होती। वह केवल पण्य के साथ, पण्य के सामाजिक संबंधों के रूप में अपने को प्रकट कर सकता है।

आगे मार्क्स देखते हैं कि इस समाज में मूल्य अपने को एक और, द्रव्य (money) रूप में भी प्रकट करता है। मार्क्स कहते हैं कि पण्यों के मूल्य संबंधों के जरिये व्यक्त मूल्य अपनी सबसे सरल, लगभग अदृश्य रूप-रेखा से आरंभ करके कैसे आंखों को चौंधिया देने वाले द्रव्य रूप तक विकास करता है, यह एक सबसे महत्वपूर्ण पहेली और समझने लायक चीज है। वे बताते हैं कि पण्य के मूल्य का प्राथमिक रूप भिन्न प्रकार के दूसरे पण्य के साथ उसके मूल्य संबंध को व्यक्त करने वाले समीकरण में निहित है, अर्थात दूसरे पण्य के साथ विनिमय के संबंध में। लेकिन खुद में यह बात असंभव है कि इतनी असमान वस्तुएं कैसे किसी एक पैमाने से मापी जा सकती है, अर्थात उन्हें गुणात्मक रूप से समान बताया जा सकता है। इसप्रकार का समीकरण इन वस्तुओं की प्रकृति के लिये एक बाहरी चीज, परायी चीज है और इसलिए इसे सिर्फ व्यवहारिक उद्देश्य के लिए अपनाई गई एक ‘कामचलाऊ तरकीब’ कहा जा सकता है।

इसी संदर्भ में मार्क्स अरस्तू की उस प्रतिभा का लोहा मानते हैं कि उन्होंने पण्यों के मूल्यों की अभिव्यक्ति में समानता का संबंध देखा। लेकिन अरस्तू जिस समाज में रहते थे, उसकी परिस्थितियों ने ही उन्हें यह पता नहीं लगाने दिया कि इस समानता की तह में ‘सचमुच’ क्या था। अरस्तू यह नहीं देख पाएं कि पण्यों में मूल्य का आरोपण करना हर प्रकार के श्रम को समान मानव-श्रम के रूप में और इसलिए समान गुण के श्रम के रूप में व्यक्त करने का ही एक ढंग है।

इस प्रकार की एक विस्तृत चर्चा के संदर्भ में मार्क्स ‘पण्यों की जड़पूजा और उसका रहस्य’ विषय पर चर्चा करते हैं, जिसपर हम विनोद शाही जी की ‘स्वायत्तता-चिंता’ के संदर्भ में विशेष तौर पर विस्तार से बात करना चाहते हैं। पूंजी में मार्क्स जिस प्रकार अपने मुद्दे के विषय पर आने के पहले वकीलों की ब्रीफ की तरह अपनी समझ के सारे नुक्तों को सुपरिभाषित करते हुए, किस पद को किस संदर्भ के साथ जोड़ कर देखा जाना चाहिए इसकी एक पुख्ता नींव तैयार करते हैं और उसके आधार पर ‘पूंजी’ के विस्तृत विश्लेषण का अपना विशाल महल तैयार करते हैं, वह चीजों को देखने के मार्क्सवादी नजरिये को समझने के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है। इसीमें एक अत्यंत महत्वपूर्ण विषय है, पण्य की जड़पूजा, मालांधता का मुद्दा, जो किसी भी वैचारिक उत्पाद की आंतरिक स्वायत्तता के रहस्य को समझने में किसी के लिये भी मददगार हो सकता है।

इस विषय पर मार्क्स इसप्रकार प्रारंभ करते हैं -

‘‘पहली दृष्टि में पण्य बहुत मामूली सी और आसानी से समझ में आने वाली चीज मालूम होता है। किंतु उसका विश्लेषण करने पर पता चलता है कि वास्तव में वह एक बहुत अजीब चीज है, जो आधिभौतिक सूक्ष्मताओं और धर्मशास्त्रीय बारीकियों से ओतप्रोत है। जहां तक वह उपयोग-मूल्य है, वहां तक, चाहे हम उसपर इस दृष्टिकोण से विचार करें कि वह अपने गुणों से मानव-आवश्यकताओं को पूरा करने में समर्थ है, और चाहे इस दृष्टिकोण से कि वे गुण मानव-श्रम के उत्पाद है, इसमें रहस्य की कोई बात नहीं है।... लेकिन जैसे ही वह पण्य के रूप में सामने आती है, वैसे ही वह मानो किसी इंद्रियातीत वस्तु में बदल जाती है। तब वह न सिर्फ अपने पैरों के बल खड़ी होती है, बल्कि दूसरे तमाम पण्यों के संबंध में सिर के बल खड़ी हो जाती है और अपने काठ के दिमाग से ऐसे-ऐसे अजीबोगरीब विचार निकालती है कि उनके सामने मृतात्माओं को बुलाने वाली प्रेत-विद्या भी मात खा जाती है।’’

इसमें वे आगे कहते हैं कि ’’देखने की क्रिया में तो हर सूरत में एक चीज से दूसरी चीज तक, बाह्य वस्तु से आंख तक, सचमुच प्रकाश जाता है। इस क्रिया में भौतिक वस्तुओं के बीच भौतिक संबंध कायम होता है। लेकिन पण्यों के बीच ऐसा कुछ नहीं होता। वह पण्यों के रूप में वस्तुओं के अस्तित्व का और वस्तुओं के बीच पाए जाने वाले उस मूल्य के संबंध का, जो कि उन वस्तुओं को पण्य बना देता है, उनके भौतिक गुणों से तथा इन गुणों से पैदा होने वाले भौतिक संबंधों से कोई ताल्लुक नहीं होता। वहां मनुष्यों के बीच कायम एक खास प्रकार का सामाजिक संबंध है जो उनकी नजरों में वस्तुओं के संबंध का अजीबोगरीब रूप धारण कर लेता है। इसलिए यदि उसकी उपमा खोजनी है तो हमें धार्मिक दुनिया के कुहासे से ढंके क्षेत्रों में प्रवेश करना होगा। उस दुनिया में मानव मस्तिष्क से उत्पन्न कल्पनाएं स्वतंत्र और जीवित प्राणियों जैसी प्रतीत होती है, जो आपस में मनुष्य जाति के साथ भी संबंध स्थापित करती रहती है। पण्यों की दुनिया में मनुष्य के हाथों उत्पन्न होने वाली वस्तुएं भी यही करती है। मैंने इसे जड़पूजा (अंधता - अ.मा.) का नाम दिया है ; श्रम से पैदा होने वाली वस्तुएं जैसे ही पण्यों के रूप में पैदा होने लगती है, वैसे ही उनके साथ यह गुण चिपक जाता है, और इसलिए यह अंधता पण्यों के उत्पादन से अलग नहीं की जा सकती।
‘‘...पण्यों के प्रति इस अंधता का मूल उनको पैदा करने वाले श्रम के अनोखे सामाजिक रूप में है।’’

कहना न होगा, अपनी कृति ‘पूंजी’ के तीनों खंडों में मार्क्स का आगे का पूरा उपक्रम पण्य के बजाय उसके प्रति इसी अंधता पर टिके सामाजिक-संबंधों के रूपों का पर्त-दर-पर्त विश्लेषण है। पण्य का सार-तत्व नहीं, उस सार-तत्व का एक प्रकार की अंधता पैदा करने वाला यह रहस्यमय, मायावी, बल्कि आकर्षक रूप - मार्क्सवाद इसी रूप के विस्तृत संजाल की व्याख्या का दर्शन है। वह पण्य के रूपों के रहस्य-जाल का उन्मोचन करता है। ठीक उसी प्रकार जैसे मनोविश्लेषक दार्शनिक स्लावोय जिजेक फ्रायड के बारे में कहते हैं कि फ्रायड का जोर स्वप्न के पीछे के सार-तत्व, उसके latent dream thought की व्याख्या नहीं था, बल्कि स्वप्न के रूप के रहस्य को उन्मोचित करना था।

और यही तो है वे ‘सामान्य रूपों या सामान्य विचारों के दायरे’, ‘नकाब’ या ‘मिथ्या चेतना’, ‘स्वायत्तताओं के कोटर’ जिनकी हमने इस लेख के शुरू में चर्चा की है और जो पण्यों के संसार के रूप की विशेषताएं हैं। जिस अनुपात में इस पण्यों के संसार के रूप की माया टूटेगी, उसी अनुपात में इन रहस्यों, अंधताओं पर से भी पर्दा उठता जायेगा। इसीलिये कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र कहता है -
‘‘कम्युनिस्ट क्रांति समाज के परंपरागत संपत्ति संबंधों से आमूल संबंध-विच्छेद है ; फिर इसमें आश्चर्य क्या कि इस क्रांति के विकास का अर्थ है समाज के परंपरागत विचारों से आमूल संबंध-विच्छेद।’’
इसप्रकार जाहिर है कि मार्क्सवाद के नाम पर जो यह समझते हैं कि वह शुद्ध पदार्थवाद है, वे शतप्रतिशत गलत है। यह तो पदार्थ कब, कैसे और क्यों कोई खास प्रकार का विनिमय-योग्य मूल्यवान रूप ग्रहण करता है, उस तंत्र के रूप की व्याख्या का सिद्धांत है। वैसे ही जैसे फ्रायड की विश्लेषण पद्धति स्वप्नों के पीछे के किसी सार-तत्व की तलाश की पद्धति नहीं है, बल्कि स्वप्नों के रहस्यमय, अतार्किक रूप के विश्लेषण की पद्धति है। पण्यों पर टिके सामाजिक संबंधों के रूप में भी कोरी अतार्किकताएं भरी हुई है, जिनका आकर्षण दुर्घटनाओं-संयोगों से बनने वाले मूल्यों के पैमानों पर आधारित कोरा रहस्य-रोमांच वाला आकर्षण है।

मार्क्स बताते हैं कि ‘‘पूंजी का परिचलन से उत्पन्न होना असंभव है और उसका परिचलन से बाहर भी जन्म लेना असंभव है। पूंजी का जन्म परिचलन के भीतर होते हुए भी उसके भीतर नहीं होना चाहिए।’’

यही है मालांधता का परिणाम। पण्यों की माया किसी सपने की माया से कम नहीं है, और जैसे फ्रायड अतार्किक स्वप्नों के लक्षणों के अध्ययन का एक पूरा शास्त्र गढ़ते हैं, मार्क्स ने बिल्कुल उसी प्रकार पूंजी के मूल चरित्र से बेखबर, इस मालांधता से पैदा होने वाले सामाजिक संबंधों और उसके सभी शास्त्रों के लक्षणों का अध्ययन किया था। लक्षण, अर्थात उसमें स्वाभाविक रूप से पड़ने वाली दरारें। मार्क्सवादी आलोचना दृष्टि किसी भी ढांचे की इन दरारों से उस पूरे ढांचे के दरकने की प्रक्रिया को और कैसे कोई ढांचा इन दरारों को पाटने में सक्षम होता है, उसे भी देखने की दृष्टि है। कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र जब कहता है कि ‘‘आधुनिक उद्योग का विकास पूंजीपति वर्ग के पैरों के नीचे से उस जमीन को ही खिसका देता है जिसके आधार पर वह उत्पादन करता है और पैदावार को हड़प लेता है। अत: पूंजीपति वर्ग अपनी कब्र खोदनेवालों को पैदा करता है।’’ किसी भी ढांचे या रूप के लक्षण एक ऐसी चीज है जो खुद अपने जन्मदाता को नष्ट करती है।

‘पण्य की जड़पूजा’, मालांधता के इस बेहद दिलचस्प किंतु सबसे उत्तेजक पहलू पर स्लावोय जिजेक की उस चर्चा को हम यहां लाना चाहेंगे जिसमें वे इसकी तुलना फ्रायड के विश्लेषण की पद्धति से करते हैं। आम तौर पर यह माना जाता है कि फ्रायड लक्षणों का अध्येता था। उसने उन्मादग्रस्त आदमी के सोच, उसके सपनों के विश्लेषण से उसके रोग के लक्षणों की खोज की पद्धति विकसित की थी। लेकिन जिजेक अपने प्रसिद्ध लेख, ‘कैसे मार्क्स ने लाक्षणिकता का आविष्कार किया?’ (How did Marx invent the Symptom) में बताते हैं कि लक्षणों की खोज के जिस क्षेत्र को आम तौर पर फ्रायड का क्षेत्र माना जाता है, मार्क्स ने उसके पहले ही किसी भी सामाजिक परिघटना के लक्षणों के अध्ययन की पद्धति विकसित कर ली थी। मार्क्स और फ्रायड की पद्धति में समानता यह है कि दोनों ही किसी भी रूप के पीछे छिपे सार-तत्व के अंध सम्मोहन से बचते हैं : अपने विश्लेषण से वे जिस ‘रहस्य’ पर से पर्दा उठाते हैं वह किसी रूप (पण्यों के रूप, स्वप्नों के रूप) की आड़ में छिपा हुआ सार-तत्व नहीं है, बल्कि इसके विपरीत, खुद इस ‘रूप का रहस्य’ है।

मार्क्स इस बात का विश्लेषण करते हैं कि आखिर वह कौन सा रहस्य है जिसके जरिये श्रम पण्य में मूल्य का रूप ग्रहण कर लेता है ; आखिर क्या बात है कि श्रम अपने उत्पाद के पण्य रूप में ही अपना सामाजिक चरित्र ग्रहण करता है। ठीक उसी प्रकार जैसे फ्रायड इस बात का विश्लेषण करते है कि आखिर क्यों कोई किसी स्वप्न का अंतर्निहित विचार एक स्वप्न की तरह का रूप धारण करके अपने को प्रकट करता है। जबकि न श्रम का मूल्य से कोई सीधा संबंध होता है, न सपने का उसके कथित ‘अन्तर्निहित विचार’ से।

आम तौर पर फ्रायड के सिद्धांत का जिक्र करते समय हमेशा सपनों के पीछे एक कामुकता की बात कही जाती है, जैसे मार्क्स के पण्य के पीछे श्रम की बात। इसी हवाले से फ्रायड की आलोचना भी होती है क्योंकि खुद उसीके अनेक परीक्षणों से यह कामुकता वाली बात साबित नहीं, बल्कि खारिज होती रही है।

इसी सिलसिले में जिजेक कहते हैं कि इस बात के लिये फ्रायड की आलोचना उनके बारे में एक बुनियादी सैद्धांतिक भूल पर टिकी हुई है। इसमें सपने के ‘अंतर्निहित विचार’ (latent thought) को सपने के पीछे काम कर रही अवचेतन की कामना मान कर, उसे सपने की पहचान मान लिया जाता है। जबकि फ्रायड हमेशा इस बात पर बल देते हैं कि इस अंतर्निहित विचार में ‘अवचेतन जैसा कुछ नहीं है’, यह पूरी तरह से एक ‘सामान्य’ विचार है, जिसे आसानी से रोजमर्रे की भाषा में व्यक्त किया जा सकता है, जो आदमी की चेतन/चेतन-पूर्व स्थिति है; आदमी उससे बखूबी परिचित होता है, बल्कि कहीं ज्यादा ही परिचित होता है क्योंकि वह उसे हमेशा पीडि़त किये रहती है। लेकिन खास बात यह है कि एक विशेष परिस्थिति, जैसे निद्रावस्था में, वह सामान्य विचार पृष्ठभूमि में, चेतना से बाहर फेंक दिया जाता है, अवचेतन में आ जाता है, अर्थात सपनों के निर्माण की निश्चित ‘प्राथमिक प्रक्रिया’ में पड़ कर ‘अवचेतन की भाषा’ में रूपांतरित होजाता है। इसलिए, सपना किसी ‘अन्तर्निहित सोच’ से नहीं, बल्कि सामान्य चेतना के विस्थापन, संक्षेपण, शब्दों या ध्वनियों के सार-तत्वों के आकृतियों में निरूपण की तरह की प्रक्रिया से निर्मित रूप होता है। यदि हम ‘सपने के रहस्य’ को उसके प्रकट रूप के अन्तर्निहित सार से खोलना चाहेंगे तो हमें सिवाय निराशा के कुछ भी हाथ नहीं लगेगा। और जो भी हाथ लगेगा वह बहुत ‘सामान्य’ सी बात होगी, अधिकांशत: ‘गैर-कामुक’ ; अवचेतन की तरह की बात तो कत्तई नहीं।

फ्रायड अपनी ‘स्वप्नों की व्याख्या’ (Interpretation of Dreams) में यह भी बताते हैं कि सपने की परिस्थिति में सामान्य विचार दब जाता है, अवचेतन की ओर भी नहीं जाता क्योंकि चेतन से अवचेतन का तार बीच में ही कहीं कट जाता है, और अवचेतन में पड़ी कोई दूसरी ही कामना उभर आती है, जिसका सपने के अंतर्निहित विचार से कोई संपर्क नहीं होता। विचारों की सामान्य श्रृंखला एक असामान्य मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया से, सपने की बुनावट की प्राथमिक प्रक्रिया से गुजरती है, और उसपर अवचेतन की कोई बचपन से दबी हुई कामना छा जाती है। इस अवचेतन की ‘कामुक कामना’ को कभी भी ‘विचारों की स्वाभाविक श्रृंखला’ में नहीं बदला जा सकता, क्योंकि वह बिल्कुल शुरू से ही नैसर्गिक तौर पर दमित है, उसका कोई मूल नहीं है, वह सपनों की बुनावट की ‘प्राथमिक प्रक्रिया’ के तंत्र में मौजूद है। सपने का विषय (अवचेतन की कामना) सिर्फ अपने को सपने के स्वरूप में ही व्यक्त करता है। और इस स्वरूप में यह अवचेतन तत्व इतनी तेज गति से प्रकट होता है कि चेतना में उसका रूप गड्ड-मड्ड, एक न सुलझाई जा सके, ऐसी पहेली बन जाता है।

इसी के आधार पर फ्रायड कहते हैं कि सबसे पहले तो हमें सपनों को अर्थहीन ऐसी परिघटना के रूप में देखना होगा जो कोई दमित संदेश प्रेषित कर रही है। सपने के रूप की व्याख्या के जरिये हमें उस संकेत को पकड़ना होगा। और दूसरा, हमें सपने के पीछे के ‘छिपे हुए अर्थ’, अर्थात सपने के स्वरूप के पीछे छिपे हुए सार-तत्व के प्रति मोह से मुक्त होना होगा और खुद उस रूप पर ध्यान देना होगा, ‘स्वप्न-स्वरूप’ में जिसे ‘अन्तर्निहित स्वप्न-विचार’ ने धारण किया है।

मार्क्स की पण्य और पण्य की जड़पूजा, मालांधता की दीर्घ चर्चा, पण्य के मूल्य के निर्धारण में गहरे तक बैठी सांयोगिकता अर्थात अतार्किकता की लंबी चर्चा के बाद, सपनों के रूप के बारे में फ्रायड के विचारों पर की गई इस चर्चा पर यदि हम गंभीरता से गौर करें तो इन दोनों में एक अनोखा साम्य दिखाई देगा।

मार्क्स ने भी फ्रायड की तरह ही सबसे पहले पण्य के रहस्यमय रूप को तोड़ते हुए देखा कि उसका मूल्य बिल्कुल मनमाने ढंग से, कामचलाऊ आधार पर, सांयोगिक और सापेक्ष होता है। उसका कोई तार्किक पैमाना नहीं होता। वे पण्यों के मूल्य के रहस्य को भेदते हैं। लेकिन देखते हैं कि इस संयोग के तत्व को जान लेने भर से उस पद्धति को नहीं बदला जा सकता है जिसके जरिये श्रम-समय के मूल्य का निर्धारण किया जाता है। अर्थात, ‘‘मूल्य के परिमाण का श्रम-काल द्वारा निर्धारित होना एक ऐसा रहस्य है जो पण्यों के सापेक्ष मूल्यों के प्रकट उतार-चढ़ाव के नीचे छिपा रहता है। इससे यह तो पता लग जाता है कि श्रम से उत्पन्न होने वाली वस्तुओं के मूल्यों के परिमाण केवल सांयोगिक ढंग से निर्धारित होते हैं, लेकिन इससे इस निर्धारित होने के ढंग में कोई तब्दीली नहीं आती।’’

मार्क्स कहते हैं कि इस रहस्य को भेदना ही यथेष्ट नहीं है। इसके बाद भी बहुत कुछ बचा रह जाता है। पूंजीवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र पण्य-रूप के रहस्य को तो भेद लेता है, लेकिन उसकी सीमा यह है कि वह अपने को पण्य-रूप के रहस्य के सम्मोहन से मुक्त नहीं कर पाता है। उसका ध्यान संपत्ति के स्रोत, श्रम पर अटका रह जाता है। वह पण्य-रूप के पीछे छिपे सार-तत्व को जानने में तो दिलचस्पी रखता है लेकिन स्वयं इस रूप के अपने रहस्य की व्याख्या नहीं कर पाता। यह वैसी ही एक पहेली बना रहता है, जैसे कोई सपना बना रहता है। सपने के अन्तर्निहित विचार को जान लेने पर भी हमारे लिये सपना एक सपना ही रहता है, मस्तिष्क में उभरने वाले अक्शों का एक ऐसा असंलग्न, अतार्किक रूप जिसकी कोई व्याख्या नहीं है। असल प्रश्न यही है कि क्यों कोई विचार अपने लिए इसप्रकार के रूप का आवरण ग्रहण करता है?

मार्क्स पूछते हैं कि ‘‘जैसेे ही कोई श्रम पण्य का रूप धारण करता है, क्या तभी श्रम का फल एक रहस्यमय रूप धारण नहीं कर लेता ? क्लासिकल राजनीतिक अर्थशास्त्र की सबसे बड़ी कमजोरी यही है कि वह रूप के उद्भव की इस प्रक्रिया पर ध्यान नहीं दे पाता है। ...उसने एक बार भी यह सवाल नहीं किया कि इस कथ्य ने यह खास रूप क्यों ग्रहण किया, अर्थात क्यों श्रम मूल्य से अभिव्यक्त होता है और क्यों श्रम का उसके समय के जरिये माप उत्पाद के मूल्य के परिमाण में व्यक्त होता है ?’’

स्लावोय जिजेक कहते हैं कि वैसे तो पण्य-रूप का मार्क्सवादी विश्लेषण एक आर्थिक विषय है, लेकिन इसने समाजवैज्ञानिकों, दार्शनिकों, कला इतिहासकारों की पीढि़यों पर गहरा प्रभाव डाला है। इसकी वजह यह है कि यह हमें एक ऐसा यंत्र प्रदान करता है जो ‘जड़पूजा’ या ‘अंधता’ में उलट-पुलट दिखाई देने वाले यथार्थ के सभी रूपों को साक्षात करने में हमें समर्थ बनाता है। यह कुछ ऐसा है जैसे पण्य-रूप की द्वंद्वात्मकता परिशुद्ध रूप में हमारे सामने उस प्रक्रिया का एक संस्करण पेश कर दें जिससे उन सभी परिघटनाओं के बारे में सैद्धांतिक समझ कायम करने की कुंजी मिल जाएं जिनका पहली नजर में राजनीतिक अर्थशास्त्र के क्षेत्र से सीधा कोई संबंध नहीं है, जैसे कानून, धर्म आदि। जाहिर है साहित्य भी एक ऐसा ही क्षेत्र है। इसप्रकार, जिजेक के शब्दों में ‘‘पण्य-रूप में खुद पण्य-रूप से कहीं ज्यादा तात्पर्य निहित है और यह ‘ज्यादा’ ही उसमें एक सम्मोहक आकर्षण पैदा करता है।’’

विनोद जी अपनी टिप्पणी में फ्रैंकफर्ट स्कूल के विद्वानों का जिक्र करते हैं। जिजेक ने भी इसी बिंदु पर फ्रैंकफर्ट स्कूल के फेलो ट्रैवलर्स जोन रैथल को उद्धृत किया है :
‘‘पण्य का बाकायदा विश्लेषण सिर्फ राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना की कुंजी नहीं है, बल्कि यह अमूर्त अवधारणामूलक चिंतन की पद्धति और उसके साथ ही पैदा हुए बौद्धिक और कायिक श्रम के बीच विभाजन की भी ऐतिहासिक व्याख्या प्रदान करता है।’’

जिजेक कहते है : उनके अनुसार, ‘‘दूसरे शब्दों में, पण्य-रूप के ढांचे में अनुभवातीत विषय का संधान संभव है। पण्य-रूप कांट के अनुभवातीत विषय की शरीर-रचना, उसके पंजर को पहले ही प्रस्तुत कर देता है - अर्थात अनुभवातीत श्रेणियों के उस संजाल को जिससे ‘वस्तुनिष्ठ’ वैज्ञानिक ज्ञान का एक पूर्व-ढांचा तैयार होता है। पण्य-रूप की यह विडंबना है कि यह अंतर-जगत की व्याधिमूलक परिघटना (pathological phenomenon) हमें ज्ञान के सिद्धांत के मूलभूत सवाल के समाधान की कुंजी देती है : वह वस्तुनिष्ठ ज्ञान जो सर्वकालिक महत्व का है।’’ जिजेक पूछते है - ‘यह कैसे संभव है ?’

रैथल के दर्शनशास्त्रीय चिंतन के इसी गड़बड़झाले की छानबीन करते हुए द्रव्य आदि की व्याख्या के बाद अंत में जिजेक मार्क्स के हवालों से ही दिखाते हैं कि जीवन के तमाम व्यापारों में मनुष्य एक व्यवहारिक अहंवादी (practical solipist), जीवन को मिथ्या समझने वाले व्यक्ति की ही भूमिका अदा करता है। वह तमाम विनिमयों में तर्क को दरकिनार करके चलता है। आदमी अपने लक्षणों को तभी भोग सकता है जब वह उसके तर्क को नहीं समझता।

इसीप्रकार आस्था का प्रश्न भी हमारी प्रभावी सामाजिक गतिविधियों में मूर्त होता है। मार्क्स की पूंजी में मुहावरे की तरह कहन के इस ढंग का बार-बार प्रयोग होता है कि ‘वह नहीं जानता, वह क्या कर रहा है’। कहना न होगा, पण्य की जड़पूजा अमूर्तताओं के जगत में व्याप्त अतार्किकता का पार्थिव आधार है। वह किसी ‘ईश्वरीय उपनिषद’ की देन नहीं है, मूलत: इसी व्यवहार जगत की उपज है।

इन सामाजिक और साहित्यिक-सांस्कृतिक लक्षणों के बल पर ही हम यह देख पाते हैं कि कैसे और किन परिस्थितियों में कोई अदना सा लेखक साहित्य जगत के ‘महापौर’ का रूप धारण कर लेता है। कैसे ‘साहित्य की स्वायत्तता’ की खुशफहमी साहित्य क्षेत्र की व्याधिमूलक परिघटना, उसके लक्षणों की उपज है। यही है, सारे तर्कों को दरकिनार कर साहित्य क्षेत्र में विनिमय के उपभोग का एक व्यवहारिक अहंवादी (practical solipist) तरीका।

यह तो है महापौर की प्रतिमा में जड़ीभूत परम तत्व की सूक्ष्म सिद्धांत चर्चा । यह इसलिये क्योंकि इस प्रतिमा के स्थूल रूप, इसके अंग-प्रत्यंग के ठोस वर्णन में अश्लीलता के ख़तरे तमाम हैं । फिर भी विनोद शाही जी को इस महापौर की निर्मिति में किये गये व्यय की ही अगर थाह पानी हो तो सिर्फ 'जगह' (सं. पीयूष दईया) और 'संसार का गुणगान' (सं.राजेंद्र मिश्र) शीर्षक अशोक वाजपेयी पर दो प्रशस्ति ग्रंथों को थोड़ी सी सजगता से देख लें  । दरबार के तमाम नवरत्नों और मनसबदारों को बादशाह की इबादत में सिर झुकाये एक क़तार में यहाँ जिस प्रकार खड़ा किया गया है, वह अरबों रुपये के सरकारी व्यय से 'लिफ़्ट पकड़ने के लिये हांफती साँसों' के कवि-कायांतर की पूरी कहानी के सूत्र थमा देते हैं । पहले पियूष दईया के ज़रिये अपनी मूर्ति की स्थापना की और दरबारियों को उनके सही स्थानों पर हमेशा के लिए साट देने की 'जगह ' बनाई और फिर कुछ नये- कुछ पुराने प्रशस्ति-पत्रों के ज़रिये आरती से मूर्ति में प्राण-प्रतिष्ठा कर सबके लिये गणेश परिक्रमा से 'संसार (यानी अशोक वाजपेयी) का गुणगान' के कीर्तन का स्थायी प्रबंध किया गया ! दशकों तक भारत सरकार और एक राज्य सरकार के संस्कृति और शिक्षा मंत्रालयों में बेख़ौफ़ चले conflict of interests वाले पहाड़ समान भ्रष्टाचार की निर्मितियों की इस कहानी की विडंबना यह है कि इनको खोदने पर अंत में हासिल एक चूहा ही होता है । यही है - 'स्वघोषित महापौर कि विडंबना' ! और, प्रशस्तिकारों में 'व्यवहार के विभ्रम' की विडंबना ! - जिस पर ऊपर काफ़ी चर्चा हुई है । इस संदर्भ को और भी जानना हो तो रमेश चंद्र शाह के नाम मलयज के पत्रों के संकलन ' रंग अभी गीले हैं ' के लगभग हर पृष्ठ में आए अशोक जी के उल्लेखों को देख लीजिए । 'धुरी- विहीन' बौद्धिक ।  ''शासन को ऐसे लोग ही चाहिए । जैसे संतों में विनोबा, मास्टरों में नामवर सिंह, वैसे ही दफ्तरशाहों में अशोक वाजपेयी '' । जब केदारनाथ सिंह को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला तो अशोक जी बुदबुदाये थे - अरे! यह चंद घोड़ों का मनसबदार चक्रवर्ती सम्राट बन गया ! 'इतना बड़ा तो यह न था !' 

कम्युनिस्ट घोषणापत्र में एक बड़ा अध्याय है ‘प्रतिक्रियावादी समाजवाद’ पर। इसमें ‘काल्पनिक समाजवादियों’ की सबसे बड़ी कमजोरी यही बताया गया है कि वे किसी न किसी रूप में यह विश्वास करते हैं कि एक ऐसा समाज बनाना संभव है जिसमें विनिमय के संबंध होंगे, बाजार के लिए उत्पादन होगा लेकिन उत्पादन के साधनों का मालिक और कोई नहीं खुद मजदूर होगा ‘ताकि उनका शोषण न होने पायें’। अर्थात वे एक ऐसी सर्वकालिक (universal) व्यवस्था का बनना संभव समझते हैं जिसमें कहीं किसी दरार के लक्षण नहीं होंगे, जो उस ढांचे को बिखेरने की भूमिका अदा करते हो।

मार्क्सवादी विश्लेषण पद्धति हमें सामाजिक लक्षणों की तरह ही सभी अधिरचना से जुड़े क्षेत्रों के लक्षणों की जांच के भी औजार प्रदान करती है, जैसा कि हमने मालांधता के मामले में देखा ; जैसा फ्रायड सपनों के रूप से मनोरोगों के लक्षणों की सिनाख्त की एक पद्धति तैयार करते हैं। हमारे अनुसार, साहित्य की मार्क्सवादी आलोचना की यही भूमिका हो सकती है, कथित साहित्य-संसार के स्वरूप के लक्षणों की पहचान कराना। वर्ना सारी भाव-भंगिमाओं के बावजूद आलोचना की दशा उन्हीं सामंती समाजवादियों की तरह की होगी जिनका ‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र’ में खींचा गया यह चित्र बेहद संकेतपूर्ण है :

‘‘फ्रांस और इंगलैंड के अभिजातों की ऐतिहासिक स्थिति ऐसी थी कि आधुनिक पूंजीवादी समाज के खिलाफ पैंफ्लेट लिखना उनका पेशा बन गया। ...सामंती समाजवाद की उत्पत्ति इसी तरह हुई : कुछ रोना-धोना, कुछ व्यंग्यात्मक तीर चलाना, कुछ अतीत को प्रतिध्वनित करना, कुछ भविष्य का भय दिखाना ; कभी-कभी अपनी कटु व्यंग्यपूर्ण और पैनी आलोचना द्वारा पूंजीपतियों के मर्म-स्थल को चोट पहुंचाना ; किंतु आधुनिक इतिहास की प्रगति को हृदयंगम करने में अपनी संपूर्ण असमर्थता के कारण अपने प्रभाव में सदा हास्यास्पद रह जाना।
‘‘जनता को अपनी तरफ करने के लिए इन अमीर-उमरा ने सर्वहारा वर्ग की भीख की झोली को अपना झंडा बनाया। लेकिन जब-जब जनता उनके साथ हुई, उसने देखा कि उनके कूल्हों पर अभिजातों के वंश चिन्हों के ठप्पे लगे हुए हैं, और वह हंसी के जोरदार ठहाकों से उनका अपमान करती हुई उन्हें छोड़ कर चल दी।’’


इस लेख के प्रारंभ में हमने मार्क्स-एंगेल्स के जो चंद उद्धरण दिये थे, इस लंबी चर्चा के बीच से उनके मर्म की बातें, ‘चिंतन के दायरे’, ‘नकाब’ और ‘मिथ्या चेतना’ की बातें, जरूर साफ होगई होगी। और जहां तक बिनोद शाही जी की ‘ईश्वर के प्रतीकार्थों’ वाली बात है, उसका बहुत कुछ तो इस बुनियादी ‘जड़पूजा’ चर्चा से स्पष्ट हो जाना चाहिए। इसके अलावा, इसी लेखक ने धर्म के बारे में मार्क्स के विचारों पर एक लंबा लेख लिखा है जो हाल में प्रकाशित पुस्तक ‘धर्म, संस्कृति और राजनीति’ में संकलित है, उस पर भी एक नजर डाली जा सकती है।

इतने सबके बाद भी यदि ‘स्वायत्तता’ का घटाटोप अपनी जगह कायम रहता है तो हम अपनी बात का अंत छांदोग्य उपनिषद की इंद्र और विरेचन की उस कहानी से करेंगे जिसके शुरू में प्रजापति कहते हैं,

‘‘आत्मा जो पापरहित है, अजर अमर है, दुख, बुभुक्षा, तृष्णारहित है, जिसका लक्ष्य और आदर्श परम सत्य है, उसीकी खोज की जानी चाहिए। उसी का बोध प्राप्त करने की इच्छा होनी चाहिए। जिसे आत्मा का बोध होगया, वह सभी लोकों और इच्छाओं को पागया।
देवों और असुरों दोनों ने इसे सुना फिर उन्होंने कहा : ‘आओ हम उस आत्मा को खोजे, जिसके बोध से मनुष्य सब लोकों और इच्छाओं को प्राप्त कर लेता है।’
देवताओं में से इंद्र और असुरों में से विरेचन प्रजापति के पास गए। दोनों ने इस पवित्र ज्ञान को प्राप्त करने के लिए बत्तीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन किया।
तब प्रजापति ने दोनों से पूछा, ‘आप लोग कौन सी इच्छा को लेकर जी रहे हैं। दोनों ने बताया वे किस प्रकार की आत्मा की प्राप्ति की इच्छा के लिए जी रहे हैं।
तब प्रजापति ने इन दोनों को कहा : वह जो आंखों में दृष्टिगोचर है, वही आत्मा है जिसके संबंध में मैंने कहा है। वही अमर और भयरहित है। वही ब्रह्म है।
‘किंतु भगवन! जिसे हम जल और दर्पण में देखते हैं वह कौन है?
‘वस्तुत: वही इन सबमें दृष्टिगोचर है’, प्रजापति ने कहा। ‘जल के पात्र में देखो। आत्मा के बारे में तुम जो कुछ नहीं समझ पाते मुझे बताओ।’
तब दोनों ने जल के पात्र में देखा।
फिर प्रजापति ने उनसे कहा :‘तुम्हें क्या दिखाई दे रहा है?’
तब दोनों ने कहा : प्रभु हमें इसमें सब कुछ दिखाई दे रहा है। एक ऐसी आत्मा जो ठीक हम जैसी है। यहां तक कि बाल और नाखून भी हमारे जैसे ही है’।
तब प्रजापति ने उन दोनों से कहा : ‘तुम लोग स्वयं को आभूषणों एवं सुंदर वस्त्रों से अलंकृत करो और फिर जल के पात्र में देखो।’
तब दोनों ने अपने आप को सुंदर वस्त्रों और आभूषणों से सुसज्जित किया और जल के पात्र में देखा।
तब प्रजापति ने उनसे पूछा : ‘ आप लोगों को क्या दिखाई दे रहा है?’
दोनों ने उत्तर दिया : ‘ठीक वैसा ही जैसे कि हम हैं प्रभु, आभूषणों और वस्त्रों से सुसज्जित।’
‘वही आत्मा है’, प्रजापति ने कहा। अमर और भयरहित है, वही ब्रह्म है।’
तब शांत हृदय के साथ उन दोनों ने प्रस्थान किया।
प्रजापति ने उन्हें जाते हुए देखा और कहा : ‘वे दोनों बिना कुछ समझे और आत्मा को जाने लौट रहे हैं। जिस किसी के पास भी वह उपनिषद होगा चाहे वे देव हो या असुर, उनका विनाश हो जायेगा।
तब विरोचन शांत हृदय के साथ असुरों के पास आया। उसने उन्हें इस उपनिषद के बारे में बताया : ‘स्वआत्मा को इसी पृथ्वी पर सुखी बनाना है। इसी की सेवा करनी है। जो अपनी आत्मा को इस पृथ्वी पर सुखी बनाता है जो उसकी सेवा करता है उसे दोनों लोक प्राप्त होते हैं।’
इसीलिए आज भी इस पृथ्वी पर उसके संबंधी उस व्यक्ति को अश्रद्धावान कहते हैं जो दाता नहीं है, जिसकी आस्था नहीं है जो यज्ञ नहीं करता, यही असुरों का उपनिषद है। वे मृतक के शरीर को भिक्षा में प्राप्त वस्त्रों तथा आभूषणों से सजाते हैं और इस बात को मानते हैं कि इससे वे दूसरा लोक भी जीत लेंगे।’’ ( देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय, लोकायत, मैकमिलन, हिंदी संस्करण, पृष्ठ: 35-37)

अंत में, चारों वेदों के चार महामंत्र, ब्रह्मवाक्यों, तत्वमसी के घटाटोप को नमस्कार !

हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन
दिल के बहलाने को गालिब ख्याल अच्छा है।





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